Saturday, 07 January 2012 10:51 |
शिवदयाल 7 जनवरी, 2012: साल के अंत के साथ ही लगता है एक संभावना का भी अंत हो गया। छब्बीस अक्तूबर को शुरू हुआ अण्णा हजारे का अनशन अट्ठाईस अक्तूबर को समाप्त हो गया। साथ ही उन्होंने निकट भविष्य में घेराव आदि के कार्यक्रम भी वापस ले लिए। आने वाले चुनावों में कांग्रेस को हराने का संकल्प जरूर लिया गया और इसके लिए जनता के पास जाने की बात कही गई। जनता जिसने अण्णा को एक पवित्र उद्देश्य के लिए संघर्ष करने के कारण हठात सिर-माथे पर बिठा लिया था और उनके दिसंबर के कार्यक्रम से जिसने हठात ही मुंह फेर लिया। अण्णा के बड़े से बडेÞ विरोधियों को भी इसका अंदाजा नहीं रहा होगा। दिल्ली की ठंड और मुंबई की कामकाजी व्यस्तता को जरूर इसका कारण बताया जा रहा है, लेकिन बात क्या इतनी-सी ही है? किन्हीं अर्थों में दिसंबर आंदोलन की विफलता (या कि निष्फलता) संसद में लोकपाल कानून न पारित हो पाने की विफलता से भी बड़ी है। संसद में लोकपाल विधेयक पर बहस करते सांसद अपने ऊपर संसद के बाहर का वह दबाव नहीं महसूस कर रहे थे जो उन पर अगस्त में मानसून सत्र के दौरान था। उनके लिए राहत की इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है कि आज की परिस्थितियों ने यह सिद्ध कर दिया कि लोकतंत्र के सर्वेसर्वा वास्तव में वे ही हैं, प्रतिनिधित्व ही लोकतंत्र में अधिकार की सबसे बड़ी और शायद एकमात्र कसौटी है। इसका एक और निहितार्थ यह हुआ कि निर्वाचित सरकारों के खिलाफ किसी मुद्दे पर जन संघर्ष एक तरह से बेमतलब है, अगर उसके पीछे स्वयं निर्वाचित जनप्रतिनिधि ही न होें। इसका एक और मतलब यह हुआ कि राजनीति उतनी ही है जितनी कि राजनेताओं को समझ में आती है या फिर जितनी भर उनकी जरूरत है। लोकतांत्रिक राजनीति की वास्तविकता जोड़-तोड़, दुरभिसंधि, प्रलोभन और विभाजन ही है। राजनीतिक नैतिकता कोई चीज नहीं है, अगर है भी तो उसका मानदंड स्वयं राजनेता ही निर्धारित कर सकते हैं, जनता को इसकी जहमत उठाने की जरूरत नहीं। कुल मिला कर यही बात तय रही कि जनता एक बार निर्वाचन में भाग लेकर अपना स्वत्व अपने प्रतिनिधियों को सौंप कर बाकी चीजों से तौबा कर ले! संघीय ढांचे और आरक्षण को मुद्दा बना कर लोकपाल विधेयक की राह में रोडेÞ अटकाए गए। बनती बात को बिगाड़ने का और बेहतर जरिया क्या हो सकता है! विधेयक पेश करने वालों को भी यह बात मालूम थी, उन्होंने ऐसे प्रावधान रखे जिनका विरोध होना निश्चित था और विधेयक का विरोध करने वालों की मुराद तो यों ही पूरी हो गई। अगर वास्तव में राजनीतिक दल चाहें तो क्या देश में लोकपाल की एक प्रभावी संस्था नहीं खड़ी की जा सकती? उसकी नियुक्ति-प्रक्रिया, अधिकारों और कर्तव्यों को लेकर राजनीतिक दलों के बीच आम राय नहीं बन सकती? क्या हमारे नेता भारत के संविधान के प्रावधानों और व्यवस्थाओं से अनभिज्ञ हैं, वे नहीं जानते कि अंकुश और संतुलन की जरूरत और व्यवस्था को बनाए रखने के लिए क्या किया जाना