THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, December 8, 2013

खंडित जनादेश से ही आगे का रास्ता खुलेगा दोस्तों,पहले देश की युवाशक्ति को सलाम तो कीजिये!

खंडित जनादेश से ही आगे का रास्ता खुलेगा दोस्तों,पहले देश की युवाशक्ति को सलाम तो कीजिये!

पलाश विश्वास

खंडित जनादेश से ही आगे का रास्ता खुलेगा दोस्तों,पहले देश की युवाशक्ति को सलाम तो कीजिये!


याद कीजिये सत्तर का दशक।


गुजरात और बिहार से देश भर में छात्र युवा आंदोलन का वह महा तूफान।


या फिर नक्सबाडी़ किसान विद्रोह के समर्थन में अपना कैरियर न्यौच्छावर करने वाले व्यवस्था से टकरा कर मर खप जाने वाली सत्तर दशक की सबसे मेधा संपन्न छात्रयुवा पीढ़ी को।


आपात कल के खिलाफ महासंग्राम में राजनीतिक नेतृत्व तो जेल में बंद था।


गांवों,मोहल्लों,गलियों और सड़कों पर तानाशाही के खिलाफ मोर्चाबंद थे छात्र और युवा लोग ही।


1977 के वक्त मैं डीएसबी में बीए फाइनल का छात्र था। राजा बहुगुणा शायद एमए फाइनल में पढ़ रहे थे। शोध छात्र थे महेंद्र सिंह पाल। धीरेद्र अस्थाना देहरादून में छात्र था। पीसी तिवारी अल्मोड़ा कालेज में थे।


हम लोग कालेजों विश्वविद्यालयों से निकलकर गांव गांव शहर शहर जिलों में मोर्चा संभाले हुए थे।


1977 में जब मध्यावधि चुनाव हुए तब हममें से ज्यादातर को मताधिकार तक न था।


फिरभी तब छात्र युवाओं ने इंदिरा गांधी का तख्ता पलट दिया। उसआंदोलन से ही निकले शरद यादव,लालू यादव, राम विलास पासवान, नीतीश कुमार जैसे नेता,तमाम विवादों के बावजूद जिन्होंने बाद के बरसों में सामाजिक बदलाव का मौजूदा माहौल बनाया। नरेंद्र मोदी भी तब छात्र नेता ही थे, जो अब प्रधानमंत्रित्व के सबसे बड़े दावेदार हैं।


याद करें कि आपातकाल से पहले इस देश में पर्यावरण आंदोलन की क्या दशा और दिशा थी। गौरा पंत चिपको माता ने पहले ही चमोली में चिपको आंदोलन शुरु कर दिया था। आदरणीय सुंदरलाल बहुगुणा जी अपने पूरे सर्वोदयी ब्रिगेड के साथ न जाने कब से सक्रिय थे।



सक्रिय थे चंडी प्रसाद भट्ट से लेकर अपने डीएसबी के ही अध्यापक फ्रेडरिक स्मेटचेक जैसे लोग खूब सक्रिय थे। लेकिन उस आंदोलन की गूंज देश दुनिया में कितनी थी,उस पर गौर करें।


त्रेपण सिंह नेगी उत्तराखंड आंदोलन बहुत पहले शुरु कर चुके थे और जयपाल सिंह मुंडा झारखंड आंदोलन का आगाज आजादी के तुरंत बाद कर चुके थे। गोंडवाना में छत्तीसगढ़ आंदोलन भी पुराना है।


नैनीताल क्लब अग्निकांड में छात्र युवा आंदोलन के साथी उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी के मार्फत जो एक जुट हुए और सड़कों पर उतर गये तो कहीं जाकर गौरा देवी और सुंदरलाल जी के आंदोलन को व्यापक जन समर्थन मिला।


