THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, March 26, 2012

अधूरी बहस, लावारिस मुद्दों का नाम है पान सिंह तोमर!

http://mohallalive.com/2012/03/27/excalibur-stevens-biswas-on-paan-singh-tomar/

 आमुखसिनेमा

अधूरी बहस, लावारिस मुद्दों का नाम है पान सिंह तोमर!

27 MARCH 2012 NO COMMENT

♦ एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास

पान सिंह तोमर हमारे लिए महज एक फिल्म नहीं है। हमारी पीढ़ी के काल्पनिक जगत में हकीकत का जबर्दस्त हस्तक्षेप है। मेरा घर बसंतीपुर उत्तराखंड तराई में पंतनगर विश्वविद्यालय से महज सात किमी दूर है। वहां हमें रहने का कोई मौका नहीं मिला। मेरा जन्म मेरठ में हुआ, जिसे मैंने पांच साल की उम्र में ही छोड़ दिया। अब मैं मायानगरी में हूं। मेरा गांव मेरे लिए चंबल के बीहड़ से कम अजनबी नहीं है। तिग्मांशु धूलिया निर्देशित पान सिंह तोमर की बॉक्स आफिस पर मजेदार दौड़ रही। इस समय बॉक्स ऑफिस पर इसी फिल्म का राज चल रहा है। अल्प बजट में बनी इरफान खान की इस फिल्म को बॉलीवुड के अमिताभ बच्चन ने भी काफी पसंद किया, सिनेमाई व्यावसायियों का मानना है कि अभी यह फिल्म काफी दौड़ लगाने वाली है। इस फिल्म को अब टैक्स फ्री करने के लिए सरकार से अपील की गयी है।

यह फिल्म मध्य प्रदेश के एक छोटे से शहर से ताल्लुक रखने वाले पान सिंह तोमर के इर्द-गिर्द घूमती है। सिनेमा एक बार फिर समाज को आईना दिखाने आया है। 'पान सिंह तोमर' ने साबित कर दिया कि फिल्म की सफलता महंगे प्रमोशनल इवेंट्स व तामझाम की मोहताज नहीं होती। फिल्म 'पान सिंह तोमर' एक धावक की जिंदगी पर आधारित है, जो बाद में डकैत बन जाता है और चंबल की वादियों में अपना एक गिरोह स्थापित करता है। प्रतिभाशाली कलाकार इरफान खान पान सिंह तोमर के चुनौतीपूर्ण किरदार को निभा रहे हैं।

बॉक्‍स आफिस का हिसाब कारोबारी बात है। धूलिया पहाड़ के हैं। इस फिल्म से जुड़ी सनोबर खान से हमारे पारिवारिक रिश्ते हैं। यह बात भी शायद उतनी महत्वपूर्ण नहीं है। बीहड़ के बागियों पर यह कोई पहली फिल्म नहीं है। राजकपूर निर्देशित जिस देश में गंगा बहती है जैसी फिल्म के बाद बॉलीवुड में बीहड़ पर बनी हिट और फ्लॉप फिल्मों का लंबा सिलसिला है। शेखर कपूर निर्देशित बैंडिट क्वीन की बात ही करें, जिसका कथानक ​​फूलन देवी के इर्दगिर्द बुना गया था। पर पान सिंह तोमर की पहचान कुछ अलग ही है। सेल्युलायड पर धारावी की कठोर वास्तविकता को फिल्मों में दिल और दिमाग से महसूस किया गया। स्लमडॉग मिलेनियर को तो आस्कर पुरस्कारों से भी नवाजा गया। पर इन सभी फिल्मों की बुनियाद में रोमांस और कल्पना की जो परतें थीं, पान सिंह तोमर ने उसे बुरी तरह बेपर्दा कर दिया। हम जिस शाइनिंग इंडिया, वर्चुअल वर्ल्ड और सेंसेक्स खुली अर्थ व्यवस्था में जीते हैं, उसके मुकाबले पान सिंह तोमर हमें झटके के साथ जड़ों से कटी हमारी पीढ़ी को असली भारत की सरजमीं पर खड़ा कर देता है। तिमांग्शु, सनोबर और इरफान खान समेत पूरी फिल्‍म यूनिट की करामात यही है। हम अपने अपने बीहड़ की निर्ममता के बीच अपने को मोहभंग की चरम परिणति में फंसे महसूस करते हैं। तब हमें जड़ों की याद सताती है। अपने जल, जंगल और जमीन, पहाड़ और तराई, मरुस्थल और खोयी हुई घाटियों, पिघलते ग्लेशियरों के बीचोंबीच एक हकीकत का सामना करना होता है। जहां पीढ़ियों का भुलाया हुआ अतीत हमारे सामने होता है। इस फिल्म का नाम पान सिंह तोमर न होकर मेरे दादाजी दिवंगत शरणार्थी नेता पुलिन बाबू भी होता, तो भी शायद उसी एहसास से गुजरना होता।​
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​तिमांग्शु अब इस कामयाबी के बाद बड़े निर्देशक हो गये हैं। वे नयी फिल्म में जुट गये हैं। सनोबर भी व्यस्त हो गयी हैं। इरफान तो वैसे भी व्यस्त कलाकार हैं। इस फिल्म यूनिट से मुखातिब हो पाना एक फ्रीलांसर पत्रकार के लिए थोड़ा मुश्किल है। वैसे भी इस फिल्म की बहुत चर्चा हो चुकी है। सभी अखबारों ने थोक के भाव से इंटरव्यू छाप दिये हैं। पर प्रोमो, कारोबार, बॉक्‍स आफिस से परे कुछ सवाल अब भी अनुत्तरित रह गये हैं। पीपली लाइव में नत्‍थू के हादसे के बाद गायब हो जाने के बाद मीडिया द्वारा फिर नये सिरे से लावारिस छोड़ दिये गये गांव की तरह। मारी गयी फूलन देवी के वास्तव की तरह। क्या पान सिंह तोमर को मोक्ष हासिल हो गया है? फिर क्या वह इस भारत में इस चंबल में पहले एथलीट और फिर बागी होते रहने के अभिशाप से मुक्त हो गया है? यह सवाल मेरे शरणार्थी दादा या जिस पहाड़ से निर्देशक तिमांग्शु जुड़े हैं, उसके लिए भी उतना ही मौजूं है। नदियों की तरह पहाड़ से निकल कर मैदानों में खो जाने की नियति क्या बदलेगी? संदिग्ध नागरिकता, नागरिक और मानव अधिकारों से वंचित शरणार्थी जीवन क्या मेरे दादा के जीवनकाल में तराई के घाधी और मृत्यु के बाद स्टेच्यु बन जाने से बदल जाएगी?

