THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Saturday, September 5, 2015

कबीर दास होते तो क्या उन्हें मजहबी लफंगे बख्श देते? फासीवाद का विरोध उतना आसान भी नहीं है,दोस्तों। जन्माष्टमी से बड़ा किसी अध्यापक का जन्मदिन न हो,हिंदू राष्ट्र ने चाकचौबंद इंतजाम किया और जन्मष्टमी से एक दिन पहले,देश के सबसे बड़े शिक्षक का जनमदिन मना लिया गया। निर्णायक लड़ाई हर हाल में जनता लड़ती है। बन सको तो बन जाओ जनता के हथियार। पलाश विश्वास


कबीर दास होते तो क्या उन्हें मजहबी लफंगे बख्श देते?

फासीवाद का विरोध उतना आसान भी नहीं है,दोस्तों।

जन्माष्टमी से बड़ा किसी अध्यापक का जन्मदिन न हो,हिंदू राष्ट्र ने चाकचौबंद इंतजाम किया और जन्मष्टमी से एक दिन पहले,देश के सबसे बड़े शिक्षक का जनमदिन मना लिया गया।

निर्णायक लड़ाई हर हाल में जनता लड़ती है।

बन सको तो बन जाओ जनता के हथियार।


पलाश विश्वास

फासीवाद का विरोध उतना आसान भी नहीं है,दोस्तों।

कबीर दास होते तो क्या उन्हें मजहबी लफंगे बख्श देते?


फिरभी सच यही है कि जब कोई कबीर बाजार में खड़ा हो जाता है अपना घर फूंकने के तेवर में तो जमाना ठहर जाता है।


वक्त भी ठहर जाता है।

वक्त आज भी ठहरा हुआ है।


आज भी मध्ययुग का वही अंधियारा है।

कोई कबीरदास किसी बाजार में खड़ा नहीं है।


कबीर दास होते तो क्या उन्हें मजहबी लफंगे बख्श देते?


आज जन्माष्टमी है।हिंदू राष्ट्र का बड़ा उत्सव है और द्वारिका में कृष्ण कन्हैया का राजकाज है।


जन्माष्टमी से बड़ा किसी अध्यापक का जन्मदिन न हो,हिंदू राष्ट्र ने चाकचौबंद इंतजाम किया और जन्मष्टमी से एक दिन पहले,देश के सबसे बड़े शिक्षक का जनमदिन मना लिया गया।


कल शिक्षक दिवस का भी अवसान हो गया पांच सितंबर वाला।

हम चूंकि मजहबी नहीं है और न रंग बिरंगी सियासत से हमारा वास्ता है तो हमारा शिक्षक दिवस आज है।


तब शायद मैं कक्षा दो में भी नहीं पढ़ रहा था।तब भारत के राष्ट्रपति थे सर्वपल्ली डा.राधाकृष्णन।


पंतनगर विश्वविद्यालय का दीक्षांत समारोह था और डा.राधा कृष्णन आने वाले थे।पिताजी उस दीक्षांत समारोह में जाने वाले थे।मैं जिद पकड़ ली थी कि मुझे भी जाना है।

पिताजी ने हां कह दी थी।


सुबह का स्कूल था।घर में बस्ता फेंक मैं दोस्तों के साथ कबड्डी खेलने निकल गया।पिताजी खेत का काम निबटाकर नहा धोकर पंतनगर को निकल लिये।सोचा कि मैं भूल गया।


भूल गया था।ऐन मौके पर याद आयी।दौड़कर घर पहुंचा तो देखा वे निकल गये।मैं दौड़ पड़ा उनके पीछे।वे साईकिल से जा रहे थे।करीब दो मील दौड़कर रास्ते में मैंने पकड़ लिया उन्हें।चड्डी में लथपथ मैंने कहा कि मैं भी जा रहा हूं।


पिताजी मेरी दौड़ जानते थे।लौट आये बसंतीपुर।नहा धोकर तैयार होकर पिताजी के साथ निकला मैं दीक्षांत समारोह के लिए।


पंतनगर पहुंचा तो पहाड़ों से बादल टकराने लगे थे।

बिजलियां कड़कने लगी थीं और हम पर बिजली तब गिरी जब हमने जान लिया कि डां राधाकृष्णन नहीं आ रहे हैं।


