रोहिणी हेन्समान
गोडसेज् चिल्ड्रेन: हिंदुत्व टेरर इन इंडिया:फारोस मीडिया एंड पब्लिशिंग पृ.: 400, मूल्य: रू. 360
द सेफ्रन कंडीशन: पॉलिटिक्स आफ रिप्रेरशन एंड एक्सक्लूजन इन निओलिबरल इंडिया: थ्री एस्सेज् कलेक्टिव, पृ.: 475, मूल्य: रु. 500
दोनों के लेखक: सुभाष गाताडे
अगर इन दोनों किताबों के सार को एक ही वाक्य में कहा जाए तो वह इस प्रकार होगा: भारत में फासीवाद का खतरा मंडरा रहा है। जहां 'गोडसेज चिल्ड्रेन' (इसके आगे 'जीसी') हिंदुत्व आतंकवाद की परिघटना पर केंद्रित करती है, वहीं 'द सेफ्रन कंडीशन' (इसके आगे टीएससी) तीन हिस्सों में बंटी हुई है: केसरियाकरण एवं नवउदारवादी राज्य, भारत में जाति की सियासत और राज्य तथा मानवाधिकार। इस तरह दोनों किताबों में एक हिस्सा एक तरह का साझा है, जहां हिंदुत्व आतंक का प्रश्न 'सेफ्रन कंडीशन' में आता है, मगर गोडसेज चिल्ड्रेन में उस पर अधिक विस्तार से चर्चा की गई है।
गाताडे पूछते हैं कि ''आजाद भारत में आतंकवाद की पहली कार्रवाई किसे कहा जा सकता है ?'' और जवाब देते हैं, ''हर कोई इस बात से सहमत होगा कि नाथूराम गोडसे नामक हिंदू अतिवादी द्वारा 30 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी की हत्या स्वतंत्र भारत की सबसे पहली आतंकवादी कार्रवाई कही जा सकती है। ''(जीसी 41) अगर 'आतंकवाद' का मतलब राजनीतिक मकसद के लिए नागरिकों के खिलाफ हिंसा या हिंसा की धमकी, तो महात्मा गांधी की हत्या निश्चित ही एक आतंकी कार्रवाई कही जा सकती है। यहां इस बात को रेखांकित किया जा रहा है कि भारत में 'हिंदू राष्ट्र' निर्माण के हिंदुत्व एजेंडे के लिए आतंकवाद कोई नई चीज नहीं है। लेखक हिंदू महासभा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और विनायक दामोदर सावरकर के बीच गांधी हत्या के लिए जारी षडयंत्र पर रोशनी डालता है। यहां एक दिलचस्प बात सामने आती है कि 1934 के बाद गांधी की हत्या के लिए कम से कम पांच कोशिशें हुई थीं, जिनकी परिणति 1948 में हुई। यह इस बात को खारिज करता है कि बंटवारे के लिए गांधी का समर्थन उनकी हत्या का कारण बना।
गांधी एक श्रद्धालु हिंदू थे और सामाजिक तौर पर काफी रूढिवादी थे; आखिर ऐसी क्या बात हुई कि हिंदू राष्ट्रवादी उनसे इतनी घृणा करते हैं कि उन्होंने उन्हें मारने के लिए कई प्रयास किए जिसमें अंतत: वह सफल हुए?
