Thursday, 02 May 2013 10:53 |
विकास नारायण राय जनसत्ता 2 मई, 2013: क्या महिलाओं को अपने दैनिक जीवन में हिंसा से मुक्ति मिल सकती है? संसद, मीडिया, पुलिस, न्यायपालिका की लगातार घोर सक्रियता के बावजूद, दुर्भाग्य से, जबाव 'नहीं' में ही बनता है। 'नहीं' अकारण नहीं है। मुख्य कारण यह है कि उपर्युक्त सक्रियता महज यौनिक हिंसा रोकने पर केंद्रित रही है। लैंगिक हिंसा, जो यौनिक हिंसा की जड़ है, से सभी ने कन्नी काट रखी है। विफलता का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण है कि यौनिक हिंसा से निपटने के नाम पर उन्हीं आजमाए हुए उपायों को मजबूत किया गया है जो पहले भी अप्रभावी या अल्पप्रभावी रहे हैं। एक, यौनिक अपराधों की जमीन तैयार करने वाले लैंगिक अपराधों की प्रभावी रोकथाम पर चुप्पी रही। परिणामस्वरूप सुझाए या लागू किए गए प्रशासनिक और विधिक उपाय यौन अपराधों की रोकथाम पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ पाए हैं। दो, परिवार, समाज, मीडिया, राज्य की भूमिका, जो पुरुष की ऐंठ-भरी अभय की स्थिति और स्त्री की समर्पण भरी निरुपायता को मजबूती देती है, विमर्शों के केंद्र में नहीं लाई गई। सारी पहल दंड और जवाबदेही के दायरे में सीमित रखने से शोर तो खूब मचा, पर असल में कोई नई पहल नहीं हुई। तीन, यौन संबंधी अपराधों को आधुनिकता के मानदंडों और युवाओं के 'डेमोक्रेटिक स्पेस' के मुताबिक नए सिरे से परिभाषित करने की जरूरत काफी समय से है। फिलहाल उनकी भूलों-चूकों को अपराध के दायरे में रखा जा रहा है। लिहाजा, पुलिस और न्याय-व्यवस्था की काफी क्षमता उन यौनिक मसलों को अपराध बनाने पर खर्च हो रही है, जिनका निदान यौन-शिक्षा और काउंसलिंग के माध्यम से होना चाहिए। चार, यौन अपराधों के व्यक्ति और समाज पर पड़ने वाले असर के निदान की पहल नहीं की गई। मानो इन मामलों में पीड़ित को हर्जाना और दोषी को कारावास या फांसी के अलावा कोई और आयाम हो ही नहीं सकता। जैसे अपने नागरिकों का यौनिकता से स्वस्थ परिचय कराना राज्य की प्राथमिकता में नहीं आता। जबकि समाज का दूरगामी भला इसमें है कि गंभीर यौन अपराधों में पीड़ित पक्ष और दोषी, दोनों का, उनकी अलग-अलग जरूरत के मुताबिक मनोवैज्ञानिक पुनर्वास हो। अन्यथा पीड़ित का जीवन एक बोझ जैसा रहेगा और दोषी भी समाज के लिए खतरा बना रहेगा। पीड़ित को सदमे से पूरी तरह उबर आने तक और भावी जीवन में भी अगर आवश्यक हो तो यह सुविधा राज्य द्वारा दी जानी चाहिए। इसी तरह दोषी को जेल से रिहा करने की एक पूर्व-शर्त यह भी होनी चाहिए कि वह मनोवैज्ञानिक रूप से समाज में रहने योग्य हो गया है। पांच, महिलाओं की सुरक्षा और सुविधा के नाम पर कई सतही कदम नजर आए। महिला थाना, महिला बैंक, महिला डाकघर, महिला बस, महिला बाजार आदि। इसी संदर्भ में यौन-स्वीकृति की उम्र