THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Wednesday, July 4, 2012

झारखंड में संथाल हूल की 157वीं वर्षगांठ मनायी गयी

http://www.janjwar.com/2011-05-27-09-06-02/important-articles/300-2012-04-23-13-06-14/2826-siddhu-kanu-santhal-hul-jharkhand-men-157-varshganth

झारखंड में संथाल हूल की 157वीं वर्षगांठ मनायी गयी



सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में चलाया गया मुक्ति आंदोलन 30 जून 1855 से सितम्बर 1856 तक अविराम गति से संथाल परगना के भगनाडीह ग्राम से बंगाल स्थित मुर्शिदाबाद के छोर तक चलता रहा. अत्याचारी जंमीदारों-महाजनों, अंग्रेज अफसरों एवं अंग्रेजों का साथ देने वाले भारतीय अफसरों, जंमीदारों, राजा एवं रानी को कुचलते हुए इन लोगों के धन सम्पदा पर कब्जा किया गया...

राजीव

चार भाईयों सिद्धू, कान्हू, चांद व भैरव ने 30 जून 1855 कोअपने देवता मरांग गुरू और देवी जोहेर एराको को अपना प्रेरणाश्रोत मानते हुए शक्तिशाली ब्रिटश साम्राज्य के विरूद्व एक सशक्त संगठित आंदोलन 'अंग्रेजों हमारी माटी छोड़ो' के नारे के साथ शरू किया था, जो भारतीय स्वतन्त्रता आंदोलन के इतिहास में संथाल हूल के नाम से जाना जाता है.

sidhu-kanhu-midnapore झारखंड में बिरसा मुंडा के जन्म से कई वर्षों पहले संथाल परगना के भगनाडीह गांव में चुनका मुर्मू के घर चार भाईयों यथा सिद्धू, कान्हू, चांद एवं भैरव व दो बहनें फूलो एवं झानो ने जन्म लिया. सिद्धू अपने चार भाईयों में सबसे बड़े थे तथा कान्हू के साथ मिलकर सन् 1853 से 1856 ई. तक संथाल हूल अर्थात संथाल विप्लव जो अंग्रेजी साम्राज्य के खिलाफ लड़ा गया, को नेतृत्व दिया.

इतिहासकारों ने संथाल विप्लव को मुक्ति आंदोलन का दर्जा दिया है. संथाल हूल या विप्लव कई अर्थों में समाजवाद के लिए पहली लड़ाई थी जिसमें न सिर्फ संथाल जनजाति के लोग अपितु समाज के हर शोषित वर्ग के लोग सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में आगे आए. इस मुक्ति आंदोलन में बच्चे, बुढ़े, मर्द, औरतें सभी ने बराबरी का हिस्सा लिया. चारों भाईयों की दो बहनें फूलो और झानो घोड़े पर बैठकर साल पत्ता लेकर गांव-गांव जाकर हूल का निमंत्रण देती थीं और मौका मिलने पर अंग्रेजा सिपाहियों को उठाकर ले आती थी और उनका कत्ल कर देती थी. आज भी इस मुक्ति आंदोलन की अमरगाथा झारखंड़ के जंगलों, पहाड़ों, कंदराओं में तथा जन-जन के ह्दय में व्याप्त है.

सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में चलाया गया यह मुक्ति आंदोलन 30 जून 1855 से सितम्बर 1856 तक अविराम गति से संथाल परगना के भगनाडीह ग्राम से बंगाल स्थित मुर्शिदाबाद के छोर तक चलता रहा जिसमें अत्याचारी जंमीदारों एवं महाजनों, अंग्रेज अफसरों एवं अंग्रेजों का साथ देने वाले भारतीय अफसरों, जंमीदारों, राजा एवं रानी को कुचलते हुए इन लोगों के धन सम्पदा पर कब्जा किया गया और सिद्धू और कान्हू सारे धन को गरीबों में बांटते गए.

भगनाडीह ग्राम में 30 जून 1855 को सिद्धू एवं कान्हू के नेतृत्व में एक आमसभा बुलाई गयी जिसमें भगनाडीह ग्राम के जंगल तराई के लोग तो शामिल हुए ही थे, दुमका, देवघर, गोड्डा, पाकुड़, जामताड़ा, महेशपूर, कहलगांव, हजारीबाग, मानभूम, वर्धमान, भगलपूर, पूर्णिया, सागरभांगा, उपर बांधा आदि के करीब दस हजार सभी समुदाय के लोगों ने भाग लिया और सभी ने एक मत से जंमीदारों, ठीकेदारों, महाजनों एवं अत्याचारी अंग्रेजों एवं भारतीय प्रशासकों के खिलाफ लड़ने तथा उनके सभी अत्याचारों से छुटकारा पाने के लिए दृढ़ संकल्प हुए तथा सर्वसम्मति से सिद्धू एवं कान्हू को अपना सर्वमान्य नेता चुना.