पान सिंह तोमर सेना में भर्ती हुए और एक दिन स्टीपलचेज दौड़ में राष्ट्रीय रिकॉर्डधारी बने। लेकिन जब अपने गांव लौटे, तो उनकी जमीन पर चचेरे भाई ने कब्जा कर लिया था। फिल्म की कहानी एथलीट पान सिंह तोमर (इरफान खान) के जीवन पर आधारित है, जो एक फौजी है और अपने खाने-पीने के शौक के कारण फौज के फिजिकल ट्रेनिंग सेक्शन में शिफ्ट कर दिया जाता है। वहां अपनी बेजोड़ क्षमता और लगन की बदौलत स्टेपलचेज (लंबी बाधा दौड़) में पान सिंह अपने कोच और ऑफिसर का ध्यान अपनी ओर खींचता है। मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के भिंड से ताल्लुक रखने वाला पान सिंह धीरे-धीरे लोगों का चहेता बनता जाता है। उसका चयन 1958 में टोक्यो के एशियन गेम्स के लिए हो जाता है, जहां अचानक मिले बढ़िया जूते पहनने से उसे दिक्कत होती है और वह रेस हार जाता है। लेकिन रेस के बीच में वह जूतों को उतार कर फेंक देता है, नंगे पांव ही रेस को जीतने की कोशिश करता है और दूसरे नंबर पर आ जाता है।

क्या फिल्म रिलीज हो जाने के बाद मायानगरी की चकाचौंध में लौटी यूनिट से पीछे छूट गये बीहड़ और पान सिंह के बार बार पुनर्जन्म की हकीकत में कोई बदलाव आएगा, अभी इस पर हमने कायदे से बहस शुरू ही नहीं की है। महज दर्शक की औकात में बने रहकर और समीक्षक आलोचक की ऊंचाइयों से ऐसी बहस कर पाना नामुमकिन है। तदर्थ देश दुनिया में निष्णात मीडिया के लिए भी पीछे छूटते संसार के गमों से सरोकार रखना मुश्किल है। खबरें अखबार के बासी होने से पहले मर जरूर जाती हैं, पर मुद्दे वहीं के वहीं छोड़ दिये जाते हैं। अगर मंझधार में छोड़ दिये गये देश, देहात, ​​जंगल, पहाड़ और निनाब्वे फीसद लोगों की तरह मुद्दों को भी लावारिस मौत मरने के लिए न छोड़ें तो आनंद पटवर्धन की तर्ज पर जय भीम कामरेड कहने की नौबत नहीं आये। पान सिंह तोमर जैसी फिल्‍म की कसौटी इन मुद्दों की जिंदगी से जुड़ी है। देश के लिए जी-जान लगा देने वाले अनेक खिलाड़ियों का भविष्य खेल जगत से हटने के बाद सरकार की उपेक्षा की वजह से किस बुरी दशा में पहुंच सकता है, इसे थीम लाइन बनाकर तिग्मांशु धूलिया के डायरेक्शन में बनी पान सिंह तोमर ना चाहकर भी खिलाड़ियों के बारे में सोचने पर विवश करती है।

