सुरेश पंडित
भारतीय साहित्य में मुसलमानों का अवदान : ज़ाफर रज़ा, लोक भारती प्रकाशन, मूल्य 375/-
ISBN : 978-81-8031-402-5
यह पुस्तक एक शोध अध्ययन है जिसे कई वर्षों की मेहनत के बाद तैयार किया गया है। ज़ाफर रज़ा अपने इस अध्ययन को अधिक वैज्ञानिक व वस्तुनिष्ठ बनाने के लिए 29 भारतीय भाषाओं को पांच भागों में विभक्त करते हैं और प्रत्येक भाषा के साहित्य में मुसलमानों के योगदान से संबंधित जानकारियों को खोजकर एकत्र करते हैं और उनका विश्लेषण कर क्रमबद्ध करते हैं।
सारी भारतीय भाषाओं के विकासक्रम तथा साहित्य रचना में मुसलमानों के यथेष्ट योगदान को देखकर लेखक का यह विश्वास सुदृढ़ हुआ है कि भारतीय साहित्य की मूल आत्मा अनेकता में एकता के भाव को समाहित किए बिना पूरी तरह अभिव्यक्त हो ही नहीं सकती। इस भाव ने ही असंख्य परंपराओं, अनेकानेक बोलियों-भाषाओं और विविध धार्मिक आस्थाओं के रहते हुए भी भारतीयों को एक सूत्र में बांधे रखा है। यह पुस्तक सबसे पहले कला और साहित्य के बारे में उन भ्रामक धारणाओं को निरस्त करती है जिनसे इस्लाम और मुसलिम मानसिकता बुरी तरह जकड़े हुए बताए जाते हैं। कहा जाता है कि इस्लाम अपने अनुयायियों को हर तरह की सुंदर रचना से दूर रहने की नसीहत देता है क्योंकि वह काम-विकार पैदा करती है और मनुष्य को चारित्रिक पतन की ओर ले जाती है। लेकिन ज़ाफर रज़ा जोर देकर कहते हैं कि इस्लाम में सौंदर्य को साहित्य एवं कला का मूल तत्त्व माना गया है और इसे सही साबित करने के लिए वे कुर्आन का हवाला देते हैं जिसमें ईश्वर मनुष्य से कहता है, 'तुम्हारे रूप को अत्यंत सुंदर बनाया है मैंने।' (40/64 तथा 12/31) 'इस तरह ईश्वर ही सर्वश्रेष्ठ रचनाकार है।'(23/14) उसके अनुसार सौंदर्य सत्य भी है। शिव भी है। सौंदर्य की रचना मानव कल्याण के लिए होती है न कि उसे गलत रास्ते पर ले जाने के लिए। मुसलिम विचारकों का स्पष्ट मत है कि मनुष्य स्वयं को पर्यावरण के अनुसार ढाल लेता है। वह अनुकूल तत्त्वों को उपयोग में लाता है और अनावश्यक या हानिकारक तत्त्वों का परित्याग कर देता है। वह पर्यावरण पर प्रभाव भी डालता है और उससे प्रभावित भी होता है। वह उससे ज्ञान भी अर्जित करता है और उसी ज्ञान से अपने पर्यावरण को बदल भी देता है।
हजरत अली (मृ. 661 ई.) का मत है कि काव्य किसी जाति के सत्य-असत्य अथवा शिष्टता का आधार होता है। इसलिए कवि एक कर्तव्यनिष्ठ एवं दायित्वपरक समाज की रचना करने के लिए सदा अग्रसर रहता है। वह अपने अंतर्मन से यह जान लेता है कि उसका कौन सा कार्य समाज के लिए लाभदायी है और कौन सा अनिष्टकारी। भारतीय भाषिक संस्कृति को परिभाषित और व्याख्यायित करने का एक तरीका यह हो सकता है कि उन विभिन्न सामाजिक संस्थाओं को समझने का प्रयास किया जाए जो एक मूल्यबोध की अभिव्यक्ति होने के बावजूद देशकाल और परिस्थिति से बंधी जड़ता एवं विकृतियों से ग्रस्त होती हैं। इसलिए उनके