THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, August 31, 2015

बनारस सुरक्षा बंधन मना रहा है!

बनारस सुरक्षा बंधन मना रहा है!

काशी में बैठकर झूठ कौन बोलता है!




बनारस और दिल्‍ली के बीच कई संयोग हैं। पहले भी थे, अब भी हैं, आगे भी घटते रहेंगे। कुछ संयोग हालांकि ऐसे होते हैं जिनकी ओर हमारा ध्‍यान सहज नहीं जाता। मसलन, कल शाम जब बनारस के अपने अख़बार गांडीव पर नज़र पड़ी तो मेरा दिमाग कौंधा। दिल्‍ली में राजेंद्र यादव के जाने के बाद रचना यादव हंस चला रही हैं। इधर, बनारस में राजीव अरोड़ा के जाने के बाद रचना अरोड़ा गांडीव निकाल रही हैं। मैंने पहली बार उनका संपादकीय कल देखा, ''...और थम गई काशी''। ज़ाहिर है, जाम की जो ख़बर ए पार से ओ पार तक दावानल की तरह फैली हुई थी, वह गांडीव से कैसे छूट जाती। तो इस ऐतिहासिक जाम का विवरण देने के बाद रचना अरोड़ा संपादकीय के अंत में जब 'हर हर महादेव' लिखा, तो एक बात समझ में आई कि मामला कुल मिलाकर अंत में महादेव के भरोसे ही जा टिकना है, चाहे इस क्षेत्र का सांसद, विधायक, प्रतिनिधि कोई भी हो। 




सहयात्री नित्‍यानंद और संकठा प्रसाद 

चौक पर गमछे का थोक व्‍यापार करने वाले संकठा प्रसाद इस बात की पुष्टि करते हैं। पक्‍का महाल के बनारसियों की तरह उनकी आदत भी बात-बात में महादेव कहने की है। वे सामने लगे एक बैनर पर त्रिपुंडधारी मोदी की तस्‍वीर दिखाकर कहते हैं,  ''महादेव, ई जान लीजिए कि मोदी ने इस शहर में झाड़ू लगाया है। महादेव ने बदले में ऐसा झाड़ू लगाया कि वो इस सल्‍तनत की हुकूमत करने लगा।'' संकठाजी के माथे पर सज्जित त्रिपुंड का चंदन घोर गर्मी और उमस में चू-चू कर गाल तक आ गया है लेकिन मोदी को लेकर उनका उत्‍साह देखते बनता है, ''महादेव, ई मोदी नहीं, मोती है। नंदी बैल है। साक्षात् राम है। अभी जो चल रहा है न, ई रामराज्‍य है। अभी तो कुछ नहीं हुआ है, आप देखिएगा आने वाले समय में इसका जो एंटी होगा न, उसका ई सफाया कर देगा।'' इस बात की दो अर्थछवियों में हम संकठाजी की आस्‍था को खोज रहे हैं। वे बोलते जाते हैं, ''इसको कुछ करने का जरूरते नहीं पड़ेगा। पब्लिक खुदै इसके विरोधियों का सफाया कर देगी। समझ रहे हैं न..।'' 

संकठाजी के यहां से मैं कई साल से गमछा खरीदता रहा हूं। जब भी बनारस आता हूं, साल भर का स्‍टॉक साथ ले जाता हूं। चार गमछे का दाम उन्‍होंने जब 200 बताया, तो मैंने कहा कि अभी अप्रैल में मैंने उनके यहां से 40 रुपये में गमछा मंगवाया था, झूठ थोड़े कह रहा हूं। संकठा बोले, ''महादेव, काशी में बैठ कर कोई झूठ बोल सकता है भला? ले जाइए...।'' संकठा प्रसाद झूठ नहीं बोलते, आप समझ सकते हैं। 

