विशेष : पुस्तकों पर केंद्रित छमाही आयोजन : परिच्छेद :समीक्षा ' साक्षात्कार ' लेख ' कविता: जून, 2012
प्रेम पुनेठा
फिलस्तीन और अरब इजरायल संघर्ष: महेंद्र मिश्र; पृ.: 286; मूल्य :रु. 450 ; वाणी प्रकाशन
ISBN 9789350007839
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दो बड़ी साम्राज्यवादी ताकतें ब्रिटेन और फ्रांस कमजोर हो गईं और वे अपने उपनिवेशों को संभालने की स्थिति में भी नहीं थीं। इसलिए लीग ऑफ नेशन के तहत उनको मिले मध्यपूर्व के मैंडेट से भी उन्होंने हाथ झाडऩे शुरू कर दिए। लेकिन इन ताकतों को अपने व्यापारिक हितों की चिंता थी और उपनिवेश की कड़वाहट के कारण वे अरब देशों पर विश्वास को तैयार नहीं थे। इसका परिणाम यह हुआ कि अरब देशों के बीच एक ऐसे राष्ट्र की कल्पना की गई जो उनके हितों को सुरक्षित रखे। इसी कल्पना को यहूदी धर्म पर आधारित इजरायल ने पूरा किया। 1948 में संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव के बाद फिलिस्तीन का बंटवारा किया गया। इजरायल की स्थापना को साथ ही फिलिस्तीनियों की समस्याओं का आगाज हो गया जो लगातार बढ़ते रहे और आज भी ये संकट जारी हैं। पूरा अरब समाज और देश फिलिस्तीन के साथ एकजुट है लेकिन फिर भी 64 साल बाद फिलिस्तीन की समस्या ज्यों की त्यों है। इसके नागरिक अभी भी शरणार्थी ही हैं और अरब देशों में भटक रहे हैं। इन्हीं सब सवालों और कारणों को किताब में समझाने का प्रयास किया गया है।
इजरायल के अस्तित्व को अरब देशों ने कभी स्वीकार नहीं किया क्योंकि उनका मानना था कि यहूदियों ने उनकी जमीन पर कब्जा कर अरबों को बेदखल किया है। किताब में ही डॉक्टर कमाल अबू जब्बार के हवाले से कहा गया है कि अरब पूर्व में इजरायल की मौजूदगी एक खंजर की तरह है, जिसने अरब जगत को काटकर टुकड़ों में बांट दिया है। इस खंजर को हटाने का प्रयास इजरायल के जन्म के साथ ही अरब देशों ने शुरू कर दिया था और 1948 में ही पहला युद्ध हो गया और उसके बाद तीन और युद्ध हुए, लेकिन यह खंजर हर युद्ध के बाद और तीखा और गहरा धंसता चला गया। अरब देश इस खंजर से बचने के लिए समझौतापरस्त होते चले गए।
किताब पश्चिमी देशों की कई स्थापित मान्यताओं को खत्म करती है और फिलिस्तीनियों की त्रासदी को सामने लाती है। पश्चिमी देशों और इजरायल के बुद्धिजीवियों ने यह मिथक स्थापित किया कि ऐतिहासिक रूप से यहूदियों का मूल स्थान कनान देश है, जो आज का फिलिस्तीन है। लेकिन यहूदियों के आदि पुरुष अब्राहम का मूल निवास कलाडिया है। यह आज का इराक है। वर्तमान यहूदियों को हिब्रू नाम ही उनके आदि निवास के आधार पर मिला, जिसका अर्थ है जार्डन पार के लोग। इस आधार पर यहूदियों का यह दावा कि फिलिस्तीन उनका आदि स्थान था, गलत साबित होता है। यह भूमि तो उन्होंने अन्य कबीलों से जीती थी और इसे प्रोमिज्ड लैंड कहा था। इस प्रोमिज्ड लैंड पर काबिज होने के लिए हिब्रू