दरअसल नस्ल, धर्म, लिंग, आदि को लांघते हुए लोगों की एकता का विचार, जिसकी गांधी ने ताउम्र हिमायत की ..वह संघ और हिंदू महासभा के एकांतिक/गैरमिलनसारी, हिंदू वर्चस्ववादी विश्व दृष्टिकोण के लिए शाप है। और, जबकि हिंदुत्ववादी ताकतों के कल्पनाजगत में 'राष्ट्र' के मायने एक नस्लीय/धार्मिक गढंत है, वहीं गांधी एवं बाकी राष्ट्रवादियों के लिए वह एक इलाकाई गढ़ंत या विभिन्न समुदायों को अपने में समाहित करनेवाला सीमाबद्ध इलाका था। (जीसी 44)
महात्मा गांधी की हत्या भारत को एक बुनियादी तौर पर सेक्युलर, जनतांत्रिक संविधान अपनाने से रोक नहीं सकी। हिंदू राष्ट्र के लिए काम करने का एक दूसरा तरीका था समय-समय पर मुसलमानों के, और कभी-कभार अन्य अल्पसंख्यकों के, कत्लेआमों का आयोजन करना। इसमें हम 1983 के नेल्ली कत्लेआम को रख सकते हैं जब अनुमानत: 3, 300 मुसलमान पुरुष, महिलाएं एवं बच्चे मार दिए गए। आम बोलचाल की भाषा में इन्हें 'दंगे' कहा जाता है लेकिन यह गलत शब्द है जो हिंसा के स्वत:स्फूर्त उभार की तरफ संकेत करता है, जबकि ऐसे मामलों में संपन्न सभी जांचें यही बताती हैं कि इन घटनाओं की सुचिंतित योजनाएं बनायी गईं और उन पर अमल किया गया; इनके लिए अधिक उचित शब्द होगा 'जनसंहार'। जैसा कि गाताडे रेखांकित करते हैं, इन जनसंहारों का सबसे विचलित करनेवाला पहलू यही है कि निम्न स्तर के चंद कार्यकर्ताओं को छोड़ दें तो ऐसे मामलों में असली कर्णधार कभी दंडित नहीं किए जा सके हैं। इसके अलावा '' वही नागरिक समुदाय जो आतंकवाद की मुखर मुखालफत करता दिखता है वह ऐसी अंधा-धुंध हिंसा और आगजनी के प्रति अजीब किस्म की अस्पष्टता बरतता है। '' (जीसी 62) जहां आतंक के शिकार अल्पसंख्यक या दलित होते हैं वहां दंडमुक्ति ही नियम दिखता है।
यही वह पृष्ठभूमि है जिसमें अधिक सीमित अर्थां में कहें तो हिंदुत्व आतंक का प्रादुर्भाव होता है। 'जीसी' में उल्लेखित घटनाएं (जिनमें ऐसी घटनाएं भी शामिल हैं जहां आतंकियों ने दुर्घटना में खुद को ही खत्म कर दिया, संभावित आतंकियों को दिया जानेवाला प्रशिक्षण और मुसलमानों को फंसाने के लिए बनायी गई बम विस्फोटों की योजनाएं) तमाम सारी हैं, जिनमें एस एम मुशरिफ की किताब 'हू किल्ड करकरे ?' में उद्धृत घटनाएं भी शामिल की गई हैं। सूची इस प्रकार है: जीलेटिन की छडिय़ों के उपयोग के लिए प्रशिक्षण कैम्प (पुणे, महाराष्ट्र, 2000); हथियारों और बम बनाने के लिए ट्रेनिंग कैम्प (भोसला मिलिटरी स्कूल, नासिक, महाराष्ट्र, 2001); मस्जिदों एवं मदरसों पर बम हमलों का सिलसिला (सहारनपुर, उत्तर प्रदेश, 2002); आग्नेयास्त्र प्रशिक्षण शिविर (भोपाल, मध्यप्रदेश, 2002); एक मुस्लिम समागम में रखे गए बम (भोपाल, 2002); गुजरात दंगों में बमों का निर्माण एवं प्रयोग (2002); महिलाओं के लिए हथियार प्रशिक्षण कैम्प (कानपुर, उत्तर प्रदेश, 2003); मस्जिदों पर बमबारी (परभणी, महाराष्ट्र, 2003); मदरसे एवं मस्जिदों पर बम फेंकने की घटनाएं (पूरणा, महाराष्ट्र, 2004); विस्फोटकों के रखरखाव