माध्यम से संस्कृति के सारतत्त्व की पहचान भ्रांतिपूर्ण भी हो सकती है। संस्थायें स्वयं में संस्कृति नहीं होती, वरन् मूल्य बोध की सिद्धि का देशकालबद्ध प्रयत्न होती हैं। इनके माध्यम से जाना जा सकता है कि देशकाल में किस प्रकार और किस सीमा तक समाज अपने मूल्य बोध की सिद्धियों में सफल अथवा असफल हुआ है। विख्यात संस्कृतिविद् गोविंद चंद्र पांडे का इस संबंध में यह कहना काफी महत्त्व रखता है कि 'वह कोई नियम-संहिता नहीं वरन चिंतन की एक विधि है। इस विधि में उन संवेदनाओं को शामिल करना होता है जिन्हें संस्कृति बोध कहा जाता है। इसी संस्कृति बोध से सृजनात्मकता जन्म लेती है। यह सृजनात्मकता मनुष्य की बौद्धिक क्षमताओं को विस्तार देती है और ऊंचा उठाती है।'
अनेक धर्मों, सभ्यताओं एवं संस्कृतियों को आत्मसात कर लेने के कारण भारतीय संस्कृति को सर्व समावेशी संस्कृति कहा जाता है। यह स्वभावत: प्रगतिशील, सांप्रदायिकता से दूर और सहिष्णुता की भावना से ओतप्रोत है इसीलिए भारत को धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक स्तरों पर एक सूत्र में बांधती है। एक भारतीय को उसकी धर्म के प्रति अटूट आसक्ति से पहचाना जा सकता है। धर्महीन होना उसकी प्रकृति से, संस्कारों से मेल नहीं खाता। लेकिन वह धर्मपरायण होकर भी स्वधर्माग्रही नहीं होता। यही भारतीयता की वह पृष्ठभूमि है जो स्वाधीनता के बाद भारत को धर्म निरपेक्ष राज्य घोषित करने की प्रेरणा देती है।
इस पूर्व पीठिका के बाद उत्तरक्षेत्रीय भाषाओं में सबसे पहले हिंदी साहित्य की श्रीवृद्धि में किए गए मुसलमानों के योगदान की चर्चा है। दरअसल यह एक भाषा समष्टि है क्योंकि इसमें खड़ी बोली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी, हरियाणवी, मैथिली, बघेली, छत्तीसगढ़ी, मगही, भोजपुरी, मारवाड़ी, मेवाती, जयपुरी, मालवी, गढ़वाली, कुमाऊंनी और मेवाड़ी आदि उपभाषाएं भी शामिल हैं। इनका लोक साहित्य अत्यंत समृद्ध है। मुसलमानों की हिंदी साहित्य को दी गई विपुल रचनाओं को ही देखकर भारतेंदु हरिश्चंद्र यह कहने को उद्यत होते हैं कि 'इन मुसलमान भक्तजनन पर कोटिन हिंदू वारिये।'
हिंदी भाषा और साहित्य की परंपरा को विकसित व समृद्ध करने में सूफियों का योगदान अतुलनीय रहा है। इनका आगमन इरान, ईराक तथा मध्य एशिया से हुआ। इनकी सत्यवादिता, न्यायप्रियता एवं शुद्ध आध्यात्मिक जीवनशैली ने भारत के निवासियों का दिल जीत लिया। उनके उदार आचरणों ने धार्मिक कट्टरता की सारी सीमाओं को तोड़ दिया। जल्दी ही ये हिंदू जनमानस से ऐसे घुलमिल गए कि उनके अलग अलग रूप को पहचानना ही मुश्किल हो गया।
