THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Thursday, April 25, 2013

मुक्त व्यापार का हथियार

मुक्त व्यापार का हथियार

Wednesday, 24 April 2013 10:22

अरविंद कुमार सेन 
जनसत्ता 24 अप्रैल, 2013: इस्ट इंडिया कंपनी का अधिकारी टामस रो जब 1615 में व्यापार करने का अखिल भारतीय फरमान हासिल करने के लिए जहांगीर के दरबार में आया था तो उस वक्त विरोध करने वाले दरबारियों से कहा गया कि अंग्रेज कंपनी भारतीय किसानों और दस्तकारों के उत्पादों को पश्चिमी दुनिया के बड़े फलक पर ले जाने का काम करेगी। लूट का वह मंजर गुजरे सदियां बीत गई हैं मगर पूंजी के पुराने हथियार आज भी बरकरार हैं। मुक्त व्यापार के लिए भारत और यूरोपीय संघ (इयू) के बीच 2007 में शुरू हुई बातचीत अब आखिरी दौर में पहुंच चुकी है। 
तमाम विरोध-प्रदर्शन के बावजूद बीते दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की जर्मनी यात्रा के दरम्यान इस समझौते को लगभग पूरा कर लिया गया है। कहा जाता है कि बातचीत और सौदेबाजी में हमेशा मजूबत पक्ष की ही विजय होती है। भारत-इयू मुक्त व्यापार सौदे में भी ईयू ने अपने मतलब की सारे शर्तें मनवा ली हैं। भारत में उठ रही आवाजों को अनसुना कर दिया गया है। लेकिन इस समझौते के अमल में आने के कुछ समय बाद ही साबित हो जाएगा कि इससे देश की अर्थव्यवस्था के चार अहम क्षेत्र (डेयरी, वाहन उद्योग, दवा और सूचना प्रौद्योगिकी) तबाह होने जा रहे हैं। 
दशकों से बर्बादी के कगार पर खड़े भारतीय कृषिक्षेत्र में गर्व करने लायक कुछ ही चीजें हैं और इनमें से एक सहकारी आधार पर खड़ा हुआ डेयरी आंदोलन है। दिवंगत वर्गीज कुरियन की अगुआई में शुरू हुए अमूल आंदोलन की सफलता को देश के कई हिस्सों में दोहराया गया और किसान आधी-अधूरी ही सही लेकिन दुग्ध क्रांति करने में सफल रहे। डेयरी आंदोलन ने किसानों को खेती में होने वाले जोखिम से सुरक्षा दी और धीरे-धीरे यह दुग्ध आंदोलन गुजरात, हरियाणा और आंध्र प्रदेश समेत देश के कई सूबों में किसानों को घोर गरीबी के दलदल से निकालने में सफल रहा है। शुरुआती कामयाबी के बावजूद देश का डेयरी आंदोलन राजनीति की चपेट में आ गया है।
सहकारी समितियों पर नेताओं का कब्जा होने के साथ ही इस उद्योग के लिए आधारभूत ढांचा खड़ा करने का काम अधर में लटक गया। नतीजा, पूरे देश में डेयरी उत्पादों का वितरण करने वाली कोई अखिल भारतीय कंपनी विकसित नहीं हो पाई और डेयरी क्षेत्र छोटी कंपनियों के बीच बंट गया। ये छोटी कंपनियां कम पूंजीगत आधार के कारण एक तरफ किसानों को ऊंची कीमत नहीं दे सकतीं, वहीं वैश्विक मानकों वाले डेयरी उत्पाद तैयार करने की तकनीक खरीदने में सक्षम नहीं हैं। लचर आधारभूत ढांचे के कारण छोटी डेयरी कंपनियां देश के दुग्ध उद्योग की पूरी क्षमता का दोहन नहीं कर पाई हैं।