कबीले ने आतंक और अत्याचार का सहारा लेकर इस क्षेत्र से भगा दिया था। लेकिन यहूदी राज्य लंबे समय तक नहीं रहा और असीरिया और रोमन का उस पर कब्जा रहा। रोमन ने तो पहली ईसा में ही इनको देश निकाला दे दिया और उसके बाद वे पूरी दुनिया में फैल गए। आज लगभग दो हजार साल बाद भी हिब्रू इस कबीलाई संस्कृति से बाहर नहीं आ पाए हैं। अरब और फिलिस्तीनियों की जमीन हथियाने के लिए वह इसी आतंक का सहारा लेता है।
यहूदियों की राज्य स्थापना में योरोप ने किस तरह से मदद की और फिलिस्तीनी जनता को धोखा दिया, इसको किताब में विस्तार से समझाया गया है। युद्ध और विस्थापन ने यहूदियों को मानसिक रूप से परेशान रखा। योरोप में यहूदियों ने संपन्नता हासिल की लेकिन वे हमेशा स्थानीय समुदाय की घृणा के पात्र बने रहे। स्थानीय समुदाय उनको अपने देश में बाहरी तत्त्व मानते थे। इस घृणा और भेदभाव ने योरोप के यहूदियों को एक राज्य की आवश्यकता महसूस कराई और इसके लिए उन्होंने साम्राज्यवादी ताकतों से सांठगांठ की। इधर, योरोपीय देशों की इच्छा थी कि यहूदी उनके इलाकों से चले जाएं। उन्नीसवीं सदी के आखिर तक यहूदियों के संगठन बनने लगे और वे ऐसी जगह तलाश रहे थे जहां वे बस सकें। योरोप के इस अवांछित तत्व को अमेरिका, आस्ट्रेलिया जैसे देश अपने यहां जगह देने को तैयार नहीं थे। इनसे निराश यहूदी संगठनों ने फिलिस्तीन को चुना जिसके बारे में उनका दावा था कि यह उनका आदि स्थान है। उन्होंने सियोनवादी संगठन की स्थापना की और येरूसलम चलो का नारा दिया। इसके लिए खूब जोर शोर से यहूदियों की दुर्दशा और जाति शुद्धता का नारा उछाला गया। फिलिस्तीन भेजने के लिए बकायदा ऑफिस खोले गए जहां से लोगों का चयन किया जाता था लेकिन इसमें भी ख्याल रखा गया कि कमजोर और बूढ़े लोगों को न भेजकर नौजवान ही वहां जाएं। प्रथम विश्वयुद्ध में ओटोमन साम्राज्य की हार और अरब इलाके का फ्रांस और ब्रिटेन के अंतर्गत मैनडेट व्यवस्था आने से यह सुनहरा अवसर सियोनवादियों को मिला। यहूदियों ने चालाकी के साथ बड़े फंड एकत्रित करने शुरू किए और इसकी मदद से फिलिस्तीन में जमीनें खरीदनी शुरू कर दी। यहूदी राज्य की स्थापना में संपन्न अरबवासिंदों ने अनचाहे में ही सहायता की। वे धनिक अरब जो शहरों में रहते थे और खुद खेती नहीं करते थे, उन्हें जमीनों से यहूदियों ने हटा दिया। इससे अरब लोगों की आर्थिक स्थिति खराब होती चली गई। मैनडेट के दौर में जब भी अरब के लोगों के साथ यहूदियों का संघर्ष हुआ तो ब्रिटेन पूरी तरह से यहूदियों के साथ ही दिखा। उसने यहूदियों के आतंकवादी दस्तों को भी पूरी तरह से खत्म नहीं किया। इसके विपरीत जब अरब लोगों की ओर से हिंसा हुई तो ब्रिटेन ने क्रूरता से दमन किया। लेकिन 1946 में यहूदियों के आतंकी संगठनों ने ब्रिटिश सेनाओं पर हमले किए तो उनका विरोध भी नहीं किया गया। इसका एक कारण मध्यपूर्व में ब्रिटेन की दिलचस्पी