चाहिए? या फिर यही मान लिया जाए कि उनकी नजरों में लोकपाल जैसी किसी संस्था की कोई जरूरत ही नहीं है और अगर मजबूरी है तो इसे भी राजनीतिक रूप से उपकृतों की एक संस्था बना दिया जाए। हमारे राजनीतिक दलों में नामित की यही वकत आंकी जाती है। लोकतंत्र में निर्वाचित के महत्त्व से कौन इनकार कर सकता है, लेकिन समाज की सारी व्यवस्थाएं निर्वाचितों से नहीं चल सकतीं। वह तो दुनिया भर में जजों के निर्वाचन की कोई व्यवस्था नहीं है वरना हमारे नेताओं की नजर में भारतीय लोकतंत्र में नामित कुछ भी नहीं होता, निर्वाचित ही सब कुछ होता है। जजों के निर्वाचन की व्यवस्था बनाने के बाद नौकरशाही का भी निर्वाचन कौन-सा मुश्किल काम होता। संसद में और उसके बाहर लोकपाल मुद्दे पर नामित बनाम निर्वाचित पर भी खूब बातें की गर्इं। विधेयक फाड़ने वालों का कहना है कि बहुसदस्यीय लोकपाल में निर्वाचितों की संख्या अपर्याप्त होने से आरक्षण के प्रावधान लागू नहीं किए जा सकेंगे। भारतीय राजनीति में सारा राजनीतिक विवेक आरक्षण में सिमट गया है। इस तथ्य के बावजूद कि आजादी के बाद के छह दशकों में लोकतंत्र की जडेंÞ गहरी हुई हैं, इस संदेह को प्रश्रय दिया जा रहा है कि शीर्ष संस्थाएं भी समाज के विभिन्न तबकों के प्रति समदृष्टि नहीं रख सकतीं, जातीय और धार्मिक पहचानों और भेदभाव से मुक्त नहीं हो सकतीं, इसलिए उन्हें 'प्रतिनिधित्वपूर्ण' बनाना जरूरी है। आश्चर्य है कि इस संदेह, जो कि वास्तव में एक खतरनाक विचार है, पर कोई दल या नेता आपत्ति करने की हिम्मत नहीं दिखा पाता। इससे राजनीतिक रूप से बेदखल होने का जोखिम है। यह विचार इस निष्पत्ति तक ले जाता है कि न्यायालयों में भी दलितों के मामले दलित, पिछड़ों के पिछड़े, अल्पसंख्यकों के अल्पसंख्यक जज ही निपटाएं। इसमें महिलाओं को भी जोड़ा जा सकता है। फिर दलितों में अधिक दलित, पिछड़ों में अधिक पिछड़े़, अल्पसंख्यकों में अधिक अल्पसंख्यक तक भी यह मामला जा सकता है। यह कौन-सी व्यवस्था होगी और देश और समाज को किस ओर ले जाएगी? अण्णा के अनशन में इस बार लोग नहीं आए- यह भले ही सत्ता-प्रतिष्ठान और राजनीतिक दलों के लिए संतोष, बल्कि खुशी का विषय हो, लेकिन भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता के बीच इसका बहुत निराशाजनक संदेश गया है। जनता ठगी-सी महसूस कर रही है। उसे लगता है कि यहां कुछ भी नहीं हो सकता, व्यवस्था पर भ्रष्टाचारी ही काबिज रहेंगे। यह भी तय है कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक और उफान लाने के लिए अण्णा और उनके समूह को बहुत मेहनत करनी होगी, उन्हें अपनी ओर बढ़े एक-एक हाथ की कीमत समझनी होगी। और यह बात तो उनकी समझ में आ गई होगी कि जन सैलाब रोज-रोज पैदा नहीं किए जा सकते और जनता के समर्थन की गारंटी तो कतई नहीं ली जा सकती। |
Wednesday, January 11, 2012
बड़ी संभावना पर सीमित दृष्टि
बड़ी संभावना पर सीमित दृष्टि
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