हां मैं इस वक्त यशवंत के साथ खड़ा हूं क्योंकि…….
अमलेन्दु उपाध्याय
भड़ास फाॅर मीडिया के संचालक यशवंत सिंह से अपनी कुल जमा ढाई मुलाकात है। ढाई, इस मायने में कि एक मुलाकात एक संगोष्ठी में हुई और उसमें अन्ना आंदोलन को लेकर उनसे लगभग झड़प सी हुई। दूसरी मुलाकात साहित्य अकादमी में एक कार्यक्रम के बाद लंच पर हुई और दोनों ने साथ-साथ खाना खाया। आधी और पहली मुलाकात स्व. आलोक तोमर की श्रद्धांजलि सभा में हुई जब अपने छात्र जीवन के साथी और लखनऊ के पत्रकार संजय शर्मा ने इशारा करके बताया कि वह यशवंत हैं। हालांकि वेब पर उनसे जो पहली मुलाकात हुई वह भी वैचारिक मुठभेड़ के रूप में हुई। जब स्व. प्रभाष जोशी जी ने पेड न्यूज के खिलाफ स्टैण्ड लिया तो 'जागरण' के एक पत्रकार ने कुछ अलल-टप्प किस्म का प्रभाष जी के खिलाफ उनके पोर्टल पर लिखा। जिसके प्रत्युत्तर में वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पाण्डेय और स्व. आलोक तोमर ने कुछ लिखा तो 'जागरणी' पत्रकार महोदय का एक और लेख छपा। उसी संदर्भ में मैंने कुछ सवाल उठाते हुए एक लंबी टिप्पणी लिखी। भड़ास पर वह टिप्पणी प्रकाशित हुई और यशवंत जी का एसएमएस आया कि लेख पोस्ट हो गया है और मैं अपना फोटो भेज दूं। बहरहाल मैंने फोटो भेज दिया लेकिन देखा कि बाद में मेरी टिप्पणी के कई महत्वपूर्ण अंश गायब हो गए थे। मैंने इस पर प्रतिवाद करते हुए उन्हें एक व्यक्तिगत पत्र लिखा इस छूट के साथ कि वे चाहें तो इसे सार्वजनिक कर सकते हैं। बाद में उन्होंने अपने उत्तर के साथ मेरा पत्र भी सार्वजनिक कर दिया। कुल मिलाकर अपना संबंध यशवंत जी के साथ इतना भर है।
आज सुबह हस्तक्षेप पर यशवंत के विषय में खबर पोस्ट करने और देश भर में न्यू मीडिया के साथियों को मेरे एसएमएस करने के बाद कई साथियों के फोन आए। जाहिर सी बात है कि जिस कंटेंट के साथ भड़ास चलती है उसमें मित्र कम और शत्रु ज्यादा बनने की ही संभावना है और उस पर जैसा कि मित्रों का कहना है कि यशवंत का अपना स्वभाव है उससे शत्रु ही ज्यादा बनते हैं।
मेरी जिससे से भी बात हुई, मैंने सभी से एक ही बात कही कि सवाल केवल यशवंत का नहीं है, यशवंत के बहाने काॅरपोरेट मीडिया और सरकार मिलकर जिस तरह से न्यू मीडिया पर हमला कर रहे हैं उस खतरे को पहचानने की आवश्यकता है, इसलिए तमाम असहमतियों और यशवंत की आदतों से नाइत्तेफाकी रखते हुए भी मैं इस वक्त उनके साथ हूं और चाहता हूं कि न्यू मीडिया के सारे साथी भी अपनी तमाम व्यक्तिगत नाराजगियों और फसादों को दरकिनार कर इस मसले पर एक साथ खड़े हों।
देखने में किसी को भी ताजा प्रकरण यशवंत की बदतमीज़ी का लग सकता है और जिस तरह से देश के दो बड़े हिंदी अखबारों ने तुच्छ और निहायत ही घटिया स्तर तक जाकर इस प्रकरण की खबर छापी उसमें यशवंत को एक खलनायक बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। लेकिन सवाल उठता है कि क्या वाकई मामला ऐसा ही था जैसा इन अखबारों ने खबर प्रकाशित की? जाहिर सी बात है जिन लोगों के ऊपर चुनाव के दौरान पैसा लेकर खबरें छापने के आरोप हों उनकी इस खबर पर भी भरोसा करना मुमकिन नहीं है।
इसके बरक्स इस प्रकरण में जो असल षडयंत्र है, मैं केवल उस ओर ध्यान दिलाना चाहता हूं। यशवंत से तमाम असहमतियों के बावजूद उनके एक योगदान को नकारा नहीं जा सकता कि मीडिया के अंदर जो शोषण और अत्याचार है, उसकी खबरें बाहर आईं। अब बहुत से साथियों का कहना है कि यशवंत भी खबरों का कारोबार करने लगे थे और बहुत सी खबरें मीडिया मालिकानों से मिलकर दबा देते थे। आरोप में काफी हद तक सच्चाई हो सकती है लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भड़ास की देखा-देखी या उसकी प्रतिद्धंदिता में और भी कई पोर्टल मैदान में आ गए और अब कोई खबर दब नहीं सकती भले ही कम दिखे।
काॅरपोरेट मीडिया और सरकार की दुरभिसंधि की ओर भी यह प्रकरण इशारा कर रहा है। फेसबुक और सोशल मीडिया से अपने चुनाव का अभियान चलाने वाले उत्तर प्रदेश के होनहार युवा मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की नोएडा की वह महान पुलिस जो लूट और डकैती जैसी गंभीर घटनाओं की सूचना मिलने पर भी नहीं पहुंचती उसने जिस तत्परता से जाल बिछाकर यशवंत जैसे खूंखार अपराधी (?) को पकड़ा, क्या यह बिना सरकार के इशारे के संभव है ?
इसलिए मित्रों खतरे और भी हैं और उन खतरों पर खुलकर अभी लिखने का वक्त नहीं है लेकिन उन्हें पहचानने का वक्त जरूर है। ताजा प्रकरण भी कलम से हारने के बाद गिराकर पटक कर मारने का ही है। यानी आप कलम का जबाव कलम से नहीं दे पाएंगे तो सरकार और पुलिस की मदद से गुण्डई करके उत्तर देंगे? मज़ा तो तब आता जब यशवंत के खिलाफ वो चैनल खबर चलाता जिसके खिलाफ उन्होंने खबर लिखी थी।
इसलिए मैं अपने स्वभाव के मुताबिक इस वक्त यशवंत के साथ खड़ा हूं और तमाम साथियों से भी अपील करूंगा कि एक मजबूत लड़ाई के लिए एकजुट हों क्योंकि ये समान्तर मीडिया के सामने आने वाले खतरों की खामोश आहट है।
….?
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