हमने तब उपराष्ट्रपति डा. जाकिर हुसैन को सुना।

लौटते हुए रात हो गयी।

मूसलाधार बारिश।


तेज आंधी और तराई का जंगल।

आदमखोर बाघ का डर।

साठका दशक।


पंतनगर से रुद्रपुर।

रुद्रपुर से जाफरपुर और फिर जाफरपुर से बसंतीपुर।

हम डरे नहीं।


साईकिल के कैरीयर पर भीगते हुए,ठंड से कांपते हुए हमने राम राम भी नहीं कहा।


हमने डा.राधाकृष्णन को नहीं देखा।

यह सदमा चूंकि डर से बड़ा था।


वह सदमा आज भी जिंदा है कि फिर हमें डा.राधाकृष्णन को नहीं देखा।


जब डा.जाकिर हुसैन भारत के तीसरे राष्ट्रपति बने,जिन्हें मैंने देखा था,तब भी मुझे कोई खास खुशी नहीं हुई।

क्योंकि मैंने डा.राधाकृष्णन को नहीं देखा।

बेहद अफसोस की बात है कि फिर किसी राष्ट्रपति में मैंने डा.राधाकृष्णन को नहीं देखा।वे जो दर्शन के प्रोफेसर थे।


और अनजाने में अपने अवचेतन में मैं कहीं न कहीं प्रेसीडेंसी का वह छात्र बन गया जिसने उनके व्याख्यान के मध्य उन्हें टोका कि सर,अंधियारा है और हम नोट्स ले नहीं पा रहे हैं।


तेज चकाचौंध के बावजूद फिर वहीं अंधियारा है।

आज भी डा.राधाकृष्णन के व्याख्यान के नोट्स अधूरे हैं।


फिर भी कहते हुए मुझे बेहद गर्व है कि मैंने अपने अध्यापकों में नारी पुरुष लिंग भेद निरपेक्ष उन्हीं डा.राधा कृष्णन को बार बार देखा है।


आज भी अपढ़ हूं उसीतरह।

आज भी अज्ञानी हूं उसी तरह।


आज भी हर रोज अपने बचपन की तरह पहले पाठ के पहला सबक इंतजार होता है बेसब्री से आखर और अंक को रोज नये सिरे से सीखना होता है।


रोज नये सिरे से ज्ञान की खोज में उड़ान पर होता हूं मैं और मेरे ये डैने मेरे शिक्षकों,शिक्षिकाओं के डैने हैं।


उन सबको नमन।


कुछ नाम बहुत प्रिय हैं।

उनका नाम लेकर मैं अपने तमाम प्रिय अध्यापक अध्यापिकाओं को कमतर बताना नहीं चाहता जो सारे के सारे बेहद आदरणीय होते हैं हमेशा।क्योंकि वे न होते तो हम यकीनन नहीं होते हम।


वे सारे लोग न होते तो मेेरे पांव आज भी कीचड़ गोबर में धंसे न होते और न मेरा दिलोदिमाग या बसंतीपुर या फिर हिमालय होता।


सीरिया के अनाथ पिता ने दरिया में दो मासूम बच्चों के डूबने के बाद सच कहा है कि शरणार्थी का कोई देश नहीं होता।


ठप्पा एकबार लगा गया फिलीस्तीनी होने का तो वह फिर नागरिक होता नहीं है।


ठप्पा एकबार लगा गया अश्वेत अछूत होने का तो वह फिर नागरिक होता नहीं है।


अश्वेत अछूत शरणार्थी का देश कोई होता नही है।

मुक्त बाजार का सच भी नहीं है यह।

यह सिर्फ मनुस्मृति का सच भी नहीं है।


यह इतिहास का सच है।

यह सरहदों का सच है।

यह हिमालय,समुंदर और नदियों का सच है।


यह सच न बाजार का सच है और न मजहब का सच है।

यह सियासत का सच है।


सियासत हमेशा अश्वेत अछूत और शरणार्थी के खिलाफ है।


इसलिए सियासत से मुझे सख्त नफरत है।

मैं नहीं मानता कि सियासत का सच आखिरी सच होता है।


सच कहने के लिए बहुत जरुरी भी नहीं कि सियासती तौर पर सही होना जरुरी है।


मुझे न कोई बड़ी कुर्सी हासिल करनी है और न किसी पुरस्कार सम्मान से अपना कद बड़ा करना है कि लोगों की पसंद का,उनकी सियासत का मैं लिहाज करुं।


