विशेष : पुस्तकों पर केंद्रित छमाही आयोजन : परिच्छेद :समीक्षा ' साक्षात्कार ' लेख ' कविता: जून, 2012
विनोद शाही
द मॉस्क ऑफ अफ्रीका: वी.एस. नायपॉल; अनु.: नवेद अकबर ; मूल्य:210 ; पृ.: 269; पेंगुइन
ISBN 9780143414711
वर्ष 2011 की क्रिसमस। नाइजीरिया में चर्च और ईसाई निशाने पर हैं। इस्लामिक कट्टरपंथियों के एक दल के द्वारा किए गए सिलसिलेवार बम विस्फोटों में चालीस से ज्यादा लोग मारे जाते हैं। मौजूदा उत्तर-औपनिवेशिक दौर में अफ्रीका जिस संक्रमण और संकट से होकर गुजर रहा है, उसकी एक झलक इस घटना से मिल जाती है। यह बात भी समझ में आने लगती है कि आखिर वह क्या है कि वी.एस. नायपाल अपनी हाल ही में प्रकाशित किताब 'द मास्क ऑफ अफ्रीका' में धर्म से ताल्लुक रखने वाले परिदृश्य पर इतना तवज्जो देते हैं? अफ्रीका के अनेक देशों के सफर पर निकली यह किताब हमें एक ऐसी दुनिया के बीचों-बीच ले जाकर खड़ा कर देती है जो अनेक तरह की निरंकुशताओं से घिरी मालूम पड़ती है। धर्म की मार्फत जीवन और समाज में प्रवेश करती दैवी शक्तियों की निरंकुशताएं उनमें सब से ऊपर हैं। उनमें—यानी शासकों की, राजतांत्रिक व्यवस्थाओं और जंगल के सर्वस्पर्शी यथार्थ और इतिहास की जातीय स्मृतियों की मार्फत पूरे अफ्रीका को घेरती दूसरी निरंकुशताओं के मुकाबले इस किताब के नाम से ही अंदाजा हो जाता है कि नायपाल का ध्यान अफ्रीकी लोगों के द्वारा अक्सर-अमूमन लगाए जाने वाले चेहरों या 'मस्कस' पर अटका है। परंतु यहां एक बात ध्यान देने लायक है कि ये बेशुमार नकली अफ्रीकी चेहरे, असली चेहरे को छिपाने के काम नहीं आते—जैसा कि सभ्य और चालाक होती चली गई बाकी दुनिया में आमतौर पर दिखाई देता है, इसके उलट ये अफ्रीकी चेहरे, उनकी असलियत को, उनके भीतरी व्यक्तित्व को और यहां तक कि उनकी आत्मा के अनेक रंगों-रूपों का अक्स है इसलिए वे इन्हें न सिर्फ अक्सर पहनते हैं, जरा से उलट व्यवहार की भनक मिलते ही वे इनसे बेहतर डरने भी लग जाते हैं। यहां कोई गहरा सत्य छिपा लगता है जो अफ्रीकी लोगों से जुदा होकर भी उनका, उनकी देह और आत्मा का, हिस्सा है; यहां तक कि उनकी धर्म संबंधी अवधारणा और चेतना का एक आईना भी।
इन बेशुमार चेहरों की तरह ही अफ्रीकी लोगों के पास कोई एक व्यवस्थित धर्म नहीं, अपितु न जाने कितने परंपरागत और जमीनी-धर्म जैसे व्यवहार, अनुष्ठान, रीतियां और प्रथाएं हैं इन धर्मों का स्रोत वह जंगल है जो इस अफ्रीकी समाज को घेरे हुए है और इनकी परिस्थितियों की तरह प्रकट होते हैं—ईश्वर की तरह सर्वशक्तिमान होने निकले शासक—जिनका साम्राज्य इस जमीन पर ही नहीं है, अपितु इससे बाहर और परे भी उस दुनिया तक भी फैला है, जो मृत्यु के बाद के जीवन के लिए स्थापित है। इसी संदर्भ में नायपाल की यह टिप्पणी विचारणीय हो जाती है कि अफ्रीका के, सत्रहवीं से ले लेकर उन्नीसवीं सदी तक के औपनिवेशीकरण के इतिहास में, वहां वही विदेशी धर्म अपनी जड़ें जमाने में ज्यादा कामयाब हुए, जो किसी न किसी रूप में 'मृत्यु के बाद के जीवन' की बात स्वीकारते थे यानी अफ्रीकी औपनिवेशीकरण में अहम भूमिका निभाने वाले विदेशी धर्मों में से जिस ईसाई और इस्लाम धर्म ने वहां खास जगह बनाई थी, वह इन धर्मों के 'विकसित या व्यवस्थित' धर्म होने का नतीजा नहीं थी, अपितु वह अफ्रीकी मानसिकता थी, जो इन धर्मों के फैल सकने के लिए माकूल जमीन और आबोहवा मुहैया करती थी।