के दौरान आकस्मिक बमविस्फोट (नांदेड, महाराष्ट्र, 2006); मुस्लिम उत्सव पर खतरनाक बमविस्फोट (मालेगांव, महाराष्ट्र, 2006); भारत-पाकिस्तान समझौता एक्स्प्रेस में बमविस्फोट (हरियाणा, 2007); मक्का मस्जिद बम विस्फोट (हैदराबाद, आंध्र प्रदेश, 2007); अजमेर शरीफ बम विस्फोट (अजमेर, राजस्थान, 2007); मुस्लिम व्यापारियों को दिए गए विस्फोटक (वर्धा, महाराष्ट्र, 2007); एक और आकस्मिक बमविस्फोट (नांदेड, 2007); मस्जिद के बाहर रखे गए बम (पेण महामार्ग, महाराष्ट्र, 2007); नए बस स्टैंड पर बम विस्फोट (तेनकासी, तमिलनाडु, 2008); राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कार्यालय पर बम हमला (तेनकासी, तमिलनाडु, 2008); ऑडिटोरियम में बम विस्फोट (ठाणे, महाराष्ट्र, 2008); ऑडिटोरियम में मिले एवं बेकार कर दिए गए बम (वाशी, महाराष्ट्र, , 2008); सिनेमा हाल में बम (पनवेल, महाराष्ट्र, 2008); आकस्मिक बमविस्फोट (कानपुर, 2008); बेलगांव-हुबली रास्ते पर बरामद जिंदा बम(कर्नाटक, 2008); बाजार में बमविस्फोट (मालेगांव, 2008); बाजार में बम धमाका (मोडासा, गुजरात, 2008); निम्न तीव्रता का बम विस्फोट (कानपुर, 2008); चर्च में बम विस्फोट (ललितपुर, नेपाल, 2009); मडग़ांव में बम धमाका (गोवा, 2009); जिंदा बम बरामद (सन्कोले, गोवा, 2009); प्रायमरी हेल्थ सेंटर में बम विस्फोट (कानपुर, 2010)
वे लोग जो हिंदुत्व आतंकवादी हमलों की खबरों पर निगाह नहीं रखते हैं, उन सभी के लिए इन हमलों की संख्या एवं उनका व्यापक भौगोलिक वितरण अचंभित कर सकता है और यह उजागर कर सकता है, जैसे कि लेखक का कहना है कि यह एक तरह से 'फासीवाद निर्माण की प्रतिक्रियावादी राजनीतिक परियोजना' में सांप्रदायिक दंगों के बजाय आतंकी हमलों का इस्तेमाल करने की नई रणनीति है। (जीसी: 320-21) यह स्पष्ट है कि इक्कीसवी सदी में, भारत में इस्लामिक आतंक के बजाय हिंदुत्व आतंक अधिक सक्रिय रहा है। आखिर क्यों, इस सच्चाई को अधिक व्यापक स्तर पर स्वीकारा नहीं गया है ? इस प्रश्न का जवाब अत्यधिक विचलित करनेवाला लग सकता है, और इस संभावना को खोल सकता है कि अन्य आतंकी हमले जिनके लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया गया उन्हें भी हकीकत में हिंदुत्व आतंकवादियों ने ही अंजाम दिया हो।
इनमें से सभी मामलों में हम पाते हैं कि इन आतंकी हमलों में सबसे पहले मुसलमानों को ही जिम्मेदार ठहराया गया था। यहां प्रस्तुत है एक उदाहरण कि किस तरह निरपराध मुसलमानों को काफ्काई अंदाज में पुलिस ने झूठे मुकदमों में फंसाया था:
अभियोजन पक्ष का यह दावा था कि उसने 1 जुलाई 2005 को गुडग़ांव-दिल्ली रोड पर चली गोलीबारी के बाद अभियुक्तों को गिरफ्तार किया। दिल्ली पुलिस का कहना था कि कार में बैठे चार अभियुक्तों ने भागने की कोशिश की जब उन्हें रुकने के लिए कहा गया। यह भी दावा किया गया था कि अभियुक्तों ने पुलिस टीम पर गोलियां बरसायीं। कुछ मिनटों तक चली मुठभेड़ के बाद, पुलिस ने इस टीम को पकड़ा और उनसे एक फौजी यूनिफॉर्म, पचास हजार रुपए के नकली नोट और पालम हवाई अड्डे का नक्शा 'बरामद किया। ' न्यायधीश यह जान कर हैरान थे कि 1-2 जुलाई की रात को ऐसी कोई मुठभेड़ उपरोक्त रोड पर नहीं हुई थी और स्पेशल स्टाफ के दफ्तर में बैठ कर रवींद्र त्यागी के नेतृत्ववाली टीम ने कहानी को गढ़ा था।
