THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, December 15, 2013

इस बेवकूफी के खिलाफ भी जंग जरूरी है

इस बेवकूफी के खिलाफ भी जंग जरूरी है


हमारे पास हनुमान कोई कम नहीं हैं, जरूरत है कि उनकी पूंछ में आग लगी दी जाये

पलाश विश्वास

दिल्ली में इन दिनों बेहद बहुत ज्यादा बेवकूफी का कहर बरप रहा है। हमारे कवि मित्र अग्रज वीरेन डंगवाल इस बेवकूफी की बेहतर व्याख्या कर सकते हैं। लेकिन कैंसर पीड़ित आलसी वीरेनदा को हम कविता के बेवकूफी से फिलहाल अब तक सक्रिय नहीं कर पाये। जगमोहन फुटेला के ब्रेन स्ट्रोक होने से तो हम खुद विकलांग हो गये हैं। फुटेला से हमारी अंतरंगता तराई की जमीन से जुड़ती है। हमारा लिखा वे तुरंत पाठकों तक पहुंचाते रहे हैं, सम्मति असहमति की परवाह किये बिना। हर आलेख पर उनका बेशकीमती नोट भी बेहिसाब मिलता रहा है। अब तो हमें उनकी खबर लेने की हिम्मत भी नहीं है। न जाने कैसे होगा मेरा दोस्त।

बाकी दोस्तों से उम्मीद कम नहीं है। "हस्तक्षेप" और "मोहल्ला लाइव" की वजह से मेरा नेट पर लेखन शुरू हुआ। अपने सहकर्मी मित्र डॉ. मांधाता सिंह द्वारा समय-समय पर कोंचे जाने और उन्हीं के उपलब्ध टूल पर जैसे-तैसे लिखी हिन्दी को अमलेन्दु और अविनाश दोनों लगाते रहे, तो मुझे हिन्दी में लिखने की हिम्मत मिली। वरना याहू ग्रूप के जमाने से लगातार मैं अंग्रेजी में लिख रहा था। भारत में न सही दुनियाभर में यहाँ तक कि पाकिस्तान, बांग्लादेश, क्यूबा, चीन और म्यांमार जैसे देशों में छप रहा था। मेरे पाठकों में अस्सी फीसद लोग यूरोप और अमेरिका के थे। अब लगातार हिन्दी में लिखने से और अंग्रेजी लेखन बेहद कम हो जाने से मेरे पाठक पहले के दस फीसद भी नहीं हैं। लेकिन तब मेरे एक फीसद पाठक भी भारतीय न थे। मुझे महीने में एक बार छपने वाले समयांतर के भरोसे ही अपनी बात कहनी होती थी। अब मैं समांतर के लिये भी लिख नहीं पाता। "तीसरी दुनिया" में मेरा योगदान शून्य है। पर हिन्दी में नियमित लिखने के काऱम अब निनानब्वे फीसद मेरे पाठक भारतीय हैं। बड़ी संख्या में असहमत और गाली गलौज करने वाले पाठक भी हमारे बड़ी संख्या में है। यह हिन्दी की उपलब्धि है। आदरणीय राम पुनियानी जी, दिवंगत असगर अली इंजीनियर और यहाँ तक कि इरफान इंजीनियर अंग्रेजी में जो भी लिखते हैं, हरदोनिया जी के अनुवाद के मार्फत भारतीय पाठक समाज तक पहुँच ही जाता है।

हमारे प्रिय मित्र विद्याभूषण रावत जी लगातार सक्रिय हैं। लेकिन अब भी वे ज्यादातर अंग्रेजी में लिखते हैं। फेसबुक पर इधर जरूर उनकी टिप्पणियाँ हिन्दी में मिल जाती हैं। उनका नायाब लेखन हिन्दी जनता तक पहुँचता ही नहीं।

सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण लेखन राष्ट्र और अर्थ व्यवस्था के बारे अरुंधति राय और आनंद तेलतुंबड़े, अनिल सद्गोपाल और गोपाल कृष्ण जी ने किया है। अनिल जी और गोपाल कृष्ण का लिखा हिन्दी में उपलब्ध है ही नहीं। गोपाल कृष्ण अकेले शख्स हैं जो असंवैधानिक आधार कारपोरेट विध्वंस का पर्दाफाश लगातार करते जा रहे हैं, लेकिन जिनका विध्वंस होने वाला है,उनतक उनकी आवाज नहीं पहुंच रही है। इधर हमने उनका ध्यान इस ओर दिलाया है और आवेदन किया है कि आधार विरोधी महायुद्ध कम से कम हिन्दी, बांग्ला, मराठी और उर्दू के साथ साथ दक्षिण भारतीय भाषाओं में भी लड़ी जानी चाहिए।

वे सहमत हैं और उन्होंने वायदा किया है कि जल्द ही वे इस दिशा में कदम उठायेंगे। राम पुनियानी जी से लम्बे अरसे से बात नहीं हुयी है लेकिन वे हम सबसे ज्यादा सक्रिय हैं।

