THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Friday, January 9, 2015

राजनीतिक मोर्चाबंदी नहीं,अब जरुरत है आम जनता के मोर्चे की! गांधी की वापसी के इतिहास के मौके पर राजघाट पर अनशन,लेकिन गोडसे समय के खिलाफ फिर लवण सत्याग्रह की मस्त गरज आहे अबे चैतू,तू कथे जात है।देश मुआ जात है,तू जिंदा रहबे? पलाश विश्वास


राजनीतिक मोर्चाबंदी नहीं,अब जरुरत है आम जनता के मोर्चे की!
गांधी की वापसी के इतिहास के मौके पर राजघाट पर अनशन,लेकिन गोडसे समय के खिलाफ फिर लवण सत्याग्रह की मस्त गरज आहे
अबे चैतू,तू कथे जात है।देश मुआ जात है,तू जिंदा रहबे?
पलाश विश्वास
ये तस्वीरें बताती हैं कि हम किस भारत का कायाकल्प करने में लगे हैं।गांधी जिसे पागल दौड़ बताते रहे हैं,उनके अनुयायी उस पागल दौड़ में शामिल हैं।वही पागल दौड़ अनंत विकास गाथा है।वही पागल दौड़ कटकटले अंधकार है।वही पागल दौड़ हिंदुत्व है जो दरअसल हिंदू साम्राज्यवाद है।नस्ली भेदभाव है।एमेरिकी जायनी जनसंहार राजसूय है और सारा देश महाभारत है।धर्म की बात गांधी भी करते थे।रामराज्य की बात भी करते थे गांधी।जब नाथूराम गोडसे ने गोली दाग दी तो बापू के आखिरी शब्द थेः हे राम!

उन्हीं राम के नाम यह पागल दौड़ है।

सेवाग्राम में इस पागल दौड़ चेतावनी के मुखातिब हुए हम,मैं,रविजी और निसार अली।हम जैसे बीचोंबीच हबीब तनवीर के आगरा बाजार में नाचा गम्मक खेल रहे हों इस सीमेंट के जंगल के कटकटले अंधकार में।

नागपुर से ट्रेन से लौट रहे थे तो टीटीई के भेष में रामभक्त एक देखा जो नागपुर से लेकर रायगढ़ तक जय श्री राम कहते कहते रायपुर से खाली हुआ जात बैलगाड़ी के सफर में रात को कड़ाके की सर्दी के एवज में बिना रिजर्वेशन घुस आये मुसाफिरों से जय श्री राम कह कहकर पचास से दो सै रुपये वसूलता रहा।यही राजकाज है।संत समागम भी यही है।

गांधी बिना श्रम संपत्ति के खिलाफ थे।बिना श्रम भोजन उनके लिए हराम था।अब रामजादा हुआ हो या नहीं ,देश गांधी के सिद्धांत के मुताबिक हराजादा हुआ जात है।डायन हुई मंहगाई,सैया हमार कमात भौत है,डायन ससुरी खाय जात है।

आंकड़ों की महिमा भारी मंहगाई भी जीरो दीख्ये अब,लेकिन जनता फिर भी मारी मारी।सब ससुरे मुनाफा का खेल,हराम की कमाई अब धर्म है।हराम की कमाई अब अर्थ व्यवस्था है।

संत विनोबा जो सूत कातते थे,उसके मेहनताना बतौर उन्हें तीन आना मिलता था,उसीका खाते थे और गांववालों से खुद को भंगी कहते थे।नदी में बाढ़ आयी तो पाखाना परिष्कार करने गांव जा नहीं पाये तो पवनार पार से हांक लगायी,गांववालों,नदी में बाढ़ है और आज तुम्हारा भंगी नहीं आयेगा।

अबे चैतू,तू कथे जात है।देश मुआ जात है,तू जिंदा रहबे?



गौर तलब है कि राजघाट पर आज से तीन दिनों के लिए गांधीवादी और सर्वोदयी कार्यकर्ताओं का अनशन है गांधी के नासमझ हत्यारे नाथुराम गोडसे के महिमामंडन के खिलाफ।

सुबह नींद से जागकर लिखना शुरु किया था,लेकिन ग्यारह बजे से जो बिजली गुल हुई साढ़े पांच बजे आयी।

राजघाट पर अनशन के प्रसंग में यह लेख पोस्ट करना आज जरुरी है।वक्त लेकिन बहुत कम है।दो घंटे में मुझे दफ्तर के लिए निकलना है।

माननीय पाठक,आप हमारा लिखा वर्तनी सुधारकर पढ़ें,सिर्फ यह निवेदन है।

सेवाग्राम में वहां के प्रभारी जयवंत मठकर ने हमें उस कार्यक्रम का आमंत्रण पत्र दिखाया था 6 जनवरी को जब हम छत्तीसगढ़ के नाचा गम्मक कलाकार निसार अली और नागपुर के रंगकर्मी व युवा कारोबारी रविजी के साथ वर्ध में दो दिवसीय सफदर हाशमी रंग मोहत्सव के उपरांत वहां पहुंचे।

कल आज की खबरों में राजघाट पर गांधी की दक्षिण अफ्रीका से वापसी के सौ साल के मौके पर इतिहास में वापसी की कोई हलचल कहीं है नहीं और न राजघाट पर अनशन की खबर है।सर्वोदयी कार्यक्रताओं नें याद करें कि बाबरी विध्वंस के बाद भी राजघाट पर अनशन किया था।

इस वापसी शताब्दी पर देश बेचने वालों का कार्निवाल लेकिन खूब जोरों पर है।गांधी के हत्यारे की मूर्ति गढ़ दी गयी है और नई दिल्ली में 30 जनवरी रोड के एकदम पास मंदिर मार्ग स्थित में उसमें प्राण प्रतिष्ठा भी कर दी जानी है,ऐसे में प्रथम स्वयंसेवक ने गांधी के दक्षिण अफ्रीका से  भारत वापस लौटने के सौवें साल पर डाक टिकट भी जारी कर दिया है।जबकि मेरठ में संत समागम मध्ये गोडसे मंदिर बनने की पूरी तैयारी है।भूमि पूजन संपन्न है।

तेरह साल की उम्र में बापू के सान्निध्य में आयी कुसुम ताई पांडे जो अब तेरानब्वे साल की हैं और महाराष्ट्र में कम्युनिस्टआंदोलन से जुड़ी अंबर चरखा से सूत कात रही युवा प्रभाताई ने एक स्वर से कहा कि नाथूराम गोडसे का मंदिर इस देश में नहीं बनना चाहिए।

कुसुमताई ने कहा कि अब फिर एक लवण सत्याग्रह की दरकार है पागल दौड़ के खिलाफ तो कुछ दूसरे कार्यकर्ताओं ने कहा कि उस नासमझ हत्यारे को माफ कर दिया बापू ने लेकिन यह देश उसे माफ नहीं कर सकता।
जयवंत मठकर ने जब उस बहुचर्चित गांधी के नाम नेताजी के पत्र की चर्चा की जिसमें नेताजी ने आजाद हिंद फौज के भारत में प्रवेश के लिए गांधीजी से इजाजत मांगी और उन्हें फादर आफ दि नेशन नाम से पहले संबोधित किया।

उनने याद दिलाया शांतिनेकतन में बापू के सान्निध्य कविगुरु रवींद्र की और कहा कि रवींद्र ने ही गांदी को महात्मा कहा।तो ढेरों बातें याद आयी और सेवाग्राम की सरजमीं पर उस माटी में खड़े होकर जहां खुल्ले आसमान के नीचे बापू की प्रार्थना सभा होती थी और जहां 1936 में बापू ने पीपल का पेड़ लगाया था, खुल्ला बाजार में धर्म के नाम,राम के नाम हमें चारों तरफ से दसों दिशाओं से बेदखल करती पागल दौड़ याद आयी और अचानक अहसास हुआ कि गांधी कोई कांग्रेस के नेता तो थे नहीं।

अचानक अहसास हुआ कि गांधी कोई कांग्रेस के नेता तो थे नहीं।वे नेहरु के भी उतने ही नेता थे जितने नेताजी के,समाजवादियों के जितने उतने ही कम्युनिस्टों के।

सारी अस्मिताएं एकजुट थीं अस्मिताओं के आर पार और यह जनता का मोर्चा था,जिसके नेता थे बापू।

विकीपीडिआ के मुताबिकः
मोहनदास कर्मचन्द गांधी (2 अक्टूबर 1869 - 30 जनवरी 1948) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापकसविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादीदिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा की उपाधि सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने प्रदान की थी[1] रवीन्द्रनाथ टेगौर ने नहीं। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गान्धी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं।[2] प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।
सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु रोजगार करना शुरू किया। 1915 में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।
गान्धी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रक्खे।


अमेरिकी की स्वतंत्रताता की लड़ी,फ्रासीसी क्रांति से लेकर हाल में दक्षिण अफ्रीका की क्रांति और यहां तक कि अमेरिकी अश्वेत प्रथम राष्ट्रपति बाराक ओबामा के चुनाव में भी किसी विचारधारा,किसी अस्मिता या किसी राजनीति के बजाय निर्णायक था फिर वही सामाजिक और उत्पादक शक्तियों का संयुक्त मोर्चा।

क्या हम वह मोर्चा गढ़ नहीं सकते?

वही सामाजिक और उत्पादक शक्तियों का संयुक्त मोर्चा?

जनता का मोर्चा?

हमारे भीतर उस वक्त जैसे केदार जलप्रलय घामासान।

जैसे सारे के सारे पहाड़ दरकने लगे।
जैसे घाटियां यकबयक गायब होने लगीं।
जैसे सारे के सारे ग्लेशियर रेगिस्तान।जैसे भूकंप से जलथल एकाकार।
जैसे एडियोएक्टिव पोलोनियम जहर से हजार भोपाल गैस त्रासदियों के बीचोंबीच अकले हम महाभारत युद्ध के सारे जख्मों,सारे रक्तपात का बोझ ढोते हुए अश्वत्थामा।

हमने नई तालीम के बच्चों को टिफन खाते हुए,टिफिन साझा करते हुए गांधी की चर्चा करते सुना और दोपहर के भोजन से पहले सफाई करते बच्चे जब कहने लगे कि उन्हें मोदी नहीं,गांधी बनना है तो हमारे होश ठिकाने आये।



हमने गांधी को देखा नहीं है।न हम गांधी को समझे हैं और न उनके स्तय और सत्याग्रह को।हम जैसे नासमझ  गांधीविरोधियों की रहने दें,जो गांधी वाद के झंडेवरदार हैं, पागलदौड़ की उनकी सियासत के मद्देनजर कहना सही होगा कि इस देश में गांधी को अब शायद ही कोई समझता हो।

हमने इरोम शर्मिला नाम की हमारी सबसे प्रिय,सबसे खूबसूरत एक लड़की के 14 साल का स्तायग्रह देखा है और आमरण अनशन मार्फते उनकी सत्यनिष्ठा देख रहे हैं।सत्ता के सैन्यतंत्रविरुद्ध लोकशाही की बहाली की इरोम की लड़ाई को समझें तो शायद हम गांधी को भी समझ सके हैं।गांधी के देश ने गांधी की सबसे महान अनुयायी में एक इरोम शर्मिला को भी भुला दिया गया। जबकि इरोम शर्मिला के संघर्ष की कहानी जबरदस्त नैतिक बल से भरी हुई है। इसके बावजूद इस संघर्ष में हिंसा की जगह नहीं है। इस कहानी में बलिदान है, सम्मान के साथ जीने के हक के लिए संघर्ष है। ये कहानी शुरू हुई थी सुदूर पूर्वोत्तर की एक छोटी सी झोपड़ी में इरोम आठ भाई-बहनों में सबसे छोटी हैं, जब इरोम का जन्म हुआ तब उनकी मां इरोम सखी नवजात बच्ची को अपना दूध पिलाने के काबिल नहीं रहीं। इरोम को गांव की कई महिलाओं ने अपना दूध पिला कर एक तरह से जीवन दान दिया था।


वर्धा में एक मजदूर है जिसकी दिहाड़ी का इंतजाम हम अब कर नाही सकत है।वह काफिले की मजदूरी करता है।उसकी संगत में है एक कुमार गौरव।लौंडो बहुतै होशियार है।उनन के साथ दंगल दंगल जंगल के मोर मोरनियां हैं,जिनकी वसंत बहार है वर्धा महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय में,जहां हाशिमपुरा मलियाना नरसंहार का भंडाफोड़ करने वाले बहुनिंदित एक कुलपति विभूति नारायण राय ने नजीर हाट,बिरसा मुंडा हास्टल,भगत सिंह सुखदेव राजगुरु हास्टल, कामिल बुल्के अंतरराष्ट्रीय छात्रावास,नजीर हाट,बाबा नागार्जुन सराय,मुंशी प्रेमचंद मार्ग,हबीब तनवीर प्रेक्षागृह वगैरह वगैरह से हिंदी का एक बेममिसाल गांव रचा है और हमारे कुछ पुरातन मित्र जो पगलैट किसम के रहे हैं,रघुवीर सहाय के चेले चपाटे भी हैं,वहां वे भी बसै हैं।वहां दो दिनों तक उधम काटने के बाद बचे खुचे जनमाध्यम भारतीय रंगमंच के बिखरे रंगकर्मियों में संवाद की पहल शुरु करने की एक पहल भी हो गयी ठैरी,जिसके बारे में सिलसिलेवार तरीके से बतायेंगे।

नाचा गम्मक को हबूब तनवीर को न जानने वाले न समझें,ऐसी बात नहीं है।नाचा गम्मक कलाकार निसार मियां इप्टा के सहयोग से छत्तीसगढ़ में एक रंगकर्मी मोर्चा बना चुके हैं और नागपुर जंकशन पर शैला हाशमी के राजधानी एक्सप्रेस के इंतजार में इस मोर्चे को हम राष्ट्रीय शक्ल देने के बारे में घंटों बतियाते रहे।वर्धा के छात्र छात्राओं शिक्षकों और वहां हाजिर नाजिर रंगकर्मियों के सौजन्य से एक पहल भी हमने रंग चौपाल के जरिये कर दी है।

हम गोरख पांडेयछात्रावास में लहूलुहान असंख्य गोरख पांडेय के मुखातिब थे कि रविजी अपनी कार लेकर सेवाग्राम हो आये।नागार्जुन सराय में हमने उन्हें धर दबोचा और दो दिन में हम मुक्म्ल छात्र अवतार में थे।अकेले ही हो आये,अभ भरिये जुर्माना।तो उनने जो जुर्माना भरा,बाकायदा सारथी बनकर ले गये हमें सेवाग्राम,जहां जाकर शोर मचाने के लिए मशहूर हो चुके हम हकबका गये।

पूछा हमने निसार भाई से,हां भाई चैतू, कथे ले आयो हो हमें,ई तो हमार घर लाग्यो है।जो घर पीछे छोड़ आयो,जो घर सीमेट के जंगल में बेइंतहा एक कब्र है,ससुरा वहीच घर इथे दीख गयो रे।

मन बेहद कच्चा कच्चा हो गयो रे भाया।

प्रवासी भारतीय दिवस समारोह के दौरान गुजरात के गांधीनगर स्थित महात्‍मा मंदिर में प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी ने 'महात्‍मा गांधी की वापसी के 100 वर्ष' पर दो स्‍मारक डाक टिकटों का सेट जारी किया।
संचार और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन डाक विभाग ने दक्षिण अफ्रीका से 'महात्‍मा गांधी की स्‍वदेश वापसी के 100 वर्ष' को न केवल महात्‍मा गांधी के जीवन में बल्कि भारत के इतिहास में भी एक महत्‍वपूर्ण मील के पत्‍थर के रूप में यादगार बनाने के लिए दो डाक टिकटों के सेट और एक लघुचित्र तैयार किये हैं।
महात्‍मा गांधी 24 वर्ष की उम्र में प्रिटोरिया सिटी में बसे भारतीय व्‍यापारियों के एक कानूनी सलाहकार के रूप में दक्षिण अफ्रीका पहुंचे थे। दक्षिण अफ्रीका में वे दो दशकों तक रहे, जहां उन्‍होंने वहां मौजूद घोर अन्‍याय, भेद-भाव और नस्‍लवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए सत्‍याग्रह की अवधारणा तैयार की थी।
गांधीजी नागरिक अवज्ञा और अहिंसा के माध्‍यम से साम्राज्‍यवादी ताकत से स्‍वतंत्रता के लिए संघर्षरत भारतीय समूहों के नेतृत्‍व के लिए अत्‍यधिक ख्‍याति प्राप्‍त करके भारत वापस आए थे।



आईबीएन सेवेन की इस रपट पर गौर करेंः

करीब 14 साल से उसने कुछ नहीं खाया है। जी, हां अन्न का एक भी दाना उसके गले से नहीं उतरा है। न ही उसने पानी की एक बूंद पी है। ये इरोम शर्मिला के विरोध का अनोखा तरीका है, जो बदस्तूर करीब 14 साल से जारी है। आमरण अनशन पर बैठीं इरोम की मांग है कि मणिपुर के लोगों को खौफ में रखने वाले आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल एक्ट यानी शस्त्र बलों को विशेषाधिकार देने वाला कानून हटाया जाए। सूबे के लोगों को शांति और इज्जत के साथ जीने का हक लौटाया जाए।

इरोम शर्मिला की मांग पूरी नहीं हुई, लेकिन उन्हें जिंदा रखने के लिए 14 साल से एक अजीबो गरीब कवायद चल रही थी। खुदकुशी की कोशिश के आरोप में वो हिरासत में रखी जाती रहीं। उन्हें जिंदा रखने के लिए नाक के जरिए ट्यूब से दिन में दो बार विटामिन-न्यूट्रिएंट्स दिया जाता रहा। क्योंकि इरोम अनशन तोड़ने को तैयार नहीं हैं। विरोध का उसका तरीका शायद उतना ही क्रूर है, जितना वो कानून जिसके खिलाफ वो लड़ रही हैं इस दौरान उसे हर 15 दिन में इंफाल के जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के कमरे से कोर्ट ले जाता था। चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट की अदालत के लिए ये छोटी सी यात्रा ही बाहरी दुनिया से उसका अकेला संपर्क था। करीब 14 साल में ये कवायद सैकड़ों बार दोहराई गई। साल में एक बार, एक दो दिन के लिए उन्हें आजाद भी किया जाता है, क्योंकि खुदकुशी की कोशिश के मामले में किसी को एक साल से ज्यादा हिरासत में नहीं रखा जा सकता।