इसी किस्म की कहानियां एक के बाद एक केस में दोहरायी जाती हैं: पुलिस अधिकारी, अक्सर गुप्तचर एजेंसियों के साथ मिल कर, निरपराध मुसलमानों को गिरफ्तार करते हैं, हिरासत में रखते हैं और यातनाएं देते हैं। (परिशिष्ट 6 जीसी: 359, में एक पीडि़त के साथ क्या किया गया इसका विवरण दिया गया है। ) कई सालों के बाद, जब उनके मामलों में सुनवाई चलती है, उन्हें दोषमुक्त करार दिया जाता है, लेकिन इस दौरान उनकी जिंदगियां तबाह हो चुकी होती हैं और उनके परिवार बरबाद हो चुके होते हैं। इस दौरान, असली हत्यारे मारने के लिए आजाद घूमते रहते हैं।
इस नियम के अपवाद थे हेमंत करकरे, जो जनवरी 2008 से महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते के प्रमुख थे। आतंकवादी हमलों में मिले सुरागों का विधिवत अनुसरण करते हुए, जिसमें वर्ष 2008 का मालेगांव आतंकी हमला भी शामिल था, करकरे ने हिंदुत्व आतंकी नेटवर्क के खिलाफ सबूत जुटाने और उनके सदस्यों को गिरफ्तार करने का सिलसिला शुरू किया जिसमें साध्वी और स्वामी, पूर्व एवं वर्तमान सेना के अफसर और अन्य दक्षिणपंथी कार्यकर्ता शामिल थे। लोगों को लग सकता है कि आतंकियों को सलाखों के पीछे करके महाराष्ट्र को सुरक्षित करने के लिए करकरे को सम्मानित किया जाएगा और वाकई ऐसे लोग थे जिन्होंने उनके काम को सम्मान एवं प्रशंसा के साथ देखा। मगर भाजपा, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिंदू परिषद और शिवसेना के लोगों ने उन्हें देशद्रोही कहा और मांग की कि उन्हें एटीएस के प्रमुख पद से बर्खास्त किया जाए और उन्हें मौत की धमकियां (जीसी: 141-44, 148-49)
मुंबई में 26 नवम्बर 2008 को हुए आतंकी हमलों के दौरान करकरे मारे गए और उनकी विधवा कविता, विनीता कामटे (अशोक कामटे की विधवा, दूसरे पुलिस अधिकारी जो उनके साथ मारे गए) और मुशरिफ द्वारा सामने लाए गए सबूत बताते हैं कि उनकी मौत के बारे में प्रस्तुत आधिकारिक विवरण पूरी तरह से अविश्वसनीय है, जिससे इस आशंका को बल मिलता है कि उन्हें हिंदुत्ववादी कार्यकर्ताओं ने मारा था। 'हार्डन्यूज' एक लेख को गाताडे उद्धृत करते हैं जो इस बात पर जोर देता है कि जिन गोलियों से करकरे की मौत हुई उन्हें कभी चिह्नित नहीं किया जा सका और उनकी ट्रेजेक्टरी (प्रक्षेप पथ) - कंधे के ऊपर से नीचे की तरफ न कि आगे, पीछे या बगल से - बताती है कि वे गोलियां उनके वाहन में बैठे पुलिसकर्मी ने ही चलायी न कि किसी बाहरी आतंकी ने (जीसी: 152-53)। वह निष्कर्ष निकालते हैं कि करकरे और उनके साथ मारे गए अन्य पुलिस अधिकारियों की मौत की जांच के लिए अलग जांच आयोग बिठाना चाहिए, यह एक ऐसी मांग है जो कई लोगों ने उठाई है।
