THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, May 16, 2015

“…न्यायपालिका के अपने काम में सबसे सुस्त, सबसे आलसी और सबसे भ्रष्ट होने के बावजूद, उसके इस पहलू पर बात करने पर सेंसरशिप थोपी गई है। इसे नाम दिया गया है, ‘कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट’ या ‘अदालत की अवमानना’ का। इन तीन शब्दों का आतंक देखिए कि हजारों साल पहले के राजतंत्र से आज तक इसमें नाममात्र का बदलाव हुआ है। जैसे राजाओं के शासन में भले ही किसी पीड़ित को कोड़े लगाने का आदेश मिल जाए, पर वह उसके खिलाफ चूं नहीं कर सकता था, कमोबेश यही हाल आज के समय में है। न्यायालय के आदेश के खिलाफ आप कहीं नहीं जा सकते हैं।…”



ख़ामोश! अदालत जारी है…

"…न्यायपालिका के अपने काम में सबसे सुस्त, सबसे आलसी और सबसे भ्रष्ट होने के बावजूद, उसके इस पहलू पर बात करने पर सेंसरशिप थोपी गई है। इसे नाम दिया गया है, 'कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट' या 'अदालत की अवमानना' का।

इन तीन शब्दों का आतंक देखिए कि हजारों साल पहले के राजतंत्र से आज तक इसमें नाममात्र का बदलाव हुआ है। जैसे राजाओं के शासन में भले ही किसी पीड़ित को कोड़े लगाने का आदेश मिल जाए, पर वह उसके खिलाफ चूं नहीं कर सकता था, कमोबेश यही हाल आज के समय में है। न्यायालय के आदेश के खिलाफ आप कहीं नहीं जा सकते हैं।…"

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बचपन में किसी को कहते हुए सुना था कि डॉक्टर और वकील जब पैसे मांगें तो ये नहीं पूछा जाता- 'किस बात के?' इसे वे लोग और अच्छे से समझ सकेंगे जो कभी किसी लंबी बीमारी या किसी केस के लपेटे में आए हों।
हमारा लोकतंत्र छह दशक से ज्यादा पुराना हो चुका है। इसकी खूबियों की बात हो तो इसके तीन हिस्सों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका पर बात होती है।

हां, खामियों और असफलताओं पर बात करते वक्त इसमें से पहले दो हिस्सों को ही कोसा जाता है।

मामला चाहे भ्रष्टाचार का हो, लापरवाही का हो या फिर गैरजवाबदेही का। तीसरे पक्ष को इन बहसों में शामिल नहीं किया जाता है।

अगर लोकतंत्र को मानव सभ्यता की सबसे अच्छी राजनीतिक व्यवस्था होने का सम्मान मिला है तो इसकी तारीफ तीनों स्तंभों के हिस्से में आती है।

अगर इस व्यवस्था में ढेरों सुराख गिनाए जाते हैं तो इसकी जिम्मेदारी से किसी एक पक्ष का अकेला बच निकलना सही नहीं है। इस लेख में हम ऐसा होने की वजहों को समझने की कोशिश करेंगे।

लेख लंबा हो गया है, इसलिए तीन हिस्सों में दिया जा रहा है।

ऐसा क्यों होता है, ये समझने के लिए पहले हमें न्याय की अवधारणा को समझना पड़ेगा।

मानव सभ्यता के शुरुआती दौर में राजतंत्र शासन की सबसे प्रचलित व्यवस्था थी। ये वो समय था जब राजाओं को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि माना जाता था। ये हमारे मौजूदा लोकतंत्र के तीनों स्तंभों का काम अकेले करते थे- कानून बनाने का, उसे लागू करवाने का और उसका उल्लंघन करने पर दंड देने यानी न्याय करने का।

कालांतर में शासन की अनेक व्यवस्थाएं पनपीं और इसका विकसित रूप लोकतंत्र के तौर पर सामने आया। इस शासन प्रणाली को मौजूदा समय में दुनिया के सबसे ज्यादा देशों ने अपनाया है, जिसमें राजा के तीन प्रमुख कामों को तीन हिस्सों में बांट दिया गया है।

 