करीब सात साल पहले जब आईबीएन7 की टीम इरोम की मां से मिलने पहुंची थी। इंफाल में अपनी छोटी सी झोपड़ी के सामने बैठी इरोम सखी का कहना था कि कई बार उन्हें खुद अपनी बेटी के फौलादी इरादों पर आश्चर्य होता है। शायद ये उन सारी माताओं के दूध का असर है, जिसने इरोम को वो संघर्ष जारी रखने की ताकत दी जो 14 साल पहले शुरू हुआ था।
2 नवंबर,2000 इस तारीख से एक दिन पहले एक उग्रवादी गुट ने सेना की एक टुकड़ी पर बम से हमला किया। असम राइफल ने इसका बदला मालोम के एक बस स्टैंड पर खड़े 10 लोगों की हत्या से लिया, जिन्हें उग्रवादी बताया गया। लेकिन मरने वालों में 62 साल की महिला लैसंगबाम थीं तो 18 साल का सिनाम चंद्रमणि भी था। 1988 के राष्ट्रीय बाल बहादुरी पुरस्कार का विजेता। वो अपने भाई के साथ अपनी चाची को लेने बस स्टैंड पर गया था। उसकी मां अपने सबसे बड़े और सबसे छोटे बेटे को फिर कभी नहीं देख सकी।
लेकिन उसकी मां चांद रजनी की आंखों में आंसू नहीं थे, जब हमारी टीम उनसे मिली थी तब वो तस्वीरों, अखबार की कतरनों के साथ यादों का पूरा पिटारा खोल की बैठीं थीं। सिनाम सिर्फ चार साल का था जब उसने एक बच्चे को डूबने से बचाया था। इस दुखद घटना से अनजान केंद्रीय बाल विकास विभाग हर साल चांद रजनी को बहादुरी पुरस्कार विजेता सिनाम का हाल चाल जानने के लिए चिट्ठी लिखता रहा।
आप क्या कहेंगे उस मां के दुख के बारे में जिसने आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट की वजह से अपने दो जवान बेटों को खो दिया। इस कानून के खिलाफ जारी संघर्ष की वजह से इसे जारी रखने के हक में सरकार की दलीलें साल दर साल कमजोर पड़ती जा रहीं हैं। अब तक ऐसी तमाम घटनाएं हो चुकीं है। जब उग्रवाद को काबू करने की कोशिश में सेना की बंदूकों का मुंह मासूमों की तरफ मुड़ गया।
मालोम की घटना में सेनाओं पर पहली बार मासूमों की हत्या का इल्जाम नहीं लगा था, और ये ऐसी आखरी घटना भी नहीं थी। 28 साल की इरोम शर्मिला तब तक एक सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ता बन चुकी थीं। वो अक्सर बलात्कार की शिकार महिलाओं, लापता हो चुके लोगों के परिवारों से मिल कर उनकी व्यथा को उठाने की कोशिश करतीं थीं। लेकिन मालोम वो मुकाम था, जिसके बाद इरोम शर्मिला ने एक बड़ा आंदोलन छेड़ने का इरादा कर लिया।
कोई मीडिया नहीं, कोई नारेबाजी नहीं, कोई बड़ी-बड़ी घोषणाएं नहीं और हजारों की भीड़ नहीं। सिर्फ एक महिला, दिल में ये विश्वास लिए कि उसके लोगों को सम्मान से जीने का हक है, और वो उन्हें किसी भी हाल में मिलना ही चाहिए। मालोम कांड' के बाद इरोम शर्मिला ने आर्म्ट फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट हटाने के लिए आमरण अनशन शुरू कर दिया। ताकतवर भारतीय सेना से लोहा लेने के लिए अनशन पर बैठीं इरोम का शुरुआत में उपहास उड़ाया गया। बहुत से लोगों ने ये सवाल भी उठाया कि आखिर वो कब तक अपना आंदोलन जारी रख सकेगी।
जल्दी ही दिन हफ्ते और हफ्ते महीने में बदलने लगे लेकिन इरोम ने हार नहीं मानीं। वो मजबूत इरादों के साथ डटीं रहीं। अब मणिपुर को उन पर विश्वास होने लगा था। लोग इरोम के संघर्ष के पीछे गोलबंद होने लगे। इरोम शर्मिला का गांधीवादी अंदाज का सत्याग्रह एक ऐसे आंदोलन में बदल गया, जिसका आज भी इतिहास में कोई सानी नहीं है।
इरोम शर्मिला के इस आंदोलन का जवाब राज्य ने उनके खिलाफ खुदकुशी की कोशिश का मुकद्दमा दर्ज करके दिया। इरोम को उनके आंदोलन की जगह से हटा कर इंफाल के जवाहर लाल नेहरू अस्पताल में ले आया गया। एक वार्ड को अस्थाई जेल में तब्दील कर दिया गया। शर्मिला की नाक में ट्यूब लगा दी गई। मंत्री आते रहे। उन्हें अनशन तोड़ने के लिए मनाने की कोशिश करते रहे। लेकिन शर्मिला का इरादा मजबूत इरादा था जो नहीं टूटा।
खुदकुशी की कोशिश के आरोप का मतलब था कि शर्मिला को एक साल से ज्यादा वक्त के लिए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था। लिहाजा हर साल उन्हें एक बार छोड़ दिया जाता था। ताकि एक दो दिन बाद उन्हें फिर खुदकुशी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया जाए। 14 साल से जारी आमरण अनशन की वजह से उनके बहुत से अंग बेकार हो चुके हैं। उनका मासिक धर्म आना भी रुक चुका है। इस संघर्ष में शर्मिला ने जीवन की सारी खुशियां एक आम औरत की तरह जीने की सारी ख्वाहिशें कुर्बान कर दी। अब वो सिर्फ योग और किताबों से मिलने वाले आत्मबल की बदौलत जिंदा हैं। गांधी से लेकर नेल्सन मंडेला तक, बुद्ध से लेकर चे ग्वारा तक। दुख और अकेलेपन की साथी सिर्फ किताबें हैं। मगर, इरोम शर्मिला को रिहा करने के अदालती आदेश के बाद ये स्थिति बदल सकती है। अब वो पूर्वोत्तर के हर उस अंदोलनकारी के लिए प्रेरणा बन चुकी हैं, जो आर्म्ड फोर्सेज एक्ट के खिलाफ संघर्ष कर रहा है।
लेकिन, सशस्त्र सेनाओं को ताकत के इस्तेमाल की छूट देने वाला आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर एक्ट अब भी जारी है। हालांकि इरोम और उनके जैसे तमाम लोगों की संघर्ष की वजह से अब इस कानून पर तीखी बहस छिड़ चुकी है। साल 2012 में संयुक्त राष्ट्र ने इस कानून को हटाने की मांग करते हुए कहा कि भारतीय लोकतंत्र में ऐसे दमनकारी कानून का स्थान नहीं हो सकता। साल 2013 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश संतोष हेगड़े की अध्यक्षता में बने हेगड़े आयोग ने मणिपुर में एनकाउंटर में हुई छह मौतों की जांच की। आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि मरने वाले किसी भी शख्स का कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं था। सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित न्यायिक आयोग ने भी इस कानून में बदलाव के सुझाव दिए हैं। मगर, इरोम का आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक ये कानून खत्म नहीं हो जाता।

Search Results

  1. सेवाग्राम - विकिपीडिया

  2. hi.wikipedia.org/wiki/सेवाग्राम
  3. सेवाग्राम महाराष्ट्र के वर्धा जिले में एक गाँव का नाम है। यहाँ एक प्रसिद्ध आश्रम है जिसे गांधीजी ने स्थापित किया था। पहले इस गाँव का नाम शेगाँव था जिसे गांधीजी ने बदलकर नया नाम 'सेवाग्राम' रखा।

  4. महात्मा गांधी के सेवाग्राम आश्रम - यूट्यूब

  5. Oct 18, 2012 - Uploaded by Shripad Kanekar
  6. महात्मा गांधी के सेवाग्राम आश्रम। <एक href = "/ चैनल / UC7kivWgO-4VLkH8ITKPevlQ "वर्ग =" YT। श्रीपाद Kanekar। SubscribeSubscribed55. सदस्यता ...
  7. सेवाग्राम आश्रम, वर्धा में गांधी के सामान ...

  8. May 31, 2009 - Uploaded by indiavideodotorg
  9. इस वीडियो के लिए क्लिक करें के बारे में अधिक जानकारी के लिए - http://www.indiavideo.org/maharashtra/यात्रा / सामान-गांधी सेवाग्राम --2268.php ** पर शामिल ...

  10. बापू के जीवन का दर्पण ''सेवाग्राम आश्रम'

  11. लेकिन उतना ही प्रसिद्ध उनका सेवाग्राम आश्रम भी है जो वर्धा(महाराष्ट्र) में स्थित है। इस आश्रम की खासियत यह है कि गाँधीजी ने अपने संध्याकाल के अंतिम 12 वर्ष यहीं बिताए। वर्धा शहर से 8 किमी की दूरी पर 300 एकड़ की भूमि पर फैला यह आश्रम इतनी ...
  12. सेवाग्राम आश्रम - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी ...

  13. bharatdiscovery.org/india/सेवाग्राम_आश्रम
  14. Nov 1, 2014 - सेवाग्राम आश्रम महाराष्ट्र राज्य के वर्धा ज़िले में स्थित सेवाग्राम नामक गाँव में है। पहलेसेवाग्राम गाँव को 'शेगाँव' नाम से जाना जाता था। राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने ही इस गाँव का नाम बदलकर सेवाग्राम रखा। सेवाग्राम ...
  15. सेवाग्राम - भारतकोश, ज्ञान का हिन्दी ...

  16. hi.bharatdiscovery.org/india/सेवाग्राम
  17. Feb 18, 2013 - यहाँ उन्होंने एक और आश्रम की स्थापना की और स्वतंत्रता आन्दोलन का निर्देशन किया। इस आश्रम में उन्होंने एक आदर्श समुदाय की रचना की। सेवाग्राम नगर में महात्मा गाँधी द्वारा स्थापित एक शिक्षण संस्थान 'नई तालीमी संघ' है ...
  18. राजीव दीक्षित आश्रम ,सेवाग्राम (वर्धा ...

  19. https://hi-in.facebook.com/...सेवाग्राम...-/16149...
  20. राजीव दीक्षित आश्रम ,सेवाग्राम (वर्धा ). 6लोगों ने पसंद किया. यूनिवर्सिटी.

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  21. सेवाग्राम फोटो - Native Planet Hindi

  22. hindi.nativeplanet.com › ... › सेवाग्राम
  23. सेवाग्राम तस्वीरें, सेवाग्राम आश्रम. सेवाग्राम तस्वीरें, सेवाग्राम आश्रम. Pinterest. 1/1. Photos Courtesy : www.wikipedia.org. Prev Next. सोशल नेटवर्क पर इसे शेयर करें. शेयर करें ट्वीट करें टशेयर करें कमेंट करें. Write a Comment. Please read our comments policy before ...
  24. सेवाग्राम आश्रम - सेवाग्राम - Native Planet Hindi

  25. hindi.nativeplanet.com › ... › आकर्षण
  26. भारत को स्वतंत्रता नही मिली और तब उन्हें गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया।जेल से छूटने पर गाँधीजी ने सेवाग्राम में रहने का निश्चय किया। इस प्रकार इस संस्था की स्थापना हुई।आश्रम के कई भाग हैं। अदि निवास और प्रार्थना मैदान, बा कुटी, बापू ...

FAQs - Mahatma Gandhi: Father Of The Nation

Much before the Constitution of Free India conferred the title of the Father of the Nationupon the Mahatma, it was Netaji Subhash Chandra Bose who first ...

10-year-old's RTI on 'Father of the Nation' title for Gandhi

www.ndtv.com/.../10-year-old-s-rti-on-father-of-the-nation-title-for-gan...
Apr 3, 2012 - History however holds that the title of Father of the Nation was given to the Mahatma by Netaji Subhas Chandra Bose, who in his address on ...

Subhas Chandra Bose - Wikipedia, the free encyclopedia

Forward Bloc faction within the Indian National Congress, 1939–1940 ... The honorificNetaji (Hindustani language: "Respected Leader"), first applied to Bose in ... During this time Bose also became a father; his wife, or companion, Emilie ...

Why is Gandhi called the"Father of the Nation"? - Quora

www.quora.com › ... › Mahatma Gandhi
'Father of the Nation' was first conferred upon Gandhi by Subhas Chandra Bose. > ". ...Netaji Subhas Chandra Bose, first addressed him as father of Nation in a ...

Who first called Gandhiji "Father of the Nation"? - Yahoo Answers

Mar 6, 2014 - Subash Chandra Bose and Rabindranath Tagore called Gandhi as father of the nation. Nethaji Subash Chandra Bose. Subash Chandra Bose ...
7 answers
15 Nov 2011
8 answers
23 Feb 2009

'Gandhi Not Father of the Nation? RTI Response an Insult'

www.outlookindia.com/news/article/...Father-of-the-Nation.../779826
Nov 2, 2012 - He said the title was first given to Mahatma Gandhi in 1944 by NetajiSubhas ... "He addressed Gandhiji as the Father of the Nation in his ...

Who addressed Mahatma Gandhi as the Father of the Nation

www.answers.com › ... › Historical Figures › Mohandas Gandhi
7) It was just a Belief and Say that Netaji Subhash Chander Bose or Pandit Jawahar Lal .... Who was given honor as a father of nation to mahatma gandhi?

Netaji Subhash Chandra Bose : Father of the Indian ...

www.hindujagruti.org › ... › Heroes of Bharatiya War of Independance
Subhash Chandra Bose was one of India's greatest freedom fighter. He revived the Indian National Army, popularly known as 'Azad Hind Fauj' in 1943 which ...

Netaji- The true father of the Nation | Samskriti...

ragatheblogger.wordpress.com/2010/.../netaji-the-true-father-of-the-nati...
Mar 19, 2010 - That is how the wheel of evolution moves on and the ideas and dreams of one nation are bequeathed to the next……' Netaji Subhas Chandra ...

Nethaji subhash chandra bose | Facebook

https://www.facebook.com/nethaji.subhashchandrabose
is on Facebook. To connect with Nethaji subhash chandra bose, sign up for Facebook today. ..... Nethaji subhash chandra bose God Father Of The Nation.



संजय शर्मा ने लिखा हैः
आरटीआई कार्यकर्ता शिवा एलांगो को गिरफ्तार कर जेल भेजने के मामले में सामाजिक संगठन 'तहरीर' ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग समेत तमिलनाडु के जिम्मेवारों को अपील भेज दी है l आप हमारी अपील को नीचे दिए वेब लिंक से डाउनलोड कर सकते है l
आपसे गुज़ारिश है कि आप यदि हमसे सहमत हों तो कृपया अपनी ओर से या अपने संगठन की ओर से अपील भेजकर भारत में 'पारदर्शिता' और 'मानवाधिकार' की हमारी मुहिम को मजबूती प्रदान करें l
TAHRIRINDIA.BLOGSPOT.COM|BY SANJAY SHARMA



देवसिंह रावत ने लिखा हैः

देश से अंग्रेजी की गुलामी को उखाड फेंकने के लिए
भारतीय भाषा आंदोलन का संसद की चैखट पर 20 माह से धरना जारी
देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले माॅं भारती के महान सपूत स्व .राजकरण सिंह की तस्वीर देख कर उनकी पावन स्मृति को शतः शतः नमन् । भले ही वे नश्वर देह से विदा हो चूके हों परन्तु उनकी स्मृतियां सदा हमारे मन में जीवंत बनी रहती है।
देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिला कर भारतीय भाषाओं को लागू कराने के लिए स्व. राजकरण सिंह व पुष्पेन्द्र चैहान द्वारा संघ लोक सेवा आयोग के द्वार पर चलाया गया ऐतिहासिक आंदोलन की लौ आज ज्वाला बन कर 21 अप्रैल 2013 से संसद की चैखट जंतर मंतर पर भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान व महासचिव देवसिंह रावत अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ प्रज्जवलित किये हुए है। भले देश की तमाम राजनैतिक दल, समाचार जगत, भारतीय भाषाओं के नाम पर देश के संसाधनों की बंदरबांट करने वाले देश में अंग्रेजी की गुलामी को बनाये रखने का षडयंत्र करके भारतीय संस्कृति को जमीदोज कर रहे हों, परन्तु भारतीय भाषा आंदोलन के सपूत इस कडाके की सर्दी में भी संसद की चैखट में विगत 20 माह से ऐतिहासिक आंदोलन छेडे हुए है। परन्तु देश के तमाम राजनैतिक दलों, समाचार जगत, साहित्यकारों, भारतीय भाषाओं के संवर्धन व विकास के नाम पर सरकारी बजट की बंदरबांट करने वाले तथाकथित भाषा पुरोधा, अपने अपने बिलों में दुम दबा कर बेठे हुए है। आज हाडकंपा देने वाली सर्दी में भी भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा देवसिंह रावत, महासचिव देवसिंह रावत, अनंतकांत मिश्र, पत्रकार चंद्रवीर, धरना प्रभारी महेशकांत पाठक, सचेन्द्र पाण्डे, मोहम्मद सैफी, सुनील कुमार सिंह, बाबा श्रीओम, मन्नु, वेदानंद, समाजसेवी देवेन्द्र भगत, समाजसेवी ताराचंद गौतम, पत्रकार सूरवीरसिंह नेगी, कमल किशोर नौटियाल, ज्ञानेश्वर प्रधान, ज्ञान भाष्कर, राकेश, महेन्द्र रावत, सुशील खन्ना, सुभाष चैहान, रमाशंकर औझा, बाबा बमबम, अंकुर जैन, रघुनाथ, यतेन्द्र वालिया, अखिलेश गौड, जगमोहन रावत, श्यामजी भट्ट,, चैधरी सहदेव पुनिया, लालू चैपाल, सत्यपाल गुप्ता, जीएस आनंद, सम्पादक बाबा बिजेन्द्र, लक्ष्मण कुमार सिंह, भागीरथ, मुरार कण्डारी, नरूल हसन व गोपाल प्रसाद आदि सपूत देश से अंग्रेजी की गुलामी को उखाड़ फेंकने के लिए कमर कसे हुए हैं।
देश से अंग्रेजी की गुलामी को उखाड फेंकने के लिए भारतीय भाषा आंदोलन को संसद की चैखट पर 20 माह से धरना जारी     देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले माॅं भारती के महान सपूत स्व .राजकरण सिंह की तस्वीर देख कर उनकी पावन स्मृति को शतः शतः नमन् । भले ही वे नश्वर देह से विदा हो चूके हों परन्तु उनकी स्मृतियां सदा हमारे मन में जीवंत बनी रहती है।   देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिला कर भारतीय भाषाओं को लागू कराने के लिए स्व. राजकरण सिंह व पुष्पेन्द्र चैहान द्वारा संघ लोक सेवा आयोग के द्वार पर चलाया गया ऐतिहासिक आंदोलन की लौ आज ज्वाला बन कर 21 अप्रैल 2013 से संसद की चैखट जंतर मंतर पर भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान व महासचिव देवसिंह रावत अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ प्रज्जवलित किये हुए है। भले देश की तमाम राजनैतिक दल, समाचार जगत, भारतीय भाषाओं के नाम पर देश के संसाधनों की बंदरबांट करने वाले देश में अंग्रेजी की गुलामी को बनाये रखने का षडयंत्र करके भारतीय संस्कृति को जमीदोज कर रहे हों, परन्तु भारतीय भाषा आंदोलन के सपूत इस कडाके की सर्दी में भी संसद की चैखट में विगत 20 माह से ऐतिहासिक आंदोलन छेडे हुए है। परन्तु देश के तमाम राजनैतिक दलों, समाचार जगत, साहित्यकारों, भारतीय भाषाओं के संवर्धन व विकास के नाम पर सरकारी बजट की बंदरबांट करने वाले तथाकथित भाषा पुरोधा, अपने अपने बिलों में दुम दबा कर बेठे हुए है। आज हाडकंपा देने वाली सर्दी में भी  भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा देवसिंह रावत, महासचिव देवसिंह रावत, अनंतकांत मिश्र, पत्रकार चंद्रवीर, धरना प्रभारी महेशकांत पाठक, सचेन्द्र पाण्डे, मोहम्मद सैफी, सुनील कुमार सिंह, बाबा श्रीओम, मन्नु, वेदानंद, समाजसेवी देवेन्द्र भगत, समाजसेवी ताराचंद गौतम, पत्रकार सूरवीरसिंह नेगी, कमल किशोर नौटियाल, ज्ञानेश्वर प्रधान, ज्ञान भाष्कर, राकेश, महेन्द्र रावत, सुशील खन्ना, सुभाष चैहान, रमाशंकर औझा, बाबा बमबम, अंकुर जैन, रघुनाथ, यतेन्द्र वालिया, अखिलेश गौड, जगमोहन रावत, श्यामजी भट्ट,, चैधरी सहदेव पुनिया, लालू चैपाल, सत्यपाल गुप्ता, जीएस आनंद, सम्पादक बाबा बिजेन्द्र, लक्ष्मण कुमार सिंह,  भागीरथ, मुरार कण्डारी, नरूल हसन व  गोपाल प्रसाद आदि सपूत देश से अंग्रेजी की गुलामी को उखाड़ फेंकने के लिए कमर कसे हुए हैं।
देश से अंग्रेजी की गुलामी को उखाड फेंकने के लिए भारतीय भाषा आंदोलन को संसद की चैखट पर 20 माह से धरना जारी     देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए अपना सर्वस्व बलिदान करने वाले माॅं भारती के महान सपूत स्व .राजकरण सिंह की तस्वीर देख कर उनकी पावन स्मृति को शतः शतः नमन् । भले ही वे नश्वर देह से विदा हो चूके हों परन्तु उनकी स्मृतियां सदा हमारे मन में जीवंत बनी रहती है।   देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिला कर भारतीय भाषाओं को लागू कराने के लिए स्व. राजकरण सिंह व पुष्पेन्द्र चैहान द्वारा संघ लोक सेवा आयोग के द्वार पर चलाया गया ऐतिहासिक आंदोलन की लौ आज ज्वाला बन कर 21 अप्रैल 2013 से संसद की चैखट जंतर मंतर पर भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा पुष्पेन्द्र चैहान व महासचिव देवसिंह रावत अपने क्रांतिकारी साथियों के साथ प्रज्जवलित किये हुए है। भले देश की तमाम राजनैतिक दल, समाचार जगत, भारतीय भाषाओं के नाम पर देश के संसाधनों की बंदरबांट करने वाले देश में अंग्रेजी की गुलामी को बनाये रखने का षडयंत्र करके भारतीय संस्कृति को जमीदोज कर रहे हों, परन्तु भारतीय भाषा आंदोलन के सपूत इस कडाके की सर्दी में भी संसद की चैखट में विगत 20 माह से ऐतिहासिक आंदोलन छेडे हुए है। परन्तु देश के तमाम राजनैतिक दलों, समाचार जगत, साहित्यकारों, भारतीय भाषाओं के संवर्धन व विकास के नाम पर सरकारी बजट की बंदरबांट करने वाले तथाकथित भाषा पुरोधा, अपने अपने बिलों में दुम दबा कर बेठे हुए है। आज हाडकंपा देने वाली सर्दी में भी  भारतीय भाषा आंदोलन के पुरोधा देवसिंह रावत, महासचिव देवसिंह रावत, अनंतकांत मिश्र, पत्रकार चंद्रवीर, धरना प्रभारी महेशकांत पाठक, सचेन्द्र पाण्डे, मोहम्मद सैफी, सुनील कुमार सिंह, बाबा श्रीओम, मन्नु, वेदानंद, समाजसेवी देवेन्द्र भगत, समाजसेवी ताराचंद गौतम, पत्रकार सूरवीरसिंह नेगी, कमल किशोर नौटियाल, ज्ञानेश्वर प्रधान, ज्ञान भाष्कर, राकेश, महेन्द्र रावत, सुशील खन्ना, सुभाष चैहान, रमाशंकर औझा, बाबा बमबम, अंकुर जैन, रघुनाथ, यतेन्द्र वालिया, अखिलेश गौड, जगमोहन रावत, श्यामजी भट्ट,, चैधरी सहदेव पुनिया, लालू चैपाल, सत्यपाल गुप्ता, जीएस आनंद, सम्पादक बाबा बिजेन्द्र, लक्ष्मण कुमार सिंह,  भागीरथ, मुरार कण्डारी, नरूल हसन व  गोपाल प्रसाद आदि सपूत देश से अंग्रेजी की गुलामी को उखाड़ फेंकने के लिए कमर कसे हुए हैं।

