THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, April 29, 2012

हाशिया खींचना ठीक नहीं

हाशिया खींचना ठीक नहीं

Sunday, 29 April 2012 11:12

चंद्रभान सिंह 
जनसत्ता 29 अप्रैल, 2012: यादव सुपरिचित दलित रचनाकार श्यौराज सिंह बेचैन की टिप्पणी 'कैसे-कैसे विशेषज्ञ' (15 अप्रैल) में न सिर्फ वैचारिक गिरावट, बल्कि निराधार प्रश्नों-आरोपों का अंबार है। अपने पूरे लेख में बेचैन जी ने दलित उपन्यासों की विषय-वस्तु, चेतना और इस संदर्भ में मेरे निष्कर्ष पर कोई टिप्पणी नहीं की। सिर्फ दलित उपन्यासों के प्रकाशन वर्ष का उल्लेख किया है। साहित्य के इतिहास में तिथि और कालक्रम से अधिक महत्त्वपूर्ण प्रवृत्तियां होती हैं। इन उपन्यासों के शिल्प, संरचना और प्रवृत्ति पर बेचैन जी मौन क्यों हैं? काश! उपन्यासों के प्रकाशन वर्ष पर केंद्रित रहने के बजाय उन्हें पढ़ कर कुछ टिप्पणी करते तो लेख में गंभीर विवेचन के साथ सर्जनात्मकता भी होती, जिसकी दलित आंदोलन को आवश्यकता है। 
प्रकाशन वर्ष संबंधी त्रुटि के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना कि 'विशेषज्ञ महोदय ने दलित साहित्य की कोई किताब नहीं पढ़ी है', उनका पूर्वग्रह है। वे आगे लिखते हैं कि 'न किसी सूचना स्रोत का जिक्र होता है और न पुस्तकों के संदर्भ! यह साहित्यिक अपराध है।' सूचना स्रोत और पुस्तकों के संदर्भ शोध-पत्र में देना अनिवार्य होता है, न कि लेख में।  आरोप लगा कर खुद फैसला सुनाने वाले बेचैन जी सामाजिक न्याय की बात किस आधार पर करते हैं? वे इसी लेख में फोन पर की गई बातचीत का विवरण देते हैं। फोन पर क्या बातचीत हुई, इसका स्रोत-प्रमाण मिलना संभव है! 
बेचैन जी आगे आरोप लगाते हैं कि 'पूर्व प्रकाशित लेख में उन्होंने गलतबयानी की थी। इस बार पहले से अधिक भ्रम फैलाए हैं।' मगर यह नहीं बताया कि मैंने क्या गलतबयानी की।  यहां बेचैन जी दलित साहित्य पर जरूरी किताब पढ़ने की सलाह देते हुए लिखते हैं, '2010 अनामिका प्रकाशन से आई रजत रानी मीनू की शोध पुस्तक 'हिंदी दलित कथा साहित्य: अवधारणा और विधाएं' ही देख ली होती।' रजत रानी मीनू कोई और नहीं, उनकी पत्नी हैं। परिवारवाद राजनीति में हो या साहित्य में, घातक है। अगर बेचैन जी परिवारवाद से मुक्त होते तो अन्य लेखकों के नाम भी सुझाते। 
दलित विमर्श को सही दिशा देने के लिए सारगर्भित और यथार्थपरक लेखन की आवश्यकता है। इस समय दलित और गैर-दलित दोनों वर्गों के लोग बड़ी शिद्दत से लेखन कर रहे हैं, जिससे दलित विमर्श को मजबूत आधार मिल रहा है। सिर्फ स्वानुभूतिपरक लेखन दलित साहित्य को एकांगी बनाएगा। सहानुभूति, सह-अनुभूति आधारित लेखन से इसे पूर्णता मिलेगी। बेचैन जी का यह विचार उचित नहीं माना जा सकता कि 'गैर-दलित हिमायती की हिमायत दलित साहित्य के लिए उसी तरह होती है जिस तरह श्रीकृष्ण के लिए पूतना मौसी का दूध।' दलित फासीवाद का ऐसा नमूना दुर्लभ है। 
दलित विमर्श का ऊर्जावान विचारक सतही आलोचना और सनसनीखेज टिप्पणियों के माध्यम से सुर्खियों में आना चाहता है, इसे क्या कहा जाए! अण्णा हजारे को आम लोगों ने गांधीजी के रूप में देखा, पर बेचैन जी को 'अण्णा कुछ खास तबके के हित साधते दिखे'। प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलनों के बाद बेचैन जी प्राय: आपा खो बैठते हैं। नौ अक्तूबर को लखनऊ में हुए सम्मेलन के बाद उनका कहना था कि 'नामवर सिंह के मानस में स्थायी रूप से सामंत निवास करता है।' बीते 12 अप्रैल को दिल्ली विश्वविद्यालय में हुए प्रलेस के सम्मेलन के बाद वे लिखते हैं, 'दलित साहित्य की लूट है, लूट सको तो लूट' वाली कहावत की तरह कई नए स्थापनाकार पैदा हुए हैं।' 