कोई भी सरकार ऐसे माहौल में आधारभूत ढांचे को मजबूत करने के लिए आर्थिक मदद मुहैया करवाती और डेयरी क्षेत्र को वैश्विक मुकाबले का सामना करने के लिए तैयार किया जाता। हमारी सरकार ने इस दिशा में आगे बढ़ने के बजाय भारत-ईयू मुक्त व्यापार समझौते के जरिए डानोने, लाकटालिस, आरला फूड्स और बोनग्रेन जैसी भीमकाय कंपनियों को बुलाने का फैसला किया है। यह दीगर बात है कि यूरोपीय देशों की सरकारें डेयरी कंपनियों को भारी सबसिडी देती हैं और इसी के बूते इन डेयरी कंपनियों ने वैश्विक बाजार पर कब्जा किया है। वहीं भारत में सबसिडी तो दूर, कम मुनाफे के कारण डेयरी क्षेत्र एक बड़े उद्योग के रूप में विकसित नहीं हो पाया है।
हमारे देश का डेयरी क्षेत्र बेहद छोटी-छोटी कंपनियों के बीच बंटा हुआ है और कोई भी कंपनी यूरोपीय डेयरी कंपनियों की आर्थिक हैसियत का मुकाबला करने में सक्षम नहीं है। किसी एक भारतीय डेयरी कंपनी की पूरे देश में मौजूदगी नहीं है और इसी कमजोरी का फायदा यूरोपीय कंपनियां उठाना चाहती हैं। मसलन, अमूल डेयरी गुजरात और दिल्ली, महानद डेयरी मुंबई, सुधा डेयरी बिहार और सरस डेयरी राजस्थान में मौजूद हैं लेकिन कोई भी कंपनी बड़ी वितरण प्रणाली के साथ अखिल भारतीय स्तर पर मौजूद नहीं है। 
जाहिर है, मुकाबला बराबर के खिलाड़ियों के बीच नहीं है। सबसे खतरनाक बात यह है कि यूरोप अपना बाजार भारतीय डेयरी कंपनियों के लिए नहीं खोलना चाहता, लेकिन भारतीय बाजार का बिना किसी रुकावट के दोहन करना चाहता है। यूरोप में भारतीय डेयरी उत्पादों के आयात की अनुमति नहीं है। इयू का कहना है कि भारतीय पशुओं का पालन-पोषण सफाई वाले माहौल में नहीं होता और इस कारण इन पशुओं के दुग्ध उत्पाद मानव उपयोग के लायक नहीं हैं। इयू ने मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा बता कर भारत के कथित गंदे डेयरी उत्पादों के आयात पर रोक लगा रखी है और मुक्त व्यापार समझौते के तहत भी यह रोक हटाने से इनकार कर दिया है। याद रहे, इयू अपने डेयरी उत्पादों के निर्यात पर किसानों को सबसिडी मुहैया करवाता है और व्यापार समझौते में भारत पर दबाव बनाया गया है कि वह यूरोप से आने वाले डेयरी उत्पादों को आयात शुल्क में कमी का फायदा दे। 
यानी यूरोप के डेयरी उत्पादों को यूरोप से निर्यात के वक्त सहायता मिलेगी और भारत में प्रवेश के वक्त आयात शुल्क में रियायत मिलेगी, मगर भारतीय डेयरी उत्पादों के यूरोप में आयात पर लगी रोक बरकरार रहेगी। क्या यह शर्त अविभाजित हिंदुस्तान के ढाका शहर की मलमल को मैनचेस्टर के सूती कपड़ों से बर्बाद करने वाले अंग्रेजों की थोपी गई कारोबारी शर्तों से किसी मायने में अलग है?
इयू का   कहना है कि उसे भारतीय डेयरी कंपनियों के कई उत्पादों मसलन चीज, गौड़ा, श्रीखंड और फेटा के खिलाफ भौगोलिक सूचक (ज्योग्राफिकल इंडीकेशन या जीआइ) की सुरक्षा चाहिए। जीआइ एक ऐसी व्यवस्था है जिसका मतलब है कि एक खास उत्पाद किसी विशेष नाम से बनाया या बेचा जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय डेयरी कंपनियां यूरोप में गौड़ा और श्रीखंड नाम से अपने उत्पाद यूरोप में नहीं बेच पाएंगी। 

