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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, August 2, 2013

अपनी बात कहने-सुनने की जिद भी लोकतांत्रिक नहीं, एक फासीवादी नजरिया है

[LARGE][LINK=/vividh/13495-2013-08-02-13-38-40.html]अपनी बात कहने-सुनने की जिद भी लोकतांत्रिक नहीं, एक फासीवादी नजरिया है[/LINK] [/LARGE]

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Details Category: [LINK=/vividh.html]विविध[/LINK] Created on Friday, 02 August 2013 19:08 Written by ओम थानवी
Om Thanvi : संघ परिवार अपनी कट्टरता के लिए जाना जाता है। लेकिन कट्टरता प्रगतिशील लोगों में भी कम नहीं पाई जाती है। बल्कि कभी-कभी ज्यादा मिलती है। राजेंद्र यादव प्रगतिशील (या कहिए जनवादी) विचार रखते हैं, सब जानते हैं। लेकिन 'हंस' में जब-तब वे दक्षिणपंथी विचारधारा के कथाकारों को भी जगह देते हैं। प्रेमचंद जयंती पर सालाना गोष्ठी में भी वे कोई ऐसा वक्ता जोड़ने की चेष्टा भी करते हैं जो गैर-प्रगतिशील विचार का हो।

उन्होंने अशोक वाजपेयी, वरवरा राव और अरुंधती राय के साथ गोविंदाचार्य को बुलाया। बताते हैं, जुझारू कथाकार अरुंधती राय को यह रास नहीं आया और वे नहीं आईं। माओवादी कवि वरवरा राव दिल्ली पहुंच गए, पर कार्यक्रम में नहीं पहुंचे, न इत्तला की कि नहीं आएंगे। बाद में फेसबुक पर उनके किसी उत्साही सहयोगी ने उनका बयान प्रचारित किया। बयान में लिखा है, फासीवादी गोविंदाचार्य और सत्ता प्रतिष्ठान और कारपोरेट सेक्टर से जुड़ाव वाले अशोक वाजपेयी के साथ वे मंच पर नहीं बैठ सकते।

राजेंद्र यादव ने मुझे बताया कि राय और राव दोनों को पता था कि और कौन वक्ता आमंत्रित हैं। अरुंधती ने शुरू में कुछ असमंजस जाहिर किया था, पर मना नहीं किया। वरवरा राव से फोन पर बात हुई, उन्हें डाक से भेजा कार्ड भी मिल गया था। वह कार्ड उन्होंने हवाई अड्डे से आते हुए रास्ते में भी देखा। उसके बाद राजेंद्रजी को कहा कि पांच बजे तक पहुंच जाएंगे। शाम को उन्होंने फोन ही बंद कर दिया। एक बार भी उन्होंने अन्य आमंत्रित वक्ताओं के बारे में न दिलचस्पी दिखाई, न आपत्ति जताई।

जाहिर है, अरुंधती राय और वरवरा राव का निर्णय उनका पुनर्विचार है। उन लोगों के नाम भी लिए जा रहे हैं जिन्होंने उन्हें न जाने के लिए उकसाया होगा। बहरहाल, किसी और का विवेक काम कर रहा हो या खुद का, यह राजेंद्र यादव ही नहीं, संवाद की लोकतांत्रिक दुनिया से दगा करना है। मंच पर लेखक अपनी बात कहते, गोविंदाचार्य अपनी। अशोक वाजपेयी के बारे में तो वरवरा राव का बयान हास्यास्पद है। नरेंद्र मोदी के खिलाफ दिल्ली के लेखकों-कलाकारों-बुद्धिजीवियों को एक मंच पर जमा करने वाले वाजपेयी के बारे में राव कहते हैं कि अशोक वाजपेयी ''प्रेमचंद की सामंतीवाद-फासीवाद विरोधी धारा के विरोध में कभी खड़े होते नहीं दिखे।'' इससे बड़ा झूठ अशोक वाजपेयी के बारे में पहले शायद ही सुना गया हो।

फासीवाद-फासीवाद का जाप करने वाले शायद नहीं जानते कि अपने ही विचार के लोगों के बीच अपनी बात कहने-सुनने की जिद भी लोकतांत्रिक नहीं, एक फासीवादी नजरिया है। धुर विरोधी विचारधाराओं के नेता आए दिन विभिन्न मंच साझा करते हैं, संसद में साथ उठते-बैठते हैं, समितियों में देश-विदेश साथ आते-जाते हैं। और यहां हमारे बुद्धिजीवी लेखक निठल्ले गोविंदाचार्य को छोड़िए, अशोक वाजपेयी में भी कारपोरेट सेक्टर का खोट ढूंढ़ रहे हैं! संकीर्णता में ये मार्क्सवादी-माओवादी बुद्धिजीवी क्या संघ-परिवार को भी पीछे छोड़ने की फिराक में हैं?

[B]वरिष्ठ पत्रकार ओम थानवी के फेसबुक वॉल से.[/B]

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