इस तरह इस बात के पर्याप्त सबूत मौजूद हैं कि पुलिस एवं गुप्तचर एजेंसियों में हिंदुत्व आतंक के सहयोगियों ने बड़े पैमाने पर घुसपैठ की है। मगर सडांध ऊपर तक फैली है। लेखक इस बात को रेखांकित करता है कि कई बम धमाके (उदा. समझौता एक्स्प्रेस बम धमाका) ऐसे वक्त पर किए गए हैं ताकि भारत-पाकिस्तान की वार्ताओं में खलल डाली जाए, जिसका समय निम्न स्तर के कार्यकर्ताओं को मालूम नहीं हो सकता; ऐसे कामों की रूपरेखा तैयार करनेवाले और मास्टरमाइंड निश्चित ही राज्य मशीनरी में ऊपरी कतारों में विराजमान होंगे। लेखक का यह भी मानना है कि भाजपाशासित राज्यों में, हिंदुत्व आतंक की खोज का मामला हमेशा ही ढीला पड़ता रहा है भले ही पुलिस विभाग की तरफ से उसे उठा दिया जाए, जो इस बात को प्रमाणित करता है कि हिंदुत्व ताकतों की प्रशासन में उच्च स्तर पर दखलंदाजी है। 'छिपे हुए आतंकियों' में लेखक मीडिया के उन तत्त्वों को शामिल करता है जो 'उनमें शामिल विसंगतियों एवं बचाव के रास्तों को उजागर करने' के बजाय 'गुप्तचर एजेंसियों की विज्ञप्तियों को अंतिम सत्य मानते हैं'। 'इसमें निश्चित ही कुछ सम्माननीय अपवाद हैं, मगर वर्चस्वशाली मीडिया का हिंदुत्व की तरफ झुकाव स्पष्ट है। ' (जीसी: 336-37) बार एसोसिएशनों ने भी आतंकवाद के आरोपी मुसलमानों के मामलों को लडऩे से मना करने जैसे अनैतिक कामों का बढ़ावा दिया है, जबकि ये मामले नितांत मनगढ़ंत रहे हैं। गाताडे दो साहसी वकीलों का उल्लेख करते हैं जिन्होंने इस पाबंदी की मुखालफत की और इसके चलते विरोधियों के हमलों को भी झेला, (जीसी: 169-70) मगर वह शाहिद आजमी को भूल जाते हैं, जिनकी बंबई में 2010 में तब हत्या हुई जब वह अदालत के सामने इस बात को प्रमाणित कर चुके थे कि उनके मुवक्किल फाहिम अंसारी को पुलिस ने 26 नवंबर के आतंकी हमलों में जबरन फंसाया है।
कथित सेक्युलर पार्टियों ने भी इस चुनौती से मुकाबले की बात नहीं की है। कांग्रेस पार्टी के जिन वरिष्ठ नेताओं - दिग्विजय सिंह और पी चिदंबरम - ने हिंदुत्व आतंकवाद के खिलाफ खुलकर बोला है, उन्हें पार्टी में से किसी ने भी समर्थन नहीं दिया है; जिसके पीछे यही समझदारी काम कर रही है कि आम हिंदुओं को नाराज नहीं किया जाए ( जीसी: 325-26, 329-30)। लेकिन इस बात पर यकीन नहीं किया जा सकता कि पार्टी धर्म, हिंदुइज्म/हिंदू धर्म और हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा के बीच फर्क कर पाने की स्थिति में नहीं है। हिंदुत्व आतंक को लेकर कांग्रेस की नरमी का नतीजा यह है कि कांग्रेस शासित राज्यों में भी निरपराध मुसलमानों को जेल में डाला गया है और यातनाएं दी गई हैं, ऐसी आतंकी कार्रवाइयों के लिए जिसको उन्होंने अंजाम नहीं दिया, जबकि वास्तविक अपराधियों को आजाद छोड़ा गया है ताकि वे और हत्याओं को अंजाम दे सकें। लेखक के मुताबिक 'इस परिघटना का सबसे विचलित करनेवाला पक्ष यह है कि वामपंथ, खासकर उसकी मुख्यधारा के लोग, सही अवसर पर अपनी आवाज बुलंद नहीं कर सके हैं। ' (जीसी: 24)