शंकराचार्य की मान्यता थी कि भ्रम की वास्तविकता ज्ञान प्राप्त होने तक ही सीमित रहती है। इसका समर्थन ख्वाजा बायज़ीद तै$फूर बिस्तामी (मृ. 921 ई.) के गुरु शेख अबू अली सिंधी के उस वक्तव्य से होता है जिसमें वे कहते हैं कि 'पहले मैं एक ऐसी अवस्था में था कि वह मेरे व्यक्तित्त्व से संबद्ध था। फिर एक ऐसी दशा में आ गया जो उसकी ओर से था। उससे संबद्ध था और उसका था। पहली दशा का अस्तित्त्व भ्रम है, जो ज्ञान से पूर्व था, दूसरी दशा में ज्ञान प्राप्ति के पश्चात, भ्रम का पर्दा उठ जाने से संबद्ध है।' इस कथन में शंकर के अद्वैतवाद को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
रामानंद राम की उपासना पर और बल्लभाचार्य कृष्ण की उपासना पर जोर देते हैं। यह विचारधारा इस्लाम धर्म में पैगंबर की विचारधारा से मेल खाती है। इसीलिए भक्तिकाल में मुसलमान कवि निर्गुण और सगुण दोनों तरह की आस्थाओं को गले लगाते हुए इन दोनों में ही कविता लिखते हैं। दसवीं शताब्दी के अंतिम दशकों में सूफीमत का प्रसिद्ध ग्रंथ - 'कशफ उल महजूब' प्रकाश में आता है। ग्यारहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में शेख जंजानी और उत्तरार्ध में ख्वाजा हुज-वेरी जैसे प्रख्यात सूफी संत अपनी रचनाएं हिंदी को प्रदान करते हैं। उनके शिष्य शेख हमीद उद्दीन नागौरी (मृ.1274 ई.) जिस तरह की कविताएं लिख रहे थे उनमें अपने समय की सूफियों की समन्वयपरक दृष्टि को बखूबी देखा जा सकत है। शेख फरीद गंजशकर के 130 दोहे 'श्लोख शेख फरीद' के शीर्षक के साथ सिक्खों के गुरु ग्रंथ साहब में संकलित हैं। मृ. 1235 ई. के आसपास ही अब्दुर्रहमान की रचना 'संदेश रासक' की चर्चा सुनाई देती है। इसकी विषय वस्तु सूफी विचारधारा के अनुरूप होते हुए भी इसे शृंगार काव्य के रूप में ख्याति प्राप्त होती है। अमीर खुसरो (मृ. 1325 ई.) को भी इसी परंपरा की एक कड़ी के रूप में याद किया जा सकता है।
आश्चर्य है रामानंद के शिष्य होते हुए भी कबीर की विचारधारा उनसे मेल नहीं खाती। कबीर के विषय में एक बार शेख रिज्क उल्लाह (मृ. 1581 ई.), जो स्वयं भी हिंदी के अच्छे कवि थे, अपने पिता शेख सआद उल्लाह से पूछते हैं, 'क्या कारण है कि कबीर की रचनाएं प्रत्येक व्यक्ति पढ़ता है चाहे वह मुसलमान हो या काफिर?' पिता उत्तर देते हैं- 'वे मुव्वहिद (एकेश्वरवादी) थे।' पुत्र पुन: प्रश्न करता है, 'क्या एक मुव्वहिद एक काफिर या एक मुसलमान से भिन्न होता है?' पिता स्पष्ट करते हैं, 'इस सत्य को समझना कठिन है, धीरे-धीरे तुम्हारी समझ में आ जाएगा।'
बहरहाल यह कहा जा सकता है कि 16 वीं शताब्दी तक आते आते हिंदू-मुसलमान भावात्मक एकता के सूत्र में बंध चुके थे। भक्ति युगीन हिंदी कविता संस्कारगत जीवन मूल्यों का प्रतीक बन गई थी। कबीर ने संस्कृत भाषा को कूपजल के समान माना था इसी का परिणाम था कि महाकवि तुलसीदास ने संस्कृत की जगह मुल्ला दाऊद और मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा प्रयोग में लाई गई अवधी भाषा को अपनी काव्य रचना का माध्यम बनाया।