काम भले ही बंट गया हो, पर हमारे यहां आज भी न्याय करने वालों की जगह पूरी तरह से ईश्वर के प्रतिनिधियों से कम नहीं है। ऐसा प्रतिनिधि, जिसकी कही बात पत्थर की लकीर होती है।

करोड़ों ईश्वरों को मानने वाले देश की सामूहिक चेतना में न्याय के कर्णधारों को ईश्वर के प्रतिनिधि वाली मान्यता को देश को राजनीतिक आजादी मिलने या फिर नया संविधान लागू होने जैसे महत्वपूर्ण मौकों पर आसानी से खत्म किया जा सकता था, पर आज तक ऐसा नहीं हुआ और न ही होते दिखता है।
ऐसा नहीं होने देने के पीछे किनका फायदा रहा है? इसे हम लेख के आखिरी हिस्से में समझने की कोशिश करेंगे।

इससे पहले हमें अपने लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के ढांचों पर बात करनी होगी। तीनों ढांचों में से कौन सबसे ज्यादा या कम जवाबदेह, गैरजिम्मेदार, प्रदर्शन की कसौटी पर कसे जाने से बचा हुआ है? जवाब आपको खुद मिल जाएगा।

जिस ढांचे को किसी को जवाब नहीं देना पड़ता, जिसने अपने काम की ठीक से जिम्मेदारी नहीं ली है, जिसके काम की पक्षधरता पर कभी बात नहीं होती, जिसकी कहीं और शिकायत या सुनवाई नहीं हो सकती, वह सिर्फ हमारी न्यायपालिका है।

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न्यायपालिका के अपने काम में सबसे सुस्त, सबसे आलसी और सबसे भ्रष्ट होने के बावजूद, उसके इस पहलू पर बात करने पर सेंसरशिप थोपी गई है। इसे नाम दिया गया है, 'कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट' या 'अदालत की अवमानना' का।

इन तीन शब्दों का आतंक देखिए कि हजारों साल पहले के राजतंत्र से आज तक इसमें नाममात्र का बदलाव हुआ है। जैसे राजाओं के शासन में भले ही किसी पीड़ित को कोड़े लगाने का आदेश मिल जाए, पर वह उसके खिलाफ चूं नहीं कर सकता था, कमोबेश यही हाल आज के समय में है। न्यायालय के आदेश के खिलाफ आप कहीं नहीं जा सकते हैं।
न्यायालयों के खिलाफ उनसे उच्च न्यायालय में सुनवाई हो सकती है पर यहां आने के लिए भी आपमें ये भरोसा करने का साहस होना चाहिए कि 'सब ठीक होगा', लेकिन असल में ठीक कुछ भी नहीं है।

ऐसा ही भरोसा हम रोज सुबह उठकर करते हैं कि चलो 'आज तो सब ठीक होगा।' हम जानते हैं कि बाहर कुछ भी ठीक नहीं है। न समाज में, न देश में और न ही दुनिया में।

बस हम इन शब्दों से जीवनशक्ति लेते हैं और इस दुनिया में सर्वाइव करने के लिए खुद को दिलासा देते हैं। मौजूदा न्याय व्यवस्था में भी हम इससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकते।
रही इससे होने वाले फायदे की बात तो, न्यायपालिका के प्रति अब भी ईश्वर के प्रतिनिधि वाली सोच जनमानस में मौजूद है। एक लोकतांत्रिक देश की न्यायपालिका ने भी कभी इसे खत्म करने की कोशिश भी नहीं की।

वह कोशिश करे भी क्यों, इसका फायदा तो न्यायपालिका के प्रतिनिधि हमेशा से उठाते आए हैं। आज भी आपको भारत के सुप्रीम कोर्ट में किसी याचिका में या किसी फैसले के खिलाफ 'अपील' नहीं 'प्रार्थना' यानी 'प्रेयर' करनी होती है।

इंसानों की अदालत में कोई भी इंसान प्रेयर क्यों करें, जिस अदालत के संचालक खुद को दूसरे इंसानों के बराबर न मानते हों, वे कितने लोकतांत्रिक होंगे? प्रेयर किससे की जाती है, प्रेयर करने और करवाने वाले के बीच कितना फासला होता है? ये बातें आसानी से समझी जा सकती हैं।