उसी आंदोलन के मध्य पहले नैनीताल समाचार और फिर पहाड़ का प्रकाशन शुरु हुआ और फिर महिलाओं की पत्रिका उत्तरा का। राजीव लोचन साह डीएसबी के पूर्व छात्र थे। शेखर पाठक, दिवंगत चंद्रेश शास्त्री और उमाभट्ट डीएसबी के अध्यापक। अल्मोड़ा में शमशेर सिंह बिष्ट भी तब शोध छात्र थे। दिवंगत विपिन त्रिपाठी आपातकाल में जेल में थे और जेल से निकलते ही समाचाऱ और वाहिनी से जुड़ गये। मैं,दिवंगत निर्मल जोशी,जहूर आलम और प्रदीप टमटा,मौजूदा कांग्रेसी सांसद डीएसबी में थे।कमल  जोशी डीएस बी में ही शोध छात्र थे। पीसीतिवारी,जगत सिंह रौतेला,दिवंगत बालम सिंह जनौटी और कपिलेश भोज तब अल्मोड़ा कालेज में थे। फिर वीरेन डंगवाल,पंकज बिष्ट,राम चंद्र गुहा,ज्ञानरंजन जी जैसे लोग बी इसटीम के हिस्सा बन गये। शंकर गुहा नियोगी भी।


मैं अंग्रेजी साहित्य से एमए कर रहा था और कालेज में मेरा माध्यम भी अंग्रेजी ही था। हमने चिपको आंदलन की खबरों से पवन राकेश, हरीश पंत,दिवंगत भगत दाज्यु, सखा दाज्यु, गिरदा और शेखर पाठक के साथ हिदी पत्रकारिता में जुट गया। पूरी टी मुख्यतः छात्रों, युवाओं और शिक्षकों की थी। फिर महिलाओं ने आकर मोर्चा संभाला।


यह एक उदाहरण है सामाजिक गोलबंदी का जो सत्तर दशक के छात्र य़ुवा आंदोलन की वजह से ही संभव हुआ।


यही नहीं, याद करें अस्सी के दशक में असम में हुए छात्र आंदोलन को भी और छात्र नेता प्रफुल्ल मंहत भृगु फूकन के नेतृत्व बनी सरकार को भी।उस सत्तर के दशक के बाद भारत की राडजनीति ठीक वैसी नहीं रही, जैसे पहले थी।


इतिहास की पुनरावृत्ति होती है। अगर सत्तर दशक के आंदोलन के बाद भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय, समता और बदलाव के स्वर मुखर होना सत्य है तो समझ लीजिये कि छात्रों युवाओं के जागरण का यह सिलसिला थमेगा नहीं। उनके पास मताधिकार है,आनलाइन कनेक्टीविटी है रात दिनचौबीस घंटे।जनादेश निर्माण के लिए मताधिकार है।ग्लोबीकरण और वैश्विक व्यवस्था से टकरानेकी तकनीक,दक्षता ौर विशेषज्ञता है।वे कारपोरेट मीडिया के मोहताज है ही नहीं। हम लोग तो लघु पत्रिकाओं और बुलेटिनों के भरोसे थे।


सोशल मीडिया क्या गजब ढा सकता है,पड़ोसी बांग्लादेश के सहबाग आंदोलन ने साबित कर दिया। वहां छात्र युवा पीढ़ी सोशल मीडिया बजरिये देशभर में न सिर्फ गोलबंद है,बल्कि पूरे देश को उसकी तमाम सामाजिक शक्तियों के साथ मोर्चाबंद कर दिया धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद और वैश्विक जायनवादी तंत्र के खिलाफ। लोकतंत्र की यह लड़ीई अब भारत में संक्रमित हुई है। देश में अब नौ करोड़ लोग फेसबुक पर हैं। पंद्रह करोड़ से ज्यादा लोग आनलाइन है।अगले पांच साल में तीस करोड़ लोग आनलाइनहोंगे।तो अगले दस साल में कम से कम पचास करोड़ लोग एक दूसरे सेकनेक्टेड होंगेऔर इनमें बहुसंख्य लोग सत्ता वर्ग से बाहर आम लोग है।यह एक महाशक्ति है,जिसकी ताकत का हम अभी अंदाजा बी नहीं लगा सकते। अभी अभी तो भारतीयभाषाओं में संवाद का टुल और ऐप्स लोगों को मोबाइल पर मिलने लगा है। दो चार साल बीतने दीजिये और एक बार संवाद का सिलसिला शुरु अगर हो गया तो यह खंडित महादेश इतिहास बदलकर रहेगा।


मित्रों,आप की राजनीति से मैं कतईहमत नहीं हूं। न मैं भविष्य में उनके साथ खड़ा होने जा रहा हूं। लेकिन अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को धन्यवाद कि उन्होंने छात्रयुवाशक्ति और सोशल मीडिया की बढ़ती ताकत के विकल्प को देश के सामने प्रस्तुत कर दिया है।