खत्म होना भी थी। यहां तक कि 1936-39 में अरब हिंसा के बाद ब्रिटेन ने उनके सारे हथियार जब्त कर लिए। इसका परिणाम यह हुआ कि जब फिलिस्तीन का विभाजन 1948 में हुआ और अरब-इजरायल के बीच पहला युद्ध हुआ तो फिलिस्तीनियों के पास हथियार ही नहीं थे। जबकि इजरायली सैन्य दस्तों के पास काफी हथियार थे। इसके अलावा नए साम्राज्यवादी की भूमिका अब अमेरिका के पास आ गई थी और उससे भी इजरायल को हथियार और सैन्य सहायता मिली। दूसरे अमेरिका में बसी यहूदियों की बड़ी संख्या ने भी अमेरिकी राष्ट्रपति को इजरायल के पक्ष में झुका दिया। अमेरिका की नजर अरब देशों में मिलने वाले तेल पर थी और अरबों को भयभीत करने और इस बहाने उन्हें नियंत्रित करने के लिए एक गैर मुस्लिम आक्रामक राष्ट्र की जरूरत भी थी, जिसे इजरायल ही पूरी कर सकता था, जो सांस्कृतिक तौर पर योरोप और अमेरिका के करीब था।
योरोप के अंदर यहूदियों के साथ हुए अन्याय के प्रति एक अपराध बोध भी था और वह इसे दूर करना चाहता था। इसलिए वे इसकी पूरी मदद करते थे। खासतौर पर सैन्य सहायता देकर। इसीलिए जब 1967 के युद्ध में इजरायल ने अरब देशों को बुरी तरह से पराजित किया तो वे योरोप वाले खुश नजर आए कि यहूदियों ने अपना प्रतिशोध ले लिया लेकिन ये प्रतिशोध उनसे लिया गया, जिन अरबों ने कभी यहूदियों को परेशान नहीं किया और अपने देश में उनको रहने के लिए जगह दी। सामान्य नागरिकों की तरह ही रहते थे और वे इजरायल के समर्थक नहीं थे। किताब बताती है कि किस तरह सियोनवादियों ने अरब देशों में यहूदियों को वहां से निकालने के लिए आतंक का सहारा लिया। इसके दो बड़े कारण थे एक धर्म के आधार पर मुस्लिम और यहूदियों में पूर्ण विभाजन करना और दूसरा योरोपीय यहूदियों के लिए सस्ता अरब यहूदी श्रम उपलब्ध कराना। योरोप से आए यहूदी खेतिहर नहीं थे और रोजगार करने वाले मध्यम वर्गीय थे। साथ ही योरोप से आने वाली अप्रवासियों की लहर खत्म हो चुकी थी। तब ऐसे लोगों की जरूरत थी जो श्रम आधारित कार्य कर सकें। इसके लिए अरब देशों के यहूदियों को निशाना बनाया गया। इराक और अन्य जगहों पर सियोनवादियों के एजेंटों ने आतंक बरपा कर उनको विवश कर दिया कि वे वर्तमान देश से बाहर जाए। इन लोगों के आने के बाद इजरायल ने फिलिस्तीन का यहूदीकरण कर लिया।
फिलिस्तीन के यहूदीकरण की प्रक्रिया के साथ ही यहां के अरब निवासियों की समस्या बढ़ती चली गई। शुरू में अरब देशों ने फिलिस्तीन की ओर से लड़ाई लड़ी लेकिन मिस्र, जार्डन और सीरिया के अपने हित थे। ये देश इजरायल से तो लड़ रहे थे लेकिन इन्हें निर्वासित फिलिस्तीनी अरबों की चिंता ज्यादा नहीं थी। इसलिए 1965 तक फिलिस्तीनी अपनी लड़ाई खुद लडऩे को मजबूर हो गए। पीएलओ के गठन के बाद यासर अराफात के नेतृत्व में अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर फिलिस्तीनियों की हालत को एक राजनीतिक विषय बना दिया गया। 