THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, May 27, 2013

दीदी चाहे कुछ भी समझें, उनका करिश्मा टूटने लगा है और टूटने लगा है उनका अल्पसंख्यक वोट बैंक भी।

दीदी चाहे कुछ भी समझें, उनका करिश्मा टूटने लगा है और  टूटने लगा है उनका अल्पसंख्यक वोट बैंक भी।


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास​


बंगाल के मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अति आत्मविश्वास में किसी भी आलोचना, शिकायत की सुनवाई करने के मूड में नहीं हैं। दागी नेताओं के बचाव से सत्तादल में अंतर्कलह से भी वे बेपरवाह हैं। हावड़ा संसदीय उपचुनाव वे अपने करिश्मे से जीतने के भरोसे में हैं तो पंचायत चुनाव में उन्हें जीत का पक्का यकीन। इस अति आत्मविश्वास का मुख्य आधार अल्पसंख्यक वोट बैंक है। अल्पसंख्यक वोटबैंक  की वजह से ही संघ परिवार और भाजपा की ओर से हावड़ा में चुनाव न लड़ने से लेकर नरेंद्र मोदी की खुली तारीफ जैसी तमाम घटनाओं की वे ुपेक्षा कर रही है और आगामी संसदीय चुनावों के मद्देनजर बदलते समीकरण के मुताबिक अल्पसंख्यकों को नाराज करके वे कोई कदम उठाने को तैयार नहीं है। हावड़ा ही नहीं पूरे राज्य में संसदीय से लेकर पंचायत सीटं तक में तीस फीसद से लेकर नब्वे फीसद तक अल्पसंख्यक वोट हैं। वाममोर्चा की ओर से दीदी के संघपरिवार से बनते मधुर संबंधों को खास मुद्दा बनाया जै रहा है। हावड़ में चुनाव प्रचार के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने तो खुलकर आरोप ही लगा दिये कि दीदी का हाथ पकड़कर इस राज्य मे मोदी का प्रवेश होने जा रहा है।


दीदी इसका जोरदार खंडन करने में लगी है। लेकिन अल्पसंख्यक वोट बैंक पर दीदी के राजकाज का असर भी होने लगा है और तेजी से यह वोटबैंक टूटने लगा है। नंदीग्राम भूमि आंदोलन में दीदी के खास सलाहकार कोलकाता के नजदीक महेशतला सोलह बीघा में मोर्चा जमाकर बैठ गये हैं ओर वहां मेयरके सास श्वसुर की अगुवाई में दो हजार परिवारों की बेदखली के

खिलाफ एक और नंदीग्राम तैयार करने लगे हैं।


यह खबर दीदी को विचलित नहीं करती। लेकिन फुरफुरा साहेब के पीरजादा भी दीदी के खिलाफ बोलने लगे हैं। परिवर्तन पंथी बुद्धिजीवी तेजी से पलटने लगे हैं। शुभोप्रसन्न लाबी के वर्चस्व से कुछ बुद्धिजीवियों की खास हैसियत से बड़ी तेजी से नाराजगी फैल रही है।विवादास्पद बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन ने कहा है कि पश्चिम बंगाल के साहित्यकार और बुद्धिजीवी वर्ग के लोग अपने आप को प्रगति के साथ जोड़कर दिखाते तो है लेकिन उनकी सोच प्रगतिशील नहीं है।  


फुरफुरासाहेब के पीरजादा ने बागी पुलिस अफसर की पुस्तक मुसलिमदेर की की करनीय की तर्ज पर सीधे आरोप लगाया है कि मुस्लिम वोट बैक कब्जाने के लिए दीदी ने सिर्फ एक के बाद एक वायदे किये हैं, हकीकत की जमीन पर उन्होंने अबतक कुछ भी नहीं किया है। खासतौर पर हावड़ा और आसपास के जिलों में पीरजादा के कहे का बहुत ज्यादा असर होता है, इस एक वक्तव्य से इस संसदीय उपचुनाव में अपने भतीजे अभिषेक बंद्योपाध्याय की ताजपोशी का मामला लटक सकता है।पीरजादा ने साफ तौर पर कह दिया कि हावड़ा संसदीय उपचुनाव जीतने के लिए मुसलमानों को फुसलाने के लिए दीदी तमाम हथकंडे अपना रही हैं।