महात्मा गांधी

http://hi.wikipedia.org/s/24m

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
मोहनदास कर्मचन्द गान्धी
Portrait Gandhi.jpg
जन्म
मृत्यु
३० जनवरी १९४८ (७८ वर्ष की आयु में)
मृत्यु का कारण
राष्ट्रीयता
अन्य नाम
महात्मा गान्धी
शिक्षा
युनिवर्सिटी कॉलिज, लंदन
प्रसिद्धि कारण
राजनैतिक पार्टी
धार्मिक मान्यता
जीवनसाथी
बच्चे
हरिलाल, मणिलाल, रामदास, देवदास
हस्ताक्षर
Gandhi signature.svg
मोहनदास कर्मचन्द गांधी (2 अक्टूबर 1869 - 30 जनवरी 1948) भारत एवं भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के एक प्रमुख राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेता थे। वे सत्याग्रह (व्यापकसविनय अवज्ञा) के माध्यम से अत्याचार के प्रतिकार के अग्रणी नेता थे, उनकी इस अवधारणा की नींव सम्पूर्ण अहिंसा के सिद्धान्त पर रखी गयी थी जिसने भारत को आजादीदिलाकर पूरी दुनिया में जनता के नागरिक अधिकारों एवं स्वतन्त्रता के प्रति आन्दोलन के लिये प्रेरित किया। उन्हें दुनिया में आम जनता महात्मा गांधी के नाम से जानती है। संस्कृत भाषा में महात्मा अथवा महान आत्मा एक सम्मान सूचक शब्द है। गांधी को महात्मा की उपाधि सबसे पहले 1915 में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने प्रदान की थी[1] रवीन्द्रनाथ टेगौर ने नहीं। उन्हें बापू (गुजराती भाषा में બાપુ बापू यानी पिता) के नाम से भी याद किया जाता है। सुभाष चन्द्र बोस ने 6 जुलाई 1944 को रंगून रेडियो से गान्धी जी के नाम जारी प्रसारण में उन्हें राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित करते हुए आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिकों के लिये उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ माँगीं थीं।[2] प्रति वर्ष 2 अक्टूबर को उनका जन्म दिन भारत में गांधी जयंती के रूप में और पूरे विश्व में अन्तर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस के नाम से मनाया जाता है।
सबसे पहले गान्धी ने प्रवासी वकील के रूप में दक्षिण अफ्रीका में भारतीय समुदाय के लोगों के नागरिक अधिकारों के लिये संघर्ष हेतु रोजगार करना शुरू किया। 1915 में उनकी भारत वापसी हुई। उसके बाद उन्होंने यहाँ के किसानों, मजदूरों और शहरी श्रमिकों को अत्यधिक भूमि कर और भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाने के लिये एकजुट किया। 1921 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की बागडोर संभालने के बाद उन्होंने देशभर में गरीबी से राहत दिलाने, महिलाओं के अधिकारों का विस्तार, धार्मिक एवं जातीय एकता का निर्माण व आत्मनिर्भरता के लिये अस्पृश्‍यता के विरोध में अनेकों कार्यक्रम चलाये। इन सबमें विदेशी राज से मुक्ति दिलाने वाला स्वराज की प्राप्ति वाला कार्यक्रम ही प्रमुख था। गाँधी जी ने ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाये गये नमक कर के विरोध में 1930 में नमक सत्याग्रह और इसके बाद 1942 में अंग्रेजो भारत छोड़ो आन्दोलन से खासी प्रसिद्धि प्राप्त की। दक्षिण अफ्रीका और भारत में विभिन्न अवसरों पर कई वर्षों तक उन्हें जेल में भी रहना पड़ा।
गान्धी जी ने सभी परिस्थितियों में अहिंसा और सत्य का पालन किया और सभी को इनका पालन करने के लिये वकालत भी की। उन्होंने साबरमती आश्रम में अपना जीवन गुजारा और परम्परागत भारतीय पोशाक धोती व सूत से बनी शाल पहनी जिसे वे स्वयं चरखे पर सूत कातकर हाथ से बनाते थे। उन्होंने सादा शाकाहारी भोजन खाया और आत्मशुद्धि के लिये लम्बे-लम्बे उपवास रक्खे।

अनुक्रम

प्रारम्भिक जीवन

सन् 1876 में खींचा गया गान्धी के बचपन का चित्र जब उनकी आयु 7 वर्ष की रही होगी
मोहनदास करमचन्द गान्धी का जन्म पश्चिमी भारत में वर्तमान गुजरात के एक तटीय शहर पोरबंदरनामक स्थान पर 2 अक्टूबर सन् 1869 को हुआ था। उनके पिता करमचन्द गान्धी सनातन धर्म की पंसारीजाति से सम्बन्ध रखते थे और ब्रिटिश राज के समय काठियावाड़ की एक छोटी सी रियासत (पोरबंदर) केदीवान अर्थात् प्रधान मन्त्री थे। गुजराती भाषा में गान्धी का अर्थ है पंसारी[3] जबकि हिन्दी भाषा में गन्धी का अर्थ है इत्र फुलेल बेचने वाला जिसे अंग्रेजी में परफ्यूमर कहा जाता है।[4] उनकी माता पुतलीबाई परनामीवैश्य समुदाय की थीं। पुतलीबाई करमचन्द की चौथी पत्नी थी। उनकी पहली तीन पत्नियाँ प्रसव के समय मर गयीं थीं। भक्ति करने वाली माता की देखरेख और उस क्षेत्र की जैन परम्पराओं के कारण युवा मोहनदास पर वे प्रभाव प्रारम्भ में ही पड़ गये थे जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। इन प्रभावों में शामिल थे दुर्बलों में जोश की भावना, शाकाहारी जीवन, आत्मशुद्धि के लिये उपवास तथा विभिन्न जातियों के लोगों के बीच सहिष्णुता।

कम आयु में विवाह

मई 1883 में साढे 13 साल की आयु पूर्ण करते ही उनका विवाह 14 साल की कस्तूरबा माखनजी से कर दिया गया। पत्नी का पहला नाम छोटा करके कस्तूरबा कर दिया गया और उसे लोग प्यार से बा कहते थे। यह विवाह उनके माता पिता द्वारा तय किया गया व्यवस्थित बाल विवाह था जो उस समय उस क्षेत्र में प्रचलित था। लेकिन उस क्षेत्र में यही रीति थी कि किशोर दुल्हन को अपने माता पिता के घर और अपने पति से अलग अधिक समय तक रहना पड़ता था। 1885 में जब गान्धी जी 15 वर्ष के थे तब इनकी पहली सन्तान ने जन्म लिया। लेकिन वह केवल कुछ दिन ही जीवित रही। और इसी साल उनके पिता करमचन्द गन्धी भी चल बसे। मोहनदास और कस्तूरबा के चार सन्तान हुईं जो सभी पुत्र थे। हरीलाल गान्धी 1888 में, मणिलाल गान्धी 1892 में, रामदास गान्धी 1897 में और देवदास गांधी 1900 में जन्मे। पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया। दोनों परीक्षाओं में शैक्षणिक स्तर वह एक औसत छात्र रहे। मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ परेशानी के साथ उत्तीर्ण की। जब तक वे वहाँ रहे अप्रसन्न ही रहे क्योंकि उनका परिवार उन्हें बैरिस्टर बनाना चाहता था।

विदेश में शिक्षा व विदेश में ही वकालत

गान्धी व उनकी पत्नी कस्तूरबा (1902 काफोटो)
अपने 19वें जन्मदिन से लगभग एक महीने पहले ही 4 सितम्बर 1888 को गान्धी यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की पढाई करने और बैरिस्टर बनने के लिये इंग्लैंड चले गये। भारत छोड़ते समय जैन भिक्षु बेचारजी के समक्ष हिन्दुओं को मांस, शराब तथा संकीर्ण विचारधारा को त्यागने के लिए अपनी अपनी माता जी को दिए गये एक वचन ने उनके शाही राजधानी लंदन में बिताये गये समय को काफी प्रभावित किया। हालांकि गांधी जी ने अंग्रेजी रीति रिवाजों का अनुभव भी किया जैसे उदाहरण के तौर पर नृत्य कक्षाओं में जाने आदि का। फिर भी वह अपनी मकान मालकिन द्वारा मांस एवं पत्ता गोभी को हजम.नहीं कर सके। उन्होंने कुछ शाकाहारी भोजनालयों की ओर इशारा किया। अपनी माता की इच्छाओं के बारे में जो कुछ उन्होंने पढा था उसे सीधे अपनाने की बजाय उन्होंने बौद्धिकता सेशाकाहारी भोजन का अपना भोजन स्वीकार किया। उन्होंने शाकाहारी समाज की सदस्यता ग्रहण की और इसकी कार्यकारी समिति के लिये उनका चयन भी हो गया जहाँ उन्होंने एक स्थानीय अध्याय की नींव रखी। बाद में उन्होने संस्थाएँ गठित करने में महत्वपूर्ण अनुभव का परिचय देते हुए इसे श्रेय दिया। वे जिन शाकाहारी लोगों से मिले उनमें से कुछथियोसोफिकल सोसायटी के सदस्य भी थे। इस सोसाइटी की स्थापना 1875 में विश्व बन्धुत्व को प्रबल करने के लिये की गयी थी और इसे बौद्ध धर्मएवं सनातन धर्म के साहित्य के अध्ययन के लिये समर्पित किया गया था।
उन्हों लोगों ने गान्धी जी को श्रीमद्भगवद्गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। हिन्दू, ईसाई, बौद्ध, इस्लाम और अन्य धर्मों .के बारे में पढ़ने से पहले गांन्धी ने धर्म में विशेष रुचि नहीं दिखायी। इंग्लैंड और वेल्स बार एसोसिएशन में वापस बुलावे पर वे भारत लौट आये किन्तु बम्बई में वकालत करने में उन्हें कोई खास सफलता नहीं मिली। बाद में एक हाई स्कूल शिक्षक के रूप में अंशकालिक नौकरी का प्रार्थना पत्र अस्वीकार कर दिये जाने पर उन्होंने जरूरतमन्दों के लिये मुकदमे की अर्जियाँ लिखने के लिये राजकोट को ही अपना स्थायी मुकाम बना लिया। परन्तु एक अंग्रेज अधिकारी की मूर्खता के कारण उन्हें यह कारोबार भी छोड़ना पड़ा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने इस घटना का वर्णन अपने बड़े भाई की ओर से परोपकार की असफल कोशिश के रूप में किया है। यही वह कारण था जिस वजह से उन्होंने सन् 1893 में एक भारतीय फर्म से नेटाल दक्षिण अफ्रीका में, जो उन दिनों ब्रिटिश साम्राज्य का भाग होता था, एक वर्ष के करार पर वकालत का कारोवार स्वीकार कर लिया।

दक्षिण अफ्रीका (१८९३-१९१४) में नागरिक अधिकारों के आन्दोलन

गांधी दक्षिण अफ्रीका में (१८९५)
दक्षिण अफ्रीका में गान्धी को भारतीयों पर भेदभाव का सामना करना पड़ा। आरम्भ में उन्हें प्रथम श्रेणी कोच की वैध टिकट होने के बाद तीसरी श्रेणी के डिब्बे में जाने से इन्कार करने के लिए ट्रेन से बाहर फेंक दिया गया था। इतना ही नहीं पायदान पर शेष यात्रा करते हुए एक यूरोपियन यात्री के अन्दर आने पर चालक की मार भी झेलनी पड़ी। उन्होंने अपनी इस यात्रा में अन्य भी कई कठिनाइयों का सामना किया। अफ्रीका में कई होटलों को उनके लिए वर्जित कर दिया गया। इसी तरह ही बहुत सी घटनाओं में से एक यह भी थी जिसमें अदालत के न्यायाधीश ने उन्हें अपनी पगड़ी उतारने का आदेश दिया था जिसे उन्होंने नहीं माना। ये सारी घटनाएँ गान्धी के जीवन में एक मोड़ बन गईं और विद्यमान सामाजिक अन्याय के प्रति जागरुकता का कारण बनीं तथा सामाजिक सक्रियता की व्याख्या करने में मददगार सिद्ध हुईं। दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय को देखते हुए गान्धी ने अंग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत अपने देशवासियों के सम्मान तथा देश में स्वयं अपनी स्थिति के लिए प्रश्न उठाये।

१९०६ के ज़ुलु युद्ध में भूमिका

१९०६ में, ज़ुलु (Zulu) दक्षिण अफ्रीका में नए चुनाव कर के लागू करने के बाद दो अंग्रेज अधिकारियों को मार डाला गया। बदले में अंग्रेजों ने जूलू के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया। गांधी जी ने भारतीयों को भर्ती करने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों को सक्रिय रूप से प्रेरित किया। उनका तर्क था अपनी नागरिकता के दावों को कानूनी जामा पहनाने के लिए भारतीयों को युद्ध प्रयासों में सहयोग देना चाहिए। तथापि, अंग्रेजों ने अपनी सेना में भारतीयों को पद देने से इंकार कर दिया था। इसके बावजूद उन्होने गांधी जी के इस प्रस्ताव को मान लिया कि भारतीय घायल अंग्रेज सैनिकों को उपचार के लिए स्टेचर पर लाने के लिए स्वैच्छा पूर्वक कार्य कर सकते हैं। इस कोर की बागडोर गांधी ने थामी।२१ जुलाई (July 21), १९०६ को गांधी जी ने इंडियन ओपिनिय (Indian Opinion) में लिखा कि २३ भारतीय[5] निवासियों के विरूद्ध चलाए गए आप्रेशन के संबंध में प्रयोग द्वारा नेटाल सरकार के कहने पर एक कोर का गठन किया गया है।दक्षिण अफ्रीका में भारतीय लोगों से इंडियन ओपिनियन में अपने कॉलमों के माध्‍यम से इस युद्ध में शामिल होने के लिए आग्रह किया और कहा, यदि सरकार केवल यही महसूस करती हे कि आरक्षित बल बेकार हो रहे हैं तब वे इसका उपयोग करेंगे और असली लड़ाई के लिए भारतीयों का प्रशिक्षण देकर इसका अवसर देंगे।[6]
गांधी की राय में, १९०६ का मसौदा अध्यादेश भारतीयों की स्थिति में किसी निवासी के नीचे वाले स्तर के समान लाने जैसा था। इसलिए उन्होंनेसत्याग्रह (Satyagraha), की तर्ज पर "काफिर (Kaffir)s " .का उदाहरण देते हुए भारतीयों से अध्यादेश का विरोध करने का आग्रह किया। उनके शब्दों में, " यहाँ तक कि आधी जातियां और काफिर जो हमसे कम आधुनिक हैं ने भी सरकार का विरोध किया है। पास का नियम उन पर भी लागू होता है किंतु वे पास[7] नहीं दिखाते हैं।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए संघर्ष (१९१६ -१९४५)

१९१५ में, गांधी दक्षिण अफ्रीका से भारत में रहने के लिए लौट आएं। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशनों पर अपने विचार व्य‍क्त किए, लेकिन वे भारत के मुख्य मुद्दों, राजनीति तथा उस समय के कांग्रेस दल के प्रमुख भारतीय नेता गोपाल कृष्ण गोखले (Gopal Krishna Gokhale), जो एक सम्मानित नेता थे पर ही आधारित थे। .