पान सिंह तोमर को 2010 के ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट लंदन फिल्म समारोह में दिखाया गया था। इसे 2 मार्च 2012 को रिलीज किया गया। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे और क्यों एक रिकॉर्डधारी एथलीट बागी और फिर डाकू बनता है। मसाला नहीं। आइटम सांग नहीं। हीरो-हीरोइन के अश्लील संवाद भी नहीं। यहां तक कि सिंगल सांग भी नहीं। फिर भी अदाकारी, पटकथा, प्रोडक्शन, डायरेक्शन सब कुछ बेहतरीन।

चंबल इलाके से ताल्लुक रखने वाले पान सिंह तोमर की जिंदगी में बदलाव तब आता है, जब वह फौज छोड़ कर अपने गांव आता है। उसकी जमीन पर जबरिया उसके चचेरे रिश्तेदार कब्जा कर लेते हैं और वह उनसे लड़ाई करने की जगह पुलिस में रिपोर्ट लिखाने के लिए चला जाता है। वहां पर वह अपने नेशनल मेडल वगैरह दिखाकर पुलिस से मदद की गुहार करता है, लेकिन पुलिस के सहायता न करने पर मजबूरन उसे हथियार उठाना पड़ता है।

इस सारी कवायद को तिग्मांशु धूलिया ने बहुत ही संजीदगी से 70 एमएम स्क्रीन पर उतारा है। साहब, बीबी और गैंगस्टर जैसी मूवी में बतौर प्रोडयूसर भी हाथ आजमा चुके तिग्मांशु फिल्म प्रोडक्शन के हर क्षेत्र में सफलता हासिल कर चुके हैं। पान सिंह तोमर की कहानी पर्दे पर जीवंत कर देने के साथ ही तिग्मांशु ने खिलाड़ियों की उपेक्षा और संसाधनों की कमी जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों को पूरे संवेदनशीलता के साथ उकेरा है और इसमें उनका पूरा साथ दिया है, इरफान खान की बेजोड़ अदाकारी ने। इरफान ने अपनी आवाज और चेहरे के हावभावों से पान सिंह तोमर के कैरेक्टर में जान फूंक दी है। जिस इरफान खान को फिल्मों में कामयाबी देर से मिली, वही इरफान आज इंटरनेशनल एक्टर के रूप में पहचाने जाते हैं। जितना अपना उनके लिए बॉलीवुड है, उतना ही हॉलीवुड है।

यह जानकर सुकून मिला है कि एथलीट से डाकू बने पान सिंह तोमर के जीवन पर आधारित फिल्म का निर्माण करने वाली पूरी टीम ने फिल्म से शिक्षा ली है। फिल्म ने उन्हें अपने सामाजिक दायित्वों का एहसास दिलाया है। फिल्म के निर्माताओं ने संन्यास ले चुके एथलीटों और खिलाड़ियों के लिए न्यास स्थापित करने का मन बनाया है। इस पहल की जितनी तारीफ की जाये, कम है। पर इससे न तो पान सिंह तोमर की समस्या खत्म होती है और न मुद्दे संबोधित होते हैं। न पीछे छूटा बीहड़ का इससे कुछ बदलने वाला है। फिल्म यूनिट ही नहीं, बाकी देश, बाकी दुनिया के पान सिंह तोमर के जीवन को पलट देने के संकल्प की जरूरत है।

तिग्‍मांशु धूलिया ने देश में पूर्व एथलीटों की स्थिति पर दुख प्रकट किया। उन्होंने कहा, "हर कोई मिल्खा सिंह जितना किस्मत वाला नहीं होता। हम बहुत सारे एथलीटों और खिलाड़ियों से मिले, जो या तो गरीबी के कारण मर चुके हैं या दयनीय जीवन जीने को मजबूर हैं।" गौरतलब है कि ओलंपिक में हॉकी में चार बार स्वर्ण पदक जीतने वाले शंकर लक्ष्मण की चिकित्सा के अभाव में मौत हो गयी थी। 1952 ओलंपिक कांस्य पदक विजेता केडी यादव की भी गरीबी ने जान ले ली थी। वहीं 1954 में एशियन खेलों में सोना जीतने वाले सरवन सिंह को पैसे के लिए अपना पदक बेचना पड़ा था। धूलिया ने कहा, "एशियन खेलों के स्वर्ण पदक विजेता प्रदुमन सिंह की दरिद्रता की वजह से मौत हो गयी थी। इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, हम ऐसे लोगों की मदद करना चाहते हैं।" उन्होंने कहा कि महानायक अमिताभ बच्चन ने भी 'पान सिंह तोमर' देखकर देश में एथलीटों की स्थिति पर चिंता जाहिर की है।

(एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास। स्‍वतंत्र पत्रकार। इतिहास और सामाजिक आंदोलनों में रुचि। ब्‍लॉग लिखते हैं और मुंबई में रहते हैं। उनसे xcalliber_steve_biswas@yahoo.co.in पर संपर्क किया जा सकता है।)


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