THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Wednesday, May 2, 2012

संबंधों की संस्कृति

संबंधों की संस्कृति


uesday, 01 May 2012 10:33

शंकर शरण 
जनसत्ता 1 मई, 2012: भारतीय परंपरा संबंधों में समृद्ध है। पश्चिम के सीमित अंकल, आंट, ग्रैंड-फादर और कजिन की तुलना में यहां चाचा, मामा, फूफा, मौसा, दादा, नाना, गोतिया, और चेचेरे, ममेरे, फुफेरे भाई-बहन, आदि विविध संबंधों की विस्तृत दुनिया है। इनमें कुछ से जुडे पर्व-त्योहार भी हैं। परिवार का दायरा बड़ा और बहुविध नातों, कर्तव्यों से जुड़ा है। परिवार से भी आगे कुटुंब की धारणा है। मैत्री संबंध भी उसमें आता है, जिसका अत्यंत विशिष्ट स्थान रहा है। लेकिन स्त्री-पुरुष मैत्री जैसा संबंध हमारी परंपरा में नहीं है। पत्नी के अतिरिक्तसभी स्त्रियों से माता, बहन या बेटी सदृश व्यवहार की मान्यता रही है। इसे स्त्रियों को पुरुषों के अधीन बता कर हीन ठहराना एक पश्चिमी दुराग्रह है, जो परिवार और कुटुंब की मूल्यवत्ता के बारे में नासमझी से बनता है। टॉल्सटॉय से लेकर टैगोर तक अनेक मनीषियों ने यह कहा है, लेकिन इसे विषयांतर मान यहीं छोड़ें। 
बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड की धारणा यूरोप से आई है। वहां भी यह 'कोर्टशिप' या 'डेटिंग' का विकृत रूप ही है। कोर्टशिप दो अविवाहित- लड़की और लड़के- के उस मेल-जोल को कहा जाता था, जिससे वे भावी जीवनसाथी के रूप में एक दूसरे को देख-परख सकें। यह मर्यादित होता था, जिसमें लड़की के माता-पिता की अनुमति भी ली जाती थी। वही डेटिंग भ्रष्ट होकर बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड के चालू संबंध में तब्दील हो गई है। यह कहने को ही मैत्री है, इसमें सेक्स संबंध लगभग अनिवार्यत: जुड़ा हुआ है। 
हॉलीवुड की असंख्य फिल्में इसके सभी रूपों का दर्शन कराती हैं। उन सब रूपों में बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड संबंध मुख्यत: विपरीत सेक्स के आकर्षण और तदनुरूप कमोबेश अंतरंग व्यवहार से जुड़ा मिलता है। स्कूल-कॉलेज संबंधी दृश्यों में बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड का अर्थ असंदिग्ध रूप से यही दिखता है कि यह बिना विवाह के विचार के अस्थायी काम-तृप्ति का संबंध है। यह केवल छूने, चूमने, अठखेलियां करने तक सीमित रह सकता है, मगर है यह वही चीज। यह उस भाषा और जुमलों से भी स्पष्ट होता है, जिसका व्यवहार बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड के बीच और उनकी चर्चा में होता है।  
वैसे भी, पश्चिम में किसी अविवाहित लड़की या स्वतंत्र स्त्री के प्रति किसी पुरुष की प्रशंसा (कॉम्प्लीमेंट) को सेक्स-भाव से बाहर रखने का चलन ही नहीं है। यहां तक कि अगर कोई पुरुष, जो विवाहित या इंगेज्ड न हो, किसी स्त्री के प्रति पसंदगी रखते हुए शारीरिक संबंध तक न ले जाए तो इसे मानो स्त्री का निरादर तक समझा जाता है। हाई स्कूल में ही 'वर्जिन' लड़कियां उपहास की पात्र बनने लगती हैं। नतीजा, अमेरिका में अवयस्क लड़कियों में गर्भ-धारण की दर पचास प्रतिशत से भी अधिक है। यूरोपीय देश उससे कुछ ही पीछे हैं। यहां तक कि अधेड़, उम्रदार स्त्रियों को भी युवा और कमनीय कहना ही उनका सम्मान माना जाता है। इसलिए वृद्धाएं भी आकर्षक बनने और बने रहने के लिए भारी मेक-अप आदि करती रहती हैं। 