अमीर खुसरो मुख्य रूप से फारसी के कवि थे। परंतु उन्हें लोकप्रिय बनाया उनकी हिंदवी रचनाओं ने। इसी तरह अब्दुर्रहीम खान खाना भी अरबी, फारसी, तुर्की व हिंदी के विद्वान थे। लेकिन उन्होंने अपने नीतिपरक दोहों को आम आदमी के लिए सुगम बनाने हेतु हिंदी को ही अपनाया। कुतबन, मंझन, उस्मान, शेख नबी, जायसी, शेख फरीद, कबीर, रसखान, रसलीन, नवाज, रज्जब, आलम और मीन जाने कितने ही मुसलमान रचनाकारों ने न केवल हिंदी को अपनी अभिव्यक्ति के लिए चुना बल्कि भारतीय संस्कृति के श्रेष्ठ तत्त्वों को अंगीकार करने से भी संकोच नहीं किया। लेकिन जब हम यह देखते हैं कि गैर मुसलिम लेखकों का इस्लाम के प्रति क्या रवैया रहा तो हमें शर्म से सिर झुका लेेना पड़ता है। भारतेंदु द्वारा इस्लामी महापुरुषों की संक्षिप्त जीवनियां तथा सुमित्रानंदन पंत एवं मैथिली शरण गुप्त द्वारा इस्लामी पैगंबरों की कवितात्मक स्तुतियों के अतिरिक्त इस बारे मे कुछ भी उल्लेखनीय नहीं मिलता। आचार्य चतुरसेन शास्त्री तो 'इस्लाम का विष वृक्ष' जैसी पुस्तक लिखकर सदियों से चली आ रही सांप्रदायिक एकता में पलीता लगाने से भी नहीं चूकते। अकेले प्रेमचंद न केवल उनके विरोध में लिखते हैं बल्कि औरों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। वे इसके लिए फोर्ट विलियम को दोषी ठहराते हैं जिसने एक ही जबान के दो रूप प्रतिपादित कर यहां की कौमी जिंदगी को दो टुकड़ों में बांट दिया था। लेकिन खुशी की बात है कि आजादी के बाद इस तरह के विभेदकारी तत्त्वों की नापाक कारगुजारियों को नजरंदाज कर मुसलिम रचनाकारों ने हिंदी में लिखना जारी रखा और पाठकों ने भी उनकी श्रेष्ठ कृतियों को उचित सम्मान देने में कोताही नहीं की।
अरबी तथा फारसी के बाद उर्दू ऐसी भाषा है जिसमें इस्लामी साहित्य सर्वाधिक है। इसलिए इसे मुसलमानों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भाषा माना जाता है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि उर्दू मुसलमानों की ही भाषा है। असल में कोई भाषा कभी किसी संप्रदाय विशेष की नहीं होती। उसका तो अपना एक स्थान, क्षेत्र या राज्य होता है। प्रेमचंद अपना लिखना उर्दू से ही शुरू करते हैं। कृशन चंदर, राजेंद्र सिंह बेदी, फिराक आदि अनेकों हिंदू लेखकों ने उर्दू में लिखकर नाम कमाया है। दूसरी तरफ उर्दू गद्य एवं काव्य में हिंदू धर्म विषयक पुस्तक अन्य भारतीय भाषाओं की तुलना में काफी अधिक हैं। इसमें वेदों के 66 अनुवाद प्रकाशित हो चुके हैं। इसी तरह रामायण, महाभारत, गीता, पुराण, मनुस्मृति एवं योगवशिष्ठ के अनेकों अनुवाद छप चुके हैं।
मौलवी सैयद अहमद देहलवी ने अपने प्रसिद्ध शब्दकोश- 'फरहंगे आसिफिया' की भूमिका में बताया है कि उर्दू में 64 प्रतिशत शब्द संस्कृत मूल पर आधारित हैं। लेकिन वे वहां तत्सम रूप में नहीं तद्भव रूप में ही प्रयोग में लाए जाते हैं। उर्दू के साहित्य पर भी सूफी मत का असर काफी जबर्दस्त रहा है। इसी से उर्दू उदार एवं सहिष्णु बनी रही हैं।