जाहिर है कि अब सिर्फ दो विकल्प मैदान में नहीं हैं। नरेंद्र मोदी और राहुल गांदी के अलावा दूसरे विकल्प भी हो सकते हैं। तीसरा चौथा जो भी विकल्प सामने आये या पिर वह पहला विकल्प या दूसरा विकल्प,अगर सामाजिक ताकतों की गोलबंदी की अनिवार्य पहल हो गयी तो वर्ण वर्चस्वी कारपोरेट धर्मांध यह जनहत्यारा तिलिस्म भी टूटेगा यकीनन। यह चुनौती आप के लिए नहीं,हम सबके लिए पूरे देश के लिए हौ कि इस गोलबंदी की मजिल को कैसे हासिल करें और बुनियादी बदलाव को अंजाम देने के लिएात्र युवाओं को इच्छित दिशा क्या दें।




कल रात संजोग से संस्करण जल्दी छूट गया तो हमने टीवी खोला और कामेडी नाइट विद कपिल से जा टकराये। रिपीट टेलीकास्ट था। करीना कपूर और इमरान कपिल के साथ मस्ती कर रहे थे। करीना सविता को बहुत प्रिय है। वैसे वह इन दिनों कोई सीरियल या रियेलिटी शो नहीं देखती। एनिमल प्लानेट, टीएलसी, हिस्ट्री, डिस्कवरी और नेशनल जियोग्राफी में घूमती रहती है।मुझे लगा कि उन्हें फोन करके बता दूं कि कपिल के कामेडी शो में करीना है। कर दिया फोन। फिर मैं अपने काम में लग गया।


देर रात घर पहुंचा तो सविता सो गयी थी। लेकिन सुबह होते ही उसकी गोलाबारी शुरु हो गयी। बोली,शर्म नहीं आती। ऐसे स्त्री विरोधी कार्यक्रम देखते हो जहां शुरु से आखिर तक स्त्री विरोधी मंतव्य होते रहते हैं और बड़ी बड़ी बातें सामाजिक न्याय और समता की करते हो। फिर वे स्त्री विमर्श वालों की खबर भी लेने लग गयी कि टीवी पर जो होता रहता है,उससे यौन उत्पीड़न का माहौल ही बनता है। लेकिन इसके खिलाफ कोई बोलता नही है।


मैं चुप रह गया।


अखबार पढ़ते हुए टीवी खोलकर समाचार देखने लगा तो चुनाव नतीजे सामने आ गये। इससे निबटकर पीसी आन करके फेसबुक खोला तो पहली टिप्पणी अपने डायवर्सिटी वाले एच एल दुसाध जी की देखने को मिली। जैसा टीवी पर तमाम विश्लेषक हैरत जता रहे थे दिल्ली में आप के करिश्मे पर,उसी अंदाज में हमेशा गंभीर विमर्श में व्यस्त दुसाध जी ने टिप्पणी कर दी कि बदमाश पार्टी की जीत से देश और समस्याग्रस्त हो जाती। अंतिम टिप्पणी भी जनादेश पर निराशा जताते हुए टीवी बंद करने की घोषणा से संबंधित है।


इसीतरह अपने अत्यंत आदरणीय मोहन क्षत्रिय जी ने टिप्पणी कर दी कि कैसे अनेपक्षित घट गया। इसपर लिखा मेरा जवाब लोगों ने अबतक पढ़ लिया। दुसाध जी को मैंने लिखा था कि बदमाश पार्टियां तो तमाम हैं। जनता देश में जारी आर्थिक अश्वमेध के खिलाफ कांग्रेस को खारिज कर रही है और उसका विकल्प  भाजपा भी नहीं है।


दरअसल सामाजिक शक्तियों की ताकत हम अमेरिका में बाराक ओबामा की ऐतिहासिक जीत में तो नोट कर लेते हैं और उसपरलंबी चौड़ी व्याख्यान दे देते हैं,लेकिन वहीं ताकत जब अपने यहां अभिव्यक्त होती है,उसे सिरे से नजरअंदाज कर जाते हैं।जागरुक लोग जो स्त्री मुकति की बात करते हैं वे भी अंततः सीरियल,कामेडी शो,विज्ञापनों और फिल्मों में स्त्री आखेट का मजा लेते हैं।


