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Wednesday, July 4, 2012

सारकेगुडा (छत्तीसगढ़) नरसंहार पर बदलाव वादियों की गोल बंदी बेहद जरुरी

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सारकेगुडा (छत्तीसगढ़) नरसंहार पर बदलाव वादियों की गोल बंदी बेहद जरुरी

By | July 2, 2012 at 9:45 pm | 2 comments | मुद्दा

शमशाद इलाही शम्स

छत्तीसगढ में दो दर्जन आदिवासियों (जिनमें बच्चे, महिलायें और गरीब किसान) का संहार भारतीय राज्य का एक खुलासा है. भारत का शासक वर्ग न केवल सांप्रदायिक है बल्कि उसका नस्लीय चरित्र मौजूदा इस्राईल और पूर्व बोथा सरकार नियत्रिंत साऊथ अफ़्रीका के समकक्ष खडा कर देता है. भारत का शासक वर्ग न केवल अल्पसंख्यकों के प्रति दुश्मनी का रवैय्या रखता है बल्कि दलितों, आदिवासी जन-जातियों के प्रति भी आपराधिक, अमानवीय, भेदभाव पूर्ण हैं. हिंदुत्व के ठेकेदार और प्रमुख प्रतिपक्ष शासित छत्तीसगढ में भाजपा की रमण सिंह सरकार अपने अग्रज गुजरात के मोदी की तरह देश और दुनिया को पैगाम दे रहे हैं कि उनकी शासन पद्धति में उपरोक्त वर्गों की कोई औकात नहीं है. इस आयोजन में काग्रेंस की कभी मौन तो कभी सक्रिय सहमति साफ़ दिखती है, क्यों न दिखे आखिर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं न? सबसे दुखद है वाम और दलित दलों एंव नेताओं का इस प्रश्न पर दम साध कर बैठ जाना. अन्ना जैसे नौटंकी बाज़ों का चुप रहना इसलिये सुखद है कि वह यदि बोलते तो भ्रम ही पैदा करते. बाबाओं की निर्वीय लंबी जमात भला इन आदिवासियों को क्या इंसान समझेगी, कभी नहीं-क्योंकि उसके पास अपने खाने के लाले पडे हैं इनके पण्डाल-तिरपाल कहां से लगायेगी?
कभी आज़मगढ, तो कभी ओखला, कभी काज़मी की गिरफ़्तारी का विरोध तो कभी गुजरात के दंगों पर एक सूत्रीय एजेण्डे पर लगे लोगों के लिये क्या यह सही वक्त नहीं कि अपने दुखों में आदिवासी-दलित-जनजातियों के दुखों को शामिल करके एक दुखियारे समाज की वृहत तस्वीर सामने रखें. क्या उनका यह फ़र्ज नहीं भारत सरकार के इस नस्लीय चरित्र पर एक सामूहिक चोट करें, इसके ब्राहमणवादी चरित्र को उजागर करें और दुनिया में जहां जहां भी इस सोच के लोग हैं उसका पर्दाफ़ाश करें.
इस नरसंहार ने दिल्ली में बैठे दलित नेताओं को ही नंगा नहीं किया बल्कि वामपंथियों की चुप्पी को भी बर्दाश्त किया है. यह किसी शहरी क्षेत्र में घटना हुई होती तब न जाने कितने नेता दौरे कर चुके होते और न जाने कितने फ़ैक्ट फ़ाईंडिंग टीमों का गठन हो चुका होता. मीडिया को २००० आदमी दिल्ली में दिखते ही क्रान्ति नज़र आती है जबकि इस हत्याकाण्ड पर उसकी चुप्पी निहायत मुजरिमाना हरकत ही कहा जायेगा.
भारत को नव-जनवादी क्रांति की आवश्यकता है न कि अमेरिकी पूंजी के कंधे पर बैठ कर विश्वशक्ति बनने का झुंझुंना बजाने की. हमें उस खुशहाल भारत की ताबीर के लिये संघर्ष करना है जिसमें धर्म, जात, खाल के रंग का कोई महत्व न हो. सभी को सम्मान, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक तरक्की के समान अवसर मिलें जहां किसी भी रंग की सांप्रदायिकता की कोई जगह न हो, जहां धर्म समाज के विकास में कोई बाधा उत्पन्न न करे. वर्तमान भारत के नस्लीय स्वरूप से यह तय हो गया है कि उसमें न्याय, समान प्रगति के किसी अवसर की गुंजाईश नहीं हैं. इस व्यवस्था में एक तरफ़ पांच हजार करोड़ रु० के महल में एक परिवार रहेगा और दूसरी तरफ़ भूखे नंगों पर अपने अधिकारों के संघर्ष पर सरकारी गोलियां मिलेगीं तो कभी सांप्रदायिक दंगे. इस व्यवस्था को बदले बिना न्याय और सम्मान की लडाई नहीं लडी जा सकती. रमण सिंह ने बदलावकामी शक्तियों को एकजुट करने का एक अच्छा अवसर दिया है. लाशों पर राजनीति करने वालों से हमें यह अवसर दिया है कि हम इन्ही लाशों से इबरत लें और उस समाज की स्थापना में लग जायें जहां ये मंज़र कभी न दोहराए जायें.