काशी में बैठ कर झूठ कौन बोलता है? इसका जवाब हम दो दिन से खोज रहे हैं और अब तय है कि अगर पहला जवाब कोई बनता है तो वो है अख़बार। बुधवार के दैनिक जागरण में एक खबर छपी कि शहर में मोदी के नाम की राखी खूब बिक रही है। एक तस्‍वीर भी साथ में लगी थी जिसमें कुछ मुस्लिम औरतों को मोदी राखी बनाते दिखाया गया था। हमने दो दिन पूरा शहर छान मारा, कम से कम पचासेक दुकानों पर तो पड़ताल की ही होगी। मोदी राखी के बारे में किसी को भी नहीं मालूम था। बुलानाला पर जय भवानी ट्रेडर्स के यहां बेशक ऐसी किसी राखी की बात उसके स्‍वामी ने स्‍वीकार की, ''आउट ऑफ स्‍टॉक है। बारह डब्‍बा आया था। एक डब्‍बा में 50 राखी यानी टोटल 600 मोदी राखी रही। छोटी वाली 20 रुपया और बड़ी वाली 45 की थी। सब चला गया।'' कौन ले गया? ''अब हम क्‍या जानें भाई साहब? थोक में गया है।'' हज हाउस संघर्ष समिति के अध्‍यक्ष डॉ. शाहिद काज़ी कहते हैं, ''एक ठो कोई श्रीवास्‍तव है जो एक एनजीओ चलाता है जिसमें मुस्लिम औरतों को सिलाई-बुनाई की ट्रेनिंग देता है। उनको पैसा भी देता है। सब वही किए है। फर्जी खबर है। अपने संस्‍था की औरतों से राखी बनवाया, उन्‍हीं के हाथों मोदी को भेजवाया और खबर छपवा दिया।'' दैनिक जागरण मोदी राखी बेचने वाली सिगरा की जिस दुकान का जि़क्र करता है, हम वहां गए। उसे पता ही नहीं था कि मोदी राखी नाम की कोई चीज़ बाजार में है। 

बहरहाल, जाम एक ऐसा सच है जिसके बारे में कोई अखबार झूठ नहीं बोल सकता। सिगरा की एक कॉलोनी में इसकी गवाही एक नौजवान युवक की मौत ने दे दी। वह पानी में हेल कर जा रहा था। बिजली का तार गिरा और करेंट लगने से वह झुलस गया। स्‍कूल की बसें जाम में फंसीं तो कुछ बच्‍चे उमस और गर्मी से बेहोश हो गए। बनारस में आजकल कहीं-कहीं शव ले जाने वाले वाहन जाम में फंसे दिख जा रहे हैं। नीचीबाग में ऐसा ही एक वाहन मुर्दा ढोकर मणिकर्णिका ले जा रहा था। करीब आधे घंटे से सड़क थमी हुई थी। किसी को कोई जल्‍दी नहीं थी। बस आरएएफ के नीली वर्दीधारी जवानों की एक प्‍लाटून पैदल मार्च कर के मैदागिन की ओर जा रही थी। बाकी, कुछ सांड़-वांड़ खंबे से गरदन खुजाने में व्‍यस्‍त थे। लोग पसीना पोंछ रहे थे। आपस में गर्मी और उमस की बातें कर रहे थे। तभी बाइक पर बैठे एक लड़के ने मुर्दे को देखकर टिप्‍पणी की, ''एतना सड़ल गर्मी और जाम में त मुर्दवो परपरा के उठ जाई... कही, हम्‍मैं घाटे नाहीं जाए के हौ।'' पीछे से किसी ने हुंकारी भरी, ''महादेव... महादेव... ।'' 

कुछ बदलाव बनारस में ज़रूर आए हैं। इनके बारे में चुप रहना धंधे के साथ नाइंसाफी होगी। मसलन, चौक से गोदौलिया तक जो भी एकाध मूत्रालय हैं, उनके ऊपर स्‍वच्‍छता अभियान के नारे के साथ गांधीजी का चश्‍मा बन गया है। दशाश्‍वमेध के एक मूत्रालय के ऊपर नीले रंग के टाइल पर झाड़ू लगाते एक आदमी की तस्‍वीर है जो पीठ कर के खड़ा है। यह तस्‍वीर लाठी लेकर चलते महात्‍मा की पीठ की याद दिलाती है। फर्क इतना है कि झाड़ू वाले की पीठ उसकी छाती के अनुपात में 56 इंच की है। इस देश का बच्‍चा-बच्‍चा इस अबूझ तस्‍वीर को देखकर आसानी से बूझ सकता है कि झाड़ूवाला कौन है। एक और फर्क मैंने देखा जो मेरे लिए सुखद था। पैदाइश से ही पांडे हवेली पर स्थित रहस्‍यमय से दिखने वाले कालीबाड़ी मठ को मैं देखता रहा हूं जिसके द्वार पर कूचबिहार के किसी राजा का जि़क्र था। विशिष्‍ट बांग्‍ला वास्‍तुशैली में बनी इस पुरानी-धुरानी इमारत में मैंने आज तक कोई हलचल नहीं देखी। यह कूचबिहार के राजा की संपत्ति है। आज आप इसे देखें तो चौंके बिना नहीं रह सकेंगे। झक सफेद पुताई के बाद यह इमारत जिंदा हो गई है। इसके द्वार पर भी पेंट किया गया है और फिलहाल उस पर बांग्‍ला में जो कुछ भी लिखा था, सब गायब है। पता नहीं, यह बिक गया या फिर भारत-बांग्‍लादेश के बीच छिटमहल का समझौता होने के साथ इसका कोई रिश्‍ता है। कुछ लोगों से मैंने पूछा भी, लेकिन सार्थक जवाब नहीं मिला। 