क्षोत्रिय जी को लिखे फौरी जवाब तो मैंने अपने ब्लागों में तुरंत डाल ही दिया,लेकिन दूसरे साथियों,विद्वतजनों और टीवी विशेषज्ञों से निवेदन है कि सबसे पहले देश की युवाशक्ति को सलाम तो कीजिये।दो दलीय राजनीतिक व्यवस्था में कारपोरेट नीति निर्माण और कारपोरेट राज की साझेदारी को तोड़ने के लिए जनता को अपना अपना विकल्प चुनने का हक है। वह विकल्प कम से कम कांग्रेस और भाजपा से बुरी हरगिज नहीं होगी,यकीन मानिये।


बल्कि चार राज्यों के विधानसभा परिणाम भाजपा के पक्ष में चार के मुकाबले शून्य होने के बावजूद मुझे दिशायें खुलती नजर आ रही है।


भूमंडलीकरण,उदारीकरण और निजीकरण के बावजूद जेनरेशन एक्स की टैब पीढ़ी में नये विकल्प की खोज का जो माद्दा साबित हुआ है,वह बेहद सकारात्मक है।


गौर करें कि हम लोग उन्हें कोई विकल्प दे नहीं पाये।कोई दिशा बता नहीं पाये।अमावस्या परिवेश में उन्होंने रोशनी की तलाश की कोशिश में आप को चुना है।


भाजपा को अगर कहीं भारी बहुमत मिला है तो राजस्थन में जहां विश्वविद्यालय कैंपसों की धूल फांकने में वसुंधरा राजे ने कोई कसर नहीं छोड़ी।


राजस्थान में केशरिया लहर का श्रेय नरंद्र मोदी की बजाय वसुंधरा को ज्यादा है।


अगर सचमुच देश में केशरिया हिंदुत्व लहर होती तो छत्तीसगढ़ और राजधानी जैसे मजबूत गढ़ों में संघ परिवार को लोहे केचने चबाने नहीं पड़ते।


दुसाध जी को जो मैंने लिखा, वह ब्लाग पर पोस्ट नहीं किया।लेकिन वह जवाब और दूसरे तमाम मित्रों अमित्रों के लिये मेरा दिया जाने वाला जवाब वही है जो मैंने क्षोत्रिय जी को दिया। मुंबई और राजस्थान, बंगाल और दूसरे इलाकों के मित्रों के फोन पर भी मैंने  यही कहा।


मालूम हो कि चार विधानसभा चुनावों से पहले सोशल मीडिया की बदौलत देश भर में तमाम समविचारी लोगों से लगातार मेरी बात हो रही है,जिनमें जनांदोलनों के साथी, बुद्धिजीवी,पेशेवर लोग, बामसेफ और बहुजन समाज पार्टी के साथ साथ वामपंथी कार्यकर्ता भी है।


ऐसा कहना शायद गलत होगा कि देश में कहीं जनांदोलन है ही नहीं। देश के हर हिस्से में जनआंदोलन चल रहे हैं। लेकिन उन्हें एक सूत्र में पिरोकर वृहत्तर जनांदोलन के कार्यभार को हमी लोग लगातार टाल रहे हैं और राष्ट्रव्यापी कोई जनांदोलन बदलाव के लिए हो नहीं रहा है। ऐसा क्षेत्रीय अस्मिताओं और जाति अस्मिताओं में हमारी उम्र कैद की वजह से हो रहा है ।


अब जबकि देश की युवाशक्ति को अपनी ताकत का अहसास करा दिया है दिल्ली ने, तो यही वह वक्त है कि हम अपने इन तमाम कैदगाहों को ढहा दें और भारत लोक गणराज्य की प्रणप्रतिष्टा करें नये सिरे से।


मैंने क्षोत्रिय जी को संबोधित करके लिखाः


Sunday, December 8, 2013

मौकापरस्त कैरियरिस्ट कारपोरेट मैनेजर शुतुरमुर्ग पीढ़ियों ने ही युवा वर्ग और छात्रों को दिग्भ्रमित किया हुआ है और फिरभी वे अंधेरे में रोशनी पैदा करने की कोशिश में लगे हैं हमेशा की तरह।स‌बक लेकर हम कोई पहल करें तो बात बने वरना मजे लेने के लिए यह मुक्त  बाजार का कालाधन प्रवाह और निरंकुश कारपोरेट राज तो है ही।

मोहन क्षोत्रिय जी स‌े स‌हमत हूं कि कल्पनातीत ! यह तो ‪#‎चौंकाने‬ से भी बड़ा और भारी है ! ‪#‎चौंकाना‬ छोटा लगने लगा है !