चंपारण और खेड़ा

१९१८ में खेड़ा और चंपारन सत्याग्रह के समय १९१८ में गांधी
गांधी की पहली बड़ी उपलब्धि १९१८ में चम्पारन (Champaran) और खेड़ा सत्याग्रह, आंदोलन में मिली हालांकि अपने निर्वाह के लिए जरूरी खाद्य फसलों की बजाए नील (indigo) नकद पैसा देने वाली खाद्य फसलों की खेती वाले आंदोलन भी महत्वपूर्ण रहे। जमींदारों (अधिकांश अंग्रेज) की ताकत से दमन हुए भारतीयों को नाममात्र भरपाई भत्ता दिया गया जिससे वे अत्यधिक गरीबी से घिर गए। गांवों को बुरी तरह गंदा और अस्वास्थ्यकर (unhygienic); और शराब, अस्पृश्यता और पर्दा से बांध दिया गया। अब एक विनाशकारी अकाल के कारण शाही कोष की भरपाई के लिए अंग्रेजों ने दमनकारी कर लगा दिए जिनका बोझ दिन प्रतिदिन बढता ही गया। यह स्थिति निराशजनक थी। खेड़ा(Kheda), गुजरात में भी यही समस्या थी। गांधी जी ने वहां एक आश्रम (ashram) बनाया जहाँ उनके बहुत सारे समर्थकों और नए स्वेच्छिक कार्यकर्ताओं को संगठित किया गया। उन्होंने गांवों का एक विस्तृत अध्ययन और सर्वेक्षण किया जिसमें प्राणियों पर हुए अत्याचार के भयानक कांडों का लेखाजोखा रखा गया और इसमें लोगों की अनुत्पादकीय सामान्य अवस्था को भी शामिल किया गया था। ग्रामीणों में विश्‍वास पैदा करते हुए उन्होंने अपना कार्य गांवों की सफाई करने से आरंभ किया जिसके अंतर्गत स्कूल और अस्पताल बनाए गए और उपरोक्त वर्णित बहुत सी सामाजिक बुराईयों को समाप्त करने के लिए ग्रामीण नेतृत्व प्रेरित किया।
लेकिन इसके प्रमुख प्रभाव उस समय देखने को मिले जब उन्हें अशांति फैलाने के लिए पुलिस ने गिरफ्तार किया और उन्हें प्रांत छोड़ने के लिए आदेश दिया गया। हजारों की तादाद में लोगों ने विरोध प्रदर्शन किए ओर जेल, पुलिस स्टेशन एवं अदालतों के बाहर रैलियां निकालकर गांधी जी को बिना शर्त रिहा करने की मांग की। गांधी जी ने जमींदारों के खिलाफ़ विरोध प्रदर्शन और हड़तालों को का नेतृत्व किया जिन्होंने अंग्रेजी सरकार के मार्गदर्शन में उस क्षेत्र के गरीब किसानों को अधिक क्षतिपूर्ति मंजूर करने तथा खेती पर नियंत्रण, राजस्व में बढोतरी को रद्द करना तथा इसे संग्रहित करने वाले एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस संघर्ष के दौरान ही, गांधी जी को जनता ने बापू पिता और महात्मा (महान आत्मा) के नाम से संबोधित किया। खेड़ा में सरदार पटेल ने अंग्रेजों के साथ विचार विमर्श के लिए किसानों का नेतृत्व किया जिसमें अंग्रेजों ने राजस्व संग्रहण से मुक्ति देकर सभी कैदियों को रिहा कर दिया गया था। इसके परिणामस्वरूप, गांधी की ख्याति देश भर में फैल गई।

असहयोग आन्दोलन

गांधी जी ने असहयोग, अहिंसा तथा शांतिपूर्ण प्रतिकार को अंग्रेजों के खिलाफ़ शस्त्र के रूप में उपयोग किया। पंजाब में अंग्रेजी फोजों द्वारा भारतीयों पर जलियावांला नरसंहार जिसे अमृतसर नरसंहार के नाम से भी जाना जाता है ने देश को भारी आघात पहुंचाया जिससे जनता में क्रोध और हिंसा की ज्वाला भड़क उठी। गांधीजी ने ब्रिटिश राज तथा भारतीयों द्वारा ‍प्रतिकारात्मक रवैया दोनों की की। उन्होंने ब्रिटिश नागरिकों तथा दंगों के शिकार लोगों के प्रति संवेदना व्यक्त की तथा पार्टी के आरंभिक विरोध के बाद दंगों की भंर्त्सना की। गांधी जी के भावनात्मक भाषण के बाद अपने सिद्धांत की वकालत की कि सभी हिंसा और बुराई को न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है।[8] किंतु ऐसा इस नरसंहार और उसके बाद हुई हिंसा से गांधी जी ने अपना मन संपूर्ण सरकार आर भारतीय सरकार के कब्जे वाली संस्थाओं पर संपूर्ण नियंत्रण लाने पर केंद्रित था जो जल्‍दी ही स्वराज अथवा संपूर्ण व्यक्तिगत, आध्‍यात्मिक एवं राजनैतिक आजादी में बदलने वाला था।
साबरमती आश्रम : गुजरात में गांधी का घर
दिसम्बर १९२१ में गांधी जो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस.का कार्यकारी अधिकारी नियुक्त किया गया। उनके नेतृत्व में कांग्रेस को स्वराज.के नाम वाले एक नए उद्देश्‍य के साथ संगठित किया गया। पार्दी में सदस्यता सांकेतिक शुल्क का भुगताने पर सभी के लिए खुली थी। पार्टी को किसी एक कुलीन संगठन की न बनाकर इसे राष्ट्रीय जनता की पार्टी बनाने के लिए इसके अंदर अनुशासन में सुधार लाने के लिए एक पदसोपान समिति गठित की गई। गांधी जी ने अपने अहिंसात्मक मंच को स्वदेशी नीति — में शामिल करने के लिए विस्तार किया जिसमें विदेशी वस्तुओं विशेषकर अंग्रेजी वस्तुओं का बहिष्कार करना था। इससे जुड़ने वाली उनकी वकालत का कहना था कि सभी भारतीय अंग्रेजों द्वारा बनाए वस्त्रों की अपेक्षा हमारे अपने लोगों द्वारा हाथ से बनाई गई खादी पहनें। गांधी जी ने स्वतंत्रता आंदोलन[9] को सहयोग देने के लिएपुरूषों और महिलाओं को प्रतिदिन खादी के लिए सूत कातने में समय बिताने के लिए कहा। यह अनुशासन और समर्पण लाने की ऐसी नीति थी जिससे अनिच्छा और महत्वाकाक्षा को दूर किया जा सके और इनके स्थान पर उस समय महिलाओं को शामिल किया जाए जब ऐसे बहुत से विचार आने लगे कि इस प्रकार की गतिविधियां महिलाओं के लिए सम्मानजनक नहीं हैं। इसके अलावा गांधी जी ने ब्रिटेन की शैक्षिक संस्थाओं तथा अदालतों का बहिष्कार और सरकारी नौकरियों को छोड़ने का तथा सरकार से प्राप्त तमगों और सम्मान (honours) को वापस लौटाने का भी अनुरोध किया।
असहयोग को दूर-दूर से अपील और सफलता मिली जिससे समाज के सभी वर्गों की जनता में जोश और भागीदारी बढ गई। फिर जैसे ही यह आंदोलन अपने शीर्ष पर पहुंचा वैसे फरवरी १९२२ में इसका अंत चोरी - चोरा (Chauri Chaura), उत्तरप्रदेश में भयानक द्वेष के रूप में अंत हुआ। आंदोलन द्वारा हिंसा का रूख अपनाने के डर को ध्‍यान में रखते हुए और इस पर विचार करते हुए कि इससे उसके सभी कार्यों पर पानी फिर जाएगा, गांधी जी ने व्यापक असहयोग[10] के इस आंदोलन को वापस ले लिया। गांधी पर गिरफ्तार किया गया १० मार्च, १९२२, को राजद्रोह के लिए गांधी जी पर मुकदमा चलाया गया जिसमें उन्हें छह साल कैद की सजा सुनाकर जैल भेद दिया गया। १८ मार्च, १९२२ से लेकर उन्होंने केवल २ साल ही जैल में बिताए थे कि उन्हें फरवरी १९२४ में आंतों (appendicitis) के ऑपरेशन के लिए रिहा कर दिया गया।
गांधी जी के एकता वाले व्यक्तित्व के बिना इंडियन नेशनल कांग्रेस उसके जेल में दो साल रहने के दौरान ही दो दलों में बंटने लगी जिसके एक दल का नेतृत्व सदन में पार्टी की भागीदारी के पक्ष वाले चित्त रंजन दास (Chitta Ranjan Das) तथा मोतीलाल नेहरू ने किया तो दूसरे दल का नेतृत्व इसके विपरीत चलने वाले चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया। इसके अलावा, हिंदुओं और मुसलमानों के बीच अहिंसा आंदोलन की चरम सीमा पर पहुंचकर सहयोग टूट रहा था। गांधी जी ने इस खाई को बहुत से साधनों से भरने का प्रयास किया जिसमें उन्होंने १९२४ की बसंत में सीमित सफलता दिलाने वाले तीन सप्ताह का उपवास करना भी शामिल था।[11]

स्वराज और नमक सत्याग्रह (नमक मार्च)

दांडी में गाँधी, ५ अप्रैल, १९३०, के अंत मेंनमक मार्च
गांधी जी सक्रिय राजनीति से दूर ही रहे और १९२० की अधिकांश अवधि तक वे स्वराज पार्टी और इंडियन नेशनल कांग्रेस के बीच खाई को भरने में लगे रहे और इसके अतिरिक्त वे अस्पृश्यता, शराब, अज्ञानता और गरीबी के खिलाफ आंदोलन छेड़ते भी रहे। उन्होंने पहले १९२८ में लौटे .एक साल पहले अंग्रेजी सरकार ने सर जॉन साइमन के नेतृत्व में एक नया संवेधानिक सुधार आयोग बनाया जिसमें एक भी सदस्य भारतीय नहीं था। इसका परिणाम भारतीय राजनैतिक दलों द्वारा बहिष्कार निकला। दिसम्बर १९२८ में गांधी जी ने कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के एक अधिवेशन में एक प्रस्ताव रखा जिसमें भारतीय साम्राज्य को सत्ता प्रदान करने के लिए कहा गया था अथवा ऐसा न करने के बदले अपने उद्देश्य के रूप में संपूर्ण देश की आजादी के लिए असहयोग आंदोलन का सामना करने के लिए तैयार रहें। गांधी जी ने न केवल युवा वर्ग सुभाष चंद्र बोस तथा जवाहरलाल नेहरू जैसे पुरूषों द्वारा तत्काल आजादी की मांग के विचारों को फलीभूत किया बल्कि अपनी स्वयं की मांग को दो साल[12] की बजाए एक साल के लिए रोक दिया। अंग्रेजों ने कोई जवाब नहीं दिया।.नहीं ३१ दिसम्बर१९२९, भारत का झंडा फहराया गया था लाहौर में है।२६ जनवरी १९३० का दिन लाहौर में भारतीय स्वतंत्रता दिवस के रूप में इंडियन नेशनल कांग्रेस ने मनाया। यह दिन लगभग प्रत्येक भारतीय संगठनों द्वारा भी मनाया गया। इसके बाद गांधी जी ने मार्च १९३० में नमक पर कर लगाए जाने के विरोध में नया सत्याग्रह चलाया जिसे १२ मार्च से ६ अप्रेल तक नमक आंदोलन के याद में ४०० किलोमीटर (२४८ मील) तक का सफर अहमदाबाद से दांडी, गुजरात तक चलाया गया ताकि स्वयं नमक उत्पन्न किया जा सके। समुद्र की ओर इस यात्रा में हजारों की संख्‍या में भारतीयों ने भाग लिया। भारत में अंग्रेजों की पकड़ को विचलित करने वाला यह एक सर्वाधिक सफल आंदोलन था जिसमें अंग्रेजों ने ८०,००० से अधिक लोगों को जेल भेजा।
१० डाउनिंग स्ट्रीट, १९३१
लार्ड एडवर्ड इरविन द्वारा प्रतिनिधित्व वाली सरकार ने गांधी जी के साथ विचार विमर्श करने का निर्णय लिया। यह इरविन गांधी की संधि मार्च १९३१ में हस्ताक्षर किए थे। सविनय अवज्ञा आंदोलन को बंद करने के लिए ब्रिटिश सरकार ने सभी राजनैतिक कैदियों को रिहा करने के लिए अपनी रजामंदी दे दी। इस समझौते के परिणामस्वरूप गांधी को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में लंदन में आयोजित होने वाले गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। यह सम्मेलन गांधी जी और राष्ट्रीयवादी लोगों के लिए घोर निराशाजनक रहा, इसका कारण सत्ता का हस्तांतरण करने की बजाय भारतीय कीमतों एवं भारतीय अल्पसंख्‍यकों पर केंद्रित होना था। इसके अलावा, लार्ड इरविन के उत्तराधिकारीलार्ड विलिंगटन, ने राष्‍ट्रवादियों के आंदोलन को नियंत्रित एवं कुचलने का एक नया अभियान आरंभ करदिया। गांधी फिर से गिरफ्तार कर लिए गए और सरकार ने उनके अनुयाईयों को उनसे पूर्णतया दूर रखते हुए गांधी जी द्वारा प्रभावित होने से रोकने की कोशिश की। लेकिन, यह युक्ति सफल नहीं थी। १९३२ में, दलित नेता बी के चुनाव प्रचार के माध्यम सेआर अम्बेडकर, सरकार ने अछूतों को एक नए संविधान के अंतर्गत अलग निर्वाचन मंजूर कर दिया। इसके विरोध में गांधी जी ने सितंबर १९३२ में छ: दिन का अनशन ले लिया जिसने सरकार को सफलतापूर्वक दलित क्रिकेटर से राजनैतिक नेता बने पलवंकर बालू द्वारा की गई मध्‍यस्ता वाली एक समान व्यवस्था को अपनाने पर बल दिया। अछूतों के जीवन को सुधारने के लिए गांधी जी द्वारा चलाए गए इस अभियान की शुरूआत थी। गांधी जी ने इन अछूतों को हरिजन का नाम दिया जिन्हें वे भगवान की संतान मानते थे। ८ मई १९३३ को गांधी जी ने हरिजन आंदोलन[13] में मदद करने के लिए आत्म शुद्धिकरण का २१ दिन तक चलने वाला उपवास किया। यह नया अभियान दलितों को पसंद नहीं आया तथापि वे एक प्रमुख नेता बने रहे।बीआर अम्बेडकर ने गांधी जी द्वारा हरिजन शब्द का उपयोग करने की निंदा की कि दलित सामाजिक रूप से अपरिपक्व हैं और सुविधासंपन्न जाति वाले भारतीयों ने पितृसत्तात्मक भूमिका निभाई है। अम्बेडकर और उसके सहयोगी दलों को भी महसूस हुआ कि गांधी जी दलितों के राजनीतिक अधिकारों को कम आंक रहे हैं। हालांकि गांधी जी एक वैश्य जाति में पैदा हुए फिर भी उन्होनें इस बात पर जोर दिया कि वह अम्बेडकर जैसे दलित कार्यकर्ता के होते हुए भी वह दलितों के लिए आवाज उठा सकता है।
१९३४ की गर्मियों में, उनकी जान लेने के लिए उन पर तीन असफल प्रयास किए गए थे।
जब कांग्रेस पार्टी के चुनाव लड़ने के लिए चुना और संघीय योजना के अंतर्गत सत्ता स्वीकार की तब गांधी जी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफा देने का निर्णय ले लिया। वह पार्टी के इस कदम से असहमत नहीं थे किंतु महसूस करते थे कि यदि वे इस्तीफा देते हैं तब भारतीयों के साथ उसकी लोकप्रियता पार्टी की सदस्यता को मजबूत करने में आसानी प्रदान करेगी जो अब तक कम्यूनिसटों, समाजवादियों, व्यापार संघों, छात्रों, धार्मिक नेताओं से लेकर व्यापार संघों और विभिन्न आवाजों के बीच विद्यमान थी। इससे इन सभी को अपनी अपनी बातों के सुन जाने का अवसर प्राप्त होगा। गांधी जी राज के लिए किसी पार्टी का नेतृत्व करते हुए प्रचार द्वारा कोई ऐसा लक्ष्‍य सिद्ध नहीं करना चाहते थे जिसे राज[14] के साथ अस्थायी तौर पर राजनैतिक व्यवस्‍था के रूप में स्वीकार कर लिया जाए।
गांधी जी नेहरू प्रेजीडेन्सी और कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन के साथ ही १९३६ में भारत लौट आए। हालांकि गांधी की पूर्ण इच्छा थी कि वे आजादी प्राप्त करने पर अपना संपूर्ण ध्‍यान केंद्रित करें न कि भारत के भविष्य के बारे में अटकलों पर। उसने कांग्रेस को समाजवाद को अपने उद्देश्‍य के रूप में अपनाने से नहीं रोका। १९३८ में राष्ट्रपति पद के लिए चुने गए सुभाष बोस के साथ गांधी जी के मतभेद थे। बोस के साथ मतभेदों में गांधी के मुख्य बिंदु बोस की लोकतंत्र में प्रतिबद्धता की कमी तथा अहिंसा में विश्वास की कमी थी। बोस ने गांधी जी की आलोचना के बावजूद भी दूसरी बार जीत हासिल की किंतु कांग्रेस को उस समय छोड़ दिया जब सभी भारतीय नेताओं ने गांधी[15] जी द्वारा लागू किए गए सभी सिद्धातों का परित्याग कर दिया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध और भारत छोड़ो आन्दोलन

द्वितीय विश्व युद्ध १९३९ में जब छिड़ने नाजी जर्मनी आक्रमण पोलैंड.आरंभ में गांधी जी ने अंग्रेजों के प्रयासों को अहिंसात्मक नैतिक सहयोग देने का पक्ष लिया किंतु दूसरे कांग्रेस के नेताओं ने युद्ध में जनता के प्रतिनिधियों के परामर्श लिए बिना इसमें एकतरफा शामिल किए जाने का विरोध किया। कांग्रेस के सभी चयनित सदस्यों ने सामूहिक तौर[16] पर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। लंबी चर्चा के बाद, गांधी ने घोषणा की कि जब स्वयं भारत को आजादी से इंकार किया गया हो तब लोकतांत्रिक आजादी के लिए बाहर से लड़ने पर भारत किसी भी युद्ध के लिए पार्टी नहीं बनेगी। जैसे जैसे युद्ध बढता गया गांधी जी ने आजादी के लिए अपनी मांग को अंग्रेजों को भारत छोड़ो आन्दोलन नामक विधेयक देकर तीव्र कर दिया। यह गांधी तथा कांग्रेस पार्टी का सर्वाधिक स्पष्ट विद्रोह था जो भारतीय सीमा[17] से अंग्रेजों को खदेड़ने पर लक्षित था।
गांधी जी के दूसरे नंबर पर बैठे जवाहरलाल नेहरू की पार्टी के कुछ सदस्यों तथा कुछ अन्य राजनैतिक भारतीय दलों ने आलोचना की जो अंग्रेजों के पक्ष तथा विपक्ष दोनों में ही विश्‍वास रखते थे। कुछ का मानना था कि अपने जीवन काल में अथवा मौत के संघर्ष में अंग्रेजों का विरोध करना एक नश्वर कार्य है जबकि कुछ मानते थे कि गांधी जी पर्याप्त कोशिश नहीं कर रहे हैं। भारत छोड़ो इस संघर्ष का सर्वाधिक शक्तिशाली आंदोलन बन गया जिसमें व्यापक हिंसा और गिरफ्तारी हुई।[18] पुलिस की गोलियों से हजारों की संख्‍या में स्वतंत्रता सेनानी या तो मारे गए या घायल हो गए और हजारों गिरफ्तार कर लिए गए। गांधी और उनके समर्थकों ने स्पष्ट कर दिया कि वह युद्ध के प्रयासों का समर्थन तब तक नहीं देंगे तब तक भारत को तत्‍काल आजादी न दे दी जाए। उन्होंने स्पष्ट किया कि इस बार भी यह आन्दोलन बन्द नहीं होगा यदि हिंसा के व्यक्तिगत कृत्यों को मूर्त रूप दिया जाता है। उन्होंने कहा कि उनके चारों ओर अराजकता का आदेश असली अराजकता से भी बुरा है। उन्होंने सभी कांग्रेसियों और भारतीयों को अहिंसा के साथ करो या मरो (अंग्रेजी में डू ऑर डाय) के द्वारा अन्तिम स्वतन्त्रता के लिए अनुशासन बनाए रखने को कहा।
गांधी जी और कांग्रेस कार्यकारणी समिति के सभी सदस्यों को अंग्रेजों द्वारा मुबंई में ९ अगस्त १९४२ को गिरफ्तार कर लिया गया। गांधी जी को पुणेके आंगा खां महल में दो साल तक बंदी बनाकर रखा गया। यही वह समय था जब गांधी जी को उनके निजी जीवन में दो गहरे आघात लगे। उनका ५० साल पुराना सचिव महादेव देसाई ६ दिन बाद ही दिल का दौरा पड़ने से मर गए और गांधी जी के १८ महीने जेल में रहने के बाद २२ फरवरी १९४४ को उनकी पत्नी कस्तूरबा गांधी का देहांत हो गया। इसके छ: सप्ताह बाद गांधी जी को भी मलेरिया का भयंकर शिकार होना पड़ा। उनके खराब स्वास्थ्‍य और जरूरी उपचार के कारण ६ मई १९४४ को युद्ध की समाप्ति से पूर्व ही उन्हें रिहा कर दिया गया। राज उन्हें जेल में दम तोड़ते हुए नहीं देखना चाहते थे जिससे देश का क्रोध बढ़ जाए। हालांकि भारत छोड़ो आंदोलन को अपने उद्देश्य में आशिंक सफलता ही मिली लेकिन आंदोलन के निष्‍ठुर दमन ने १९४३ के अंत तक भारत को संगठित कर दिया। युद्ध के अंत में, ब्रिटिश ने स्पष्ट संकेत दे दिया था कि संत्ता का हस्तांतरण कर उसे भारतीयों के हाथ में सोंप दिया जाएगा। इस समय गांधी जी ने आंदोलन को बंद कर दिया जिससे कांग्रेसी नेताओं सहित लगभग १००,००० राजनैतिक बंदियों को रिहा कर दिया गया।

