Wednesday, 11 January 2012 10:16 |
नरेश गोस्वामी यह संभवत: इस बात का परिणाम है कि हमारे समाज में राजनीतिक नेतृत्व ने धर्म को हमेशा पड़ताल से अलग रखा है। जबकि हम जानते हैं कि मठों, मंदिरों, और बडेÞ आश्रमों में गद््दी के लिए भयावह खूनी संघर्ष चलते रहे हैं। यही नहीं, पिछले दिनों आश्रमों में होने वाली दुर्घटनाओं को लेकर सीधे तौर पर जिम्मेदार होने के बावजूद इन आश्रमों के कर्ताधर्ताओं पर किसी तरह की आंच नहीं आई है। हैरत की बात है कि इतना सब होने के बाद भी समाज पर उनका प्रभाव कम नहीं होता। विचित्र यह है कि किसी बड़े खुलासे या प्रकरण के बाद नेता का राजनीतिक जीवन तो चौपट हो सकता है लेकिन धर्म-गुरु की हैसियत और रुतबा वैसा ही बना रहता है। हमारे समाज में धर्म के सामाजिक और राजनीतिक इस्तेमाल का यह अजीब पहलू है कि आम आदमी तो जीवन की परेशानियों से निजात पाने के लिए गुरुओं की शरण में जाता है, जबकि राजनेता बाकायदा अपने राजनीतिक लाभ-हानि का पंचांग जानने के लिए उनकी सेवा लेते हैं। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदियुरप्पा तो अपना इस्तीफा भी गुरु या ज्योतिषी आदि से पूछ कर देते हैं। और जैसे ही उनकी सत्ता डिगने लगती है तो उन्हें यही लगता है कि उन्हें अनिष्टकारी शक्तियों ने घेर लिया है। विरोधियों को परास्त करने के लिए भी वे तंत्र-मंत्र का ही सहारा लेते हैं। अब से कई वर्ष पहले हमारे एक पूर्व प्रधानमंत्री ने भी सत्ता में अपनी वापसी के लिए हरिद्वार में कई घंटे चलने वाला एक गोपनीय कर्मकांड कराया था। क्या इसे राजनीति और धर्म का वैसा ही अपवित्र और अवांछित गठजोड़ नहीं कहा जाएगा जैसा कि राजनीति और अपराध के बारे में कहा जाता है? इस तथ्य की भले ही आधिकारिक रूप से पुष्टि न की जा सके, लेकिन यह एक आम सच्चाई है कि देश में हर बडेÞ आश्रम पर एक नहीं बल्कि कई सारे नेताओं का वरदहस्त रहता है। अगर उन आश्रमों के बारे में कुछ गड़बड़ियां भी सामने आती हैं तो सिर्फ रस्मी कार्रवाई होती है। ऐसे आश्रमों की आय और उनके वित्तीय ढांचे के बारे में कोई जानना चाहे तो उसे पहले कदम पर ही निराश होना पडेÞगा। समूचे प्रसंग में इस बात को अलग से कहना जरूरी है कि हमारे समाज में भाग्यवाद और अंधविश्वास की बढ़ती प्रवृत्ति राजनीतिक जवाबदेही की विफलता का ही परिणाम है। क्योंकि अगर राजनीतिक व्यवस्था जनकल्याण के लिए प्रतिबद्ध होकर काम करे तो शायद आम जनता को धर्म-गुरुओं की शरण ही न लेनी पड़े। विडंबना यह है कि धर्म और राजनीति के इस गठजोड़ पर लोगों का अलग से ध्यान नहीं जाता। इस सबका दुखद पहलू यह है कि धर्म की यह जकड़न ठीक उसी दौर में ज्यादा सख्त हुई है जब यह कहा जा रहा है कि देश पिछडेÞपन से निकल कर समृद्धि और विकास के रास्ते पर जा रहा है। हमारे समाज में एक ऐसी धार्मिकता बढ़ती जा रही है जिसका जीवन में शांति, आपसदारी, नैतिकता और ईमानदारी से कोई ताल्लुक नहीं दिखता। यह एक ऐसी धार्मिकता है जो लोगों को अपने निजी स्वार्थों को किसी भी तरह हासिल कर लेने के नुस्खे बताती है। उसे इस बात की जैसे कोई चिंता ही नहीं रह गई है कि सिर्फ निजी हितों को किसी भी कीमत पर साध लेने की इस भावना को प्रश्रय देने से समाज का वह बुनियादी ढांचा ही बिखर जाएगा जो विपरीत परिस्थितियों में व्यक्ति के लिए संबल का काम करता है। दरअसल, आर्थिक उदारीकरण के इन वर्षों में जैसे-जैसे व्यावसायिकता से संरचित यह धार्मिकता फलती-फूलती गई है वैसे-वैसे लोक-धर्म के उस सहज, सरल और लंद-फंद से मुक्त रूप का भी अवसान होता गया है जिसमें दूसरों का हक मारने या किसी के साथ अन्याय करने को अधार्मिक कृत्य माना जाता था और आमतौर पर लोग ऐसे किसी कर्म से यथासंभव बचने की कोशिश करते थे। लेकिन तरल नकदी, उपभोग की कामनाओं और शहरी जीवन के अनिश्चित घालमेल में पनपी यह धार्मिकता लोगों को कुछ भी श्रेयस्कर नहीं दे पाती, जो अब या तो प्रतिस्पर्धा में जीते हैं या फिर अजनबियत में। गुरुओं के पास सत्संग और प्रवचनों में आने से पहले तो लोग आत्म-केंद्रित जीवन जीते ही हैं, लेकिन इस तरह के धार्मिक अनुष्ठान से भी उन्हें कोई ऐसी अंतर्दृष्टि नहीं मिलती कि वे खुद को अपने संकीर्ण आत्म से निकाल कर वृहत्तर समाज के दुख-सुख के साथ जोड़ सकें। धर्म-गुरु शास्त्रों से चाहे कितने भी उद्धरण दे लें, लोगों को किसी भी सीमा तक भाव विभोर कर दें, हकीकत यह है कि खुद उन्हीं के पास इस बात की दृष्टि नहीं रह गई है कि सामूहिक जीवन को कैसे सह-अस्तित्व की सुंदरता में बदला जाए। कहना न होगा कि सुरक्षा-जांच से छूट की मांग सत्ता की इसी मानसिकता से पैदा हुई है जिसमें धर्म-गुरु खुद साधारण नागरिक न रहकर विशेषाधिकारों के आदी हो गए हैं। इसीलिए देश में नैतिकता के चौतरफा पसरे संकट के बीच धर्म-गुरुओं का आचरण कतई ऐसा नहीं रह गया है जिससे साधारण जन अच्छा और नेक होने की प्रेरणा लें सकें। |
Wednesday, January 11, 2012
धर्म और सत्ता की जुगलबंदी
धर्म और सत्ता की जुगलबंदी
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