मनमोहन-राहुल गांधी को पूरी तरह खारिज कर दिया, जनता ने त्रस्त होकर. महंगाई-भ्रष्टाचार, और घपलों-घोटालों का भरपूर बदला !


मोहन क्षोत्रिय जी स‌े स‌हमत हूं कि दिल्ली में विकल्प दिखा दोनों पार्टियों का, तो जनता ने उसका साथ देने का मन दिखाया, पर त्रिकोणीय संघर्षों की अपनी व्यथा होती है.


इन चुनाव परिणामों का इसके अलावा क्या संदेश हो सकता है?


मेरे हिसाब स‌े भारतीय जनता का आर्थिक स‌ुधार नरसंहार अभियान के खिलाफ तीव्र रोष तो है,लेकिन उस रोष को परिवर्तन का हथियार बनाने में हमारी ओर स‌े कोई पहल ही नहीं हुई है।


इस खारिज स‌े और आगे ना वोटों की गिनती स‌े स‌ोशल मीडिया की भूमिका रेखांकितकी जा स‌केगी।

आपके हाथों में स‌त्ता वर्ग को शिकस्त देने के लिए परमाणु बम है,आपको अहसास नहीं है।


इस चुनाव परिमामों स‌े स‌ाफ स‌ाबित हुआ कि देश के छात्र युवा वर्ग देश के भविष्य को बदलने के लिए कहीं ज्यादा स‌क्रिय हैं। हमने ही विश्वविद्यालय परिसरों को स‌ंबोधित करना छोड़ दिया है।


मौकापरस्त कैरियरिस्ट कारपोरेट मैनेजर शुतुरमुर्ग पीढ़ियों ने ही युवा वर्ग और छात्रों को दिग्भ्रमित किया हुआ है और फिरभी वे अंधेरे में रोशनी पैदा करने की कोशिश में लगे हैं हमेशा की तरह।स‌बक लेकर हम कोई पहल करें तो बात बने वरना मजे लेने के लिए यह मुक्त बाजर का कालाधन प्रवाह और निरंकुश कारपोरेट राज तो है ही।

Posted by Palash Biswas at 4:56 AM

गौर करें कि अंबेडकरी आंदोलन और बामसेफ के बारे में इनचुनाव नतीजों से पहले ही हमने क्या लिखा था। हमने बामसेफ से अलगाव की बात की है क्योंकि मौजूदा परिप्रेक्ष्य में जाति उन्मूलन हमारे एजंडे में सर्वोच्च प्राथमिकता है।


हमने बामसेफ की प्रासंगिकता को सिरे से खारिज कर दिया है और हमें बामसेफ से निकलने के बाद यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि अंबेडकरी आंदोलन का भटकाव का प्रस्थानबिंदू ही जाति अस्मिता का बामसेफ आंदोलन है।


हम अंबेडकरी आंदोलन को बदले हुए राष्ट्र ,समय,समाज और अर्थव्यवस्था के मुताबिक प्रासगिक बनाने की बात कर रहे थे।इसमें प्रमुख मुद्दा सामाजिक शक्तियों के एकीकरण की है जो बामसेफ से अलगाव के बिना असंभव है।


खासबात यह है कि अब तक बामसेफ एकीकरण के लिए देशभर के जो समविचारी संगठन और कार्यकर्ता हमारे साथ थे,उनकी एकता कायम हैं। असहमत दो चार लोगों से हम खुली बात करने वाले हैं।


मैंने जो लिखा था,कृपया उसे फिर पढ़े और चार विधानसभा चुनाव नतीजों के संदर्भ में  हमारे तर्कों पर तनिक विचार करें।इससे पहले कल ही लिखी मेरी यह कविता भी दुबारा पढ़ लें।


अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत

महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून


पलाश विश्वास

http://antahasthal.blogspot.in/

अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध अनंत

महासंग्राम,जिसमें जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून


मेरी दादी शांति देवी थीं बहती हुई मधुमती अबाध जो बहती रही अबाध जैशोर के कुमोर डांगा में छोड़े हुए गांव और खेतों से लेकर  नैनीताल की तराई में बसे शरणार्थी गांव में,तब तक जबतक वे जीती रहीं सन सत्तर तक।जबकि तेभागा की लड़ाई आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलनों के जनज्वारों के मार्फत अपनी निरंतरता में कहलाने लगा नक्सलबाड़ी आंदोलन।भूमि युद्ध लेकिन खत्म है दोस्त।


दादी की झोली में अनंत किस्से थे,जिसमें से लहकती थीं,बहकती थीं मधुमती के दियारे में उपजी खून सिंची फसलें तमाम। हमारे दादा लोग चार थे भाई और वे थे भूमियुद्ध के अपूर्व योद्धा। जमींदारों और पुलिस के मुकाबले,बंदूक से दागी गयी गोलियों के मुकाबले लड़े गये हर युद्ध का ब्यौरा बताती थीं वे सिलसिलेवार।यहां तक कि कैसे वे घर की दूसरी औरतों के साथ वर्गशत्रुओं के विरुद्ध करती थी किलेबंदी मर्दों की गैरहाजिरी में। चारों भाइयों की मंत्रसिद्ध लाठियां जब तब निकल पड़ती थीं उनकी झोली से।

उन लाठियों की सोहबत में जी रहा हूं आज भी।

लालकिताब से ज्यादा ताकतवर हैं वे लाठियां हमारे लिए,जिनमें बसी हैं हजारों साल से जारी जल जमीन जंगल की लड़ाई में लड़ते मरते खपते अश्वेत हमारे पुरखों के खून की सोंधी महक विशुद्ध काली माटी से सराबोर,जो मृत पीढ़ियों के लिए जाहिर है कि है संजीवनी।

उन्हीं रक्तनदियों से घिरा है सारा अस्पृश्य भूगोल युद्धबंदी।


यकीनन हमारे सारे लोग,सारे योद्धा,अश्वेत रक्तबीज की संतानें तमाम

नहीं होंगे दूसरा कोई नेल्सन मंडेला या डा.भीम राव अंबेडकर या मार्टिन लूथर किंग या बीरसा मुंडा या सिधू कान्हो या टांट्या भील या रानी दुर्गावती या हरिचांद ठाकुर या महात्मा ज्योतिबा फूले या  माता सावित्री बाई फूले।मृत लोग लौटकर नहीं आते।न उनकी आत्माएं बोधिसत्व या ईश्वरत्व में समाहित कोई मदद करेंगी हमारी इस निरंकुश युद्ध समय में जब इंच इंच जमीन के लिए हर हाल में अनिवार्य है युद्ध।अपरिहार्य है युद्ध।इस कुरुक्षेत्र से भागने के के तमाम रास्ते अब बंद हैं।इस वध स्थल में मारे जाने के लिए ही यह युद्ध।

क्योंकि प्रतिरोध के मोर्चे पर मोमबत्ती जुलूस किलेबंद हैं।


हम ढिमरी ब्लाक की लड़ाई के गवाह नहीं हैं।लेकिन ढिमरी ब्लाक किसान विद्रोह से जुड़े हर चेहरे से चस्पां है हमारा चेहरा।जिस आग में फूंक दिये गये किसानों के सैंतालीस गांव,वह आग हमने देखी नहीं लेकिन वह आग हमारे सीने में कैद है और मुक्ति के लिए कसमसा रही है तबसे जबसे हमने होश संभाला है।जबसे हमने गिरफ्तारियं का सिलसिला देखा है।हमने मणिपुर में सैन्य कार्रवाइयां देखी हैं तो हमने तराई के रायसिख परिवारों के यहां निरंकुश दबिश देखी है। देखा है हमने स्कूली साथियों को मुठभेड़ में मारे जाते हुए।या गायब हो गये जो चेहरे अचानक,वे चेहरे मेरे चेहरे पर काबिज हैं।साठ के दशक में


तराई में भूमि संघर्ष हजारों बेदखल किसानों की गिरफ्तारियां देखी हैं।देखा हैं ढिमरी ब्लाक के महाविद्रोही बाबा गणेशा सिंह को जेल में सड़ सड़ कर मरने के बाद बसंतीपुर की बेनाम नदी के पार अर्जुनपुर में उनके खेत में चिता पर जलते हुए।विचारधारा तब खामोश।पार्टीबद्ध

