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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, April 22, 2013

जाति उन्मूलन : दिल्ली अभी बहुत दूर है

जाति उन्मूलन : दिल्ली अभी बहुत दूर है


 राम पुनियानी

 

राम पुनियानी ,Dr. Ram Puniyani,

राम पुनियानी (लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)

डॉक्टर भीमराव बाबासाहेब अम्बेडकर की जयंती (14 अप्रैल) पर हमने एक बार फिर इस महामना के, सामाजिक न्याय और प्रजातान्त्रिक मूल्यों को, भारतीय सामाजिक चिंतन के केन्द्र में लाने में, महान योगदान को याद किया। परन्तु इस अवसर पर हमें यह भी सोचना होगा कि जाति प्रथा के उन्मूलन के उनके स्वप्न को हम कहाँ तक पूरा कर सके हैं। हमें इस पर भी विचार करना होगा कि स्वतन्त्रता और भारतीय संविधान के लागू होने के छःह दशक गुजर जाने के बाद इस मसले पर हम कहाँ खड़े हैं। स्वाधीनतासमानता और बंधुत्व के जिन मूल्यों को हमने अपने संविधान का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया था, क्या वे मूल्य हमारे सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक ढांचे का हिस्सा बन पाए हैं?

भारतीय और विशेषकर हिन्दू समाज में जाति हमेशा से एक महत्वपूर्ण तत्व रही है। जहाँ शेष विश्व में गुलामी का आधार सामाजिक-आर्थिक था वहीं हमने वर्ण व्यवस्था के जरिए इसे धार्मिक स्वीकृति दी। जातिप्रथा कैसे अस्तित्व में आयी, इस सम्बंध में कई परिकल्पनाएं प्रस्तुत की गयी हैं। जाति का उदय, आर्यों और भारत के मूल निवासियों के बीच नस्लीय विभेद से हुआ, यह परिकल्पना गलत सिद्ध हो चुकी है। मानवविज्ञानी मार्टन क्लास के अनुसार, जातिप्रथा, अतिशेष उत्पादन वाली उत्पादन व्यवस्था से आदिम जनजातीय समाज के अनुकूलन से उपजी। दूसरे शब्दों में, वे यह कहना चाहते हैं कि जाति का उदय, एक उत्पादन व्यवस्था विशेष के साथ हुआ। मार्क्सवादी इतिहासकार डी. डी. कौसम्बी के अनुसार, जाति, सामान्य समाज में जनजातियों के घुलने-मिलने की सतत प्रक्रिया से उपजी। जाति के उदय की हमारी समझ को विकसित करने में सबसे बड़ा योगदान डॉक्टर अम्बेडकर का था, जिनके अनुसार, जाति व वर्ण विचारधारात्मक-धार्मिक कारकों से उपजे। उनके अनुसार, जातिप्रथा धर्मशास्त्रों की विचारधारा से उपजी और ये धर्मशास्त्र, ब्राह्मणवादी थे।

यह दिलचस्प है कि भारतीय समाज में जाति प्रथा केवल हिन्दुओं तक सीमित नहीं है बल्कि अन्य धार्मिक समुदाय भी इसकी चपेट में आ गये हैं। अन्तर सिर्फ यह है कि जहाँ हिन्दुओं में जातिप्रथा को धार्मिक स्वीकृति प्राप्त है वहीं अन्य धर्मों में यह सिर्फ एक सामाजिक परिघटना है। उदाहरणार्थ, मुसलमानों में अशरफ, अजलफ और अरजल जातियाँ हैं। इसी तरह, ईसाईयों और सिक्खों में भी अलग-अलग पंथ है। जाति व्यवस्था को सबसे पहले चुनौती दी गौतम बुद्ध ने, जिनका जोर 'समता' पर था। समता की परिकल्पना बहुत लोकप्रिय हो गयी और भारत में इसे व्यापक स्वीकृति मिली। परन्तु 8वीं सदी ईस्वी में उन तत्वों ने,  जो वर्ण-जाति को पुनः स्थापित करना चाहते थे, बौद्ध धर्म पर हमला बोल दिया और भारत से उसका सफाया करके ही दम लिया। मध्यकाल में भक्ति सन्तों ने जाति प्रथा पर प्रश्नचिन्ह लगाये और ऊँचनीच को गलत ठहराया। यद्यपि उन्होंने नीची जातियों के दुःखों और कष्टों को आवाज देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथापि वे यहीं तक सीमित रह गये और उनका ब्राह्मण पुरोहितों ने कड़ा विरोध किया।