न्याय की जिम्मेदारी लिए लोगों को ईश्वर तुल्य होने की क्या जरूरत है? या ऐसे कहिए कि जज जिन लोगों के बारे में फैसला करते हैं, उन्हें खुद से नीचा समझने की क्या जरूरत है?
इसी सोच के चलते हक को न्याय कहा जाता है। हक हासिल किया जाता है, पर न्याय के लिए गुहार लगानी पड़ती है। न्याय मांगा जाता है, इसके लिए करबद्ध निवेदन करना होता है। ईश्वरीय अवधारणा को बनाए रखने वाली न्यायपालिका का ये भी मानना है कि जैसे ईश्वर गलती नहीं कर सकता है, वैसे ही उनसे भी गलती नहीं होती है।

हो भी गई तो उसे सुधारने या स्वीकार करने में 'न्याय की आत्मा' कैसे आहत होती है, हाल ही में इसका उदाहरण देखने को मिला। सुप्रीम कोर्ट के ही पूर्व जज और मौजूदा प्रेस परिषद के अध्यक्ष सीके प्रसाद ने जज रहने के दौरान एक दीवानी याचिका के मामले में कथित तौर पर अनुचित और गैरकानूनी आदेश दिए थे।

सुप्रीम कोर्ट से प्रसाद के खिलाफ एफआईआर की याचिका की गई। इस पर सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने कहा, 'अगर ऐसी याचिकाओं पर सुनवाई की गई तो 'खतरनाक दरवाजे' खुल जाएंगे। हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट का आदेश भले ही अतार्किक हो, लेकिन उसे इस प्रकार से चुनौती नहीं दी जा सकती।'

इस तरह फिर साबित हुआ कि न्यायपालिका कभी कोई गलती नहीं कर सकती, कर भी ले तो उसे मान नहीं सकती और कभी मान भी लिया तो उसे सुधारने की जरूरत महसूस नहीं करती।
कबीर कला मंच का मामला ही देखिए, इसके तीन सदस्यों को पिछले दो सालों से जमानत नहीं दी जा ही है, जबकि इन तीनों सदस्यों ने जांच में मदद के लिए खुद को पुलिस के समक्ष पेश किया था। जमानत के मामले पर पर बीती 10 अप्रैल को बॉम्बे हाई कोर्ट के एक जज ने कहा, 'उम्रकैद के मुकाबले दो साल कुछ भी नहीं हैं।'27TH_EDPAGE_SKETCH_935622e

अहम बात यह है कि इन तीनों पर किसी हिंसक अपराध के आरोप भी नहीं हैं। क्या किसी के जीवन के दो साल कुछ नहीं होते या कोर्ट ने अभी से मन बना लिया है कि उन्हें उम्रकैद ही दी जानी है?
न्याय के प्रति ऐसी ईश्वरीय समझ को आप न्यायपालिका के सबसे निचले ढांचों यानी पंचायतों के फैसलों में भी देख सकते हैं। प्रेमचंद की कहानी 'पंच परमेश्वर' हो या तक्षशिला के गड़रिए की कहानी, जिसे राजा की गद्दी पर बैठते ही न्याय की समझ हो जाती थी, ये कहानी-किस्से बताते हैं कि हमारे समाज में न्यायपालिका और ईश्वरीय समझ के बीच क्या रिश्ता रहा है।

आज भी पंचायतों के ईश्वरीय फैसलों के खिलाफ जाने की हिम्मत कौन करता है? पंचायत किसी लड़की को प्रेम करने या किसी और आरोप में गैंगरेप की सजा सुना दे तो वह सबके सामने होकर ही रहता है।

हाल ही में हरियाणा में महज नौ दिन पहले शादी तोड़ने पर दूल्हे पर गौशाला में खड़े होकर 75 पैसा जुर्माना देने का फैसला सुनाया गया तो पुलिस अधिकारियों ने भी हाथ खड़े कर लिए। मजेदार बात यह है कि पंचायत ने ये फैसला पुलिस थाने में ही सुनाया था।

अगली किश्तों में जारी…

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