बढ़ा कर सारा दोष युवाओं के सिर पर डाल दिया गया, जैसे स्वस्थ यौनिकता से उनका परिचय अभिभावकों की जिम्मेदारी या राज्य की भूमिका में शामिल नहीं। यौन अपराधों के हौए से मुक्ति पाने की कुंजी है महिला सशक्तीकरण। यह उनके लैंगिक पक्ष को मजबूत करने के ठोस उपायों से ही संभव होगा। जैसे, पारिवारिक संपत्ति में हिस्सा न दिए/ लिए जाने पर वह भाग राज्य द्वारा जब्त किया जाए। जैसे, घरेलू हिंसा के आरोपियों को तब तक जेल में रखा जाए जब तक पीड़ित की भावी सुरक्षा की गारंटी न हो जाए; परिवार या कार्यस्थल पर लैंगिक भेदभाव को भी दंडनीय बनाया जाए; महिला वस्तुकरण और उन्हें मर्द-आश्रित बनाने वाली प्रथाओं/ चित्रणों पर रोक लगे। छह, नागरिकों के सामाजिक, कानूनी, जनतांत्रिक अधिकारों के साथ खड़ा रहने में प्रशासन अक्षम दिखा। याद रहे कि एक सशक्त समाज ही अपने कानूनों का सम्मान करता है। कमजोर समाज कानून लागू करने वालों के प्रति अविश्वास से भरा होगा और उनकी विधिवत आज्ञाओं का भी अनादर करेगा। न्यायालय और मीडिया इस बारे में सजग दिखे, पर राज्य की कानून-व्यवस्था की एजेंसियों विशेषकर पुलिस को अभी काफी सफर तय करना है। दरअसल 'सशक्त समाज' के मसले पर सारा तंत्र ही दिशाहीन नजर आता है। सात, एक जनतांत्रिक व्यवस्था में पुलिस की क्षमता उसके पेशेवर कार्य-कौशल से ही नहीं आंकी जा सकती। उसे नागरिक संवेदी भी होना होगा। इसके लिए पुलिसकर्मी का पेशेवर पक्ष ही नहीं, सामाजिक और व्यक्तिगत पक्ष भी मजबूत करना आवश्यक है। स्त्रियों के प्रति संवेदीकरण नजरिए से ही नहीं, समूचे जनतांत्रिक प्रशासन के संदर्भ में। सोलह दिसंबर के सामूहिक बलात्कार कांड में दिल्ली पुलिस की भूमिका की अगर विवेचना करें तो मामला दर्ज करने, अनजान दोषियों का पता लगाने, उन्हें पकड़ने, जांच पूरी करने, सबूत जुटाने और दोषियों का चालान करने में उन्होंने चुस्ती दिखाई, पर नागरिक-संवेदी दिखने में वे विफल रहे। यह एक अलग तरह के प्रशिक्षण की मांग करता है। 'संवेदी पुलिस' और 'सशक्त समाज' को उन अनिवार्य पूरकों के रूप में लिया जाना चाहिए जिनके बिना महिला-विरुद्ध हिंसा का हौआ दूर नहीं किया जा सकता। 'संवेदी पुलिस' का दो-टूक मतलब है- संविधान अनुकूलित पुलिस। 'सशक्त समाज' का मतलब है ऐसा समाज, जिसके सामाजिक, वैधानिक, जनतांत्रिक अधिकारों का सम्मान सुनिश्चित हो। स्त्री-विरोधी हिंसा से लोहा लेने में यह संवेदी पुलिस की भूमिका के अनुरूप होगा, अगर उनके कार्यक्षेत्र में 'सशक्त समाज' की कवायद भी शामिल कर दी जाए। संवेदी पुलिस और सशक्त समाज एक योजनाबद्ध पहल से ही संभव है।
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Thursday, May 2, 2013
स्त्री विरोधी हिंसा की जड़ें
स्त्री विरोधी हिंसा की जड़ें
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