इस स्थिति में और नात्सीपूर्व जर्मनी में - जिसके बारे में आर्थर रोजेनबर्ग ने अपने निबंध ''फासीज्म एज ए मास मूवमेंट' (जिसका अनुवाद जयरस बानाजी ने 'हिस्टॉरिकल मटेरियालिज्म, 20(1), 2012 में किया है) में लिखा है। यहां इस बात को रेखांकित किया गया है कि फासीवादी विचारधारा जिसे बाद में हिटलर ने एवं नात्सियों ने इस्तेमाल किया कई दशकों से विद्यमान थी। भारत के संदर्भ में संबधित विचारधारा को सांप्रदायिकता कहा जा सकता है। जब तक 'सांप्रदायिकता के खिलाफ समझौताविहीन संघर्ष' चलाने के गाताडे के आवाहन पर ध्यान नहीं दिया जाता, भारत उसी दिशा में आगे बढ़ता दिख सकता है।
नात्सीवाद के साथ साम्य नरेंद्र मोदी की अगुआई वाले गुजरात में और स्पष्ट दिखता है, जैसा कि लेखक 'आशवित्झ आफ अवर टाईम्स' (टीएससी: 42) और 'मोदीज गुजरात' (टीएससी 52) में रेखांकित करता है। बड़े पैमाने पर हुए सामूहिक बलात्कार एवं मुसलमानों के सामूहिक हत्याकांड की घटनाएं, जिसके साथ जगह-जगह उनके मकानों, दुकानों एवं अन्य संपत्ति तथा धार्मिक स्थानों में संगठित आगजनी, एक तरह से इस राज्यव्यापी हत्याकांड को इंसानियत के खिलाफ अपराध की श्रेणी में तो रखती हैं भले ही इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट के रोम विधान के अंतर्गत उसे जनसंहार के तौर पर रखा नहीं जा सकता। मुसलमानों का निरंतर जारी घेट्टोकरण और उनके साथ जारी अत्याचार, अत्याचारियों को आज भी मिली दंडमुक्ति (जिसे साहसी बचे हुए लोगों एवं उनके समर्थकों द्वारा अदालत में बार बार चुनौती दी जा रही है) और 'राज्य के लोगों में पश्चात्ताप की भावना की अनुपस्थिति' (टीएससी: 59) दरअसल फासीवाद के जनांदोलन होने का ही परिचायक है। मिथ्याकृत इतिहास की किताबों (जिसमें हिटलर का महिमामंडन भी शामिल है) (टीएससी: 59) द्वारा बच्चों को शिक्षा प्रदान करना, एक तरह से नई पीढ़ी को विचारधारा से लैस करने की कोशिश दिखती है। कानून के राज के विनाश की अंतिम परिणति उस उदाहरण में भी परिलक्षित होती है जब एक युवा दलित विद्यार्थिनी को सरकारी टीचर्स ट्रेनिंग कालेज में छह अध्यापकों द्वारा बार-बार सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया जाता है और इस मामले में दखल देने के लिए कोई आगे नहीं आता। (टीएससी: 60-65) यहां इस बात को भी जोड़ा जा सकता है कि अग्रणी उद्योगपतियों द्वारा मोदी को भावी प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करना और अमिताभ बच्चन जैसे बालीवुड अभिनेताओं द्वारा मोदी के गुजरात का ब्रांड अंबेसडर बनने को राजी होना यही दिखाता है कि अभिजातों का एक हिस्सा फासीवाद की हिमायत में है।