मुझे कोई इलेक्शन भी जीतना नहीं है और न किसी इतिहास में दाखिल होना है और न किसी अजायब घर में मोम का पुतला बनकर खड़ा हो जाना है।

मैं बूतपरस्ती के खिलाफ हूं।


फिरभी दुनिया का दस्तूर है बूतपरस्ती का।

यकीन रब का करते हैं,इबादत भी उसी का करते हैं।

फिरभी रब को बूत बनाते बनाते कातिलों को रब बना देते हैं।


हम शख्सियतों की इबादत के अभ्यस्त हैं दरअसल।

हम शख्सियतों की इबादत में रब को भुला देते हैं।


हम शख्सियतों की इबादत में किसी न किसी फासिस्ट की गुलाम फौज में तब्दील हो जाते हैं।

यह इंसानियत की सबसे बड़ी त्रासदी है।


पथेर पांचाली हमारी नजर से उतनी महान फिल्म भी नहीं है जितनी कोमलगांधार या गर्म हवा या तमस या तीसरी कसम।


पथेर पांचाली के लेखक विभूति भूषण बंद्योपाध्याय के रचनासंसार में कोई खलनायक या खलनायिका कहीं है ही नहीं।


ऐसा होता तो सर्वजाया,दुर्गा की मां किसी और की कलम से खूंखार खलनायिका होती,दुर्गा की मां बनकर याद न बन रही होती।


चार्ल्स डिकेंस के उपन्यासों में भी किसी बदमाश किरदार की मौत होती है तो दिल चीखता है,अरे ,किसी इंसान की मौत हो रही है।


तालस्ताय और विक्टर ह्युगो के उपन्यास इसीलिए महाकाव्य है।

हर श्रेष्ठ उपन्यास इसीलिए निर्णायक तौर पर महाकाव्य हैं।

इसीतरह हर महाकाव्य दरअसल मुकम्मल उपन्यास है।


सच को वस्तुनिष्ठ तरीके से देखने की आंखें हों तो शख्सियत पर फोकस होना नहीं चाहिए।


गौर करें कि हमने बार बार लिखा है कि ओम थानवी प्रभाष जोशी से बेहतर संपादक हैं।


हमने यह भी साफ किया जब वे हमारे बास थे,तबभी कि वे मुझे सख्त नापसंद हैं और मैं उनसे बात भी नहीं करता और उनसे मुलाकात की नौबत बनती दिखे तो कैजुअल लेकर घर बैठ जाता हूं।


शैलेंद्र करीब चार दशक से मेरा दोस्त है।कोलकाता में मेरा बास है सोलह साल से।न ओम थानवी मेरी फ्रेंडलिस्ट में है और न शैलेंद्र। क्योंकि अखबार के मामले में मेरी राय उन सबसे अलग है।


प्रभाष जोशी न होते तो मैं जनसत्ता में नहीं होता,यह जितना सच है,उससे बड़ा सच है कि रघुवीर सहाय,उर्मिलेश,मदनकश्यप और आवाज के संपादक ब्रह्मदेवसिंह शर्मा और धनबाद के बंकिम बाबू न होते तो मैं पत्रकारिता में ही नहीं होता।


मुद्दों की बात होती है तो मुद्दों की बात करने से चूकता नहीं हूं।

जब प्रभाष जोशी संपादक थे तो उनके सारस्वत ब्राह्मणवाद के खिलाफ हमने हंस में लिखा है।


दरअसल हम ओम थानवी की बात कर ही नहीं रहे थे और हमें इससे कोई मतलब नहीं है कि उनने किससे किस किस मौके पर कितनी बदतमीजी की या उनने मेरे साथ क्या सलूक किया।