बीएचयू में भी कुछ बदलाव आए हैं। बिड़ला मंदिर के बाहर प्रोग्रेसिव बुक सेंटर के मुचकुंदजी से बरसों बाद मुलाकात हुई। उनकी दुकान पर अब चेतन भगत और अमीश बिकते हैं। रादुगा, मीर और प्रगति के टाइटल जाने कहां बिला गए हैं। दुकान चमक रही है, मुचकुदजी उदास हैं। यहां समकालीन तीसरी दुनिया का 2013 का एक अंक पड़ा मिला। न तो यहां समयांतर आती है, न तीसरी दुनिया। मुचकुंदजी कहते हैं, ''कोई पत्रिकाएं पढ़ता ही नहीं, न तो पहले की तरह कोई भेजता है। हम भी अकेले क्‍या-क्‍या करें। छोड़ दिए हैं। जब तक चल रहा है, ठीक है।'' मुचकुंदजी की दुकान के बाहर दीवार पर एक परचा चिपका है किसी सेमीनार का जिसका विषय है, ''राष्‍ट्रवाद की अवधारणा''। संघ के किसी पदाधिकारी का व्‍याख्‍यान है। मुचकुंदजी हंस रहे हैं। उनकी हंसी के पीछे मैं कुछ देख पा रहा हूं। थोड़ी देर में युवा कवि अरुणश्री मुगलसराय से हमारे लिए लस्‍सी बंधवा कर पहुंच गए, तो हमने मुचकुंदजी के साथ बैठ कर रबड़ी वाली लस्‍सी पी। मुचकुंदजी बोले, ''अच्‍छा लगता है कि आप लोग याद रखे हैं। अब और क्‍या बचा है। बस, मुलाकात हो जाए, सब लोग चले गए, जाने कब...।'' 


मंदिर के भीतर छोटे सूरदास यानी रामलालजी पहले की ही तरह अब भी राग काफ़ी में हारमोनियम पर भक्ति संगीत छेड़े हुए हैं। पहले वाले सूरदास अब यहां नहीं गाते। रामलालजी के साथ धोखा कर के उन्‍हें 54 साल की उम्र में ही बीएचयू प्रशासन ने रिटायर करवा दिया था। आज तक उनका पैसा नहीं मिला है। कह रहे थे, ''हमारा रिटायरमेंट 2016 में था। अभी हम 59 साल के ही हैं। कितनी बार वीसी से बात किए, ऊपर गए, कुछ नहीं हुआ।'' 
  
लका पर जाम है। हमेशा की तरह ज्ञान की आस में हम टंडनजी की दुकान पर जाते हैं। हमेशा की तरह प्रेम से उनके लड़के हमें गाढ़ी चाय पिलाते हैं, लेकिन इतने बरसों में ऐसा पहली बार हुआ कि उन्‍होंने पैसे लेने से इनकार नहीं किया। पिछले साल तक वे जि़द करने पर भी पेसे नहीं लेते थे, टोस्‍ट अलग से खिलाते थे। हमने उनसे कहा कि हमारे साथी नित्‍यानंद को इस दुकान का इतिहास बतावें। पहले वे टंडनजी के बारे में बोलते नहीं थकते थे। समाजवादी आंदोलन की तमाम घटनाएं बखान करते थे न लोगों को। फोटो दिखाते थे। दुकान पर इस बार न  तो टंडनजी की फोटो थी, न ही दीवार पर अखबार की वे कतरनें जिन्‍हें देखने के हम आदी रहे हैं। नित्‍यानंद को दो मिनट में उन्‍होंने कुछ बताया और बोले, ''...बाकी इन्‍हीं से पूछ लीजिएगा।'' उनका चेहरा देखकर ऐसा लग रहा था कि नरेंद्र मोदी के सफाई अभियान में अब यहां का अतीत जल्‍द ही निस्‍सार हो जाएगा। 



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