पटना में बेवजह लायी गयी मुखिया की लाश - वीएस दुबे
http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-07-00/2814-2012-07-02-06-35-48
प्रतिबंधित संगठन रणवीर सेना के हथियारबंद गुंडों की शवयात्रा से पटना सिहर उठा और दहशत से नगर कांपता रहा.पुलिस चौकी, पुलिस की गाडि़याँ और मंदिर धूं-धूं कर जलते रहे.बलवा कवरेज करते हुए दर्जन भर छायाकार-पत्रकारों को बेरहमी से पीटा गया.जानकारों के मुताबिक सेवा यात्रा में शामिल मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद विधि-व्यवस्था पर नजर रख रहे थे.मुख्यमंत्री ने सेवा यात्रा से लौटकर 2 जून के उस 'दहशत भरे काले दिन' के बारे में कोई टिप्पणी नहीं की.बिहार के पुलिस महानिदेशक का बयान आया कि किसी संभावित बड़ी हिंसा के मद्देनजर बलवाइयों को छेड़ना पुलिस ने उचित नहीं समझा.चैनलों से बलवाइयों के हवाले पटना का दृश्य पूरे देश में प्रसारित होता रहा.मीडिया ने राजधानी पटना को बलवाइयों के हवाले छोड़ने वाले राज्य सरकार से न ही सवाल-जवाब किया, न ही बिहार के विपक्ष ने इस मुद्दे पर राज्य सरकार को घेड़ने की कोशिश की.देश के जिन प्रतिष्ठित पत्रकारों ने कल तक नीतीश कुमार के सुशासन की छवि को विश्वख्याति दिलाने की भूमिका निभायी, उन्होंने भी 2 जून 2012 को ''पटना क्यों जलता रहा' सवाल पर चुप्पी साध् ली है.कहा जा रहा है कि 2 जून को पटना में जो दहशत और आतंक कायम हुआ, वह आजादी के बाद पहली बार वहां देखा गया.क्या एक लोकतांत्रिक प्रदेश की राजधानी को लोकतांत्रिक सरकार बलवाइयों के हाथ में सुपुर्द करने का हक रखती है? क्या 4-5 हजार बलवाइयों को राजधानी में प्रवेश करने से रोकने या उन पर नियंत्रण करने में पटना पुलिस अक्षम थी? पुराने लोग जानते हैं कि 5 जून, 1974 को जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण की रैली पर इंदिरा ब्रिगेड के गुंडों ने गोली चलायी थी उस समय पटना नगर में बड़ा बलवा हो सकता था.पटना को उस समय तत्कालीन जिलाधिकारी वी.एस. दूबे ने अपने प्रशासनिक कौशल से जलने से बचा लिया था.देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नामधारी संगठन के बलवाइयों को जेल भेजकर पटना को बचाने वाले चर्चित जिलाधिकारी वीएस दूबे बिहार के मुख्य सचिव रह चुके हैं.जिलाधिकारी और मुख्य सचिव के रूप में चर्चित प्रशासक वीएस दूबे से विधि-सम्मत विकल्पों पर बातचीत...
बिहार के पूर्व मुख्य सचिव वीएस दुबे से पुष्पराज की बातचीत
अगर एक नगर को मुख्यमंत्री और डीजीपी के निर्देश पर बलवाइयों के हाथों जलने के लिए छोड़ दिया गया हो, तो एक जिलाधिकारी या मुख्य सचिव क्या अपनी ताकत से नगर को बचा सकता है?
एक कलक्टर शहर को बलवाइयों से बचाने में सक्षम होता है.कर्तव्य पालन न करने का लिखित आदेश मुख्यमंत्री या पुलिस महानिदेशक नहीं दे सकते.कर्तव्यपालन न करने का मौखिक आदेश निंदनीय हैं.कलक्टर को हर हाल में कानूनी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए नगर को बचाने की जिम्मेवारी स्वीकारनी चाहिए.अगर जिलाधिकारी किसी भय या दवाब से अपने कर्तव्य का पालन नहीं कर पा रहा हो तो यह दुखद है.कलक्टर को विशेष परिस्थिति में कानूनी शक्ति का विवेकपूर्वक निर्वाह करना चाहिए और अगर कलक्टर डीजीपी के निर्देश से पीछे हटते हैं तो यह कलक्टर का बचकाना फैसला है.