मगर यूरोपीय कंपनियां पनीर और लस्सी जैसे डेयरी उत्पाद भारतीय नामों से ही बेचना चाहती हैं और भारतीय कंपनियों को इस बाबत कोई छूट देने का विरोध कर रही हैं। यूरोपीय संघ भारत के विशाल बाजार का दोहन करना चाहता है लेकिन साथ ही अपना बाजार भारतीय कंपनियों के लिए मजबूती से बंद रखना चाहता है। ऐसे में भारतीय उपभोक्ताओं को महंगे डेयरी उत्पादों से लूटा जाएगा, वहीं किसानों को दुग्ध उत्पादों के कम दाम दिए जाएंगे। भारत-इयू मुक्त व्यापार समझौता हमारे लिए बर्बादी का फरमान है। 
भारत-इयू मुक्त व्यापार समझौते की दूसरी सबसे स्याह तस्वीर वाहन उद्योग के खाते में आई है। इयू खासकर जर्मनी बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज बैंज, आॅडी और पोर्श जैसी दुनिया की विशाल वाहन कंपनियों का घर है। जर्मनी की अगुआई में इयू का कहना है कि भारत को पूरी तरह से बनी कारों (सीबीयू) पर लगने वाला आयात शुल्क खत्म करना चाहिए। सीबीयू का मतलब है कि बीएमडब्ल्यू या मर्सिडीज बैंज अपने जर्मनी स्थित संयंत्रों में कार का उत्पादन करती हैं और इस कार को पूरी तरह बने हुए रूप में भारत बेचने के लिए भेज देती हैं। चूंकि कार का निर्माण जर्मनी में हुआ है, लिहाजा इसके निर्माण से हासिल राजस्व वहां की सरकार को, नौकरी और रोजगार जर्मन नागरिकों को ही मिले हैं। 
मुनाफा कमाने की इस पतली गली पर रोक लगाने और अपने देश में रोजगार बढ़ाने के लिए दुनिया के कई देश ऐसी सीबीयू कारों पर ज्यादा आयात शुल्क लगाते हैं ताकि वाहन कंपनियां अपने मूल देश के बजाय कारोबार वाले देश में ही वाहन निर्माण संयंत्र लगाने को मजबूर हों। यूरोपीय कंपनियां भारत के बाजार में कार बेच कर मुनाफा तो कमाना चाहती हैं लेकिन कारों का निर्माण अपने ही देश में करना चाहती हैं, इसलिए भारत-ईयू समझौते के जरिए आयात शुल्क को साठ फीसद से घटा कर दस फीसद करने पर अड़ी हुई हैं।
यूरोपीय वाहन कंपनियों को दी जा रही इस इकतरफा छूट के घातक परिणाम देखने को मिलेंगे और इसकी झलक मिलनी शुरू हो चुकी है। जापानी और अमेरिकी वाहन कंपनियों ने भारत में श्रीपेरेम्बदुर, पुणे-चाकन, साणंद और गुड़गांव-माणेसर में अपने वाहन निर्माण संयंत्रों में खासा निवेश कर रखा है। 
इन कंपनियों का कहना है कि आठ लाख से ज्यादा भारतीयों को नौकरी दिए जाने के बावजूद सरकार यूरोपीय वाहन कंपनियों को इकतरफा छूट दे रही है, जो पूरी तरह भारत में गाड़ियां बना रही देशी-विदेशी कंपनियों को बर्बाद करके रख देगी। जापानी कंपनियों का कहना है कि जब यूरोपीय कंपनियां अपने देश में गाड़ियां बना कर भारत में बेच सकती हैं तो बाकी कंपनियों को भी ऐसी छूट मिलनी चाहिए। 
भारत-इयू समझौते में पुरानी यूरोपीय कारों का भारत में आयात करने पर लगने वाले शुल्क में भी छूट दिए जाने का प्रावधान किया जा रहा है। जब यूरोप की सड़कों पर पुरानी पड़ चुकी कारें सस्ते दाम पर भारत में बेचने की आजादी हो तो कोई कंपनी क्यों भारत में वाहन निर्माण संयंत्र लगाना चाहेगी! याद रहे, यूरोप का बाजार विकास की चरम अवस्था देखने के बाद अब ढलान की तरफ है जबकि भारत में आमदनी बढ़ने के साथ वाहनों की मांग बढ़ती जा रही है। प्रस्तावित सौदे से केवल यूरोपीय वाहन कंपनियों को फायदा होगा।
हर कोई जानता है कि वैश्वीकरण के बाद केवल दो क्षेत्रों (सूचना प्रौद्योगिकी और दवा) में भारतीय कंपनियां बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुकाबला कर पाई हैं। दोनों ही क्षेत्रों की कंपनियां सरकारी समर्थन के बिना आगे बढ़ी हैं। अब यूपीए सरकार ने इन दोनों क्षेत्रों की सफलता को भी यूरोपीय कंपनियों के पास रेहन रखने का इरादा कर लिया है। कैंसर-रोधी दवा ग्लीवेक का मुकदमा उच्चतम न्यायालय में हारने वाली स्विस कंपनी नोवार्तिस समेत भीमकाय यूरोपीय दवा कंपनियां भारत-इयू समझौते की मार्फत अपनी पेटेंट वाली महंगी दवाएं भारतीय बाजार में बेचने के लिए इकतरफा बौद्धिक अधिकार हासिल करना चाहती हैं, मगर यूरोपीय बाजार से भारत की जेनेरिक दवा कंपनियों को बाहर रखना चाहती हैं। ऐसे में समझौते के अमली जामा पहनने के बाद जहां भारत में दवाओं की कीमतों में इजाफा होगा वहीं भारतीय जेनेरिक कंपनियों के निर्यात बाजार में कटौती हो जाएगी। 
भारतीय आइटी कंपनियां चाहती हैं कि भारत-इयू समझौते के जरिए उनको यूरोप में डीएसएस (डाटा सिक्योर स्टैट्स) दर्जा दिया जाए। डीएसएस दर्जा मिलने के बाद भारतीय कंपनियां यूरोपीय देशों में होने वाली कारोबार नीलामी प्रक्रिया में भाग ले पाएंगी। मगर इयू भारतीय आइटी कंपनियों को यह दर्जा देने की बात से पीछे हट चुका है।
कई दरबारियों के विरोध के बावजूद जहांगीर ने अंग्रेजों को पूरे भारत में कारोबार का अधिकार दे दिया। परिणाम, एक जमाने में भारत का गौरव माने जाने वाले बंगाल, बिहार और ओड़िशा को इस कदर लूटा गया कि ये तीनों सूबे आज तक उस लूट से पैदा हुई गरीबी और भुखमरी से नहीं उबर   पाए हैं। वक्त का आईना भारत-इयू मुक्त व्यापार समझौते से मचने वाली लूट की काली तस्वीर दिखा रहा है। मगर अफसोस, हमारी सरकार इसे देखने से इनकार कर रही है।
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/43061-2013-04-24-04-54-59

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