भारतीय दृष्टि को यह सब बहुत भद्दा और करुण दिख सकता है। इस दृष्टि के पीछे स्त्री ही नहीं, परिवार, कुटुंब के संबंधों की पवित्रता, विविध कर्तव्य भावनाओं के संबंधों की समृद्धि है। चाहे यह दृष्टि मशीनी-औद्योगीकरण, शहरीकरण, विजातीय किस्म की शिक्षा और आयातित फैशन की नकल से धुंधली हो रही है। यह उस वैचारिक प्रहार से भी कमजोर हो रही है, जिसमें स्त्री और पुरुष को एक दूसरे के विरुद्ध और प्रतियोगी बनाने के लिए हर तरह से स्वच्छंद- और अकेला- बनाने का चाहा-अनचाहा प्रयत्न शामिल है। शहरों में बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड संबंधों की बढ़ती मान्यता इस अमर्यादित स्वच्छंदता, और अनिवार्य अकेलेपन की ओर बढ़ने का भी संकेत है। 
ये संबंध नई उम्र के लड़के-लड़कियों के परस्पर आकर्षण को ऐसे मेल-जोल की छूट देते हैं, जो बिना किसी वचनबद्धता के उस आकर्षण को तुष्ट करे। परिणाम अलग-अलग व्यक्तियों के लिए अलग-अलग हो सकता है। लेकिन यूरोप-अमेरिका के अनुभवों से इसका सामाजिक आकलन हितकर नहीं निकलता। शारीरिक ही नहीं, भावनात्मक और व्यक्तित्व के संपूर्ण विकास के लिए भी ऐसे संबंध आखिरकार स्त्री को दुर्बल, अकेली और कमतर मूल्य की ही बनाते हैं। धनी स्त्रियां इसकी अपवाद नहीं होतीं।
स्वच्छंद स्त्री-पुरुष संबंध, बिना विवाह-लक्ष्य के बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड, लिव-इन संबंध, आदि आखिरकार स्त्री की सामाजिक और निजी महत्ता गिराते हैं। युवावस्था की बहुमुखी गति में इसका बोध और अनुमान नहीं होता, मगर पश्चिमी अनुभव इसकी पुष्टि करता है। वहां सारे विज्ञापन, नाइट क्लब, सेक्स बाजार, फैशन परेड और स्त्रियों की संपूर्ण पोशाक-पद्धति स्पष्ट दिखाती हैं कि स्त्री-पुरुष समानता एक बाह्याचार मात्र है। वास्तव में भावनात्मक स्तर पर अधिकतर पुरुषों के लिए कमसिन स्त्री 'प्ले-थिंग' और युवावस्था पार कर चुकी स्त्री 'डोर मैट' से अधिक नहीं। विडंबना यह है कि यह सब शिष्टाचार, कानूनी समानता और वैयक्तिक अधिकारों का पूरा-पूरा सम्मान करते हुए किया जाता है। 
यही विडंबना समझने की चीज है। हर व्यक्ति- चाहे वह पुरुष हो या स्त्री- का औपचारिक सम्मान, नागरिक बराबरी और स्वतंत्रता एक चीज है। वह पश्चिमी बाह्याचार है। जबकि यहां विविध कौटुंबिक नाते-रिश्तों की विशिष्टता, पवित्रता, कर्तव्य और प्रेम के बहुविध अधिकारों से परस्पर बंधे, मर्यादित जीवन का सुख-दुख दूसरी चीज है। पहली चीज एक विशेष आयु-वर्ग तक जितनी वांछित लगती है, परवर्ती आयु में   दूसरी का अभाव उतना ही दुस्सह होता है। 