पटना में कांग्रेस विधायक निवास से इंदिरा ब्रिगेड के लोगों ने 5 जून 1974 को जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाली विशाल रैली पर गोली चला दी थी.तब आपने पटना के जिलाधिकारी की हैसियत से किस तरह संभावित हिंसा पर नियंत्रण कायम किया था? क्या इंदिरा गाँधी के नाम से जुड़े ब्रिगेड के लोगों को गिरफ्तार करने पर आपको सरकार की नाराजगी भी झेलनी पड़ी?
जेपी के नेतृत्व वाली रैली गाँधी मैदान की तरफ बढ़ रही थी, तो हड़ताली मोड़ के पास एक विधायक निवास की खिड़की से इंदिरा ब्रिगेड के गुंडों ने रैली पर पीछे से गोली चला दी.एक आंदोलनकारी घायल भी हो गया.मैंने सोचा कि अगर जनसैलाब बदले की भावना से प्रतिक्रिया करेगा तो नगर में विधि-व्यवस्था संभालना मुश्किल हो जायेगा.हमने 5 मिनट के अंदर इंदिरा ब्रिगेड के गुंडों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया और गाँधी मैदान में हो रही सभा में जेपी को सूचना दी कि आंदोलनकारियों पर गोली चलाने वालों को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया है.जयप्रकाश नारायण ने हमारी सूचना को मंच से जनसमूह को बताया और जिला प्रशासन को इस कार्रवाई के लिए धन्यवाद भी दिया.मैंने जिलाधिकारी की हैसियत से अपने दायित्व का निर्वाह किया और अपनी निष्पक्षता, तटस्थता से संभावित हिंसा को रोक दिया.तब मुख्य सचिव, डीजीपी, मुख्यमंत्री किसी ने भी जिलाधिकारी की आलोचना नहीं की.मैं इस घटना के बाद साढ़े तीन वर्ष लगातार पटना का जिलाधिकारी रहा.मुझे इंदिरा ब्रिगेड के गुंडों को जेल भेजने के लिए न ही किसी तरह से परेशान किया गया, न ही किसी ने कोई धमकी दी गयी.लेकिन इंदिरा ब्रिगेड का एक गुंडा जेल से लौटकर कांग्रेस का एमएलसी जरुर बना.
वर्ष 1974 की घटना के 38 वर्षों बाद 2 जून 2012 को पटना बलवाइयों के हाथों में था, आपने इस दहशत भरे काले दिन को किस तरह देखा?
मैं एक नागरिक की हैसियत से अपने आवास में टीवी चैनलों से पटना को देखकर विचलित हो रहा था.मुझे लगा राज्य सरकार अपने कर्तव्य की तिलांजलि दे चुकी है.राज्य शासन की पहली जिम्मेवारी विधि-व्यवस्था की कायम रखना और नागरिक समाज की हिफाजत करना है.मैं उपद्रवियों को धन्ववाद देता हूँ कि उन्हें जितनी छूट दी गयी थी, उसमें उन्होंने बहुत कम किया.स्त्रियों की इज्जत लूटे बिना, घरों में आग लगाये बिना वे वापस लौट गये तो वे जरूर धन्यवाद के पात्र हैं.अगर बलवाई अचानक बहुत बड़ी तादात में आ गये और आपके पास उपयुक्त पुलिस बल नहीं है तो विधि-व्यवस्था संभालने में प्रशासन की लाचारगी समझ में आ सकती है, लेकिन प्रशासन को पूर्व से जानकारी हो, चौक-चौराहों पर पुलिस खड़ी रहे और सड़क पर तांडव नृत्य होता रहे तो यह अक्षम्य है.
आरा में पहली जून से उपद्रव शुरू हो गया.उपद्रवी आरा से बलवा करते हुए पटना आये.दो दिनों तक उन्हें जिस तरह छुट्टा छोड़ दिया गया, क्या इस पर नियंत्रण संभव नहीं था?
आरा में पहली जून से जिस तरह का उपद्रव शुरू हुआ, उसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है.जब सरकार के सर्किट हाउस, हरिजन छात्रावास में आग लगा दी गयी हो, राज्य के डीजीपी के साथ धक्का-मुक्की की जा रही हो तो यह दृश्य शांतिप्रिय तो नहीं दिख रहा था.इस तरह की उपद्रवी शव यात्रा को पटना प्रवेश का कोई वैधनिक कारण नहीं दिखता.अगर मैं जिलाधिकारी होता तो शव यात्रा को दानापुर से पीछे मनेर से रोककर वापस लौटाया जा सकता था.
आरा में पहली जून को हरिजन छात्रावास में लूट-आगजनी होती रही और आरा के एसपी 500 मीटर निकट स्थित अपने आवास में सब कुछ देखते रहे?