हावड़ा के बाली में मारे गये तृणमूल नेता तपन दत्त से लेकर पुलिस हिरास त में मार दिये गये एसएफआई छात्र नेता की मौतों के मामले को लेकर हावड़ा संसदीय क्षेत्र के बाली में बुद्धिजीवियों ने जुलूस निकाला , जिसकी अगुवाई की अल्पसंख्यक समुदाय में अत्यंत सम्मानित मीरातुल नाहर और मशहूर शिक्षाविद सुनंद सान्याल ने। इस मौके पर सान्याल ने कहा कि हमने ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनाकर भारी भूल की है और इसीलिए हम सड़क पर उतरकर उनके राजकाज का विरोध कर रहे हैं। अभी बहुत वक्त नहीं बीता जब कोलकाता के राजपथ पर इन्हीं बुद्धिजीवियों के जुलूस से बंगाल में परिवर्तन की लहर बनी।किसी समय पश्चिम बंगाल के लेखकों, कलाकारों में वाम मोर्चे की गहरी पकड़ हुआ करती थी।लेकिन 2007-2008 में नंदीग्राम एवं सिंगूर में भूमि अधिग्रहण विरोधी प्रदर्शन के बाद पूरा परिदृश्य बदल गया।


ऎसा लगता है, सियासत को बुद्धिजीवी नहीं, "मस्तान" चाहिए। सियासत की दुम सीधी कभी नहीं होगी, टेढ़ी की टेढ़ी ही रहेगी। जिसका ताजा उदाहरण है, पश्चिम बंगाल की सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस उर्फ टीएमसी का रंग बदलता चेहरा। दीदी चाहे कुछ भी समझें, उनका करिश्मा टूटने लगा है और  टूटने लगा है उनका अल्पसंख्यक वोट बैंक भी।


भाजपाई संबंधों को लेकर तृणमूल कांग्रेस के चुनावी समीकरण असंतुलित होते नजर आ रहे हैं और अल्पसंख्यक नेता अब दीदी के खिलाफ तेजी सेमुखर होने लगे हैंय़ गौरतलब है कि भारतीय जनता पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव से पहले अपनी पुरानी साथी ममता बनर्जी को साथ लाने के लिए अपनी कवायद में लगी है। इसके लिए भाजपा ने हावड़ा लोकसभा उपचुनाव में तृमूकां के पति नरम रुख भी दिखा दिया है। पदेश भाजपा ने हावड़ा से पत्याशी न देने की न केवल घोषणा की बल्कि उसने हावड़ा में कांगेस और माकपा को हराने की अपील तक कर दी। इस अपील के पीछे तृणमूल को राजग में वापस बुलाने का परोक्ष न्योता है। ऐसी हालत में हावड़ा लोकसभा उपचुनाव में तृमूकां की जीत तय है। हावड़ा में भाजपा द्वारा उम्मीदवार न दिए जाने को लेकर हालांकि पदेश भाजपा अध्यक्ष राहुल सिंहा ने तृमूकां के साथ भाजपा के किसी भी रिश्ते के होने से इनकार किया है लेकिन उन्होंने यह साफ नहीं किया कि हावड़ा में 50 हजार से अधिक भाजपा वोटर किसे वोट देंगे। इस सवाल का यह जबाव देकर पदेश भाजपा अध्यक्ष टाल गए कि समय आने पर बताया जाएगा।


2009 में हावड़ा संसदीय क्षेत से भाजपा को 49 हजार से अधिक मत मिले थे।जाहिर है कि चुनाव मैदान में भाजपा के न होने और कांगेस और माकपा को हराने की अपील के बाद समझा जाता है कि हावड़ा सीट पर भाजपा का वोट तृमूकां की झोली में जाना तय है।लेकिन दीदी को इसकी भारी कीमत अल्पसंख्यक वोट बैंक गवांकर अदा करनी पड़ेगी। जिसका असर हावड़ा उपचुनाव में तो होगा ही, पंचायत चुनाव भी बेअसर नहीं रहेगा। पीरजादा के बयान के जरिये खतरे की घंटी बजने लगी है।


हावड़ा लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी द्वारा पत्याशी न दिए जाने को लेकर इस बात की अटकलें लगायी जा रही हैं कि भावी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर भाजपा अपने पुराने सहयोगी तृमूकां को फिर से पाना चाहती है। हालांकि तृमूकां के साथ भाजपा संभावित दोस्ती की बात खारिज करते हुए हावड़ा में पत्याशी न दिए जाने पर राहुल सिंहा का कहना है कि कुछ माह के लिए हावड़ा से सांसद चुने जाने को लेकर भाजपा को दिलचस्पी नहीं है।लेकिन पार्टी नेतृत्व के इस कदम से हावड़ा के भाजपा समर्थक पत्याशी न देने को लेकर हताश हैं। हावड़ा के भाजपा समर्थकों का कहना है कि लोग केन्द की यूपीए-2 सरकार से नाराज हैं और 2011 के बाद हावड़ा में माकपा की रीड़ कमजोर हो गयी है। भाजपा समर्थकों के मुताबिक पिछले दो सालों में ममता बनर्जी की सरकार आम जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतरी है।