कारपोरेट राजनीति में गांव देहात जनपद की आवाजें लापता।


बदलाव के सपनों की मौत थी नहीं वह यकीनन।क्योंकि जागते सोते हर वक्त हम बसंतीपुर के उन बुजुर्गों को देखते रहे गांव छोड़ने से पहले तक,जो आजीवन बने रहे भूमि योद्धा और जो एक साथ शाश्वत विश्राम में हैं।चूंकि वे लोग अब नहीं है, इसीलिए बसंतीपुर में अब मेरे लिए कुछ भी नहीं है वीरानगी के सिवाय।सोते जागते अब भी ख्वाबों में है वही बसंतीपुर,जहां हर शख्स के हाथों में जलती हुई मशाल हुआ करती थीं कभी।घनघोर अंधेरे में वे मशालें अब भी रोशन करतीं दुनिया।


हमने अड़तालीस घंटे से लेकर हफ्तों तक चलने वाला ग्रामीण विमर्श देखा है। लंबी बहस के मार्फत बिना थाना पुलिस बिना अदालत कचहरी दूर दराज के गांवो के आपसी विवादों को निपटाते देखा है पिता को जब मैं उनके साथ हुआ करता था ऐसी तमाम मैराथन बैठकों में। आज भी बसंतीपुर में बिना इजाजत पुलिस प्रवेश निषिद्ध।


वे आवाजें,वे बहसें,भाई चारे की वह जज्बात हर वक्त चुनौती देती रहतीं मुझे कि क्यों देहात को एक सूत्र में पिरोने के लिए कोई पहल नहीं कर पाये हम। हमारे पढ़े लिखे होने को धिक्कार कि अपने लोगों की लड़ाई जारी रखने के लिए पूरे परिवार का पेट काटकर,खेत गिरवी पर रखकर पिता ने जो सपना रचा था,उन सपनों के कत्लेआम के दोषी हमीं तो।



हमारे पुरखों,महापुरुषों की अनंत भूमि युद्ध की विरासत को वर्ण वर्चस्वी नस्ल भेदी कारपोरेट साम्राज्यवाद के अमेरिकी उपनिवेश में विदेशी पूंजी और कालाधन के हवाले करने वाले भी हमीं तो। बाबासाहेब का नाम भुना अकूत संपत्ति बेहिसाब काली कमाई  से मुटियाये कामयाब नव ब्राह्मणों के गुलाम भी तो हमीं तो।

सारा बहुजन आंदोलन बहुजनों के नये वर्ग को समर्पित

और बाकी बहुसंख्य जनगण मारे जाने को नियतिबद्ध।

बाबासाहेब की लड़ाई सीढ़ी बन गयी चुनिंदा लोगों के लिए।


हमारी ताई हरिचांद गुरुचांद वंशज की कन्या और वे ही दरअसल मेरे बचपन में सर्वव्यापी। मां के आंचल से बड़ा था उनका आंचल।मां गांव चोड़कर गयी नहीं कहीं बसंतीपुर उन्हीं के नाम बसाने के बाद। बसंतीपुर के बाकी लोगों में हम बच्चे भी शामिल थे उनके लिए,इसके अलावा कोई सोच अपने लिए नहीं थी उनकी।बसंतीपुर के पार कोई दुनिया बसती है,ऐसा उन्हें देखकर लगता ही न था। उसी गांव में दम तोड़ा मां ने जब,उसके बाद उस गांव में दुबारा जाने की हिम्मत नहीं,

जैसे डीएसबी अग्निकांड के बाद बरसों बरसों न जा सका डीएसबी।


पूरे परिवार की अभिभावक थीं ताई हमारी।दादी जी की जीवितदशा में भी। पिता , ताउजी और चाचाजी हम सब उन्हीं के मार्फत क्योंकि ठाकुर बाड़ी का खून था उनकी रगों में।वही खून अब भी हमारे रगों में जिंदा है बेचैन।वे हरिचांद गुरुचांद की विरासत की वारिशान में