इन विदेशी धर्मों के अंग-संग अफ्रीका का जो उपनिवेशन हुआ, उससे आजाद होने और होते जाने की उत्तर-औपनिवेशिक प्रक्रियाओं वाले अफ्रीका के वर्तमान में नायपाल की यह किताब जैसे-जैसे गहराई में उतरती है, तो इस विदेशियत की अजनबियत भी हमारे सामने बेनकाब होने लगती है इस संदर्भ में नायपाल द्वारा की गई कुछ टिप्पणियां उद्धरणीय लगती है:
- 'विदेश धर्म यहां एक संक्रामक रोग की तरह फैले'
- यहां धर्म और धर्मसंस्थाएं कुछ इस तरह काम करती हैं, ''जैसे कि वे वहां के उपभोक्ताओं की हर एक मांग पूरी करना चाहती हैं। ''
- युगांडा के सफर के दौरान सूजन नाम की कवयित्री से हुई बातचीत से यह बात निकलती है कि वहां के हालात और शासनतंत्र की निरंकुशताओं के चलते, 'बेहतर भविष्य के लिए ईश्वर में विश्वास जरूरी लगता है। ' परंतु उसे यह भी लगता है कि 'दूसरे या विदेशी धर्म अपनाकर उन्होंने ईश्वर का अपमान किया है। ' वह कहती है कि 'मैं एक जूड़ो-क्रिश्चियन हूं पर ईसाई धर्म में मेरा यकीन नहीं है। ''
- परंतु परंपरागत अफ्रीकी धर्मों की स्थिति भी अंतर्विरोधों से भरी है मोंटेसा के द्वारा स्थापित बहुत से पूजास्थलों को वहां इसलिए जला दिया गया, क्योंकि उनमें मानव बलि बहुतायत में होने लगी थी।
- वहां के शासक के एक नए उत्तराधिकारी कासिम को नए और आधुनिक विदेशी धर्म इसलिए आलोचना के लायक लगते हैं, क्योंकि 'उन्होंने वहां के लोगों को अवज्ञाकारी बना दिया है। ''
- आधुनिकता और आधुनिक धर्म सूजन को भी 'अपनी जड़ों से लोगों को काटने वाली चीजों की तरह' लगते हैं। वह मानती हैं कि 'आधुनिकता हमें हमारी जमीन से काटती है, पर उसे छोडऩे से अराजकता फैलती है। ''
- बहुत से अफ्रीकी लोगों का यह मानना है कि औपनिवेशीकरण के साथ आए ईसाई और इस्लाम धर्म का इस्तेमाल, सत्ता की ताकतों के द्वारा इसलिए किया गया, ''ताकि अफ्रीकी दिमाग को नियंत्रित किया जा सके।''
युगांडा, कीनिया, घाना, नाईजीरिया या दक्षिण अफ्रीका जैसे विविध मुल्कों के सफर के दौरान नायपाल अफ्रीका के उस पारंपरिक सांस्कृतिक व्यक्तित्व को भी छूने की कोशिश करते हैं, जो इतना विविध और बहुल है कि इन 'व्यवस्थित विदेशी धर्मों' की तुलना में अब वहां के लोगों को भी 'अराजक' लगने लगा है फिर भी वही उनका जमीनी यथार्थ है, जिससे वे कभी अलग नहीं हो सकते इसे हम समझना चाहें तो यह कबीलाई अतीत से ताल्लुक रखने वाला 'जंगल का धर्म' है। नायपाल तीन-बीन में इस ओर इशारे जरूर करते है, परंतु इस के असल रचनात्मक और विधायक पहलुओं को संभवत: हम 'अफ्रीकी' हुए बिना कभी ठीक से आत्मसात नहीं कर सकते। इसलिए नायपाल के विवरण भी ज्यादातर उसके अराजक या पिछड़ेपन का पर्याय मालूम पडऩे वाले पहलुओं पर ही आ अटकते हैं। वे पुरोहितों और शासक-वर्ग के द्वारा दी गई नरबलियों का खासा विस्तार और ब्यौरे वाला जायजा लेते हैं। मृत्यु के बाद शासक के साथ उसके परिचरों को भी उसकी देखभाल के लिए 'दूसरी दुनिया' में जबरन भेज दिया जाता है। मोंटेसा के संदर्भ में 23 परिवारों के जिंदा जलाए जाने का जिक्र आता