हमरी दिक्कत है कि पंकज बिष्ट जैसे लेखक संपादक सोशल मीडिया में नहीं हैं। आनंदस्वरुप वर्मा जैसे योद्धा भी अनुपस्थित हैं। उदय प्रकाश जैसे समर्थ लेखक कवि हिन्दी में उपलब्ध हैं, वे तमाम लोग अगर जनसरोकार के मुद्दे पर सोशल मीडिया से आम लोगों को सम्बोधित करें तो हमारी मोर्चाबंदी बहुत तेज हो जायेगी।

ग्लोबीकरण ने सांस्कृतिक अवक्षय को मुख्य आधार बनाकर नरमेध अभियान के लिये यह उपभोक्ता बाजार सजाया हुआ है। इसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि स्त्री विरोधी कामेडी नाइट विद कपिल के कपिल शर्मा फोर्ब्स की लिस्ट पर सत्तानब्वेवें नम्बर पर हैं। जिस तेजी से अपने युवा तुर्क दुस्साहसी यशवंत और पराक्रमी अविनाश दास बेमतलब के कारपोरेट मुद्दे में पाठकों को उलझाने लगे हैं कि कोई शक नहीं कि इस लिस्ट में देर सवार वे लोग भी शामिल हो जायेंगे। मेरे लिये निजी तकलीफ का कारण यह है कि दोनों से हमने बहुत उम्मीदें पाल रखी थीं, जैसे अपने प्रिय भाई दिलीप मंडल से जो अब खुलकर चंद्रभान प्रसाद की भाषा में लिख बोल रहे हैं। अविनाश ने तो मोहल्ला को कामेडी नाइट विद कपिल का प्रोमो शो बना दिया है और वहाँ जनसरोकार के मुद्दे कहीं नजर नहीं आते। कभी कभार महिषासुर के दर्शन अवश्य हो जाते हैं।

साहिल बहुत सधे हुये लक्ष्य के साथ काम कर रहे हैं जो भूमिका बाकी सोशल मीडिया निभाने से चूकता है, उसे निभा रहे हैं। लेकिन उन्हें भी अपनी सीमाएं तोड़नी चाहिए।

आलोक पुतुल अक्षर पर्व के संपादक हैं। मेरी जितनी कविताएं छपी हैं, उनमें से ज्यादातर आलोक और ललित सुरजन जी के वजह से है। लेकिन रविवार को ब्रांड समारोह बनाकर वे हमारी टीम में कहीं नहीं हैं।

मीडिया दरबार के सुरेंद्र ग्रोवर जी हम सबमें सबसे समझदार और गंभीर हैं, ऐसा हमारा मानना रहा है। लेकिन वे आहिस्ते- आहिस्ते जनसरोकार के मुद्दों से कन्नी काटकर दरबार को महफिल बनाने में जुट गये हैं और वहाँ पूनम पांडेय कपड़े उतार रही हैं या तनिशा से अरमान की मांग दिखायी जा रही है। यह बहुत निराशाजनक है।

अब संसद का स्तर जारी है और तमाम सूचनाएं मस्तिष्क नियंत्रण के खेल के तहत प्रसारित प्राकाशित की जा रहीं है। तमाम फैसले उसी मुताबिक हो रहे हैं। कुल मिलाकर रोटी कपड़ा रोजगार जमीन और नागरिकता के सवालों से हटकर बहस कुल मिलाकर समलैंगिकता के अधिकार और आप की शर्तों पर केंद्रित हो गयी है।

संवाददाता बनेने के लिये बहुत ज्यादा पढ़ने लिखने की जरुरत नहीं है। सत्तर अस्सी के दशक में जो पढ़े लिखे और अंग्रेजी जानने वाले होते थे, उन्हें सीधे डेस्क पर बैठा दिया जाता था। जिन्हें पढ़ने लिखने का शउर नहीं लेकिन संप्रक साधने में उस्ताद हैं और लड़ भिड़ जाने की कुव्वत है, बवालिये ऐसे सारे लोग संवाददाता बनाये जाते थे। मैंने भी अखबारों में रिक्रूटर बतौर काम किया है। हम जानते हैं कि सिफारिशी माल कैसे रिपेर्टिंग में खपाया जाता है। इसी नाकाबिल मौकापरस्त अपढ़ लोगों की वजह से, जो न महाश्वेता को जानते हैं और न अरुंधति को, मीडिया की आज यह कूकूरदशा है। ईमानदार प्रतिबद्ध पढ़े लिखे और सक्रिय संवाददाताओं की पीढ़ी को कारपोरेट प्रबंधन ने किनारे लगा दिया है। संपादक सारे मैनेजर हो गये हैं जिनके लिये अब पढ़ना लिखना जरूरी नहीं है और संपादक बनते ही वे सबसे पहले ऐसे लोगों का पत्ता साफ करने में जुट जाते हैं।