ये हमारे निजी मामलात है कोई मसला या मुद्दा दरअसल है नहीं। उनने कल्याण सिंह से पुरस्कार लिया या नहीं,इससे भी हमें खास मतलब नहीं है।मैं किसी पुरस्कार को किसी के किये धरे का प्रतिमान नहीं मानता।


यूं समझें कि नवारुण भट्टाचार्य को साहित्य अकादमी मिल गया और उनकी मां महाश्वेता देवी को ज्ञानपीठ मिला है और हो सकता है कि नोबेल भी मिल जाये।


महाश्वेता दी नहीं होतीं तो भाषा और साहित्य,कला और संस्कृति के बारे में मेरी सोच मेरी होती ही नहीं।


फिरभी हर मायने में नवारुण दा महाश्वेता दी से बड़े रचनाकार हैं कि जनता की बदलाव की लड़ाई में वे बेहतर हथियार हैं।


किसी दो कौड़ी के रचनाकार को नोबेल मिल गया तो हम उन्हें उसीतरह बड़ा नहीं मानते जैसे नोबेल मिल जाने से अमर्त्य सेन को हम बड़ा अर्थशास्त्री नहीं मानते।उनसे बड़ा अर्थशास्त्री तो हमारी चिपको माता गौरा पंत हैं या फिर सुंदर लाल बहुगुणा।इंसानियत और कायनात से ऊपर अर्थशास्त्र होता नहीं है।


इसीलिए रोज रोज शेयरों के उतार चढ़ाव से,ग्लोबल इशारों से  निवेशकों का लाखों करोड़ का चूना लगने के बावजूद रिजर्व बेकं के गवर्नर राजन के रेट कट से मुझे सख्त एलर्जी है और उन्हें मैं दुनिया का सबसे बड़ा झूठा,दिवालिया मानताहूं।


ऋत्विक घटक को आस्कर नहीं मिला,मंटो,प्रेमचंद,शरत,मुक्तिबोध वगैरह पुरस्कृत न हुए तो उनका कद बौना हुआ नहीं है।


न सिर्फ विश्वसुंदरियां सुंदरियां हैं और न हम लोग सिर्फ विश्वसुंदरियों से मुहब्बत करते हैं।


खासी बदसूरत कन्या भी हमारे लिए विश्वसुंदरी होती है,जब हमें उससे मुहब्बत हो जाती है।



हमें पचास साठ की हिरोइनें बहुत अच्छी लगती हैं तो हम करीना,दीपिका,प्रियंका,कंगना,वगैरह वगैरह को हरवक्त शबाना और स्मिता के मुकाबले खड़ा नहीं भी करते हैं।


दिलीपकुमार और आमीर खान का मुकाबला असंभव है तो अमिताभ जैसा शाहरुख भी नहीं है।


सबकी अपनी भूमिका है।


हर फिल्म में अलग किरदार होता है।


हम किरदार के दीवाने होते हैं।


कलाकारों के हरगिज नहीं।


रघुवीर सहाय,प्रभाष जोशी या ओम थानवी के बारे में जब हम बात करते हैं तो उनकी निजी जिंदगी से हमें कोई मतलब नहीं होता।वे किस दर्जे के इंसान  हैं,सेकुलर हैं या नहीं,यह पैमाना नहीं है।


उनने मीडिया का क्या बनाया,मुद्दा दरअसल यही है।


पुरस्कार कल्याणसिंह से लिया हो या नहीं,ओम थानवी ने जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखा है और हमें लोग जनसत्ता की रोशनी से पहचानते रहे हैं।

हमारे लिए मुद्दा इतना है।


आदमी वह घटिया यकीनन हो सकता है,लेकिन जब तक संपादक की कुर्सी पर बैठा था,उसकी रीढ़ मुकम्मल थी और जनसत्ता सिर्फ खबरों का अखबार नहीं था और न सिर्फ अखबार था जनसत्ता,वह हिंदी दुनिया का आइना बना रहा।


थानवी ने अखबार में किसी औरत को नंगा किया हो,हमारी जानकारी में नहीं है। निजी जीवन में वे कितने वफादार हैं और कितने लंपट.हमारा मसला यह नहीं है।