1973 के युद्ध और तेल संकट के बाद अमेरिका ने भी दिखावे के लिए ही सही वार्ताओं और अरबों की समस्याओं की सुध लेनी शुरू की। अमेरिका ने वार्ताओं में मध्यस्थ की भूमिका निभानी शुरू की लेकिन अमेरिका किसी भी हालत में इजरायल को कमजोर होते नहीं देख सकता था। इसलिए न तो अमेरिका निष्पक्ष था और न उसकी फिलिस्तीनियों के प्रति सहानुभूति ही थी। अमेरिका ने इजरायल और मिस्र के बीच 1978 में कैंप डेविड समझौता करवाकर अरब देशों की एकता को तोड़ दिया। इस समझौते से फिलिस्तीनी ठगे से रह गए। अमेरिका की शह पर इजरायल की हठधर्मिता और दमन की कार्रवाई लगातार जारी रही। इसलिए जो भी वार्ताएं ओस्लो या कैंप डेविड में हुईं उनमें फिलिस्तीन और अरब हमेशा कमजोर स्थिति में रहे। फिलिस्तीनियों के उनके मूल निवास लौटने के अधिकार के बारे में इजरायल कुछ भी सुनने को तैयार नहीं है, जबकि संयुक्त राष्ट्र का पहला प्रस्ताव ही इस अधिकार को मान्यता देता है। 1993 समझौते के बाद गाजा और वेस्ट बैंक में फिलिस्तीनी अथारिटी की स्थापना का मार्ग खुला लेकिन इसमें भी कई किंतु-परंतु शामिल रहे। न येरूसलम का मसला हल हुआ, न फिलिस्तीन पूरा राष्ट्र बना और न इजरायल ने इन इलाकों से बस्तियां कम कीं। सबसे दुखद यह है कि इजरायल ने इस समझौते को भी पूरी तरह से लागू नहीं किया है। इधर, साठ साल बाद भी इस समस्या का कोई समाधान होता नजर नहीं आ रहा है। अराफात के मौत के बाद कमजोर होते पीएलओ और इजरायली दमन ने फिलिस्तीनी आंदोलन के धर्मनिरपेक्ष स्वरूप को भी खत्म कर दिया। आंदोलन की शुरुआत में मुस्लिम और ईसाई फिलिस्तीनी एकजुट होकर अपनी लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन बाद में हमास के उदय ने इसे धार्मिक रंग दे दिया। 2006 में फिलिस्तीनी अथारिटी के चुनावों में हमास की जीत ने इजरायल और अमेरिका दोनों को परेशानी में डाल दिया। इसने समस्या को पहले से भी जटिल बना दिया है। एक हमास इजरायल के अस्तित्व को स्वीकार ही नहीं करता और उसको खत्म करना ही उसका उद्देश्य है तो इजरायल और अमेरिका ने हमास को आतंकवादी संगठन घोषित कर रखा है। इस बीच हमास और पीएलओ में मतभेद इतने बढ़ गए कि एक फिलीस्तीनी अथॉरिटी गाजा और वेस्ट बैंक में बंट कर रह गई। इजरायल ने मौके का लाभ उठाकर गाजा को नाकाबंदी और चेकपोस्ट लगाकर उसे बड़ी जेल में तब्दील कर दिया है। तमाम अंतर्राष्ट्रीय दबावों के बाद भी इजरायल अपनी दमनात्मक कार्रवाई खत्म नहीं कर रहा।
यह किताब अरब देशों में एक साल पूर्व हुए व्यापक आंदोलन से पहले लिखी है, जिसका जिक्र लेखक ने भूमिका से पहले ही कर दिया है। इसलिए यह अभी आंकलन नहीं किया जा सकता कि इसका फिलिस्तीन मामलों पर क्या, कितना और कैसा प्रभाव पड़ेगा। लेकिन फिलिस्तीन का मामला अब भी बेहद पेचीदा बना हुआ है, जिसमें लगातार नई गांठें पड़ती जा रही हैं।
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