लेकिन मीडिया के अंतरमहल में नरकयंत्रणा जिनका रोजनामचा है और जो लोग बेहद मेधा सम्पन्न हैं, पढ़े लिखे हैं वे भी नपुंसक रचनाकर्मियों और संस्कृतिकर्मियों की तरह हाथ पर हाथ धरे तूफान गुजर जाने के इंतजार में हैं। देश,समाज और परिवार को बचाना है तो सबसे पहले इन तमाम लोगों को बेवकूफी के महासंकट से दो चार हाथ करना ही होगा।

हमारा क्या। हम तो नंग हैं। हमसे क्या छीनोगे अब ज्यादा से ज्यादा जान ही लोगे, वैसे भी तो हम कफन ओढ़े बैठे हैं, कोई फर्क नहीं पड़ता, ऐसे तेवर के बिना अब कुछ नहीं होने वाला है।

राजमाता से लेकर युवराज तक, विपक्षी रथी महारथी, वामपंथी- दक्षिण पंथी रथी महारथी, विद्वतजन, एनजीओ, जनसंगठन, जनांदोलन के तमाम साथी सारे मुद्दे ताक पर रखकर देश को समलैंगिक बनाकर अश्वमेधी आयोजन में अंधे की तरह शामिल हो रहे हैं। दिल्ली से यह भेड़धँसान शुरु हुयी है तो इसके खात्मे की पहल और जनता के मुद्दों पर लौटने के साथ ही नागरिक अधिकारों के इन सवालों पर संतुलित प्रासंगिक समयानुसार विमर्श की पहल भी दिल्ली से ही होनी चाहिए।

हमारी समझ तो यह है कि तुरन्त अरुंधति, महाश्वेतादी, आनंद तेलतुंबड़े, अनिल सद्गोपाल, गोपाल कृष्ण जैसे लोगों के लिखे को हमें व्यापक पैमाने पर साझा करना चाहिए। साभार छापने में हर्ज क्या है। जो रचनाकार अब भी जनसरोकार से जुड़े हैं, रचनाकर्म के अलावा मुद्दों पर वे अपनी अपनी विधाओं की समीमाओं से बाहर निकलकर हमारी जंग में तुरंत शामिल हो, ऐसा उनसे विनम्र निवेदन है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वैकल्पिक मीडिया की टीम भी दिल्ली में ही बनी है। सारे लोग दिल्ली में आज भी बने हुये हैं। साथ बैठने का अभ्यास तो करें। समन्वय से काम तो करें। रियाजउल हक़ और अभिषेक श्रीवास्तव जैसे युवा तुर्क अपने अपने दायरे में बँधे रहेंगे तो बहुत मुश्किल हो जायेगी जनमोर्चे की गोलबंदी। मुश्किल तो यह है कि लगातार रिंग होते रहने के बावजूद ये तमाम योद्धा हम जैसे तुच्छ लोगों के कॉल को पकड़ते ही नहीं है।

इस सिलसिले में दिल्ली में सिर्फ अमलेन्दु से बात हो पायी है। बाकी महानुभव विमर्श को जारी रखकर हमारा तनिक उपकार करेंगे तो आभारी रहूँगा।

मित्रों के कामकाज पर प्रतिकूल टिप्पणियों के लिये खेद है पर बेवकूफी जारी रहे, इससे तो बेहतर है कि साफ-साफ कही जाये बात, फिर चाहे तो समझदार लोग दोस्ती तोड़ दें। जैसे बहुजनों का दस्तूर है कि असहमति होते न होते गालियों की बौछार।

इस विमर्श को आगे बढ़ाने के लिये आज जनसत्ता के रविवारीय में छपे प्रभू जोशी का आलेख साभार नत्थी है। प्रभु जोशी समर्थ रचनाकार हैं, चित्रकार भी। अगर वे खुलकर बात रख सकते हैं तो मंगलेश डबराल, उदय प्रकाश, मदन कश्यप, उर्मिलेश, वीरेंद्र यादव, मोहन क्षोत्रिय, आनंद प्रधान, सुभाष गाताडे, गौतम नवलखा, वीर भारत तलवार, बोधिसत्व, ज्ञानेंद्रपति, पंकज बिष्ट, आनंद स्वरुप वर्मा, संजीव जैसे लोग क्यों नहीं तलवार चलाने को तैयार हैं। हमारे पास हनुमान कोई कम नहीं हैं। जरूरत है कि उनकी पूंछ में आग लगी दी जाये।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना ।


  • इस बेवकूफी के खिलाफ भी जंग जरूरी है

    Posted:Sun, 15 Dec 2013 15:23:10 +0000
    हमारे पास हनुमान कोई कम नहीं हैं, जरूरत है कि उनकी पूंछ में आग लगी दी जाये पलाश विश्वास दिल्ली में इन दिनों बेहद बहुत ज्यादा बेवकूफी का कहर बरप रहा है। हमारे कवि मित्र अग्रज वीरेन डंगवाल इस बेवकूफी...

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  • नजीब जंग के पास जाओ और अजीब जंग जीत लो

    Posted:Sun, 15 Dec 2013 14:45:14 +0000
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    Posted:Thu, 12 Dec 2013 17:48:32 +0000
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