सारकेगुडा (छत्तीसगढ़) नरसंहार पर बदलाव वादियों की गोल बंदी बेहद जरुरी
छत्तीसगढ में दो दर्जन आदिवासियों (जिनमें बच्चे, महिलायें और गरीब किसान) का संहार भारतीय राज्य का एक खुलासा है. भारत का शासक वर्ग न केवल सांप्रदायिक है बल्कि उसका नस्लीय चरित्र मौजूदा इस्राईल और पूर्व बोथा सरकार नियत्रिंत साऊथ अफ़्रीका के समकक्ष खडा कर देता है. भारत का शासक वर्ग न केवल अल्पसंख्यकों के प्रति दुश्मनी का रवैय्या रखता है बल्कि दलितों, आदिवासी जन-जातियों के प्रति भी आपराधिक, अमानवीय, भेदभाव पूर्ण हैं. हिंदुत्व के ठेकेदार और प्रमुख प्रतिपक्ष शासित छत्तीसगढ में भाजपा की रमण सिंह सरकार अपने अग्रज गुजरात के मोदी की तरह देश और दुनिया को पैगाम दे रहे हैं कि उनकी शासन पद्धति में उपरोक्त वर्गों की कोई औकात नहीं है. इस आयोजन में काग्रेंस की कभी मौन तो कभी सक्रिय सहमति साफ़ दिखती है, क्यों न दिखे आखिर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं न? सबसे दुखद है वाम और दलित दलों एंव नेताओं का इस प्रश्न पर दम साध कर बैठ जाना. अन्ना जैसे नौटंकी बाज़ों का चुप रहना इसलिये सुखद है कि वह यदि बोलते तो भ्रम ही पैदा करते. बाबाओं की निर्वीय लंबी जमात भला इन आदिवासियों को क्या इंसान समझेगी, कभी नहीं-क्योंकि उसके पास अपने खाने के लाले पडे हैं इनके पण्डाल-तिरपाल कहां से लगायेगी?
कभी आज़मगढ, तो कभी ओखला, कभी काज़मी की गिरफ़्तारी का विरोध तो कभी गुजरात के दंगों पर एक सूत्रीय एजेण्डे पर लगे लोगों के लिये क्या यह सही वक्त नहीं कि अपने दुखों में आदिवासी-दलित-जनजातियों के दुखों को शामिल करके एक दुखियारे समाज की वृहत तस्वीर सामने रखें. क्या उनका यह फ़र्ज नहीं भारत सरकार के इस नस्लीय चरित्र पर एक सामूहिक चोट करें, इसके ब्राहमणवादी चरित्र को उजागर करें और दुनिया में जहां जहां भी इस सोच के लोग हैं उसका पर्दाफ़ाश करें.
इस नरसंहार ने दिल्ली में बैठे दलित नेताओं को ही नंगा नहीं किया बल्कि वामपंथियों की चुप्पी को भी बर्दाश्त किया है. यह किसी शहरी क्षेत्र में घटना हुई होती तब न जाने कितने नेता दौरे कर चुके होते और न जाने कितने फ़ैक्ट फ़ाईंडिंग टीमों का गठन हो चुका होता. मीडिया को २००० आदमी दिल्ली में दिखते ही क्रान्ति नज़र आती है जबकि इस हत्याकाण्ड पर उसकी चुप्पी निहायत मुजरिमाना हरकत ही कहा जायेगा.
भारत को नव-जनवादी क्रांति की आवश्यकता है न कि अमेरिकी पूंजी के कंधे पर बैठ कर विश्वशक्ति बनने का झुंझुंना बजाने की. हमें उस खुशहाल भारत की ताबीर के लिये संघर्ष करना है जिसमें धर्म, जात, खाल के रंग का कोई महत्व न हो. सभी को सम्मान, न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक तरक्की के समान अवसर मिलें जहां किसी भी रंग की सांप्रदायिकता की कोई जगह न हो, जहां धर्म समाज के विकास में कोई बाधा उत्पन्न न करे. वर्तमान भारत के नस्लीय स्वरूप से यह तय हो गया है कि उसमें न्याय, समान प्रगति के किसी अवसर की गुंजाईश नहीं हैं. इस व्यवस्था में एक तरफ़ पांच हजार करोड़ रु० के महल में एक परिवार रहेगा और दूसरी तरफ़ भूखे नंगों पर अपने अधिकारों के संघर्ष पर सरकारी गोलियां मिलेगीं तो कभी सांप्रदायिक दंगे. इस व्यवस्था को बदले बिना न्याय और सम्मान की लडाई नहीं लडी जा सकती. रमण सिंह ने बदलावकामी शक्तियों को एकजुट करने का एक अच्छा अवसर दिया है. लाशों पर राजनीति करने वालों से हमें यह अवसर दिया है कि हम इन्ही लाशों से इबरत लें और उस समाज की स्थापना में लग जायें जहां ये मंज़र कभी न दोहराए जायें.
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शमशाद इलाही शम्स, कनैडा से
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