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शमशाद इलाही शम्स, कनैडा से

 

शमशाद इलाही "शम्स" यूं तो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले के छोटे से कस्बे 'मवाना' में पैदा हुए 'शम्स' ने मेरठ कालिज मेरठ से दर्शनशास्त्र विषय में स्नातकोत्तर किया है। पी०एच०डी० के लिये पंजीकरण तो हुआ पर किन्ही कारणवश पूरी न हो सकी। छात्र जीवन से ही वाम विचारधारा से जुड़े तो यह सिलसिला आगे बढ़ता ही गया। 1988-1989,1989 में ट्रेनी उप-संपादक पद पर अमर उजाला मेरठ में कुछ समय तक कार्य किया और व्यवसायिक प्रतिष्टानों की आन्तरिक राजनीति की पहली पटखनी यहीं खाई। 1990-91 से स्वतंत्र पत्रकारिता शुरु की और दिल्ली के संस्थागत पत्रों को छोड़ कर सभी राज्यों के हिंदी समाचार पत्रों में अनगिनत लेख, रिपोर्ट, साक्षात्कार एंव भारतीय राजनीतिक अर्थशास्त्र, अल्पसंख्यक प्रश्न, सुधारवादी इस्लाम आदि विषयों पर प्रकाशित हुए। समय-समय पर स्थायी नौकरी पाने की कोशिश भी की, मिली भी, लेकिन सब अस्थायी ही रहा। शम्स की ही जुबानी " हराम की खायी नहीं, हलाल की मिली नहीं, विवश होकर बड़े भाई ने दुबई बुला लिया मार्च 2002 में, 3-4 दिनों में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिल गयी, बस काम करता गया पद भी बढ़ता गया। ताज अल मुलूक जनरल ट्रेडिंग एल०एल०सी० दुबई- संयुक्त अरब अमीरात में एडमिन एण्ड एच० आर० मैनेजर पद पर कार्यरत मार्च 2009, उस समय तक, जब तक अंन्तराष्ट्रीय आर्थिक मन्दी की मार पड़ती, लिहाजा लम्बे अवकाश जैसे साफ्ट टर्मिनेशन का शिकार हुआ। आर्थिक मंदी का वर्तमान दौर मेरे जैसे कई कथित 'अनुत्पादक' पदों को मेरी कंपनी में भी खा गया। इस बीच कलम पुनः उठा ली है। अक्टूबर ३०,२००९ को तकदीर ने फिर करवट बदली और मिसिसागा, कनाडा प्रवासी की हैसियत से पहुँचा दिया। एक बार फिर से दो वक्त की रोटी खाने की टेबिल पर पहुँचे, इसकी जद्दोजहद अभी जारी है..!!!"


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