दलित साहित्य मूलत: वर्चस्ववादी व्यवस्था और सत्ता विरोधी है। मगर यहां भी कुछ लोगों को आर्थिक लाभ दिखाई देने लगा है। साहित्य कोई भी हो, उसका दरवाजा हमेशा नए व्यक्तियों और विचारों के लिए खुला होना चाहिए, नहीं तो उसकी अधोगति तय है। इस उत्तर-आधुनिक समय में कुछ दलित लेखकों का यह कहना कि दलित ही दलित साहित्य लिख सकता है, यह उसी प्रकार का अतिवाद है जैसे वैदिक काल में कहा गया था कि ब्राह्मण ही संस्कृत साहित्य का ज्ञाता-अध्येता हो सकता है। यह लोकतंत्र का जमाना है, यहां सबको अभिव्यक्ति का समान अधिकार है। दलित साहित्य में गैर-दलितों का विरोध करने वाले या तो खुद ब्राह्मणवादी-मनुवादी प्रवृत्तियों के शिकार हैं या उन्हीं के इशारों पर ऐसा कर रहे हैं। ये दोनों बातें दलित साहित्य और आंदोलन के लिए आत्मघाती हैं। 
अकारण नहीं है कि नामवर सिंह को सामंत और वीरेंद्र यादव को आधे मार्क्सवादी बताने वाले बेचैन जी बजरंग बिहारी तिवारी और अभय कुमार दुबे के दलित लेखन पर प्रतिकूल टिप्पणी से परहेज करते हैं। गैर-दलित जातियों द्वारा किए जा रहे दलित लेखन पर आपत्ति दर्ज करने वाले आरएसएस के संरक्षण में चल रहे मनुवादी लेखन पर भी मौन साध लेते हैं। यह वैचारिक भटकाव नहीं तो और क्या है? भाजपा-बसपा गठबंधन अल्पायु में ही बिखर गया, तो ऐसी विचारधारा से प्रेरित साहित्य का भविष्य कितना उज्ज्वल होगा? सत्ता का क्षणिक सुख प्राप्त करने के लिए यह फार्मूला जितना लाभकारी है, दलित आंदोलन के लिए उतना ही घातक। राह से भटके दलित लेखक डॉ आंबेडकर के स्थान पर बहन मायावती के पदचिह्नों पर चल रहे हैं। बसपा की राजनीतिक विवशता और महत्त्वाकांक्षा को दलित साहित्य का आदर्श बनाने का प्रयास किया जा रहा है। 
दलित आंदोलन और लेखन के मूल प्रेरणा स्रोत महात्मा बुद्ध उच्चवर्ग, पेरियार-फुले-शाहू जी महाराज अन्य पिछड़ा वर्ग और भीमराव आंबेडकर समाज के निम्नवर्ग से आते हैं। इस आंदोलन के लिए जाति से अधिक वैचारिक प्रतिबद्धता   महत्त्वपूर्ण है। जाति-वर्ण-धर्म की प्रतिबद्धता ने हर आंदोलन को कमजोर किया है। दलित आंदोलन इसका अपवाद नहीं होगा। कुछ आलोचक अपने सिद्धांत राजनीति से गढ़ने लगे हैं। उपनाम देख कर समीक्षा करने लगे हैं। जाति-वर्ण में डूब कर जातिविहीन समाज का सपना देखना दिवास्वप्न से अधिक कुछ नहीं है। विद्रोह-विरोध, आक्रोश-नकार से आगे बढ़ कर वैज्ञानिक और आर्थिक सोच से ही दलित साहित्य को सही और नई दिशा दी जा सकती है।


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