हिंदी और उर्दू साहित्य में मुसलमानों के योगदान की विस्तार से चर्चा कर जा$फर रज़ा कुछ ऐसी भाषाओं की जांच पड़ताल करते हैं जिनका रुतबा अखिल भारतीय स्तर का नहीं है और जो किसी क्षेत्र या जनपद विशेष तक सीमित रही हैं। इनमें कश्मीरी, डोगरी और नेपाली के बारे में तो पाठकों ने जरूर सुना होगा लेकिन बलती, शीना, ब्रोशस्की और खोवार जैसी भाषाओं के नाम संभवत: उनके लिए जाने पहचाने नहीं रहे होंगे। क्योंकि बलती का कार्य क्षेत्र कराकुरम पर्वत के गगनचुंबी शिखरों के बीच का वह भूभाग है जिसे बलटिस्तान कहा जाता था और विभाजन के बाद जिसका छोटा सा भाग पाकिस्तान में चला गया है। इसे लघु तिब्बत भी कहा जाता है। शीना भाषा गिलगित क्षेत्र में ही सिमट कर रह गई है। पहले कभी इसे पिशाच-भाषा या पैशाची भी कहा जाता था। भारत के लद्दाख क्षेत्र में ब्रोशस्की बोली जाती है और खोवार हिंदु कुश पर्वत तथा भारत के बीच के भूखंड पर रहने वाले लोगों की भाषा है। इसी तरह दक्षिण, पूर्व और पश्चिम क्षेत्रों की भाषाओं की अपनी अपनी सीमाएं हैं। यद्यपि इनके निवासी व्यवसायों, काम धंधों व नौकरियों के सिलसिले में जिस किसी भी राज्य में गए हैं वहीं अपनी भाषा जरूर साथ लेकर गए हैं। लेकिन सच यह भी है कि संबंधित राज्यों की भाषाएं उनकी भाषाओं को दूसरे दरजे की ओर धकेलकर स्वयं प्रमुख बनती रही हैं।
इस तरह की पुस्तकों को पढ़ते हुए दो बातें सहज ही समझ में आती हैं। एक यह कि शोध एक अनवरत प्रक्रिया है जो सदियों तक चलती रह सकती है और दूसरी यह कि अंतिम सत्य जैसी कोई चीज नहीं होती, जिसे हम सच मानकर अपनी पीठ थपथपाने से नहीं चूकते उसे अधूरा या एकआयामी साबित करने के लिए दूसरे तथ्य कभी भी कोई खोजकर सामने ला सकता है। जा$फर रज़ा प्रस्तुत प्रबंध को सर्वांग संपूर्ण बनाने के लिए छह सात साल लगा देते हैं लेकिन संतुष्ट नहीं हो पाते। उनकी जिज्ञासु मनोवृत्ति उन्हें इस पर और काम करने के लिए प्रेररित करती है। लेकिन उनकी तर्कबुद्धि उन्हें सचेत करती है कि अब इसे आगे बढ़ाने के लिए दूसरों को सौंप दिया जाए क्योंकि यह भी हो सकता है कि इसी ऊहापोह में कभी सांस उखड़ जाए और जो कुछ किया धरा है वह भी लोगों तक पहुंचने से रह जाए।
वे स्वीकारते हैं कि कई महत्त्वपूर्ण भाषाओं के बारे में वे उतनी जानकारी नहीं जुटा पाए है जितनी की आवश्यकता थी। निश्चय ही वे उन सभी भाषाओं का ज्ञान नहीं रखते जिन्हें इस पुस्तक में शामिल किया गया है। इसलिए वे उन भाषाओं के विशेषज्ञों से सहायता व दिशा निर्देश लेने में कतई संकोच नहीं करते। इतना सब कर लेने के बावजूद कुछ नामों के उच्चारण और वर्तनी के बारे में वे पूरी तरह आश्वस्त नहीं होते। फिर भी उनकी मेहनत और लगन की दाद दी जानी चाहिए जिनके परिणामस्वरूप एक ऐसी पुस्तक हमारे हाथों में आई है जो भारतीय साहित्य को समृद्ध करने के लिए मुसलमानों द्वारा किए गए अद्भुत प्रयासों को रेखांकित करती है।
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