मालूम हो कि इससे पहले पांच फरवरी को पार्क स्ट्रीट में एंग्लो इंडियन महिला को इंसाफ दिलाने की मांग पर महानगर के बुद्धिजीवी सड़क पर उतरे. पेंटर समीर आइच, शिक्षाविद सुनंद सान्याल, साहित्यकार बोलन गांगुली व नक्सल आंदोलन से जुड़े रहे असीम चटर्जी समेत सैकड़ों बुद्धिजीवियों ने मेयो रोड स्थित गांधी मूर्ति के पास से एक जुलूस निकाला. गाड़ी में हुए दुष्कर्म मामले में पीड़िता को इंसाफ नहीं मिल पाया है।पार्क स्ट्रीट पहुंचने पर जुलूस को पुलिस ने रोक दिया। इसमें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रदीप भट्टाचार्य भी शामिल थे। मौके पर पेंटर समीर आइच ने कहा कि उक्त दुष्कर्म कांड मनगढ़ंत नहीं है, जैसा कि मुख्यमंत्री ने दावा किया था। यह सत्य घटना थी। दो आरोपी अब भी कानून की गिरफ्त से बाहर हैं। एक वर्ष होने के बावजूद अन्य दोषियों को पकड़ा नहीं गया है। उन्होंने आरोप लगाया कि मामले में सरकार का रुख उदासीन रहा है। इसलिए इन लोगों ने पार्क स्ट्रीट थाने जाकर मामले पर एक ज्ञापन सौंपा।


उस वक्त भी शिक्षाविद सुनंद सान्याल ने कहा कि राज्य के हालात में कोई बदलाव नहीं हुआ है।इस राजनीतिक संस्कृति का बदलाव जरूरी है। मुख्यमंत्री को खुद को बदलना होगा। पार्क स्ट्रीट में अपने जुलूस को रोके जाने पर बुद्धिजीवियों ने प्रशासन को आड़े हाथ लिया। शिक्षाविद मीरातुन नाहर ने कहा कि पार्क स्ट्रीट के ठीक पहले किड स्ट्रीट में उन्हें रोका गया। इसका कारण पुलिस ने नहीं बताया। वर्ष 2007 में भी उन लोगों को नंदीग्राम कांड के खिलाफ जुलूस निकालते वक्त यहां रोक दिया गया था।राज्य में सरकार बदली, पर प्रशासन का रवैया एक ही है।


अपनी ही पार्टी के ख़िलाफ़ खड़े तृणमूल कांग्रेस के सांसद कबीर सुमन का कहना है कि तृणमूल कांग्रेस से चुनाव जीतने भर से वे ममता बनर्जी के गुलाम नहीं हो गए हैं।उन्होंने अपनी आत्मकथा का नाम रखा है, 'निशानेर नाम तापसी मलिक' – झंडे का नाम – तापसी मलिक। तापसी मलिक सिंगूर में शहीद हुई एक बच्ची का नाम है।सिंगूर-नंदीग्राम आंदोलन को अपने गीतों के जरिये जिन्होंने जुबान दी थी!इस आत्मकथा को पढ़ते हुए हमें अनुभव होता है कि कबीर सुमन को किस प्रकार छला गया, ठगा गया। जनआंदोलन से उनकी करीबी से लाभ बटोरने के लिए उन्हें सांसद तक बना दिया गया – यादवपूर लोकसभा क्षेत्र से। फिर उनके सुझाव, उनकी बातें अनसुनी की जाने लगी। उन पर गलत लांछन लगाये जाने लगे। परिस्थिति जब ऐसी दिखने लगी, तब उनके पास क्या विकल्प बचा था, सिवाय इस आत्मकथा को लिख डालने का?