जनसत्ता को ओम थानवी ने जनसत्ता बनाये रखा,इसीलिए वे प्रभाष जोशी से बड़े संपादक है।क्योंकि विरासत बनाने से ज्यादा मुश्किल काम विरासत बचाये रखने का है।


प्रभाष जोशी ने जनसत्ता रचा।हम सबको खोज खोज कर जोड़ा उनने।वे जनसत्ता के जनक हैं।लेकिन आखिर तक,जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखना उनके काम से बेहद ज्यादा मुश्किल काम रहा है।आगे आगे यह काम बेहद मुश्किल होने वाला है।


अब भी जनसत्ता में हूं चंद महीने और,जो थानवी पर धुँधाधार गोले बरसा रहे हैं,इस गोलाबारी में मुझे एकदम हाशिये पर धकेलने वाले इंसान के हक में खड़ा हूं तो समझ लें कि हमारा मुद्दा जनसत्ता है क्योंकि जनसत्ता से फिलहाल हमारा वजूद अलग नहीं है।


जनसत्ता निकालने के अलावा कोई बाहर क्या क्या गुल खिला रहा है,हमें इससे मतलब नहीं है।लेकिन अपने वजूद में खरोंच पड़ जाये तो हम खामोश रहनेवालों में नहीं हैं।


उस आइने को किरचों में बिखेरने से बचाना अब मुकेश भारद्वाज की जिम्मेदारी है,मुद्दा यही है।मुकेश को भी जांचना हुआ कभी तो मेरा पैमाना बदलने वाला नहीं है।कोई और हो,तो भी नहीं।



मेर दोस्तों को मेरे मातहत काम करने में भले शर्म आती हो लेकिन मुझे किसी के मातहत काम करने से शर्म नहीं आती।


कल कोई नया ताजा छोकरा मेरा बास बनेगा तो भी मैं उसके मातहत काम करने से झिझकुंगा नहीं।

हमें पत्रकारिता से मतलब है,चेहरों से नहीं।


जो चेहरे हमें पसंद नहीं है,वे अगर मीडिया और जनहित के मापिक हों तो हमें उनसे परहेज नहीं है।


बाकी मैं उधार खाता हूं नहीं।न उधार की जिंदगी जीता हूं।

मौका आता है तो किसी को भी नकद भुगतान से चूकता भी नहीं हूं।


मैं रिफ्यूजी हूं।

मैं अश्वेत हूं।

मैं काला हूं।

मैं बौना भी हूं।

यूं कहें खासा बदसूरत हूं

और बददिमाग भी हूं।


मुझे अपने वजूद के लिए कोई शर्म नहीं है।

अपनी पहचान के दायरे में मैं बंधा भी नहीं हूं।


मेरे गुरुओं ने हमेशा मुझे पहचान,दायरा,दीवारों और सरहदों के आर पार इंसानियत का पाठ पढ़ाया है और छात्र मैं उतना जहीन नहीं हूं, लेकिन एक रत्ती भर वफा कम नहीं है। न वफा मुहब्बत में कम है।


कल रात मैंने अभिषेक को फोन पर कहा कि उदय प्रकाश ने पुरस्कार लौटाकर सही काम किया है।


कल रात मैंने अमलेंदु को फोन पर कहा कि उदय प्रकाश की खबर को कहीं मिस न कर देना।


उदय प्रकाश को मैं लेखक मानता हूं या नहीं,वह मेरा दोस्त है या दुश्मन है,मैं उसका चेहरा पसंद करता हूं या नहीं,उसकी क्या टाइमिंग है और गिमिक क्या है,इससे हमें कोई मतलब नहीं है।


फासीवाद के खिलाफ,एक साहित्य अकादमी पुरस्कारविजेता की हत्या के खिलाफ उसने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का फैसला लिया है।यह शहादत भी नहीं है।सही वक्त सही फैसला है।


क्योंकि साहित्य अकादमी ने बतौर संस्था इस जघन्य हत्याकांड पर कोई आधिकारिक विरोध जताया नहीं है।


जो संस्था फासीवाद से नत्थी हो,उसके पुरस्कार को लौटा देने में कोई परहेज नहीं है।हर्ज भी नहीं है।