मुस्लिम बादशाहों और अंग्रेजों के शासन में भी भारतीय उपमहाद्वीप का सामाजिक ढांचा जस का तस बना रहा। हां, ब्रिटिश शासन के दौरान औद्योगिकरण और आधुनिक शिक्षा के कारण, कुछ लोगों ने जाति प्रथा का विरोध किया, उसे चुनौती दी और उस पर प्रश्न उठाये। शनैः-शनैः जाति प्रथा की इमारत में दरारें आने लगीं। परन्तु औद्योगिकरण और आधुनिक शिक्षा के बावजूद, जाति व वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व समाप्त नहीं हुआ । यह अवश्य हुआ कि उसे गंभीर चुनौती मिलने लगी। जाति प्रथा के उन्मूलन के लिए कई आन्दोलन शुरू हुए जिनमें से जोतिबा फुले का आन्दोलन काफी महत्वपूर्ण व लोकप्रिय था। परन्तु ये आन्दोलन भी जाति प्रथा को उखाड़ फेकनें में सफल नहीं हुए क्योंकि भारत में आधुनिकीकरण के समानांतर, सामंती उत्पादन व्यवस्था भी बनी रही। समाज के धर्मनिरपेक्षीकरण और जमींदारी के उन्मूलन की प्रक्रिया अधूरी रही और पुरोहित वर्ग का प्रभुत्व बना रहा। इन सब प्रक्रियाओं के अधूरे रहने के कारण, जाति प्रथा के उन्मूलन की प्रक्रिया भी अधूरी रह गयी।

बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा प्रारंभ किए गये सभी आन्दोलनों का लक्ष्य सामाजिक न्याय, समानता और प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना था। उन्होंने पानी के सार्वजनिक स्त्रोतों पर सभी को अधिकार दिलवाने के लिए चावदार तालाब आन्दोलन चलाया। मंदिरों में दलितों को प्रवेश दिलवाने के लिए कालाराम मंदिर आन्दोलन शुरू किया। जातिगत ऊँचनीच को धार्मिक स्वीकृति देने वाली 'मनुस्मृति' की प्रतियाँ उन्होंने जलायी। उनके इन प्रयासों का जबरदस्त विरोध हुआ, जिसके चलते वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि ब्राह्मणवादी मूल्यों के प्रभुत्व वाले हिन्दू धर्म को छोड़ देना ही उनके लिए बेहतर होगा। उनके आन्दोलन को सामाजिक-राजनैतिक समर्थन मिला राष्ट्रीय स्वाधीनता आन्दोलन से, जो ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से संघर्षरत था और प्रजातान्त्रिक मूल्यों की स्थापना, जिसके लक्ष्यों में शामिल थी। यद्यपि अम्बेडकर को राष्ट्रीय आन्दोलन का समर्थन प्राप्त था परन्तु इस आन्दोलन के नेतृत्व में भी उच्च जातियों का बोलबाला होने के कारण वे यह उम्मीद नहीं कर सकते थे कि यह आन्दोलन, सामाजिक न्याय की लड़ाई का पूर्ण व बिना शर्त समर्थन करेगा। महात्मा गाँधी और अम्बेडकर के बीच मतभेदों को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिये। गाँधीजी चाहते थे कि सभी जातियों के लोग स्वाधीनता आन्दोलन में हिस्सेदारी करें। इसलिए वे जाति प्रथा का विरोध एक सीमा तक ही कर सकते थे। गाँधीजी ने अछूत प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई परन्तु वर्णव्यवस्था के तनिक परिष्कृत स्वरूप को उनकी मौन स्वीकृति थी।

गाँधीजी ने मैक्डोनाल्ड के 'कम्युनल एवार्ड' में प्रस्तावित पृथक मताधिकार का विरोध किया। सन् 1932 में पारित इस एवार्ड को डॉक्टर अम्बेडकर का पूर्ण समर्थन था। गाँधीजी और अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर हुए जिसके नतीजे में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए आरक्षण और सुरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था अस्तित्व में आयी। अम्बेडकर को उम्मीद थी कि आरक्षण और अन्तरजातीय विवाहों के चलते जाति प्रथा का उन्मूलन हो जाएगा। इन दोनों ही को आज समाज में कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जाति प्रथा और मजबूत हो रही है और परम्परावादी तबके द्वारा अन्तरजातीय विवाहों को रोकने की हर संभव कोशिश की जा रही है।