स्वतंत्रता और भारत का विभाजन

गांधी जी ने १९४६ में कांग्रेस को ब्रिटिश केबीनेट मिशन (British Cabinet Mission) के प्रस्ताव को ठुकराने का परामर्श दिया क्योकि उसे मुस्लिम बाहुलता वाले प्रांतों के लिए प्रस्तावित समूहीकरण के प्रति उनका गहन संदेह होना था इसलिए गांधी जी ने प्रकरण को एक विभाजन के पूर्वाभ्यास के रूप में देखा। हालांकि कुछ समय से गांधी जी के साथ कांग्रेस द्वारा मतभेदों वाली घटना में से यह भी एक घटना बनी (हालांकि उसके नेत्त्व के कारण नहीं) चूंकि नेहरू और पटेल जानते थे कि यदि कांग्रेस इस योजना का अनुमोदन नहीं करती है तब सरकार का नियंत्रण मुस्लिम लीग के पास चला जाएगा। १९४८ के बीच लगभग ५००० से भी अधिक लोगों को हिंसा के दौरान मौत के घाट उतार दिया गया। गांधी जी किसी भी ऐसी योजना के खिलाफ थे जो भारत को दो अलग अलग देशों में विभाजित कर दे। भारत में रहने वाले बहुत से हिंदुओं और सिक्खों एवं मुस्लिमों का भारी बहुमत देश के बंटवारे[तथ्य वांछित] के पक्ष में था। इसके अतिरिक्त मुहम्मद अली जिन्ना, मुस्लिम लीग के नेता ने, पश्चिम पंजाब, सिंध, उत्तर पश्चिम सीमांत प्रांतऔर पूर्वी बंगाल[तथ्य वांछित] में व्यापक सहयोग का परिचय दिया। व्यापक स्तर पर फैलने वाले हिंदु मुस्लिम लड़ाई को रोकने के लिए ही कांग्रेस नेताओं ने बंटवारे की इस योजना को अपनी मंजूरी दे दी थी। कांगेस नेता जानते थे कि गांधी जी बंटवारे का विरोध करेंगे और उसकी सहमति के बिना कांग्रेस के लिए आगे बझना बसंभव था चुकि पाटर्ठी में गांधी जी का सहयोग और संपूर्ण भारत में उनकी स्थिति मजबूत थी। गांधी जी के करीबी सहयोगियों ने बंटवारे को एक सर्वोत्तम उपाय के रूप में स्वीकार किया और सरदार पटेल ने गांधी जी को समझाने का प्रयास किया कि नागरिक अशांति वाले युद्ध को रोकने का यही एक उपाय है। मज़बूर गांधी ने अपनी अनुमति दे दी।
उन्होंने उत्तर भारत के साथ-साथ बंगाल में भी मुस्लिम और हिंदु समुदाय के नेताओं के साथ गर्म रवैये को शांत करने के लिए गहन विचार विमर्श किया। १९४७ के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बावजूद उन्हें उस समय परेशान किया गया जब सरकार ने पाकिस्तान को विभाजन परिषद द्वारा बनाए गए समझौते के अनुसार ५५ करोड़ रू0 न देने का निर्णय लियाथा। सरदार पटेल जैसे नेताओं को डर था कि पाकिस्तान इस धन का उपयोग भारत के खिलाफ़ जंग छेड़ने में कर सकता है। जब यह मांग उठने लगी कि सभी मुस्लिमों को पाकिस्तान भेजा जाए और मुस्लिमों और हिंदु नेताओं ने इस पर असंतोष व्य‍क्त किया और एक दूसरे[19] के साथ समझौता करने से मना करने से गांधी जी को गहरा सदमा पहुंचा। उन्होंने दिल्ली में अपना पहला आमरण अनशन आरंभ किया जिसमें साम्प्रदायिक हिंसा को सभी के लिए तत्काल समाप्त करने और पाकिस्तान को 55 करोड़ रू0 का भुगतान करने के लिए कहा गया था। गांधी जी को डर था कि पाकिस्तान में अस्थिरता और असुरक्षा से भारत के प्रति उनका गुस्सा और बढ़ जाएगा तथा सीमा पर हिंसा फैल जाएगी। उन्हें आगे भी डर था कि हिंदु और मुस्लिम अपनी शत्रुता को फिर से नया कर देंगे और उससे नागरिक युद्ध हो जाने की आशंका बन सकती है। जीवन भर गांधी जा का साथ देने वाले सहयोगियों के साथ भावुक बहस के बाद गांधी जी ने बात का मानने से इंकार कर दिया और सरकार को अपनी नीति पर अडिग रहना पड़ा तथा पाकिस्तान को भुगतान कर दिया। हिंदु मुस्लिम और सिक्ख समुदाय के नेताओं ने उन्हें विश्‍वास दिलाया कि वे हिंसा को भुला कर शांति लाएंगे। इन समुदायों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदू महासभा शामिल थे। इस प्रकार गांधी जी ने संतरे का जूस[20]पीकर अपना अनशन तोड़ दिया।

हत्या

राज घाट (Raj Ghat):आगा खान पैलेस में गांधी की अस्थियां (पुणे, भारत) .
मैनचेस्टर गार्जियन, १८ फरवरी, १९४८, की गलियों से ले जाते हुआ दिखाया गया था।
३० जनवरी, १९४८, गांधी की उस समय गोली मारकर हत्या कर दी गई जब वे नई दिल्ली के बिड़ला भवन (बिरला हाउस के मैदान में रात चहलकदमी कर रहे थे। गांधी का हत्यारा नाथूराम गौड़से हिन्दू राष्ट्रवादी थे जिनके कट्टरपंथी हिंदु महासभा के साथ संबंध थे जिसने गांधी जी को पाकिस्तान[21] को भुगतान करने के मुद्दे को लेकर भारत को कमजोर बनाने के लिए जिम्मेदार ठहराया था। गोड़से और उसके उनके सह षड्यंत्रकारी नारायण आप्टे को बाद में केस चलाकर सजा दी गई तथा १५ नवंबर१९४९ को इन्हें फांसी दे दी गई। राजधाट, नई दिल्ली, में गांधी जी के स्मारक पर "देवनागरी में हे राम " लिखा हुआ है। ऐसा व्यापक तौर पर माना जाता है कि जब गांधी जी को गोली मारी गई तब उनके मुख से निकलने वाले ये अंतिम शब्द थे। हालांकि इस कथन पर विवाद उठ खड़े हुए हैं।[22]जवाहरलाल नेहरू ने रेडियो के माध्यम से राष्ट्र को संबोधित किया :
गांधी जी की राख को एक अस्थि-रख दिया गया और उनकी सेवाओं की याद दिलाने के लिए संपूर्ण भारत में ले जाया गया। इनमें से अधिकांश को इलाहाबाद के संगम पर १२ फरवरी १९४८ को जल में विसर्जित कर दिया गया किंतु कुछ को अलग[23]पवित्र रूप में रख दिया गया। १९९७ में, तुषार गाँधी ने बैंक में नपाए गए एक अस्थि-कलश की कुछ सामग्री को अदालत के माध्यम से, इलाहाबाद में संगम[23][24] नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया। ३० जनवरी२००८ को दुबई में रहने वाले एक व्यापारी द्वारा गांधी जी की राख वाले एक अन्य अस्थि-कलश को मुंबई संग्रहालय[23] में भेजने के उपरांत उन्हें गिरगाम चौपाटी नामक स्थान पर जल में विसर्जित कर दिया गया। एक अन्य अस्थि कलश आगा खान जो पुणे[23] में है, (जहाँ उन्होंने १९४२ से कैद करने के लिए किया गया था १९४४) वहां समाप्त हो गया और दूसरा आत्मबोध फैलोशिप झील मंदिर में लॉस एंजिल्स.[25] रखा हुआ है। इस परिवार को पता है कि इस पवित्र राख का राजनीतिक उद्देश्यों के लिए दुरूपयोग किया जा सकता है लेकिन उन्हें यहां से हटाना नहीं चाहती हैं क्योंकि इससे मंदिरों .[23] को तोड़ने का खतरा पैदा हो सकता है।

गांधी के सिद्धांत

इन्हें भी देखें: गांधीवाद

सत्य

गांधी जी ने अपना जीवन सत्य, या सच्चाई की व्यापक खोज में समर्पित कर दिया। उन्होंने इस लक्ष्य को प्राप्त करने करने के लिए अपनी स्वयं की गल्तियों और खुद पर प्रयोग करते हुए सीखने की कोशिश की। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग का नाम दिया।
गांधी जी ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ने के लिए अपने दुष्टात्माओं , भय और असुरक्षा जैसे तत्वों पर विजय पाना है। .गांधी जी ने अपने विचारों को सबसे पहले उस समय संक्षेप में व्य‍क्त किया जब उन्होंने कहा भगवान ही सत्य है बाद में उन्होने अपने इस कथन को सत्य ही भगवान हैमें बदल दिया। इस प्रकार , सत्य में गांधी के दर्शन है " परमेश्वर " .

अहिंसा

हालांकि गांधी जी अहिंसा के सिद्धांत के प्रवर्तक बिल्कुल नहीं थे फिर भी इसे बड़े पैमाने [26]पर राजनैतिक क्षेत्र में इस्तेमाल करने वाले वे पहले व्यक्ति थे। अहिंसा (nonviolence), अहिंसा (ahimsa) और अप्रतिकार (nonresistance)का भारतीय धार्मिक विचारों में एक लंबा इतिहास है और इसके हिंदु, बौद्ध, जैन, यहूदी और ईसाई समुदायों में बहुत सी अवधारणाएं हैं। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा द स्टोरी ऑफ़ माय एक्सपेरिमेंट्स विथ ट्रुथ "(The Story of My Experiments with Truth)में दर्शन और अपने जीवन के मार्ग का वर्णन किया है। उन्हें कहते हुए बताया गया था:
जब मैं निराश होता हूं तब मैं याद करता हूं कि हालांकि इतिहास सत्य का मार्ग होता है किंतु प्रेम इसे सदैव जीत लेता है। यहां अत्याचारी और हतयारे भी हुए हैं और कुछ समय के लिए वे अपराजय लगते थे किंतु अंत में उनका पतन ही होता है -इसका सदैव विचार करें।
" मृतकों, अनाथ तथा बेघरों के लिए इससे क्या फर्क पड़ता है कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र के पवित्र नाम के नीचे संपूर्णवाद का पागल विनाश छिपा है।
एक आंख के लिए दूसरी आंख पूरी दुनिया को अंधा बना देगी।
मरने के लिए मैरे पास बहुत से कारण है किंतु मेरे पास किसी को मारने का कोई भी कारण नहीं है।
इन सिद्धातों को लागू करने में गांधी जी ने इन्हें दुनिया को दिखाने के लिए सर्वाधिक तार्किक सीमा पर ले जाने से भी मुंह नहीं मोड़ा जहां सरकार, पुलिस और सेनाए भी अहिंसात्मक बन गईं थीं। " फॉर पसिफिस्ट्स."[27] नामक पुस्तक से उद्धरण लिए गए हैं।
विज्ञान का युद्ध किसी व्यक्ति को तानाशाही , शुद्ध और सरलता की ओर ले जाता है। अहिंसा का विज्ञान अकेले ही किसी व्यक्ति को शुद्ध लोकतंत्र के मार्ग की ओर ले जा सकता है।प्रेम पर आधारित शक्ति सजा के डर से उत्पन्न शक्ति से हजार गुणा अधिक और स्थायी होती है। यह कहना निन्दा करने जैसा होगा कि कि अहिंसा का अभ्यास केवल व्यक्तिगत तौर पर किया जा सकता है और व्यक्तिवादिता वाले देश इसका कभी भी अभ्यास नहीं कर सकते हैं। शुद्ध अराजकता का निकटतम दृष्टिकोण अहिंसा पर आधारित लोकतंत्र होगा;;;;;;संपूर्ण अहिंसा के आधार पर संगठित और चलने वाला कोई समाज शुद्ध अराजकता
वाला समाज होगा।
मैं ने भी स्वीकार किया कि एक अहिंसक राज्य में भी पुलिस बल की जरूरत अनिवार्य हो सकती है। पुलिस रैंकों का गठन अहिंसा में विश्‍वास रखने वालों से किया जाएगा। लोग उनकी हर संभव मदद करेंगे और आपसी सहयोग के माध्यम से वे किसी भी उपद्रव का आसानी से सामना कर लेंगे ...श्रम और पूंजी तथा हड़तालों के बीव हिंसक झगड़े बहुत कम होंगे और अहिंसक राज्यों में तो बहुत कम होंगे क्योंकि अहिंसक समाज की बाहुलता का प्रभाव समाज में प्रमुख तत्वों का सम्मान करने के लिए महान होगा। इसी प्रकार साम्प्रदायिक अव्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं होगी;;;;;;
। शांति एवं अव्यवस्था के समय सशस्त्र सैनिकों की तरह सेना का कोई
अहिंसात्मक कार्य उनका यह कर्तव्य होगा कि वे विजय दिलाने वाले समुदायों को एकजुट करें जिसमें शांति का प्रसार, तथा ऐसी गतिविधियों का समावेश हो जो किसी भी व्यक्ति को उसके चर्च अथवा खंड में संपर्क बनाए रखते हुए अपने साथ मिला लें। इस प्रकार की सैना को किसी भी आपात स्थिति से लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए तथा भीड़ के क्रोध को शांत करने के लिए उसके पास मरने के लिए सैनिकों की पर्याप्त नफरी भी होनी चाहिए;;;;;;सत्याग्रह (सत्यबल) के बिग्रेड को प्रत्येक गांव तथा शहर तक भवनों के प्रत्येक ब्लॉक में संगठित किया जा सकता हैयदि अहिंसात्मक समाज पर हमला किया जाता है तब अहिंसा के दो मार्ग खुलते हैं। अधिकार पाने के लिए हमलावर से सहयोग न करें बल्कि समर्पण करने की अपेक्षा मृत्यु को गले लगाना पसंद करें। दूसरा तरीका होगा ऐसी जनता द्वारा अहिंसक प्रतिरोध करना हो सकता है जिन्हें अहिंसक तरीके से प्रशिक्षित किया गया हो ...इस अप्रत्याशित प्रदर्शन की अनंत राहों पर आदमियों और महिलाओं को हमलावर की इच्छा लिए आत्मसमर्पण करने की बजाए आसानी से मरना अच्छा लगता है और अंतंत: उसे तथा उसकी सैनिक बहादुरी के समक्ष पिघलना जरूर पड़ता है;;;;। ऐसे किसी देश अथवा समूह जिसने अंहिंसा को अपनी अंतिम नीति बना लिया है उसे परमाणु बम भी अपना दास नहीं बना सकता है। उस देश में अहिंसा का स्तर खुशी-खुशी गुजरता है तब वह प्राकृतिक तौर पर इतना अधिक बढ़ जाता है कि उसे सार्वभोमिक आदर
मिलने लगता है।
इन विचारों के अनुरूप १९४० में जब नाजी जर्मनी द्वारा अंग्रेजों के द्वीपों पर किए गए हमले आसन्न दिखाई दिए तब गांधी जी ने अंग्रेजों को शांति और युद्ध [28]में अहिंसा की निम्नलिखित नीति का अनुसरण करने को कहा।
मैं आपसे हथियार रखने के लिए कहना पसंद करूंगा क्योंकि ये आपको अथवा मानवता को बचाने में बेकार हैं।आपको हेर हिटलर और सिगनोर मुसोलिनी को आमत्रित करना होगा कि उन्हें देशों से जो कुछ चाहिए आप उन्हें अपना अधिकार कहते हैं।यदि इन सज्जनों को अपने घर पर रहने का चयन करना है तब आपको उन्हें खाली करना होगा।यदि वे तुम्हें आसानी से रास्ता नहीं देते हैं तब आप अपने आपको , पुरूषों को महिलाओं को और बच्चों की बलि देने की अनुमति देंगे किंतु अपनी निष्ठा के प्रति झुकने से इंकार करेंगे।
१९४६ में युद्ध के बाद दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने इससे भी आगे एक विचार का प्रस्तुतीकरण किया।
यहूदियों को अपने लिए स्वयं कसाई का चाकू दे देना चाहिए था।उन्हें अपने आप को समुद्री चट्टानों से समुद्र के अंदर फैंक देना चाहिए था।
फिर भी गांधी जी को पता था कि इस प्रकार के अहिंसा के स्तर को अटूट विश्वास और साहस की जरूरत होगी और इसके लिए उसने महसूस कर लिया था कि यह हर किसी के पास नहीं होता है। इसलिए उन्होंने प्रत्येक व्यक्ति को परामर्श दिया कि उन्हें अहिंसा को अपने पास रखने की जरूरत नहीं है खास तौर पर उस समय जब इसे कायरता के संरक्षण के लिए उपयोग में किया गया हो।
गांधी जी ने अपने सत्याग्रह आंदोलन में ऐसे लोगों को दूर ही रखा जो हथियार उठाने से डरते थे अथवा प्रतिरोध करने में स्वयं की अक्षमता का अनुभव करते थे। उन्होंने लिखा कि मैं मानता हूं कि जहां डरपोक और हिंसा में से किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा के पक्ष में अपनी राय दूंगा।[29]
प्रत्येक सभा पर मैं तब तक चेतावनी दोहराता रहता था जब तक वन्हें यह अहसास नहीं हो जाता है कि वे एक ऐसे अंहिसात्मक बल के अधिकार में आ गए हैं जिसके अधिकार में वे पहले भी थे और वे उस प्रयोग के आदि हो चुके थे और उनका मानना था कि उन्हें अहिंसा से कुछ लेना देना नहीं हैं तथा फिर से हथियार उठा लिए थे। खुदाई खिदमतगार (Khudai Khidmatgar)के बारे में ऐसा कभी नहीं कहना चाहिए कि जो एक बार इतने बहादुर थे कि बादशाह खान (Badshah Khan)के प्रभाव में अब वे डरपोक बन गए। वीरता केवल अच्छे निशाने वालों में ही नहीं होती है बल्कि मृत्यु को हरा देने वालों में तथा अपनी छातियों को गोली [30]
खाने के लिए सदा तैयार रहने वालों में भी होती है।