है। इनके 'ईसाई' होने की बात यहां खास रेखांकित की गई है। आधुनिक होने की प्रक्रिया में पारंपरिक पूजास्थलों को जलाने और नष्ट करने के लिए इस 'इतिहास' की मदद खासतौर पर ली जाती है। इसके, मंत्र-तंत्र की अतार्किक और अविश्वसनीय दुनिया है। मलेरिया जैसी बीमारी के लिए भी 'पड़ोसी' के जिम्मेवार होने की बात सामान्य है। बकरी के कटे सिर को किसी के घर के पास फेंक देने से तांत्रिक टोने-टोटके की सिद्धि जैसी मेल खाती है—जो भारतीय अंधविश्वासों से भी खासी मेल खाती है। परंतु शासक इसका इस्तेमाल अपनी सत्ता के लिए करते हैं। हुफ्फट जैसे शासक के बारे में कथा फैला दी जाती है कि उसकी देह के टुकड़े करके एक तांत्रिक ने उन्हें फिर से जोड़ दिया है। इस तरह वह 'अमर' हो गया है। परंतु शासक के सर्वशक्तिमान होने का असल स्रोत 'कवाका' है, जो जंगल से आता है। और शासक के सत्ताकाल के खत्म होने पर, उसे छोड़ फिर जंगल में लौट जाता है। वह जंगल की शक्ति का सार है, जिसे उपलब्ध होने वाला 'असल शासक' होने का अधिकारी बनता है।
ऐसे ही स्त्रियों को वश में करने वाला मम्बो-जम्बो है, जो जंगल से आता है, परंतु इस्लाम के असर से और खासतौर पर नाइजीरिया जैसे मुल्क में बहुपत्नीत्व के आम होने से वह 'हैट लगाकर आने वाला एक नृशंस दंडनायक' हो जाता है। आधुनिकता वहां की परंपरागत धारणाओं को विकृत बनाने में भी मदद करती है। इस ओर नायपाल इशारा तो करते हैं, परंतु उनका नजरिया 'आधुनिकता समर्थक पश्चिमी नजरिया' ही बना रहता है। फिर भी 'जंगल के धर्म' के उस रचनात्मक पहलू को भी थोड़ा-बहुत उभरने का वहां अवकाश मिल ही गया है।
शहरों में आ बसे कवि-हृदय वाले एक व्यक्ति को लगता है कि 'जंगल हम सबके भीतर होता है। '' वह जो बाहर है, वह शहर में आने के बावजूद साथ ही चलता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि घाना के जंगल के 'पिग्मी' लोग बताते हैं कि 'जंगल की आवाज, ईश्वर की आवाज होती है। '
परंतु औपनिवेशिक दौर के आरंभ होते ही अफ्रीका के ये जंगल लगातार कटते जा रहे हैं। विदेशी धर्म ही नहीं, गोरे शासकों के आने के बाद से, नस्ल और रंगभेद का इतिहास भी वहां के आधुनिक अभिशापों का पर्याय होता चला गया है। नायपाल अपनी इस किताब के अंत में दक्षिण अफ्रीका के सफर के दौरान गांधी से मंडेला तक भी आते हैं। वहां ऐसे लोगों के बयान दर्ज करते हैं, जिनके नजर में 'मंडेला जेल जाने से पहले इंकलाबी थे, परंतु जब वे छूट कर आए तो समझौतावादी होकर निकले'। इसे हम वहां के आधुनिक इतिहास और विकास के अंतर्विरोधी की तरह देख सकते हैं। भारत के औपनिवेशिक दौर से बाहर आने की प्रक्रिया के तहत यहां भी गांधी और कांग्रेस के समझौतावादी और दलाल तक हो जाने की बातें एक तबके द्वारा—खासतौर पर यहां के वामपंथियों द्वारा—की जाती रही है। सवाल यह है कि यात्रा-वृतांत कुछ पहलुओं पर ही निगाह रखने का काम करते हैं और उन्हें किसी मुल्क या उपमहाद्वीप के यथार्थ के अछूते और यथार्थ—या प्रतिनिधि पक्ष—का चितेरा नहीं माना जा सकता है। तथापि इससे इतनी बात तो समझी ही जा सकती है कि आखिर क्यों नायपाल पश्चिमी दुनिया के पढ़े जाने लायक अहम लेखकों की सूची में शुमार होते हैं?
No comments:
Post a Comment