यूरोप और अमेरिका की स्त्रियां इस अभाव को झेलने के लिए विवश हैं। परिवार का विखंडन सेक्स-संबंधों के उसी हल्केपन का अनिवार्य परिणाम है, जिसका आरंभ स्कूली बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड संबंध से होता है। बिना किसी आत्मानुशासन या मर्यादा के यह संबंध अपरिपक्व अवस्था का सेक्स-संबंध ही है, जिसकी आखिरकार सामाजिक परिणति उस विडंबना में होती है। 
वह विडंबना इसलिए बनती है, क्योंकि पश्चिमी-सेमेटिक दृष्टि में मनुष्य की अवधारणा ही निरी भौतिक होने तक सीमित है। शारीरिक, भौतिक आवश्यकताओं और उपलब्धियों से परे वह अधिक दूर नहीं जाती। उन्हें मनुष्य का एक ही जीवन होने का विश्वास है, वे पुनर्जन्म नहीं मानते। इसलिए शरीर को भौतिक सुख का उपकरण और एकमात्र जीवन को उसी सुख के लिए समर्पित माना जाता है। अमेरिकी अर्थ में 'फ्रीडम' हर वह कार्य करने की छूट है, जिसकी वहां कानूनन मनाही न हो। इसलिए यौन-स्वच्छंदता वहां वैयक्तिक आजादी का सहज अंग है। यह मनुष्य की सेमेटिक, संकीर्ण अवधारणा से जुड़ा है। मनुष्य जीवन का कोई सतत, अविच्छिन्न, आध्यात्मिक पक्ष भी है, जिससे उसका आचरण, कर्म और कर्म-फल अखंडित रूप से जुडेÞ हैं, इसकी मान्यता ईसाइयत में नहीं है। उधर परिवार का अतिसंकीर्ण आकार और नाते-रिश्तों का अकाल इसलिए भी है। सीमित परिवार में भी आपसी कर्तव्य कामकाजी किस्म के दिखते हैं। 
यह सब मनुष्य की मात्र भौतिक अवधारणा का प्रतिफलन है। तभी स्त्री-पुरुष संबंध को मुख्यत: सेक्स केंद्रित, और सेक्स इच्छापूर्ति को भूख-प्यास बुझाने जैसा सामान्य कर्म समझा जाता है, जिसका कोई दूरगामी या भावनात्मक महत्त्व नहीं। पुरानी कम्युनिस्ट शब्दावली में, वह प्यास लगने पर 'एक गिलास पानी' पीने जैसी सहज बात है। ऐसे ही विचारों की छाया में वहां लड़के-लड़कियों का किशोर जीवन आरंभ होता है। इसीलिए उनके रोजमर्रा के उपयोगी सामानों में जूते, चश्मे, मोबाइल फोन की तरह ही गर्भ-निरोधक भी लगभग सामान्य माने जाते हैं।
आयु कोई भी हो, यूरोपीय-अमेरिकी व्यवहार में पुरुष-स्त्री संबंधों में प्रेम यौनपरक ही माना जाता है। यौन-रहित स्नेह संबंधों की पहचान और संज्ञा वहां नहीं के बराबर है। सहोदर भाई-बहन या पुत्र-पुत्री के अतिरिक्तकिसी संबंध में यौन-मर्यादा जरूरी नहीं मानी जाती। उलटे किसी पुरुष द्वारा किसी स्त्री के प्रति सद्भावना, प्रशंसा को बिस्तर तक ले जाना नितांत तर्कपूर्ण समझा जाता है।
यह एक प्रकार से भारतीय दृष्टि की पुष्टि ही है कि स्त्री-पुरुष 'मैत्री' जैसी चीज नहीं होती। इसीलिए बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड-सा कोई संबंध-शब्द भारतीय भाषाओं में नहीं है। अगर आज यहां इसका चलन बढ़ रहा है तो इसके परिणाम उससे भिन्न नहीं हंोंगे, जो पश्चिम में देखे जा रहे हैं। अगर विद्यार्थी जीवन में ब्रह्मचर्य और विवाह-पूर्व यौन संबंधों की वर्जना को दकियानूसी चीज समझा और समझाया जा रहा है तो यह कोई विवेकपूर्ण, वैज्ञानिक चिंतन नहीं है। न सिद्धांत, न व्यवहार में।
यौन-संबंध में संयम और नियम को दकियानूसी मानने के पीछे अज्ञान, दुराग्रह और नकलची मानसिकता है। यूरोपीय देशों की भौतिक चमक-दमक के सम्मोहन में उधर के कुरूप, हानिकारक चलन को भी बेहतर मानना घोर अज्ञान ही है। विदेशी टेलीविजन चैनलों, फिल्मों के माध्यम से वह सब आचरण स्वीकार्य बनाया जा रहा है, जिसे भारतीय परंपरा दुराचार, पाप और अधर्म कहती रही है। कुत्सित भोगवाद को भी एक प्रकार की सहज जीवन-पद्धति बताने में विज्ञापन उद्योग की कारस्तानी भी है, जो हर चीज बेचने के लिए स्त्री-देह का खुल कर उपयोग कर रही है।  
इस कारस्तानी में कुटिलता भी है। क्योंकि यह स्त्री-पुरुष समानता का समर्थक होने की भंगिमा अपना कर स्त्री को भोगमात्र की वस्तु में तब्दील करती है। प्रेम की धारणा का अवमूल्यन करती है। पति-पत्नी से नीचे प्रेमी-प्रेमिका और उससे भी गिर कर बॉयफ्रेंड-गर्लफ्रेंड संबंध में प्रेम की गरिमा, कल्याण भाव और उत्तरदायित्व क्रमश: घटता है। संक्षिप्त अवधि का एक सीमित समझौता, जिसमें कोई व्यापक वचनबद्धता नहीं, तात्कालिक कारोबारी जैसा संबंध ही है। स्त्री और पुरुष की भिन्न प्रकृति और सामर्थ्य के अंतर से यह आखिरकार स्त्री को ही उपभोग की वस्तु बनाता है। 
अमेरिका-यूरोप में परिवार संस्था का नाश वही बात है। यह स्त्री की चाह नहीं थी, जो स्वभावत: स्थायित्व चाहती है। लेकिन यांत्रिक समानता और उत्तरदायित्व-विहीन यौन आचरण की वह अनिवार्य परिणति है। स्त्री-पुरुष के बीच मंगलकारी, आध्यात्मिक, धर्माचरण युक्तसंबंध की मान्यता पर ही परिवार दृढ़ रह सकता है। परिवार के ध्वंस से स्त्रियां ही मानसिक रूप से स्वाभाविक संबंध खो देती हैं और व्यवहार में और अकेली पड़ जाती हैं। 
इस संपूर्ण अनुभव और इसकी सीख को छिपा कर नई उम्र के लड़के-लड़कियों में आधुनिकता और समानता के नाम पर क्षुद्र संबंधों को बढ़ावा देना कुटिलता है। पर विज्ञापन-व्यापार जगत और धर्म-चेतना हीन बुद्धिजीवी यही कर रहे हैं। यह दुर्भाग्य है कि जब एक ओर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने देशवासियों को भारत से पारिवारिक मूल्य सीखने को कह रहे हैं, तब हम उच्छृंखल संबंधों को परिवार की कीमत पर स्वीकार्य बना रहे हैं।

No comments:

Post a Comment

Related Posts Plugin for WordPress, Blogger...