शाकाहारी रवैया

बाल्यावस्था में गांधी को मांस खाने का अनुभव मिला। ऐसा उनकी उत्तराधिकारी जिज्ञासा के कारण ही था जिसमें उसके उत्साहवर्धक मित्र शेख मेहताब का भी योगदान था। वेजीटेरियनिज्म का विचार भारतकी हिंदु और जैन प्रथाओं में कूट-कूट कर भरा हुआ था तथा उनकी मातृभूमि गुजरात मेंज्यादातर हिंदु शाकाहारी ही थे। इसी तरह जैन भी थे। गांधी का परिवार भी इससे अछूता नहीं था। पढाई के लिए लंदन आने से पूर्व गांधी जी ने अपनी माता पुतलीबाई और अपने चाचा बेचारजी स्वामी से एक वायदा किया था कि वे मांस खाने, शराब पीने से तथा संकीणता से दूर रहेंगे।उन्होने अपने वायदे रखने के लिए उपवास किए और ऐसा करने से सबूत कुछ ऐसा मिला जो भोजन करने से नहीं मिल सकता था, उन्होंने अपने जीवन पर्यन्त दर्शन के लिए आधार जो प्राप्त कर लिया था। जैसे जैसे गांधी जी व्यस्क होते गए वे पूर्णतया शाकाहारी (vegetarian)बन गए। उन्होंने द मोरल बेसिस ऑफ वेजीटेरियनिज्म तथा इस विषय पर बहुत सी लेख भी लिखें हैं जिनमें से कुछ लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के प्रकाशन द वेजीटेरियन [31]में प्रकाशित भी हुए हैं। गांधी जी स्वयं इस अवधि में बहुत सी महान विभूतियों से प्रेरित हुए और लंदन वेजीटेरियन सोसायटी के चैयरमेन डॉ० जोसिया ओल्डफील्ड के मित्र बन गए।
हेनरी स्टीफन ‍साल्ट (Henry Stephens Salt)की कृतियों को पढने और प्रशंषा करने के बाद युवा मोहनदास गांधी शाकाहारी प्रचारक से मिले और उनके साथ पत्राचार किया। गांधी जी ने लंदन में रहते समय और उसके बाद शाकाहारी भोजन की वकालत करने में काफी समय बिताया। गांधी जी का कहना था कि शाकाहारी भोजन न केवल शरीर की जरूरतों को पूरा करता है बल्कि यह आर्थिक प्रयोजन की भी पूर्ति करता है जो मांस से होती है और फिर भी मांस अनाज, सब्जियों और फलों से अधिक मंहगा होता है। इसके अलावा कई भारतीय जो आय कम होने की वजह से संघर्ष कर रहे थे, उस समय जो शाकाहारी के रूप में दिखाई दे रहे थे वह आध्यात्मिक परम्परा ही नहीं व्यावहारिकता के कारण भी था.वे बहुत देर तक खाने से परहेज रखते थे , और राजनैतिक विरोध के रूप में उपवास (fasting) रखते थे उन्होंने अपनी मृत्यु तक खाने से इनकार किया जब तक उनका मांग पुरा नही होता उनकी आत्मकथा में यह नोट किया गया है कि शाकाहारी होना ब्रह्मचर्य (Brahmacharya) में गहरी प्रतिबद्धता होने की शुरूआती सीढ़ी है, बिना कुल नियंत्रण ब्रह्मचर्य में उनकी सफलता लगभग असफल है.
गाँधी जी शुरू से फलाहार (frutarian),[32] करते थे लेकिन अपने चिकित्सक की सलाह से बकरी का दूध पीना शुरू किया था.वे कभी भी दुग्ध -उत्पाद का सेवन नही करते थे क्योंकि पहले उनका मानना था की दूध मनुष्य का प्राकृतिक आहार नहीं होता और उन्हें गाय के चीत्कार सेघृणा (cow blowing),[33] थी और सबसे महत्वपूर्ण कारण था शपथ जो उन्होंने अपनी स्वर्गीय माँ से किया था

ब्रह्मचर्य

जब गाँधी जी सोलह साल के हुए तब उनके पिताश्री की तबियत बहुत ख़राब थी उनके पिता की बीमारी के दौरान वे हमेशा उपस्थित रहते थे क्योंकि वे अपने माता-पिता के प्रति अत्यंत समर्पित थे. यद्यपि, गाँधी जी को कुछ समय की राहत देने के लिए एक दिन उनके चाचा जी आए वे आराम के लिए शयनकक्ष पहुंचे जहाँ उनकी शारीरिक अभिलाषाएं जागृत हुई और उन्होंने अपनी पत्नी से प्रेम किया नौकर के जाने के पश्चात् थोडी ही देर में ख़बर आई की गाँधी के पिता का अभी अभी देहांत हो गया है.गाँधी जी को जबरदस्त अपराध महसूस हुआ और इसके लिए वे अपने आप को कभी माफ नहीं कर सकते थे उन्होंने इस घटना का जिक्र दोहरी शर्म में किया इस घटना का गाँधी पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा और वे ३६ वर्ष की उम्र में ब्रह्मचर्य(celibate) की और मुड़ने लगे, जबकि उनकी शादी हो चुकी थी.[34]
यह निर्णय ब्रह्मचर्य (Brahmacharya) के दर्शन से पुरी तरह प्रभावित था आध्यात्मिक और व्यवहारिक शुद्धता बड़े पैमाने पर ब्रह्मचर्य औरवैराग्यवाद (asceticism) से जुदा होता है.गाँधी ने ब्रह्मचर्य को भगवान् के करीब आने और अपने को पहचानने का प्राथमिक आधार के रूप में देखा था अपनी आत्मकथा में वे अपनी बचपन की दुल्हन कस्तूरबा (Kasturba) के साथ अपनी कामेच्छा और इर्ष्या के संघर्षो को बतातें हैं उन्होंने महसूस किया कि यह उनका व्यक्तिगत दायित्व है की उन्हें ब्रह्मचर्य रहना है ताकि वे बजाय हवस के प्रेम को सिख पायें गाँधी के लिए, ब्रह्मचर्य का अर्थ था "इन्द्रियों के अंतर्गत विचारों, शब्द और कर्म पर नियंत्रण".[35]

सादगी

गाँधी जी का मानना था कि अगर एक व्यक्ति समाज सेवा में कार्यरत है तो उसे साधारण जीवन (simple life) की और ही बढ़ना चाहिए जिसे वे ब्रह्मचर्य के लिए आवश्यक मानते थे. उनकी सादगी (simplicity) ने पश्चमी जीवन शैली को त्यागने पर मजबूर करने लगा और वे दक्षिण अफ्रीका में फैलने लगे थे इसे वे "ख़ुद को शुन्य के स्थिति में लाना" कहते हैं जिसमे अनावश्यक खर्च, साधारण जीवन शैली को अपनाना और अपने वस्त्र स्वयं धोना आवश्यक है.[36]एक अवसर पर जन्मदार की और से सम्मुदय के लिए उनकी अनवरत सेवा के लिए प्रदान किए गए उपहार को भी वापस कर देते हैं.[37]
गाँधी सप्ताह में एक दिन मौन धारण करते थे.उनका मानना था कि बोलने के परहेज से उन्हें आतंरिक शान्ति (inner peace) मिलाती है. उनपर यह प्रभाव हिंदू मौन सिद्धांत का है, (संस्कृत: - मौन) और शान्ति (संस्कृत: -शान्ति)वैसे दिनों में वे कागज पर लिखकर दूसरों के साथ संपर्क करते थे 37 वर्ष की आयु से साढ़े तीन वर्षों तक गांधी जी ने अख़बारों को पढ़ने से इंकार कर दिया जिसके जवाब में उनका कहना था कि जगत की आज जो स्थिर अवस्था है उसने उसे अपनी स्वयं की आंतरिक अशांति की तुलना में अधिक भ्रमित किया है।
जॉन रस्किन (John Ruskin) की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last), पढने के बाद उन्होंने अपने जीवन शैली में परिवर्तन करने का फैसला किया तथा एक समुदाय बनाया जिसे अमरपक्षी अवस्थापन कहा जाता था.
दक्षिण अफ्रीका, जहाँ से उन्होंने वकालत पूरी की थी तथा धन और सफलता के साथ जुड़े थे वहां से लौटने के पश्चात् उन्होंने पश्चमी शैली के वस्त्रों का त्याग किया.उन्होंने भारत के सबसे गरीब इंसान के द्वारा जो वस्त्र पहने जाते हैं उसे स्वीकार किया, तथा घर में बने हुए कपड़े (खादी) पहनने की वकालत भी की.गाँधी और उनके अनुयायियों ने अपने कपड़े सूत के द्वारा ख़ुद बुनने के अभ्यास को अपनाया और दूसरो को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया हालाँकि भारतीय श्रमिक बेरोज़गारी के कारण बहुधा आलसी थे, वे अक्सर अपने कपड़े उन औद्योगिक निर्माताओं से खरीदते थे जिसका उद्देश्य ब्रिटिश हितों को पुरा करना था. गाँधी का मत था कि अगर भारतीय अपने कपड़े ख़ुद बनाने लगे, तो यह भारत में बसे ब्रिटिशों को आर्थिक झटका लगेगा. फलस्वरूप, बाद में चरखा (spinning wheel) को भारतीय राष्ट्रीय झंडा में शामिल किया गया. अपने साधारण जीवन को दर्शाने के लिए उन्होंने बाद में अपनी बाकी जीवन में धोती पहनी

विश्वास

गाँधी का जन्म हिंदू धर्म में हुआ, उनके पुरे जीवन में अधिकतर सिधान्तों की उत्पति हिंदुत्व से हुआ. साधारण हिंदू कि तरह वे सारे धर्मों को समान रूप से मानते थे, और सारे प्रयासों जो उन्हें धर्म परिवर्तन के लिए कोशिश किए जा रहे थे उसे अस्वीकार किया. वे ब्रह्मज्ञान के जानकार थे और सभी प्रमुख धर्मो को विस्तार से पढ़तें थे. उन्होंने हिंदू धर्म के बारे में निम्नलिखित कहा है.
हिंदू धर्म के बारें में जितना मैं जानता हूँ यह मेरी आत्मा को संतुष्ट करती है, और सारी कमियों को पूरा करती है जब मुझे संदेह घेर लेती है, जब निराशा मुझे घूरने लगती है, और जब मुझे आशा की कोई किरण नजर नही आती है, तब मैं भगवद् गीता को पढ़ लेता हूँ और तब मेरे मन को असीम शान्ति मिलती है और तुंरत ही मेरे चेहरे से निराशा के बादल छंट जातें हैं और मैं खुश हो जाता हूँ.मेरा पुरा जीवन त्रासदियों से भरा है और यदि वो दृश्यात्मक और अमिट प्रभाव मुझ पर नही छोड़ता, मैं इसके लिए भगवत गीता के उपदेशों का ऋणी हूँ.
गाँधी स्मृति ( जिस घर में गाँधी ने अपने अन्तिम ४ महीने बिताएं वह आज एक स्मारक बन गया है ,नई दिल्ली)
गाँधी ने भगवद गीता की व्याख्या गुजराती में भी की है.महादेव देसाई ने गुजराती पाण्डुलिपि का अतिरिक्त भूमिका तथा विवरण के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया है गाँधी के द्वारा लिखे गए प्राक्कथन के साथ इसका प्रकाशन १९४६ में हुआ था .[38][39]
गाँधी का मानना था कि प्रत्येक धर्म के मूल में सत्य और प्रेम होता है ( संवेदना, अहिंसा और स्वर्ण नियम (the Golden Rule)) ढोंग, कुप्रथा आदि पर भी उन्होंने सभी धर्मो के सिधान्तों से सवाल किए और वे एक अथक समाज सुधारक थे.उनकी कुछ टिप्पणियां विभिन्न धर्मो पर है ;
यदि मैं ईसाई धर्म को आदर्श के रूप में या महानतम रूप में स्वीकार नहीं कर सकता तो कभी भी मैं हिन्दुत्व के प्रति इस प्रकार दृड़ निश्चयी नहीं बन पाता. हिंदू दोष दुराग्रह्पुर्वक मुझे दिखाई देती थी यदि अस्पृश्यता हिंदुत्व का हिस्सा होता तो वह इसका सबसे सडा अंग होता.सम्प्रदायों कीअनेक जातियों और उनके अस्तित्व को मैं कभी समझ नहीं सकता इसका क्या अर्थ है कि वेद परमेश्वर के शब्द से प्रेरित है?यदि वें प्रेरित थे तो क्यों नहीं बाइबल और कुरान ?ईसाई दोस्त मुझे परिवर्तित करने का प्रयास करते हैं तो मुस्लिम दोस्त क्या करेंगे अब्दुल्लाह शेठ मुझे हमेशा इस्लाम का अध्ययन करने के लिए प्रेरित करते थे और निश्चित रूप से हमेशा इस्लाम की सुन्दरता का ही बखान करते थे ( स्रोत : उनकी आत्मकथा (his autobiography))
जितना जल्दी हम नैतिक आधार से हारेंगे उतना ही जल्दी हममे धार्मिक युद्ध समाप्त हो जायेगी ऐसी कोई बात नहीं है की धर्म नैतिकता के उपर हो उदाहरण के तौर पर कोई मनुष्य असत्यवादी, क्रूर या असंयमी हो और वह यह दावा करे की परमेश्वर उसके साथ हैं कभी हो ही नहीं सकता
मुहम्मद की बातें ज्ञान का खजाना है सिर्फ़ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि पूरी मानव जाति के लिए
बाद में उनके जीवन में जब पूछा गया कि क्या तुम हिंदू हो, उन्होंने कहा:
"हाँ मैं हूँ.मैं भी एक ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध और यहूदी हूँ."
एक दूसरे के प्रति गहरा आदर भाव होने के बावजूद गाँधी और रबिन्द्रनाथ टैगोर एक से अधिक बार लम्बी बहस में लगे रहे. ये वाद विवाद दोनों के दार्शनिक मतभेद को दर्शाती है और ये दोनों ही उस समय के प्रसिद्ध भारतीय दार्शनिक थे १५ जनवरी १९३४ में बिहार में एक भूकंप आया और जिसके कारण व्यापक नुकसान हुआ और कई जानें गईं गाँधी जी ने अपने आप को संभाला क्योंकि यह पाप हिंदू धर्म के उच्च जाती वर्गों के द्वारा किया गया था जो अपने मंदिरों में अछूतों को अंदर जाने से मना करते थे ( गाँधी के कारण ही छुआछुत में वृद्धि हुई थी क्योंकि उन्होंने उन्हें हरिजन (Harijan),कृष्ण के लोग कहा था, गाँधी के विचारों का टगोर (Tagore) ने जोरदार विरोध किया और कहा कि भूकंप नैतिक कारणों से नही प्राकृतिक शक्तियों से होती हैं, चाहे वह अस्पृश्यता की प्रथा के कितने ही विरुद्ध हो.[40]

लेखन

गाँधीजी द्वारा सम्पादित पत्र-पत्रिकाएँ
गाँधी जी एक सफल लेखक थे। कई दशकों तक वे अनेक पत्रों का संपादन कर चुके थे जिसमे हरिजन, इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया आदि सम्मिलित हैं। जब वे भारत में वापस आए तब उन्होंने 'नवजीवन' नामक मासिक पत्रिका निकाली। बाद में नवजीवन का प्रकाशन हिन्दी में भी हुआ।[41] इसके अलावा उन्होंने लगभग हर रोज व्यक्तियों और समाचार पत्रों को पत्र लिखा
गाँधी ने कुछ किताबें भी लिखी अपनी आत्मकथा के साथ, एक आत्मकथा या सत्य के साथ मेरे प्रयोग (An Autobiography or My Experiments with Truth), दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह, वहां के संघर्षो के बारें में, हिंद स्वराज या इंडियन होम रुल, राजनैतिक प्रचार पत्रिका और जॉन रस्किन की अन्टू दिस लास्ट (Unto This Last)की गुजराती में व्याख्या की है।[42] अन्तिम निबंध को उनका अर्थशास्त्र से सम्बंधित कार्यक्रम कहा जा सकता है उन्होंने शाकाहार, भोजन और स्वास्थ्य, धर्म, सामाजिक सुधार पर भी विस्तार से लिखा है। गाँधी आमतौर पर गुजराती में लिखतें थे परन्तु अपनी किताबों का हिदी और अंग्रेजी में भी अनुवाद करते थे।
गाँधी का पूरा कार्य महात्मा गाँधी के संचित लेख नाम से १९६० में भारत सरकार द्वारा प्रकाशित किया गया है। यह लेखन लगभग ५०००० पन्नों में समाविष्ट है और तक़रीबन सौ खंडों में प्रकाशित है। सन २००० में गाँधी के पुरा कार्यों का संशोधित संस्करण विवादों के घेरे में आ गया क्योंकि गाँधी के अनुयायियों ने सरकार पर राजनितिक उदेश्यों के लिए परिवर्तन शामिल करने का आरोप लगाया.[43]

गाँधी पर पुस्तकें

कई जीवनी लेखकों ने गाँधी के जीवन वर्णन का कार्य लिया है उनमें से दो कार्य अलग हैं;डीजी तेंदुलकर अपने महात्मा के साथ. मोहनदास करमचंद गाँधी का जीवन आठ खंडों में है और महात्मा गाँधी के साथ प्यारेलाल और सुशीला नायर १० खंडों में है। कर्नल जी बी अमेरिकी सेना के सिंह ने कहा की अपने तथ्यात्मक शोध पुस्तक गाँधी: बेहायिंड द मास्क ऑफ़ डिविनिटी के मूल भाषण और लेखन के लिए उन्होंने अपने २० वर्ष[44] लगा दिए

गांधी को 'गे' बताने वाली किताब

महात्मा गांधी को आपत्तिजनक रोशनी में दिखाने वाली एक किताब की बिक्री प्रतिबंध के बावजूद जारी है। 'ग्रेट सोल: महात्मा गांधी एंड हिज़ स्ट्रगल विद इंडिया' (तस्वीर में: किताब का कवर) नाम की इस किताब में महात्मा गांधी और उनके सहयोगी हरमन कालनबाश के बीच समलैंगिक रिश्ते की तरफ इशारा किया गया है। किताब के लेखक पुलित्जर पुरस्कार जीत चुके जोसफ लेलीवेल्ड हैं।[45] 30 मार्च 2011 को गुजरात विधानसभा ने इस किताब की बिक्री पर प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव सर्वसम्मति से पास हुआ था। लेकिन इस प्रतिबंध के एक साल बाद ही 'लैंडमार्क' नाम के बुक स्टोर पर इस किताब की प्रतियां बिक्री के लिए उपलब्ध हैं। इस किताब पर दुकानदार 50 फीसदी की छूट भी दे रहे हैं। जब इस बुक स्टोर के स्टाफ से प्रतिबंधित किताब की बिक्री के बारे में पूछा गया तो जवाब मिला कि हो सकता है कि इस पर पहले रोक लगाई गई हो, लेकिन अब इस पर कोई रोक नहीं है।[46]

गांधी और कालेनबाख

महात्मा गांधी और उनके दक्षिण अफ्रीकी मित्र हरमन कालेनबाख से संबंधित दस्तावेजों को 1.28 मिलियन डॉलर (करीब 6.88 करोड़ रुपए) में खरीद कर भारत लाया गया है। 2012 में नीलाम होने से पहले भारत सरकार ने इन्हें सोदबी नीलामी घर से गोपनीय करार में खरीदा था। कालेनबाख दक्षिण अफ्रीका में जिम्नास्ट, बॉडी बिल्डर और आर्किटेक्ट थे। उन्होंने एमके गांधी को कुछ ऐसे भी पत्र भेजे थे जिन्हें कुछ समीक्षक 'प्रेम पत्र' कहते हैं। इन दोनों लोगों का रिश्ता काफी विवादित रहा था।[47]