गाँधीजी के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आन्दोलन ने पूरी तौर पर न सही परन्तु आंशिक तौर पर दलितों के अधिकारों को मान्यता दी। परन्तु उसी दौरान उभरी एक दूसरी विचारधारा-धार्मिक राष्ट्रवाद की विचारधारा-जिसका लक्ष्य हिन्दू राष्ट्र का निर्माण था, दलितों के मसले पर यथास्थिति की हामी थी। अम्बेडकर को यह अहसास था कि धार्मिक राष्ट्रवाद को स्वीकृति और उसके आधार पर पाकिस्तान का निर्माण, दलितों के लिए बहुत बड़ी आपदा होगी क्योंकि उससे हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की राह प्रशस्त होगी, जिसमें दलितों को गुलामी के अतिरिक्त कुछ हासिल नहीं होगा। आज अनेक समीक्षक गाँधीजी पर तीखे हमले कर रहे हैं परन्तु उन्हें हिन्दू धार्मिक राष्ट्रवाद की राजनीति और विचारधारा के प्रभाव पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिये। यही विचारधारा आज भारत में जाति प्रथा के उन्मूलन की राह में सबसे बड़ी बाधा है।

दलितों के लिए आरक्षण ने नए जातिगत समीकरणों को जन्म दिया। उदित होते मध्यम वर्ग के एक हिस्से ने आरक्षण का डटकर विरोध किया। 1980 के दशक में गुजरात में आरक्षण विरोधी हिंसा हुयी। चूंकि हमारे देश के विकास में सभी वर्गों को समान अवसर नहीं मिल पा रहे हैं इसलिए एक अजीब सी स्थिति बन गयी है। वह यह कि कई समुदाय, आरक्षित वर्ग में स्थान पाने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। युवाओं को अपना भविष्य अंधकारमय नजर आ रहा है और इसलिए वे अपनी-अपनी जातियों को इस या उस आरक्षित वर्ग में शामिल करवाने के लिए आन्दोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं। जाति व्यवस्था के खात्मे की राह में सबसे बड़ी बाधा है हिन्दुत्व की राजनीति। यह राजनीति 'सामाजिक समरसता' की बात करती है। हिन्दुत्वादियों के 'एकात्म मानवतावाद' की परिकल्पना यह है कि विभिन्न जातियों के उनके लिए निर्धारित कार्य निष्ठापूर्वक करते रहने पर ही समाज का संचालन सुगमतापूर्वक हो सकेगा। धार्मिक-राजनैतिक ताकतों द्वारा नीची जातियों को सोशल इंजीनियरिंग के जरिए हिन्दुत्व के झंडे तले लाने की कोशिश हो रही है। इनका इस्तेमाल अल्पसंख्यकों के विरूद्ध सड़कों पर खूनखराबा करने के लिए किया जाता है। दलितों का एक हिस्सा भी हिन्दुत्ववादी ताकतों का पिछलग्गू बन गया है और ऊँची जातियों की नकल कर रहा है। विभिन्न टी वी सीरियल और जगह-जगह ऊग आये बाबागण मनुस्मृति के परिष्कृत संस्करण का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं।

इसके साथ ही प्रगतिशील व दलित बुद्धिजीवियों का एक तबका मानवीय मूल्यों की स्थापना और जाति-वर्ण व्यवस्था के खिलाफ गंभीरता और निष्ठा से संघर्ष कर रहा है। वर्तमान परिस्थितयाँ अत्यंत जटिल हैं। जाति आज भी हमारे समाज का अभिन्न अंग बनी हुयी है। जहाँ तक राजनीति का प्रश्न है, इसमें एक ओर प्रजातान्त्रिक मूल्यों में विश्वास करने वाला तबका है तो दूसरी ओर धार्मिक राष्ट्रवाद में विश्वास करने वाला। दूसरा तबका जातिगत और लैंगिक ऊँचनीच को बनाये रखना चाहता है।

भारत एक सच्चा प्रजातान्त्रिक समाज तभी बन पाएगा जब यहाँ सामाजिक समानता स्थापित हो और जातिप्रथा जड़मूल से समाप्त हो जाए। इसके लिए कई स्तरों पर आन्दोलन चलाये जाने की आवश्यकता है। यही भीमराव बाबासाहेब को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

(हिन्दी रूपांतरण अमरीश हरदेनिया) 

 

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