हालांकि पुरस्कार लौटाने से बदलेगा कुछ भी नहीं।

लेकिन जैसा विष्णु खरे ने लिखा है,हम जो लोग इस केसरिया फासीवाद के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं,उनका हौसला बुलंग होगा।


बाकी लोग जिन्हें परस्कार मिला है ,वे चाहे तो बाशौक रखें अपना अपना सनद पुरस्कार अपनी हिफाजत में,मना किसने किया है।


फिर यह बेमतलब का हंगामा क्यों खड़ा है।हम कलबुर्गी के हत्यारों के खिलाफ लामबंद होने के बजायक्यों उदय प्रकाश के खिलाफ खड़े हो रहे हैं और अपना अपना निजी हिसाब बराबर करने में लगकर फासीवाद के हाथों को मजबूत करने में लगे है,मुद्दा यह है।


देर रात मैं हैरत में पड़ गया कि हो क्या रहा है कि दरअसल मलसा क्या है और बहस क्या हो रही है।

फासीवाद के बदले सारी बहस उदय प्रकाश पर हो रही है।


सारे लोग लोगों से पुरस्कार लौटाने की अपील कर रहे हैं।

उदय प्रकाश ने लौटाया तो यह हाल है कि मुद्दा उदय प्रकाश के सिवाय कोई दूसरा नहीं है।


मंगलेशदा,वीरेन दा वगैरह वगैरह जब लौटा देंगे तो हाल फिर समझ लीजिये।


मैं तो बदतमीज हूं।

किसी मुकाम पर हूं नही कि परवाह भी करुं अपनी हैसियत का।


मेरी नजर से किसी पुरस्कार से इंसानियत,इतिहास को तो कोई फर्क पड़ता ही नहीं है और सियासत के लिए पुरस्कार बेमायने है जैसे कि साहित्य,संस्कृति,कला और भाषा की मुक्त बाजार और मनुस्मृति में जो औकात है,उससे कोई कम ज्यादा सियासत में नहीं है।बाजार में तो और बुरा हाल है जहां बाजार का अपना सौंदर्यशास्त्र है और बाजार का भाषावित्ज्ञान अलग है।व्याकरण भी अलग है।


सियासत अपने हिसाब से साहित्य,संस्कृति,कला और भाषा गढ़ लेती है।


हुकूमत अपने हिसाब से साहित्य,संस्कृति,कला और भाषा चुन लेती है।


मजहब भी अपने हिसाब से साहित्य,संस्कृति,कला और भाषा जायज या नाजायज ठहरा देता है।


हम न हुक्मरान हैं,न हम सियासत में हैं और न हम कोई फतवाबाज मौलवी हैं जिहादी - तो हम इसे बहस का मुद्दा क्यों बना रहे हैं।


हम गोरख पांडेय के दोस्त रहे हैं।तो जाहिर सी बात है कि निजी तौर पर उदयप्रकाश के किये धरे से मेरा कोई लेना देना नहीं है।


बसंतीपुर के वाशिंदे हैं हिमालय के तमाम लोग और इस देश के तमाम आदिवासी,कश्मीर,पूर्वोत्तर और समूचा दक्षिण भारत भी मेरे लिए बसंतीपुर है।


मैं अपने बसंतीपुर में जहां देखूं वहां नजर आते हैं गोरखवा,वहीं कहीं हैं मुक्तिबोध और प्रेमचंद,शरत भी और मंटो और नवारुण भी तो तालस्ताय से लेकर शेक्सपीअर तक सारे के सारे।वहीं हमारे साथ हैं आनंद स्वरुप वर्मा,पंकज बिष्ट,आनंद तेलतुंबड़े,अमलेंदु उपाध्याय, अभिषेक श्रीवास्तव और रेयाज।लेकिन उदय प्रकाश कहीं नहीं है।


फिरभी उदय का जादुई यथार्थ और उत्तरआधुनिकवाद ग्लोबल दर्शन हमारी समझ नहीं आता और हमें उससे खास मुहब्बत भी नहीं है,सिर्फ इस वजह से वह मेरा दुश्मन भी नहीं है।इसका मतलब यह भी नहीं है कि उसका साहित्य सिरे से खारिज है या फिर उसका कोई मुकाम नहीं है।