अपने दोनों भाईयों को सहयोग देने के लिए सिद्धू एवं कान्हू के दो अन्य भाई चांद एवं भैरव भी इस जनसंघर्"ा में कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ा एवं अपना सर्वस्व न्योछावर किया. इस आम सभा में अनुशासन और नियम तय किए गए. अलग-अलग समूहों को अलग-अलग जिम्मेवारियां सौंपी गयी. भारत में पांव जमाती अंग्रेज व्यापारियों को उखाड़ फेंकने का इस आम सभा में उपस्थित दस हजार लोगों पर उन्माद सा छा गया था. 30 जून 1855 में अंग्रेज अत्याचारियों के खिलाफ संघर्ष के जुनून का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस वर्ष खेती नहीं करने का फैसला किया गया. ऐसा फैसला लेना मामूली बात नहीं थी.

सिद्धू एवं कान्हू का यह फैसला इस मकसद से लिया गया था कि आदिवासी लोग तो कंद मूल भी खाकर रह लेगें पर अंग्रेज और उनके मातहत रहने वाले बाबू क्या खयेंगे, जब खेती होगी ही नहीं. गौरतलब है कि अनाज खाते तो सभी थे पर उपजाते सिर्फ आदिवासी थे. यद्यपि ऐसा फैसला गरीब आदिवासियों को मरने का रास्ता दिखाया था परंतु जिन्दगी के लिए लड़ने का वह उन्माद उन लोगों पर छाया था कि ये फैसला भी सर्वसम्मति से आमसभा में पारित हो गया और खेती बंद कर दी गयी.

इतिहास गवाह है कि 1767 के मार्च महीने में बढ़ती बंदूकधारी अंग्रेजी फौजियों को रोकने के लिए धलमूमगढ़ के आदिवासी लोग अपने-अपने घरों में आग लगाकर फूंक दिया और तीर धनु"ा व गौरिल्ला हमलों के बल पर सन् 1767 से सन् 1800 तक अंग्रेजों को अपने क्षेत्रों में घुसने नहीं दिया और रोके रखा. 30 जून सन् 1855 को भगनाडीह ग्राम में आहूत आमसभा में लिया गया खेती नहीं करने का निर्णय अपना घर फंूकने जैसा ही था.

अंग्रेज सरकार का कलकत्ता से संथाल परगना के लोहा पहाड़ तक रेलवे लाइन को बिछाने का फैसला सन् 1855 के संथाल विप्लव के आग में घी का काम किया. रेल लाइन को बिछाने के क्रम में संथालों के बाप-दादाओं की भूखंड़ों को बिना मुआवजा दिए दखल कर लिया गया. हजारों एकड़ उपजाउ भूमि संथालों से छीन ली गयी. रेलवे लाइनों में गरीबों को बेगार मजदूरी करवाई गयी तथा उन्हें जबरन कलकत्ता भेज दिया गया. इतिहास में टामस और हेनस नामक ठीकेदारों का जिक्र आता है जिन्होंने आदिवासी लोगों पर अमानुशिक अत्याचार किए. बच्चे, बुढ़े तथा औरतों को भी नहीं बख्शा गया. अब सहन करना मुश्किल हो गया था. समुदाय के स्वाभिमान का प्रश्न आ खड़ा हुआ था. 30 जून 1855 को सभी एकमत थे कि अब और नहीं सहेंगें और उन्होंने तय किया कि इस साल धान नहीं अत्याचारी अंग्रेजों और उनके समर्थकों के गर्दनों की फसल काटेगें.

हूल अर्थात विप्लव शुरू हुआ. संथाल परगना की धरती लाशों की ढेर से बिछ गयी, खून की नदियां बहने लगी. तोपों और बंदूक की गूंज से संथाल परगना और उसके आसपास के इलाके कांप उठे. संथाल विप्लव की भयानकता और सफलता इस बात से लगायी जा सकती है कि अंग्रेजों के करीबन दो सौ साल के शासन काल में केवल इसी आंदोलन को दबाने के लिए मार्शल ला लागू किया गया था जिसके तहत अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों एवं उनें समस्त सहयोगियों को कुचलने के लिए अमानुशिक अत्याचार किए जिसका जिक्र इतिहास के पन्नों में पूर्ण रूप से नहीं मिलता है परंतु अमानुशिक अत्याचारों की झलक संथाली परम्पराओं, गीतों, कहानियों में आज भी झारखंड राज्य में जीवित है.