अनुयायियों और प्रभाव

महत्वपूर्ण नेता और राजनीतिक गतिविधियाँ गाँधी से प्रभावित थीं। अमेरिका के नागरिक अधिकार आन्दोलन के नेताओं में मार्टिन लूथर किंग औरजेम्स लाव्सन गाँधी के लेखन जो उन्हीं के सिद्धांत अहिंसा को विकसित करती है, से काफी आकर्षित हुए थे।[48] विरोधी-रंगभेद कार्यकर्ता और दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला, गाँधी जी से प्रेरित थे।[49] और दुसरे लोग खान अब्दुल गफ्फेर खान,[50]स्टीव बिको और औंग सू कई (Aung San Suu Kyi) हैं।[51]
गाँधी का जीवन तथा उपदेश कई लोगों को प्रेरित करती है जो गाँधी को अपना गुरु मानते है या जो गाँधी के विचारों का प्रसार करने में अपना जीवन समर्पित कर देते हैं। यूरोप के, रोमेन रोल्लांड पहला व्यक्ति था जिसने १९२४ में अपने किताब महात्मा गाँधी में गाँधी जी पर चर्चा की थी और ब्राजील की अराजकतावादी (anarchist) और नारीवादी मारिया लासर्दा दे मौरा ने अपने कार्य शांतिवाद में गाँधी के बारें में लिखा.१९३१ में उल्लेखनीय भौतिक विज्ञानी अलबर्ट आइंस्टाइन, गाँधी के साथ पत्राचार करते थे और अपने बाद के पत्रों में उन्हें "आने वाले पीढियों का आदर्श" कहा.[52]लांजा देल वस्तो(Lanza del Vasto) महात्मा गाँधी के साथ रहने के इरादे से सन १९३६ में भारत आया; और बाद में गाँधी दर्शन को फैलाने के लिए वह यूरोप वापस आया और १९४८ में उसने कम्युनिटी ऑफ़ द आर्क की स्थापना की.(गाँधी के आश्रम से प्रभावित होकर)मदेलिने स्लेड (मीराबेन) ब्रिटिश नौसेनापति की बेटी थी जिसने अपना अधिक से अधिक व्यस्क जीवन गाँधी के भक्त के रूप में भारत में बिताया था।
इसके अतिरिक्त, ब्रिटिश संगीतकार जॉन लेनन ने गाँधी का हवाला दिया जब वे अहिंसा पर अपने विचारों को व्यक्त कर रहे थे।[53] २००७ में केन्स लिओंस अन्तर राष्ट्रीय विज्ञापन महोत्सव (Cannes Lions International Advertising Festival), अमेरिका के पूर्व उपराष्ट्रपति और पर्यावरणविद अल गोर ने उन पर गाँधी के प्रभाव को बताया.[54]

पैतृक सम्पति

शत वर्षीय महात्मा गाँधी की मूर्ति व्यापारिक क्षेत्र के केंद्रीय स्थानपिएतेर्मारित्ज्बुर्ग (Pietermaritzburg), दक्षिण अफ्रीका में है।
२ अक्टूबर गाँधी का जन्मदिन है इसलिए गाँधी जयंती के अवसर पर भारत में राष्ट्रीय अवकाश होता है १५ जून २००७ को यह घोषणा की गई थी कि "सयुंक्त राष्ट्र महा सभा " एक प्रस्ताव की घोषणा की, कि २ अक्टूबर (2 October) को "अंतर्राष्ट्रीय अहिंसा दिवस" के रूप में मनाया जाएगा.[55]
अक्सर पश्चिम में महात्मा शब्द का अर्थ ग़लत रूप में ले लिया जाता है उनके अनुसार यह संस्कृत से लिया गया है जिसमे महा का अर्थ महान और आत्म का अर्थ आत्मा होता है। ज्यादातर सूत्रों के अनुसार जैसे दत्ता और रोबिनसन के रबिन्द्रनाथ टगोर: संकलन में कहा गया है कि रबिन्द्रनाथ टगोरने सबसे पहले गाँधी को महात्मा का खिताब दिया था।[56] अन्य सूत्रों के अनुसार नौतामलाल भगवानजी मेहता ने २१ जनवरी १९१५ में उन्हें यह खिताब दिया था।[57] हालाँकि गाँधी ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि उन्हें कभी नही लगा कि वे इस सम्मान के योग्य हैं।[58] मानपत्र के अनुसार, गाँधी को उनके न्याय और सत्य के सराहनीये बलिदान के लिए महात्मा नाम मिला है।[59]

१९३० में टाइम पत्रिका ने महात्मा गाँधी को वर्ष का पुरूष का नाम दियाI १९९९ में गाँधी अलबर्ट आइंस्टाइन जिन्हे सदी का पुरूष नाम दिया गया के मुकाबले द्वितीय स्थान जगह पर थे। टाइम पत्रिका ने दलाई लामा, लेच वालेसा, डॉ मार्टिन लूथर किंग, जूनियर, सेसर शावेज़, औंग सान सू कई, बेनिग्नो अकुइनो जूनियर, डेसमंड टूटू और नेल्सन मंडेला को गाँधी के पुत्र के रूप में कहा और उनके अहिंसा के आद्यात्मिक उतराधिकारी.[60] भारत सरकार प्रति वर्ष उल्लेखनीय सामाजिक कार्यकर्ताओं, विश्व के नेताओं और नागरिकों को महात्मा गाँधी शांति पुरुस्कार से पुरुस्कृत करती है। नेल्सन मंडेला, साऊथ अफ्रीका के नेता जो कि जातीय मतभेद और पार्थक्य के उन्मूलन में संघर्षरत रहे हैं, इस पुरूस्कार के लिए एक प्रवासी भारतीय के रूप में प्रबल दावेदार हैं।
१९९६ में, भारत सरकार ने महात्मा गाँधी की श्रृंखला के नोटों के मुद्रण को १, ५, १०, २०, ५०, १००, ५०० और १००० के अंकन के रूप में आरम्भ किया। आज जितने भी नोट इस्तेमाल में हैं उनपर महात्मा गाँधी का चित्र है। १९६९ में यूनाइटेड किंगडम ने डाक टिकेट की एक श्रृंखला महात्मा गाँधी के शत्वर्शिक जयंती के उपलक्ष्य में जारी की.
नई दिल्ली में गाँधी स्मृति पर सहादत स्तम्भ उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर उनकी हत्या हुयी.
यूनाइटेड किंगडम में ऐसे अनेक गाँधी जी की प्रतिमाएँ उन ख़ास स्थानों पर हैं जैसे लन्दन विश्वविद्यालय कालेज के पास ताविस्तोक चौक, लन्दन जहाँ पर उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त की.यूनाइटेड किंगडम में जनवरी ३० को "राष्ट्रीय गाँधी स्मृति दिवस" मनाया जाता है।संयुक्त राज्य में, गाँधी की प्रतिमाएँ न्यू यार्क शहर में यूनियन स्क्वायर के बहार और अटलांटा में मार्टिन लूथर किंग जूनियर राष्ट्रीय ऐतिहासिक स्थल और वाशिंगटन डी.सी में भारतीय दूतावास के समीप मेसासुशैट्स मार्ग में हैं। भारतीय दूतावास के समीप पितर्मरित्ज़्बर्ग, दक्षिण अफ्रीका, जहाँ पर १८९३ में गाँधी को प्रथम-श्रेणी से निकल दिया गया था वहां उनकी स्मृति में एक प्रतिमा स्थापित की गए है। गाँधी की प्रतिमाएँ मदाम टुसौड के मोम संग्रहालय, लन्दन में, न्यू यार्क और विश्व के अनेक शहरों में स्थापित हैं।
गाँधी को कभी भी शान्ति का नोबेल पुरस्कार प्राप्त नही हुआ, हालाँकि उनको १९३७ से १९४८ के बीच, पाँच बार मनोनीत किया गया जिसमे अमेरिकन फ्रेंड्स सर्विस कमिटी द्वारा दिया गया नामांकन भी शामिल है .[61] दशको उपरांत नोबेल समिति ने सार्वजानिक रूप में यह घोषित किया कि उन्हें अपनी इस भूल पर खेद है और यह स्वीकार किया कि पुरूस्कार न देने की वजह विभाजित राष्ट्रीय विचार थे। महात्मा गाँधी को यह पुरुस्कार १९४८ में दिया जाना था, परन्तु उनकी हत्या के कारण इसे रोक देना पड़ा.उस साल दो नए राष्ट्र भारत और पाकिस्तान में युद्ध छिड़ जाना भी एक जटिल कारण था।[62] गाँधी के मृत्यु वर्ष १९४८ में पुरस्कार इस वजह से नही दिया गया कि कोई जीवित योग्य उम्मीदवार नही था और जब १९८९ में दलाई लामा को पुरुष्कृत किया गया तो समिति के अध्यक्ष ने ये कहा कि "यह महात्मा गाँधी की याद में श्रधांजलि का ही हिस्सा है।"[63]
राज घाट, नई-दिल्ली, भारत में, उस स्थान को चिन्हित करता है जहाँ पर १९४८ में गाँधी का दाह-संस्कार हुआ था
बिरला भवन (या बिरला हॉउस), नई दिल्ली जहाँ पर ३०जन्वरी, १९४८ को गाँधी की हत्या की गयी का अधिग्रहण भारत सरकार ने १९७१ में कर लिया तथा १९७३ में गाँधी स्मृति के रूप में जनता के लिए खोल दिया. यह उस कमरे को संजोय हुए है जहाँ गाँधी ने अपने आख़िर के चार महीने बिताये और वह मैदान भी जहाँ रात के टहलने के लिए जाते वक्त उनकी हत्या कर दी गयी। एक शहीद स्तम्भ अब उस जगह को चिन्हित करता हैं जहाँ पर उनकी हत्या कर दी गयी थी।
प्रति वर्ष ३० जनवरी को, महात्मा गाँधी के पुण्यतिथि पर कई देशों के स्कूलों में अहिंसा और शान्ति का स्कूली दिन (DENIP मनाया जाता है जिसकी स्थापना १९६४ स्पेन में हुयी थी। वे देश जिनमें दक्षिणी गोलार्ध कैलेंडर इस्तेमाल किया जाता हैं, वहां ३० मार्च को इसे मनाया जाता है।

आदर्श और आलोचनाएँ

महात्मा गांधी (Józef Gosławski, 1932)
गाँधी के कठोर अहिंसा का नतीजा शांतिवाद (pacifism) है, जो की राजनैतिक क्षेत्र से आलोचना का एक मूल आधार है।

विभाजन की संकल्पना

नियम के रूप में गाँधी विभाजन की अवधारणा के खिलाफ थे क्योंकि यह उनके धार्मिक एकता के दृष्टिकोण के प्रतिकूल थी।[64]अक्टूबर १९४६ में हरिजन में उन्होंने भारत का विभाजन पाकिस्तान बनाने के लिए, के बारे में लिखा:
(पाकिस्तान की मांग) जैसा की मुस्लीम लीग द्वारा प्रस्तुत किया गया गैर-इस्लामी है और मैं इसे पापयुक्त कहने से नही हिचकूंगाइस्लाम मानव जाति के भाईचारे और एकता के लिए खड़ा है, न कि मानव परिवार के एक्य का अवरोध करने के लिए.इस वजह से जो यह चाहते हैं कि भारत दो युद्ध के समूहों में बदल जाए वे भारत और इस्लाम दोनों के दुश्मन हैं। वे मुझे टुकडों में काट सकते हैं पर मुझे उस चीज़ के लिए राज़ी नहीं कर सकते जिसे मैं ग़लत समझता हूँ[...] हमें आस नही छोडनी चाहिए, इसके बावजूद कि ख्याली बाते हो रही हैं कि हमें मुसलमानों को अपने प्रेम के कैद में अबलाम्बित कर लेना चाहिए.[65]
फिर भी, जैक होमर गाँधी के जिन्ना के साथ पाकिस्तान के विषय को लेकर एक लंबे पत्राचार पर ध्यान देते हुए कहते हैं- "हालाँकि गांधी वैयक्तिक रूप में विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने सहमति का सुझाव दिया जिसके तहत कांग्रेस और मुस्लिम लीग अस्थायी सरकार के नीचे समझौता करते हुए अपनी आजादी प्राप्त करें जिसके बाद विभाजन के प्रश्न का फैसला उन जिलों के जनमत द्वारा होगा जहाँ पर मुसलमानों की संख्या ज्यादा है।"[66].
भारत के विभाजन के विषय को लेकर यह दोहरी स्थिति रखना, गाँधी ने इससे हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों तरफ़ से आलोचना के आयाम खोल दिए.मुहम्मद अली जिन्ना तथा समकालीन पाकिस्तानियों ने गाँधी को मुस्लमान राजनैतिक हक़ को कम कर आंकने के लिए निंदा की.विनायक दामोदर सावरकार और उनके सहयोगियों ने गाँधी की निंदा की और आरोप लगाया कि वे राजनैतिक रूप से मुसलमानों को मनाने में लगे हुए हैं तथा हिन्दुओं पर हो रहे अत्याचार के प्रति वे लापरवाह हैं और पाकिस्तान के निर्माण के लिए स्वीकृति दे दी है (हालाँकि सार्वजानिक रूप से उन्होंने यह घोषित किया था कि विभाजन से पहले मेरे शरीर को दो हिस्सों में काट दिया जाएगा).[67] यह आज भी राजनैतिक रूप से विवादस्पद है, जैसे कि पाकिस्तानी-अमरीकी इतिहासकार आयेशा जलाल यह तर्क देती हैं कि विभाजन की वजह गाँधी और कांग्रेस मुस्लीम लीग के साथ सत्ता बांटने में इक्छुक नही थे, दुसरे मसलन हिंदू राष्ट्रवादी राजनेता प्रवीण तोगडिया भी गाँधी के इस विषय को लेकर नेतृत्व की आलोचना करते हैं, यह भी इंगित करते हैं की उनके हिस्से की अत्यधिक कमजोरी की वजह से भारत का विभाजन हुआ।
गाँधी ने १९३० के अंत-अंत में विभाजन को लेकर इस्राइल के निर्माण के लिए फिलिस्तीन के विभाजन के प्रति भी अपनी अरुचि जाहिर की थी२६ अक्टूबर १९३८ को उन्होंने हरिजन में कहा था:
मुझे कई पत्र प्राप्त हुए जिनमे मुझसे पूछा गया कि मैं घोषित करुँ कि जर्मनी में यहूदियों के उत्पीडन और अरब-यहूदियों के बारे में क्या विचार रखता हूँ (persecution of the Jews in Germany). ऐसा नही कि इस कठिन प्रश्न पर अपने विचार मैं बिना झिझक के दे पाउँगा. मेरी सहानुभूति यहुदिओं के साथ है। मैं उनसे दक्षिण अफ्रीका से ही नजदीकी रूप से परिचित हूँ कुछ तो जीवन भर के लिए मेरे साथी बन गए हैं। इन मित्रों के द्वारा ही मुझे लंबे समय से हो रहे उत्पीडन के बारे में जानकारी मिली. वे ईसाई धर्म के अछूत रहे हैं पर मेरी सहानुभूति मुझे न्याय की आवश्यकता से विवेकशून्य नही करती यहूदियों के लिए एक राष्ट्र की दुहाई मुझे ज्यादा आकर्षित नही करती. जिसकी मंजूरी बाईबल में दी गयी और जिस जिद से वे अपनी वापसी में फिलिस्तीन को चाहने लगे हैं। क्यों नही वे, पृथ्वी के दुसरे लोगों से प्रेम करते हैं, उस देश को अपना घर बनाते जहाँ पर उनका जन्म हुआ और जहाँ पर उन्होंने जीविकोपार्जन किया। फिलिस्तीन अरबों का हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह इनलैंड अंग्रेजों का और फ्रांस फ्रंसिसिओं का. यहूदियों को अरबों पर अधिरोपित करना अनुचित और अमानवीय है जो कुछ भी आज फिलिस्तीन में हो रहा हैं उसे किसी भी आचार संहिता से सही साबित नही किया जा सकता.[68][69]

हिंसक प्रतिरोध की अस्वीकृति

जो लोग हिंसा के जरिये आजादी हासिल करना चाहते थे गाँधी उनकी आलोचना के कारण भी थोड़ा सा राजनैतिक आग की लपेट में भी आ गये भगत सिंह, सुखदेव, उदम सिंह, राजगुरु की फांसी के ख़िलाफ़ उनका इनकार कुछ दलों में उनकी निंदा का कारण बनी.[70][71]
इस आलोचना के लिए गाँधी ने कहा,"एक ऐसा समय था जब लोग मुझे सुना करते थे की किस तरह अंग्रेजो से बिना हथियार लड़ा जा सकता है क्योंकि तब हथयार नही थे।..पर आज मुझे कहा जाता है कि मेरी अहिंसा किसी काम की नही क्योंकि इससे हिंदू-मुसलमानों के दंगो को नही रोका जा सकता इसलिए आत्मरक्षा के लिए सशस्त्र हो जाना चाहिए."[72]
उन्होंने अपनी बहस कई लेखो में की, जो की होमर जैक्स के द गाँधी रीडर: एक स्रोत उनके लेखनी और जीवन का . १९३८ में जब पहली बार "यहूदीवाद और सेमेटीसम विरोधी" लिखी गई, गाँधी ने १९३० में हुए जर्मनी में यहूदियों पर हुए उत्पीडन (persecution of the Jews in Germany) कोसत्याग्रह के अंतर्गत बताया उन्होंने जर्मनी में यहूदियों द्वारा सहे गए कठिनाइयों के लिए अहिंसा के तरीके को इस्तेमाल करने की पेशकश यह कहते हुए की
अगर मैं एक यहूदी होता और जर्मनी में जन्मा होता और अपना जीविकोपार्जन वहीं से कर रहा होता तो जर्मनी को अपना घर मानता इसके वावजूद कि कोई सभ्य जर्मन मुझे धमकाता कि वह मुझे गोली मार देगा या किसी अंधकूपकारागार में फ़ेंक देगा, मैं तडीपार और मतभेदीये आचरण के अधीन होने से इंकार कर दूँगा . और इसके लिए मैं यहूदी भाइयों का इंतज़ार नाहे करूंगा कि वे आयें और मेरे वैधानिक प्रैत्रोध में मुझसे जुडें, बल्कि मुझे आत्मविश्वास होगा कि आख़िर में सभी मेरा उदहारण मानने के लिए बाध्य हो जायेंगे. यहाँ पर जो नुस्खा दिया गया है अगर वह एक भी यहूदी या सारे यहूदी स्वीकार कर लें, तो उनकी स्थिति जो आज है उससे बदतर नही होगी. और अगर दिए गए पीडा को वे स्वेच्छापूर्वक सह लें तो वह उन्हें अंदरूनी शक्ति और आनंद प्रदान करेगा और हिटलर की सुविचारित हिंसा भी यहूदियों की एक साधारण नर संहार के रूप में निष्कर्षित हो तथा यह उसके अत्याचारों की घोषणा के खिलाफ पहला जवाब होगी. अगर यहूदियों का दिमाग स्वेच्छयापूर्वक पीड़ा सहने के लिए तयार हो, मेरी कल्पना है कि संहार का दिन भी धन्यवाद ज्ञापन और आनंद के दिन में बदल जाएगा जैसा कि जिहोवा ने गढा.. एक अत्याचारी के हाथ में अपनी ज़ाति को देकर किया। इश्वर का भय रखने वाले, मृत्यु के आतंक से नही डरते.[73]
गाँधी की इन वक्तव्यों के कारण काफ़ी आलोचना हुयी जिनका जवाब उन्होंने "यहूदियों पर प्रश्न" लेख में दिया साथ में उनके मित्रों ने यहूदियों को किए गए मेरे अपील की आलोचना में समाचार पत्र कि दो कर्तने भेजीं दो आलोचनाएँ यह संकेत करती हैं कि मैंने जो यहूदियों के खिलाफ हुए अन्याय का उपाय बताया, वह बिल्कुल नया नही है।...मेरा केवल यह निवेदन हैं कि अगर हृदय से हिंसा को त्याग दे तो निष्कर्षतः वह अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[74] उन्होंने आलोचनाओं का उत्तर "यहूदी मित्रो को जवाब"[75] और "यहूदी और फिलिस्तीन"[76] में दिया यह जाहिर करते हुए कि "मैंने हृदय से हिंसा के त्याग के लिए कहा जिससे निष्कर्षतः अभ्यास से एक शक्ति सृजित करेगा जो कि बड़े त्याग कि वजह से है।[74]
यहूदियों की आसन्न आहुति को लेकर गाँधी के बयान ने कई टीकाकारों की आलोचना को आकर्षित किया।[77]मार्टिन बूबर (Martin Buber), जो की स्वयं यहूदी राज्य के एक विरोधी हैं ने गाँधी को २४ फरवरी, १९३९ को एक तीक्ष्ण आलोचनात्मक पत्र लिखा. बूबर ने दृढ़ता के साथ कहा कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय लोगों के साथ जो व्यवहार किया गया वह नाजियों द्वारा यहूदियों के साथ किए गए व्यवहार से भिन्न है, इसके अलावा जब भारतीय उत्पीडन के शिकार थे, गाँधी ने कुछ अवसरों पर बल के प्रयोग का समर्थन किया।[78]
गाँधी ने १९३० में जर्मनी में यहूदियों (persecution of the Jews in Germany) के उत्पीडन को सत्याग्रह के भीतर ही संदर्भित कहा। नवम्बर १९३८ में उपरावित यहूदियों के नाजी उत्पीडन के लिए उन्होंने अहिंसा के उपाय को सुझाया:
आभास होता है कि यहूदियों के जर्मन उत्पीडन का इतिहास में कोई सामानांतर नही. पुराने जमाने के तानाशाह कभी इतने पागल नही हुए जितना कि हिटलर हुआ और इसे वे धार्मिक उत्साह के साथ करते हैं कि वह एक ऐसे अनन्य धर्म और जंगी राष्ट्र को प्रस्तुत कर रहा है जिसके नाम पर कोई भी अमानवीयता मानवीयता का नियम बन जाती है जिसे अभी और भविष्य में पुरुस्कृत किया जायेगा. जाहिर सी बात है कि एक पागल परन्तु निडर युवा द्वारा किया गया अपराध सारी जाति पर अविश्वसनीय उग्रता के साथ पड़ेगा.यदि कभी कोई न्यायसंगत युद्ध मानवता के नाम पर, तो एक पुरी कॉम के प्रति जर्मनी के ढीठ उत्पीडन के खिलाफ युद्ध को पूर्ण रूप से उचित कहा जा सकता हैं। पर मैं किसी युद्ध में विश्वास नही रखता. इसे युद्ध के नफा-नुकसान के बारे में चर्चा मेरे अधिकार क्षेत्र में नही है। परन्तु जर्मनी द्वारा यहूदियों पर किए गए इस तरह के अपराध के खिलाफ युद्ध नही किया जा सकता तो जर्मनी के साथ गठबंधन भी नही किया जा सकता यह कैसे हो सकता हैं कि ऐसे देशों के बीच गठबंधन हो जिसमे से एक न्याय और प्रजातंत्र का दावा करता हैं और दूसरा जिसे दोनों का दुश्मन घोषित कर दिया गया है?"[79][80]