हमारी कसौटी एकमात्र है,बदलाव में प्रासंगिकता।इस हिसाब से गैर जरुरी चीजों पर हम बहस नहीं करते।


हम कलबुर्गी की हत्या का विरोध कर रहे हैं।

हम फासीवाद का विरोध करते हैं।


हम रणवीर सना से लेकर तमाम निजी और मजहबी सेनाओं के कत्लेआम का विरोध करते हैं।जितना गुजरात नरसंहार के विरोध में हैं हम ,उतना ही विरोध हम सिखों के नरसंहार का करते हैं और भोपाल गैस त्रासदी ,परमाणु संयंत्रों का विरोध भी करे हैं,जलजंगल जमीन से बेदखली और हिमालय की हत्या का विरोध भी करै हैं हम। हमारे लिए सत्ता और हुकूमत के रंग बेरंग हैं।


हम मुक्त बाजार का विरोध करते हैं।

यह विरोध एक काफिला है।

हर तरह के लोग इसमें शामिल हैं।

कोई हमें पसंद नहीं तो हम उसे पाबंद कर दें तो यह भी फासीवाद से कम भय़ंकर नहीं है।

फासीवाद के विरोध से भी जरुरी यह है कि हम लोग खुद फासीवादी तौर तरीके अख्तियार तो नहीं कर रहे हैं,इसका ख्याल रखना।


फिर हम अपने दुश्मनों से भी नफरत नहीं करते हैं।हमें फासिज्म के सिपाहसालारों,सिपाहियों की अभिव्यक्ति की आजादी का भी सम्मान करते हैं।


हमें कोई गालियां देता है तो यह उसकी तहजीब है,हमारे सरदर्द का सबब नहीं है।हमने आजतक किसीको डीफ्रेंड नहीं किया है और न डीएक्टिवेट के हक में हूं।मुझे जो लगातार गरियाते हैं,वे बखूब जानते हैं कि उन्हें हमारी परवाह हो या न हो,हमें उनकी परवाह है।


आज भी मैं साहित्य का छात्र हूं और मेरे लिए आदमी हाड़ मांस खून और खताओं का पुतला है।औरतें भी वहीं।


हमें आज भी पक्का यकीन है कि नफरत किसी मर्ज का इलाज नहीं है।आज भी हमें टूटकर मुहब्बत की आदत है,जो छूटती नहीं है।




इंसानियत अच्छी भी होती है और बुरी भी होती है इंसानियत।

मुकम्मल अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं होता।


पुरस्कारों से कुछ बना बिगड़ता दरअसल है नहीं।


यह बहुत आसान होता कि सारे पुरस्कार सम्मान वगैरह लौटा दिये जाते और मुक्त बाजार का जलवा राख हो जाता।


पुरस्कारों से कुछ बना बिगड़ता दरअसल है नहीं।


यह बहुत आसान होता कि सारे पुरस्कार सम्मान वगैरह लौटा दिये जाते और सियासत हुकूमत और मजहब का त्रिशुल हमारे दिलोदिमाग वजूद को बिंध  नहीं रहा होता।


पुरस्कारों से कुछ बना बिगड़ता दरअसल है नहीं।


यह बहुत आसान होता कि सारे पुरस्कार सम्मान वगैरह लौटा दिये जाते और बेदखल जल जंगल जमीन पर हमारे लोग दोबारा काबिज हो जाते और बंटवारे में जो कुछ हमने खो दिया,वापस मिल जाता।


निर्णायक लड़ाई हर हाल में जनता लड़ती है।

बन सको तो बन जाओ जनता के हथियार।


फासीवाद का विरोध उतना आसान भी नहीं है,दोस्तों।

कबीर दास होते तो क्या उन्हें मजहबी लफंगे बख्श देते?


फिरभी सच यही है कि जब कोई कबीर बाजार में खड़ा हो जाता है अपना घर फूंकने के तेवर में तो जमाना ठहर जाता है।


वक्त भी ठहर जाता है।

वक्त आज भी ठहरा हुआ है।


आज भी मध्ययुग का वही अंधियारा है।

कोई कबीरदास किसी बाजार में खड़ा नहीं है।


कबीर दास होते तो क्या उन्हें मजहबी लफंगे बख्श देते?


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