लेखक बार-बार इस मुद्दे को रखता है कि जहां पूर्ण विकसित फासीवाद संघ परिवार की ही करतूत हो सकती है, मगर अन्य पार्टियों की - जिसमें कांग्रेस भी शामिल है - नरम सांप्रदायिकता (उदाहरण के लिए, इनके कुछ सदस्यों का धर्मांतरण के लिए विरोध) अतिवाद के फलने-फूलने का जरिया बनती है। जाति द्वारा सोपानक्रमनुमा संरचित समाज जिसकी वैश्विक स्वीकार्यता हो एक अन्य कारक है जिसने इस विकास को मुमकिन बनाया है। दलितों के खिलाफ योजनाबद्व भेदभाव, मैला ढोने जैसे अपमानजनक कामों के लिए उन्हें मजबूर करना, उन्हें सामूहिक बलात्कारों, हत्याओं एवं आगजनी के हमलों का शिकार बनाना, इसी बात का परिचायक है कि अस्पृश्यता और जाति उत्पीडऩ की प्रथा अभी समाप्त नहीं की जा सकी है। मगर इसका इलाज क्या हो सकता है ? जाति के तर्क पर केंद्रित भाग (टीएससी: 207-324) इस सवाल की पड़ताल करता है।
लेखक यह भी पूछता है कि एक ही किस्म के उत्पीडऩों को झेलने के बावजूद आखिर दलित और मुसलमान एकजुट क्यों नहीं हो सके हैं। इसके विपरीत, कुछ मामलों में सांप्रदायिक हिंसाचार के दौरान दलित और आदिवासी हिंदुत्व के तूफानी दस्तों के तौर पर शामिल होते दिखे हैं (उदा. गुजरात में ) हालांकि कइयों ने मुसलमानों के साथ एकजुटता भी प्रदर्शित की है। कांचा इलैया ने इसके लिए मुस्लिम बुद्धिजीवियों को जिम्मेदार ठहराया है जिन्होंने जाति और अस्पृश्यता के मसलों के प्रति बेरुखी का प्रदर्शन किया है, लेकिन गाताडे इस मामले में सही हैं कि यह समझदारी इस बात को स्पष्ट नहीं करती कि वही दलित जो अस्सी के दशक की शुरुआत में आरक्षण विरोधी दंगों के दौरान जातिवादी-हिंदुत्ववादी हिंसा के निशाने पर थे वह अपने उत्पीड़कों के साथ साझा कायम कर सके। (टीएसी: 223) लेखक का मानना है कि यह दलित अस्मिता का हिंदू अस्मिता के 'व्यापक छाते' में समाहित होने का मामला है और वह इस बात को रेखांकित करता है कि बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद हुए सांप्रदायिक हिंसाचार में हिंदू महिलाओं की व्यापक भागीदारी के साथ इसकी तुलना की जा सकती है, जबकि यह हकीकत है कि हिंदुत्व महिलाओं के प्रति उसी तरह उत्पीड़क है। वह स्पष्ट करता है कि सामाजिक गतिशीलता के लिए दलितों के सामने दो ही रास्ते उपलब्ध हैं: जातिप्रथा को वैध ठहरानेवाले धार्मिक ढांचे को खारिज करना और एक वैकल्पिक पहचान बनाने की कोशिश करना या वर्चस्वशाली जातियों का अनुकरण करते हुए सामाजिक सोपानक्रम पर ऊंचा चढऩा। परिवार के 'ब्राह्मिनिकल-फैसिस्ट प्रोजेक्ट' में उनका समाहित हो जाना (टीएससी: 230) एक तरह से परवर्ती का उदाहरण है।
गाताडे बहुजन समाज पार्टी के प्रयोग की पड़ताल को खासकर बेहद महीन ढंग से और नए तरह से करते हैं। वे दिखाते हैं कि इस प्रयोग ने उत्तर प्रदेश के दलितों की स्थिति में वास्तविक सुधार किया है और इसके बावजूद, भाजपा के साथ गठबंधन करके, संघ परिवार की गतिविधियों की उपेक्षा करके और मायावती द्वारा मोदी की हिमायत के कारण, उसने हिंदुत्व एजेंडे को ही मदद पहुंचायी है। निष्कर्ष यही निकलता दिखता है कि हालांकि राज्यसत्ता का इस्तेमाल दलितों के हितों को आगे बढ़ाने के लिए किया जा सकता है, मगर उसे किसी भी तरीके से हासिल करने की मांग एक तरह से ऐसी स्थितियों को जन्म देती दिखती है जो अंतत: दलित मुक्ति के मकसद को कमजोर करता है। 'बहुजन' पहचान से 'सर्वजन' पहचान की तरफ संक्रमण एक तरह से बताता है कि किस तरह चुनावी राजनीति पार्टी के एजेंडे को प्रभावित करती है।