छात्रावास में लूट-आगजनी दुखद है.पुलिस ने छात्रावास के हिफाजत की जिम्मेवारी नहीं निभायी, यह दुखद है.पहले हिफाजत नहीं करना और घटना के बाद उपद्रवियों के विरुद्ध कार्रवाई नहीं करना निंदनीय है.प्रशासन की शिथिलता शासन के बारे में गलत संकेत देती है.छात्रावास और छात्रों के नुकसान के भरपाई की जिम्मेवारी प्रशासन की है.पहली-दूसरी जून के उपद्रव में जिस किसी की क्षति हुई है, उसके क्षतिपूर्ति की जिम्मेवारी प्रशासन को स्वीकारनी होगी.
आरा से पटना तक उपद्रवियों को उपद्रव की छूट देने वाले अक्षम प्रशासनिक अधिकारियों के विरुद्ध क्या कोई कार्रवाई होनी चाहिए?
आरा से पटना तक प्रशासनिक लापरवाही बरतने वाले कलक्टर, एसपी के विरुद्ध जांचोपरांत सख्त कार्रवाई होनी चाहिए.अगर राज्य सरकार दो दिनों की इस अराजकता की उच्चस्तरीय जांच नहीं कराती है तो सजग नागरिकों को प्रशासनिक विफलता के विरुद्ध अदालत में अपील करनी चाहिए.राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से भी मानवाधिकार की हिफाजत की अपील करनी चाहिए.मीडिया को भी अपनी भूमिका निभानी चाहिए.
क्या नीतीश कुमार के सुशासन की छवि इस घटना से प्रभावित हुई है? क्या मुख्यमंत्री के निर्देश से बलवाइयों के सहयोग के लिए पुलिस पीछे हट गयी?
मुझे इस घटना के पीछे मुख्यमंत्री के किसी निर्देश या उनकी भूमिका के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन किसी के निर्देशन में अगर सबकुछ हुआ तो यह निंदनीय है.कुछ वर्षों से बिहार में शासन की छवि सुधरी थी.आम नागरिक राहत महसूस रहे थे.इस सरकार का सकारात्मक पक्ष यही था कि इसने समाज में विधि-व्यवस्था कायम की थी. मगर 2 जून की घटना से सरकार से ज्यादा बिहार की छवि को धक्का लगा है.लोग हँसेंगे और कहेंगे- बिहार में ऐसा हो सकता है और लोगों की आस्था कमजोर हुई है कि यह सरकार हर हाल में हमारी हिफाजत कर सकती है.
क्या सुशासन की छवि के साथ-साथ बिहार पुलिस की गरिमा इस घटना से प्रभावित हुई है?
पुलिस को निरंकुश छोड़ देना खतरनाक है, लेकिन ज्यादा खतरनाक यह भी है कि पुलिस को निष्क्रियता की स्थिति में पहुँचा दिया जाये.सड़क पर तांडव हो रहा हो और पुलिस मूकदर्शक बनी रहे तो पुलिस समूह की गरिमा कैसे बची रह गयी.पुलिस का काम कानून का पालन करना और शांति बहाल करना है.पुलिस ड्यूटी में खड़ी है और उपद्रव भी हो रहा है तो उससे जितनी उसकी प्रतिष्ठा जितनी प्रभावित हुई है, उससे ज्यादा आत्मबल कमजोर हुआ है.
आप ब्रह्मेश्वर को किस तरह जानते थे, बिहार सरकार के एक मंत्री ब्रह्मेश्वर को बार-बार बिहार का गाँधी पुकार रहे हैं?
मैं उन्हें मीडिया के माध्यम से ही जानता था.मीडिया से रणवीर सेना के संस्थापक और कई जनसंहारों के मुख्य सूत्रधार के रूप में मैं उन्हें जानता रहा.कोई मंत्री उन्हें गाँधी कह रहे हैं तो यह उनका निजी अधिकार है.
ब्रह्मेश्वर की हत्या के बाद उपद्रव की सही वजह क्या दिखती है?
किसी की भी हत्या के बाद आक्रोश स्वाभाविक है.रणवीर सेना के संस्थापक की हत्या की बाद उनके समर्थकों में गुस्सा स्वाभाविक है.कानून में शांतिपूर्ण प्रदर्शन की इजाजत दी गयी है.रणवीर सेना समर्थकों का उपद्रव करना और उपद्रव की प्रशासनिक छूट देना निंदनीय और आश्चर्यजनक है.
नंदीग्राम डायरी के लेखक पुष्पराज जनसंघर्षों से जुड़े पत्रकार हैं.
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