संथाल विप्लव विश्व का पहला आंदोलन था जिसमें औरतों ने भी अपनी समान भागीदारी निभाई थी. 30 जून 1855 के बाद से लेकर अक्टूबर माह के अंत तक आंदोलन पूरे क्षेत्रों में फैले करीबन सभी गांवों पर आंदोलनकारियों का अधिकार हो चुका था परंतु महेशपूर के सम्मुख भिडंत में सिद्धू, कान्हू तथा भैरव घायल हो गए जिसमें सिद्धू के जख्म गंभीर थे. कान्हू और भैरव जड़ी-बूटी के पारम्परिक उपचार से ठीक होकर पुनः आंदोलन में कूद पड़े.

सिद्धू को ठीक होने में कुछ ज्यादा वक्त लगा परंतु इसी बीच एक वि'वासघाती ने अंग्रेजों को सूचना दे दिया और सिद्धू को पकड़वा दिया. यह संथाल विप्लव को पहला झटका था. दूसरा झटका जामताड़ा में लगा जब उपर बांधा के सरदार घटवाल ने धोखे से कान्हू को जनवरी सन् 1856 में अंग्रेजी सेना के हवाले कर दिया. सिद्धू को अंग्रेज पहले ही फांसी दे चुके थे. आनन-फानन में एक झूठा मुकदमा चलवाकर कान्हू को भी फांसी से लटका दिया गया. यद्यपि सिद्धू एवं कान्हू व उनके दो अन्य भाई चांद एवं भैरव इस संथाल विप्लव में 'ाहीद हुए परंतु अंग्रेज इस आंदोलन को पूर्णतः कुचल नहीं पाए. भारत का यह दूसरा महान विप्लव था. सन् 1831 ई. का कोल विप्लव भारत का प्रथम रा"द्रीय आंदोलन था तथा सन् 1857 का सैनिक विद्रोह भारत का तीसरा महान रा"द्रीय विप्लव था.

सन् 1855 ई. के संथाल विप्लव में अंतर्निहित 'ाक्ति का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अंग्रेजों ने विप्लव की 'ाक्ति कम करने के लिए बिना मांगें भारत का सबसे पहला आदिवासी नाम का प्रमंडल 'संथाल परगना' का निर्माण किया तथा संथाल परगना का'तकारी अधिनियम बनाया. इसमें कोई दो मत नहीं है कि भारत का प्रथम रा"द्रीय आंदोलन कहा जाने वाला सन् 1857 का सैनिक विद्रोह बहुत कुछ संथाल विप्लव के चरण चिन्हों पर चला और आगे इसी तरह भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की अग्नि प्रज्वलित करता रहा.

संथाल हूल की 157वां वर्षगांठ राज्य में 30 जून को बड़े जोर-शोर के साथ मनाया गया जो प्रतिवर्ष 'हूल दिवस' के रूप में मनाया जाता है. संथाल हूल का महत्व का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जर्मनी के समकालिन चिंतक व विचारक कार्ल माक्र्स ने अपनी पुस्तक 'नोटस आफ इंडियन हिस्द्री' में जून 1855 के संथाल हूल को जनक्रांति की संज्ञा दी है परंतु भारतीय इतिहासकारों ने आदिवासियों की उपेक्षा करते हुए इतिहास में इनको हाशिये में डाल दिया परिणामस्वरूप आज सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव व इनकी दो सगी बहनें फूलो एवं झानो के योगदान को इतिहास के पन्नों में नहीं पढ़ा जा सकता है.

झारखंड के बच्चों को उपरोक्त महानायकों एवं नायिकाओं के संबंध में पढ़ाया ही नहीं जाता है. हूल विप्लव आज भी प्रसांंगिक है क्योंकि जिस उद्देश्य से सिद्धू एवं कान्हू ने विप्लव की शुरूआत की थी वह आज 157 वर्षों के बाद भी झारखंड राज्य में आदिवासियों को हासिल नहीं हो पाया है. राज्य में पिछले बारह वर्षों में सिर्फ आदिवासी मुख्यमंत्री व कई मंत्री पद पर रहे परंतु आदिवासियों का शोषण निरंतर जारी है.

जल, जंगल, जमीन के अधिकार को लेकर आज भी राज्य के आदिवासी संघर्षरत है. संथाल परगना का 'तकारी व छोटानागपूर काश्तकारी अधिनियमों की धज्जियां राज्य में सरेआम उडायी जा रही है. झारखंड राज्य बनने के बाद जहां एक तरफ अबुआ दिशोम का नारा भी हाशिये में चला गया वहीं दूसरी ओर राजनीतिक व वैचारिक शुन्यता के कारण आदिवासियों पर शोषण निरंतर जारी है.

rajiv-giridihपेशे से वकील राजीव राजनीतिक विषयों पर लिखते हैं.


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