दक्षिण अफ्रीका के प्रारंभिक लेख

गाँधी के दक्षिण अफ्रीका को लेकर शुरुआती लेख काफी विवादस्पद हैं ७ मार्च, १९०८ को, गाँधी ने इंडियन ओपिनियन में दक्षिण अफ्रीका में उनके कारागार जीवन के बारे में लिखा "काफिर शासन में ही असभ्य हैं - कैदी के रूप में तो और भी. वे कष्टदायक, गंदे और लगभग पशुओं की तरह रहते हैं।"[81] १९०३ में अप्रवास के विषय को लेकर गाँधी ने टिप्पणी की कि "मैं मानता हूँ कि जितना वे अपनी जाति की शुद्धता पर विश्वास करते हैं उतना हम भी...हम मानते हैं कि दक्षिण अफ्रीका में जो गोरी जाति है उसे ही श्रेष्ट जाति होनी चाहिए."[82] दक्षिण अफ्रीका में अपने समय के दौरान गाँधी ने बार-बार भारतीयों का अश्वेतों के साथ सामाजिक वर्गीकरण को लेकर विरोध किया, जिनके बारे में वे वर्णन करते हैं कि " निसंदेह पूर्ण रूप से काफिरों से श्रेष्ठ हैं".[83] यह ध्यान देने योग्य हैं कि गाँधी के समय में काफिर का वर्तमान में (a different connotation) इस्तेमाल हो रहे अर्थ से एक अलग अर्थ था (its present-day usage). गाँधी के इन कथनों ने उन्हें कुछ लोगों द्वारा नसलवादी होने के आरोप को लगाने का मौका दिया है।[84]
इतिहास के दो प्रोफ़ेसर सुरेन्द्र भाना और गुलाम वाहेद, जो दक्षिण अफ्रीका के इतिहास पर महारत रखते हैं, ने अपने मूलग्रन्थ द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३ - १९१४ में इस विवाद की जांच की है।(नई दिल्ली:मनोहर,२००५).[85] अध्याय एक के केन्द्र में,"गाँधी, औपनिवेशिक स्थिति में जन्मे अफ्रीकी और भारतीय" जो कि "श्वेत आधिपत्य" में अफ्रीकी और भारतीय समुदायों के संबंधों पर है तथा उन नीतियों पर जिनकी वजह से विभाजन हुआ (और वे तर्क देते हैं कि इन समुदायों के बीच संघर्ष लाजिमी सा है) इस सम्बन्ध के बारे में वे कहते हैं, "युवा गाँधी १८९० में उन विभाजीय विचारों से प्रभावित थे जो कि उस समय प्रबल थीं।"[86] साथ ही साथ वे यह भी कहते हैं, "गाँधी के जेल के अनुभव ने उन्हें उन लोगों कि स्थिति के प्रति अधीक संवेदनशील बना दिया था।..आगे गाँधी दृढ़ हो गए थे; वे अफ्रीकियों के प्रति अपने अभिव्यक्ति में पूर्वाग्रह को लेकर बहुत कम निर्णायक हो गए और वृहत स्तर पर समान कारणों के बिन्दुओं को देखने लगे थे। जोहान्सबर्ग जेल में उनके नकारात्मक दृष्टिकोण में ढीठ अफ्रीकी कैदी थे न कि आम अफ्रीकी."[87]
दक्षिण अफ्रीका के पूर्व राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला गाँधी के अनुयायी हैं,[49] २००३ में गाँधी के आलोचकों द्वारा प्रतिमा के अनावरण को रोकने की कोशिश के बावजूद उन्होंने उसे जोहान्सबर्ग में अनावृत किया।[84] भाना और वाहेद ने अनावरण के इर्द-गिर्द होने वाली घटनाओं पर द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १९१३-१९१४ में टिप्पणी किया है। अनुभाग " दक्षिण अफ्रीका के लिए गाँधी के विरासत" में वे लिखते हैं " गाँधी ने दक्षिण अफ्रीका के सक्रिय कार्यकर्ताओं के आने वाली पीढियों को श्वेत अधिपत्य को ख़त्म करने के लिये प्रेरित किया। यह विरासत उन्हेंनेल्सन मंडेला से जोड़ती हैं।.माने यह कि जिस कम को गाँधी ने शुरू किया था उसे मंडेला ने खत्म किया।"[88] वे जारी रखते हैं उन विवादों का हवाला देते हुए जो गाँधी कि प्रतिमा के अनावरण के दौरान उठे थे।[89] गाँधी के प्रति इन दो दृष्टिकोणों के प्रतिक्रिया स्वरुप, भाना और वाहेद तर्क देते हैं : वे लोग को दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के पश्चात अपने राजनैतिक उद्देश्य के लिए गाँधी को सही ठहराना चाहते हैं वे उनके बारे में कई तथ्यों को नजरंदाज करते हुए कारन में कुछ ज्यादा मदद नही करते; और जो उन्हें केवल एक नस्लवादी कहते हैं वे भी ग़लत बयानी के उतने ही दोषी हैं/विकृति के उतने ही दोषी हैं।"[90]

राज्य विरोधी

गाँधी राज विरोधी (anti statist) उस रूप में थे जहाँ उनका दृष्टिकोण उस भारत का हैं जो कि किसी सरकार के अधीन न हो.[91] उनका विचार था कि एक देश में सच्चे स्वशासन (self rule) का अर्थ है कि प्रत्यक व्यक्ति ख़ुद पर शासन करता हैं तथा कोई ऐसा राज्य नही जो लोगों पर कानून लागु कर सके.[92][93] कुछ मौकों पर उन्होंने स्वयं को एक दार्शनिक अराजकतावादी कहा है (philosophical anarchist).[94] उनके अर्थ में एक स्वतंत्र भारत का अस्तित्व उन हजारों छोटे छोटे आत्मनिर्भर समुदायों से है (संभवतः टालस्टोय का विचार) जो बिना दूसरो के अड़चन बने ख़ुद पर राज्य करते हैं। इसका यह मतलब नही था कि ब्रिटिशों द्वारा स्थापित प्रशाशनिक ढांचे को भारतीयों को स्थानांतरित कर देना जिसके लिए उन्होंने कहा कि हिंदुस्तान को इंगलिस्तान बनाना है.[95] ब्रिटिश ढंग के संसदीय तंत्र पर कोई विश्वास न होने के कारण वे भारत में आजादी के बाद कांग्रेस पार्टी को भंग करप्रत्यक्ष लोकतंत्र (direct democracy) प्रणाली को[96] स्थापित करना चाहते थे।[97]

गांधी जी की आलोचना

गांधी के सिद्धान्तों और करनी को लेकर प्रयः उनकी आलोचना भी की जाती है। उनकी आलोचना के मुख्य बिन्दु हैं-
  • दोनो विश्वयुद्धों में अंग्रेजों का साथ देना,
  • सशस्त्र क्रान्तिकारियों के अंग्रेजों के विरुद्ध हिंसात्मक कार्यों की निन्दा करना,
  • भारत की स्वतंत्रता के बाद नेहरू को प्रधानमंत्री का दावेदार बनाना,
  • स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान को ५५ करोड़ रूपये देने की जिद पर अनशन करना,

इन्हें भी देखें

टिप्पणियाँ

आगे के अध्ययन के लिए

  • भाना, सुरेन्द्र और गुलाम वाहेद.द मेकिंग ऑफ़ अ पोलिटिकल रिफोर्मार : गाँधी इन साऊथ अफ्रीका, १८९३-१९१४. नई दिल्ली: मनोहर, २००५
  • बोंदुरंत्त, जुआअन वी. हिंसा की जीत: गाँधीवादी दर्शन का संघर्ष. प्रिन्सटन यूपी, १९९८ आईएसबीऍन ०-६९१-०२२८१-X
  • चेर्नस, ईरा. अमरीकी अहिंसा: विचारों का इतिहास, सातवाँ अध्याय .आईएसबीऍन १-५७०७५-५४७-७
  • चड्ढा, योगेश .गाँधी: एक जीवन .आईएसबीऍन ०-४७१-३५०६२-१
  • डेलटन, डेनिस (ईडी) .महात्मा गाँधी: चुनिन्दा राजनैतिक लेख .इंडियानापोलिस/कैमब्रिज : हैकट प्रकशन कंपनी (Hackett Publishing Company), १९९६ आईएसबीऍन ०-८७२२०-३३०-१
  • गाँधी, महात्मा .महात्मा गाँधी के संचित लेख .नई दिल्ली: प्रकाशन विभाग, सुचना एवम प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, १९९४.
  • इश्वरण, एकनाथ (Eswaran, Eknath).गाँधी एक मनुष्य .आईएसबीऍन ०-९१५१३२-९६-६
  • फिशर, लुईस .द एसेनसियल गांधी : उनके जीवन, कार्यों और विचारों का संग्रह . प्राचीन: न्यूयार्क, २००२. (पुनर्मुद्रित संस्करण), आईएसबीऍन १-४०००-३०५०-१
  • गाँधी, एम.के. गाँधी के पाठक: उनके जीवन और लेखन का एक स्रोत पुस्तक.होमर जैक (ईडी) ग्रोव प्रेस, न्यू योर्क, १९५६
  • गाँधी, राजमोहन .पटेल: एक जीवन .नवजीवन प्रकाशन घर, १९९० आईएसबीऍन ८१-७२२९-१३८-८
  • हंट, जेम्स डी. लन्दन में गाँधी . नई दिल्ली: प्रोमिला एवं कंपनी, प्रकाशक, १९७८
  • मान्न, बर्नहार्ड, महात्मा गाँधी और पाउलो फरेरी के शैक्षणिक अवधारणाएं. क्लौबें, बी, में .(ईडी) राजनैतिक समाजीकरण एव शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय अध्ययन बीडी. ८.हैम्बर्ग १९९६.आईएसबीऍन ३-९२६९५२-९७-०
  • रूहे, पीटर. गाँधी: एक छायाचित्र जीवनी .आईएसबीऍन ०-७१४८-९२७९-३
  • शार्प, जीन. गाँधी एक राजनैतिक नीतिज्ञ के रूप में, अपने मूल्यों और राजनैतिक निबंधो के साथ. बोस्टन: एक्सटेंडिंग होराइज़ोन पुस्तकें, १९७९.
  • सोफ्री, गियान्नी. गाँधी और भारत: केन्द्र में एक सदी (१९९५) आईएसबीएन १-९००६२४-१२-५
  • गौरडन, हैम.आध्यात्मिक साम्राज्यवाद से अस्वीकृति: गाँधी को बूबर के पत्रों की झलकी .'सार्वभौमिक अध्ययन की पत्रिका, २२ जून १९९९.

सन्दर्भ

  1. ऊपर जायें↑ क्रान्त (2006) (Hindi में) स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास 1 (1 ed.) नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन प॰ 107 आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-119-4 "1915 के प्रारम्भ में जब पहला विश्वयुद्ध चल रहा था गान्धी अपनी पूरी भक्त मण्डली के साथ भारत में अवतरित हुए। उन्होंने आते ही यह घोषणा की कि वह राजनीति में भाग नहीं लेंगे, केवल समाज-सेवा का कार्य करेंगे। सौराष्ट्र की गोंडाल नामक रियासत में गान्धी के सम्मान में एक सार्वजनिक सभा की गयी जिसमें गोंडाल के दीवान रणछोड़दास पटवारी की अध्यक्षता में राजवैद्य जीवराम कालिदास ने उन्हें 'महात्मा' की उपाधि से विभूषित किया।"
  2. ऊपर जायें↑ क्रान्त, मदनलाल वर्मा (2006) (Hindi में)स्वाधीनता संग्राम के क्रान्तिकारी साहित्य का इतिहास 2 (1 ed.) नई दिल्ली: प्रवीण प्रकाशन प॰ 512 आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ 81-7783-120-8 "मैं जानता हूँ कि ब्रिटिश सरकार भारत की स्वाधीनता की माँग कभी स्वीकार नहीं करेगी। मैं इस बात का कायल हो चुका हूँ कि यदि हमें आज़ादी चाहिये तो हमें खून के दरिया से गुजरने को तैयार रहना चाहिये। अगर मुझे उम्मीद होती कि आज़ादी पाने का एक और सुनहरा मौका अपनी जिन्दगी में हमें मिलेगा तो मैं शायद घर छोड़ता ही नहीं। मैंने जो कुछ किया है अपने देश के लिये किया है। विश्व में भारत की प्रतिष्ठा बढ़ाने और भारत की स्वाधीनता के लक्ष्य के निकट पहुँचने के लिये किया है। भारत की स्वाधीनता की आखिरी लड़ाई शुरू हो चुकी है। आज़ाद हिन्द फौज़ के सैनिक भारत की भूमि पर सफलतापूर्वक लड़ रहे हैं। हे राष्ट्रपिता! भारत की स्वाधीनता के इस पावन युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभ कामनायें चाहते हैं।"
  3. ऊपर जायें↑ आर० गाला, पापुलर कम्बाइन्ड डिक्शनरी, अंग्रेजी-अंग्रेजी-गुजराती एवं गुजराती-गुजराती-अंग्रेजी, नवनीत
  4. ऊपर जायें↑ भार्गव की मानक व्याख्‍या वाली हिन्दी-अंग्रेजी डिक्शनरी
  5. ऊपर जायें↑ गांधी नामक दस्तावेज से अवतरित महात्मा गांधी की संग्रहित कृतियां वॉल्यूम ५ दस्तावेज # दैवत्य के मुखैटे के पीछे पेज १०६
  6. ऊपर जायें↑ महात्मा गांधी की संग्रहित रचनाएं वॉल्यूम ५ पेज ४१०
  7. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.८२ .
  8. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.८९ .
  9. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.१०५ .
  10. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.१३१ .
  11. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.१७२ .
  12. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पीपी .२३० -३२ .
  13. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.२४६ .
  14. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पीपी .२७७ - ८१ .
  15. ऊपर जायें↑ आर०गांधी, पटेल : एक जीवन, पीपी२८३-८६
  16. ऊपर जायें↑ आर० गांधी, पटेल : एक जीवन, पी.३०९
  17. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.३१८ .
  18. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.४६२ .
  19. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पीपी .४६४ - ६६ .
  20. ऊपर जायें↑ आरगांधी, पटेल : एक जीवन, पी.४७२ .
  21. ऊपर जायें↑ विनय लाल .' हे राम ' : गांधी के अंतिम शब्दों की राजनीति ह्यूमेन ८, संख्या. १ (जनवरी २००१): पीपी३४ - ३८ .
  22. ऊपर जायें↑ गांधी जी की राख को ३० जनवरी १९९७को सिनसिनाती चौकी पर बिखेर दिया गया था। कारण किसी को पता नहीँ था राख के एक भाग को नई दिल्ली के दक्षिणपूर्व में एकसुरक्षित डिपाजिट बॉक्स में कटक के निकट समुद्र तट पर रख दिया गया था। तुषार गाँधीने १९५५ में अखबारों द्वारा समाचार प्रकाशित किए जाने पर कि गांधी जी की राख बैंक में रखी हुई है, को अपनी हिरासत में लेने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाया।
  23. ऊपर जायें↑ भारतन कुमारप्पा,‍ संपादक फॉर पसिफिस्ट्स एम;के; द्वारा लिखित।गांधी , नवजीवन प्रकाशन हाउस, अहमदाबाद , भारत , १९४९ .
  24. ऊपर जायें↑ बोदुरेट पी२८ .
  25. ऊपर जायें↑ बोंदुरेट पी१३९ .
  26. ऊपर जायें↑ गोखले के धर्मादा, सत्य के साथ मेरे प्रयोग, एम केगाँधी
  27. ऊपर जायें↑ रोलेट बिल्स और मेरी दुविधा, सत्य के साथ मेरे प्रयोग, एम् के गाँधी
  28. ऊपर जायें↑ महादेव देसाईअनाशक्तियोग : द गोस्पेल ऑफ़ सेल्फ्लेस एक्सन, या द गीता अकोर्डिंग तू गाँधी .नवजीवन प्रकाशन घर; अहमदाबाद (प्रथम संस्करण १९४६).अन्य संस्करण; १९४८, १९५१, १९५६.
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  51. ऊपर जायें↑ भट्टाचार्य, बुधदेवगाँधी के राजनैतिक दर्शन का विकास कलकत्ता पुस्तक घर: कलकत्ता, १९६९, पीपी ४७९
  52. ऊपर जायें↑ छठा अध्याय, हिंद स्वराज, मोहनदास करमचंद द्वारागाँधी

बाहरी कड़ियाँ

Wikisource
विकिसोर्स में महात्मा गांधी लेख से संबंधित मूल साहित्य है।
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