और इस आत्मकथा के माध्यम से अजीबोगरीब तथ्य उजागर भी हो रहे हैं। मसलन – रायचक में शुभाप्रसन्न के घर पर जो जलसा आयोजित किया गया था, उसमें ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिकी कान्सुलेटों के प्रतिनिधियों की उपस्थिति। राजनीतिक उथल-पुथल के उस दौर में विदेशी राष्‍ट्रों के प्रतिनिधि उस जलसे में क्या कर रहे थे। क्या संगीत से वे अचानक प्यार कर बैठे थे? या और कोई इरादा था उनका? शुभाप्रसन्न के घर पर उनकी उपस्थिति मामले को अधिक संदेहास्पद बनाती है, चूंकि शुभाप्रसन्न ममता के घनिष्ठ राजनीतिक सहयोगी हैं। वाममोर्चे के विरुद्ध जो मांसपेशियां फड़का रहे हैं, उन्हें इन सवालों का जवाब देना चाहिए।


बंगाल में बढ़ रही दुष्कर्म की घटनाओं पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की बयानबाजी की तृणमूल सांसद कबीर सुमन ने तीखी आलोचना की है। उन्होंने कहा कि आधुनिकता की वजह से दुष्कर्म की घटनाएं बढ़ी हैं, यह कहना पूरी तक अर्थहीन है। साथ ही उन्होंने राज्य की कानून व्यवस्था, पंचायत चुनाव और केंद्रीय अनुदान संबंधी विषयों पर राज्य सरकार पर नाराजगी जाहिर की। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री हर सभा में नियमानुसार केंद्र सरकार पर अपना गुस्सा निकालती रहती हैं। केंद्र सरकार द्वारा रुपए नहीं देने की बातों को उन्होंने मानने से इंकार किया है।



बंगाल में मां माटी मानुष सरकार बनने के बाद इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि बतौर जंगल महल में अमन चैन और माओवादी उपद्रव पर ​​अंकुश को रेखांकित किया जा रहा था। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी बेखटके जंगल महल आ जा रही हैं। किशनजी मारे गये। अनेक माओवादी ​​नेता या तो जेल में हैं या फिर आत्मसमर्पण कर रहे हैं। बंगाल में लालगढ़ अभियान पर रोजाना की सुर्खियां गायब हो गयी हैं। लेकिन ​​तृणूल कांग्रेस के विद्रोही सांसद ने एक टीवी चैनल में यह खुलासा करके माकपाइयों के आरोप की ही पुष्टि कर दी कि ममता बनर्जी और माओवादियों के गठजोड़ से ही बंगाल में परिवर्तन संभव हुआ। टीवी चैनल में नंदीग्राम पर उपन्यास लिखनेवाले साहित्यकार माणिक ​​मंडल ने भी नंदीग्राम, लालगढ़ और सिंगुर में माओवादियों की भूमिका के बारे में ब्यौरे दिये हैं।


सबसे गंभीर आरोप यह है कि नंदीग्राम आंदोलन की अगुवाई कर रही भूमि उच्छेद कमिटी माओवादियों ने ही बनायी। किशनजी और तेलिगु दीपक ने नंदीग्राम आंदोलन तब संगठित किया, जब उस इलाके में तृणमूल कांग्रेस का नामोनिशान नहीं था।


माणिक मंडल ने तो यहां तक कहा कि नंदीग्राम  के सोनाचूड़ा में  माओवादियों ने हथियार बनाने का कारखाना लगाया था और माकपाइयों से हथियारबंद लड़ाई के लिए उन्होंने ही आंदोलनकारियों को ट्रेनिंग दी।मंडल के मुताबिक जंगल महल में कहां तक जाना है, यह तय करने के लिए तृणमूल नेता उनसे पूछ लिया करते थे और वे माओवादी ​​नेताओं से संपर्क करके बता देते थे।

मंडल ने दावा किया कि दोनों पक्षों के बीच संपर्क सूत्र, पत्रों के आदान प्रदान का भी वे और माओवादी नेता कंचन  माध्यम बने हुए​ ​ थे। उन्होंने बताया कि जंगल महल में अपने समर्थकों को किशनजी उर्फ कोटेश्वर राव ने तृणमूल का झंडा उठाने की हिदायत दी थी और ममता दीदी को मुख्यमंत्री देखने के लिए उन्होंने हर संभव प्रयत्न किये।


​कबीर सुमन का तो यहां तक दावा है कि अगर किशनजी और माओवादियों का समर्थन न होता तो जंगल महल में दीदी के लिए एक भी सीट जीत पाना मुश्किल था।इन्ही किशनजी की रहस्यजनक परिस्थितियों में मुठभेड़ में मृत्यु के बाद दीदी ने इसे अपनी सरकार की बड़ी  उपलब्धि कहा था। इस ​​मुठभेड़ के दौरान किशनजी की सुरक्षा में लगी महिला माओवादी जख्मी होने के बावजूद सकुशल बच निकली और बाद में तृणमूल नेता का घर बसाने के बाद अचानक प्रकट होकर आत्मसमर्पण कर दिया।



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