दलितों के खिलाफ आज भी जारी अत्याचार और जिस तरीके से प्रोटेक्शन आफ सिविल राइट्स एक्ट (1955) और अनुसूचित जाति और जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम (1989) को उलट दिया जाता है वह इसी बात की याद दिलाता है कि किस तरह वे लोग जो मुसलमानों के साथ बलात्कार करते हैं और उन्हें मार डालते हैं, बेदाग छूटने में कामयाब होते हैं। और इस मामले में भी 'सिविल समाज' की भूमिका उदाहरण देने लायक नहीं रहती: 'सिविल समाज ...जातिआधारित विषमताओं, अपमानों एवं अनुसूचित जातियों के खिलाफ हिंसा को जारी रखने में सहअपराधी होता है। ' लेखक कहता है कि 'जब तक जाति विषमता को सिद्धांत और व्यवहार दोनों स्तरों पर स्वीकारा जाएगा, तब तक कानूनी संविधान की जाति-आधारित समाजों के नैतिक बुनियाद पर कोई असर नहीं पड़ सकता। ' (टीएससी 270)
इसके मायने यही निकलता है कि जाति का उन्मूलन ही एकमात्र समाधान है, और सुरक्षात्मक कार्रवाई के तौर पर लागू आरक्षण को इसी विश्वास के साथ लागू किया गया था। मगर 60 साल के बाद, न केवल दलित आज भी हिंसा एवं भेदभाव झेल रहे हैं, बल्कि वह भी जाति के आधार पर बंटे हुए हैं और जाति आज भी सर्वव्यापी बनी हुई है। प्रस्तुत किताब की कमजोरी यह है कि वह संभावित वैकल्पिक रणनीतियों की - जैसे समान अवसरों के लिए विधेयक के लिए मुहिम - बात नहीं करता, जिनके जरिए दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों को एक मंच पर लाया जा सकता है।
टीएससी का अंतिम हिस्सा उन तमाम तरीकों पर केंद्रित है जिनके जरिए राज्य मानवाधिकारों पर हमला करता है: जैसे सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम के जरिए, जो सशस्त्र बलों को यह अधिकार देता है कि वह दंडमुक्ति के साथ मानवाधिकारों का उल्लंघन करे, फर्जी मुठभेड़ें, यातनाएं, सामाजिक विरोध प्रदर्शनों पर हमले, मानवाधिकार हिमायतियों को मिलती जेल वगैरह। इरोम शर्मिला का संघर्ष, जो विगत एक दशक से सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम के खिलाफ भूख हड़ताल पर हैं और विनायक सेन, मानवाधिकार कार्यकर्ता और एक डॉक्टर जो गरीबों की सेवा में मुब्तिला हैं, उनकी चर्चा की गई है।
गाताडे वामपंथी लेखकों-कार्यकर्ताओं के उस छोटे हिस्से से हैं जिन्होंने भारत में फासीवाद के विकास के खतरे की गंभीरता को पहचाना है। इन महत्त्वपूर्ण किताबों की व्यापक स्तर पर चर्चा होनी चाहिए। हालांकि एक विस्तृत अनुक्रमणिका - जिसमें उपभागों का भी उल्लेख किया गया हो - दोनों में भी उपयोगी साबित हो सकती थी, चूंकि दोनों पुस्तकें लेखों के संकलन हैं और अगर उसे विशिष्ट मसले को जानने के लिए कई अध्यायों को पलटना पड़े तो किसी भी अध्येता के लिए मुश्किल जान पड़ सकता है। उम्मीद की जानी चाहिए कि आनेवाले संस्करणों में इस कमी को दूर किया जाएगा।
(साभार: इकोनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली)
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