शामिल थीं और हमें मतुआ आंदोलन में शरीक कर गयीं।


ओड़ाकांदी से सन 1964 को उनकी मां प्रभादेवी चली आयी बसंतीपुर और साथ लायी भूमि संघर्षों की अलग कहानियों की पोटली संभाले।ओड़ाकांदी फरीदपुर की उस नानी ने हमें सीधे बिठा

दिया टाइम मशीन पर और यकीन मानिये कि साठ सत्तर दशक के शैशव कैशोर्य में हम जब अंबेडकर अनुयायी पिता से सुनते थे अंबेडकर और जोगेंद्रनाथ मंडल की कहानियां और पढ़ते थे लाल किताब,जिसे पढ़ने की आजादी दे दी थी किसान अपढ़ पिता ने,ढिमरी ब्लाक के किसान विद्रोह के नेता ने तभी अपने बेटे पर अघोषित निषेधाज्ञा लागू कर दी थी कैरियरिस्ट ख्वाबों पर अलिखित।



जो महात्वांकाक्षाएं बाकी बची थीं, नैनीताल डीएसबी परिसर से गिरदा के डेरे पर,फिर गिरदा के डेरे से नैनीताल समाचार के दफ्तर तक,जिंदा दफन हो गयीं जाने अनजाने। नैनीताल क्लब जब जल रहा था वनों की नीलामी में, उस वक्त मेरी आंखों में तिर गये जलते हुए ढिमरी ब्लाक के पूरे के पूरे सैंतालीस गांव।किसानों के ख्वाब।

वह दावानल अब भी सुलग रहा है पूरे हिमालय में और

तमाम ग्लेशियर रचने लगे जल प्रलय विकास विरुद्धे।


हम कैसे कामयाब कारपोरेट मैनेजरों की जमात में शामिल होकर कह सकते हैं कि जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से बेदखली का यह वध

महूर्तों का कालखंड

भूमंडलीकरण यानी ग्लोब बनाकर मनुष्यता और प्रकृति से कारपोरेट बलात्कार निरंकुश,कृषि समाज का चौतऱफा सत्यानाश उदारीकरण सुधारों के बहाने, विकास के नाम धर्मोन्मादी कारपोरेट राज का यह समय निजीकरण का स्वर्ण युग है,नहीं कह सकते।

मरे हुए खेतों की लाशें चारों तरफ।

चारों तरफ अनंत डूब।

रक्त नदियों में घिरे हुए हैं हम युद्धबंदी।

हर गली मोहल्ले से निकलता कबंधों का जुलूस गुलाम गुलाम।


तमाम मिसाइलें,पारमाणविक हथियार,सैन्य गठबंधन

आखिरकार ग्राम्यभारत के सफाये के लिए।

चप्पे चप्पे पर सीआईए

चप्पे चप्पे पर मोसाद

हर शख्स की हो रही है खुफिया निगरानी।

हर किसीका वजूद खतरे में

फिरभी अर्थशास्त्रियों की तर्ज पर

कामयाब कारपरेट मैनेजर तमाम

बता रहे इस ध्वंसकाल को स्वर्णयुग।


शायद हम डफर हैं या आम भारतीयों की तरह

बुरबक रह गये हम कि देश बेचो जमात के खिलाफ

बसंतीपुर की तर्ज पर पूरे के पूरे एक देश रचने का ख्वाब देखते हैं हम आज भी एकदम फुटपाथ पर खड़े होकर।


क्योंकि ज्योतिबा फूले और नारायम लोखंडे को जानने के बजाय तब हम मार्क्स लेनिन चेग्वारा माओ स्टालिन और चारु मजुमदार को पढ़ने के साथ साथ पेरियार और नारायणगुरु को न जानने के बावजूद

नानी की कहानियों के जरिये जी रहे थे नील विद्रोह हर वक्त और मतुआ युगपुरुष हरिचांद ठाकुर और उनके पुत्र गुरुचांद ठाकुर के चंडाल आंदोलन के मध्य थे हम बिना किसी जाति विमर्श के तब भी।


राष्ट्र का चरित्र बदल गया है। नयी महाजनी सभ्यता के एफडीआई विनिवेश ठेका हायर फायर समय के हम बेनागरिक डिजिटल बायोमेट्रिक। पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली में किसानों और मजदूरों की जो जगह थी,वह उच्च तकनीक कंप्यूटर,आईटी,आटोमेशन और रोबोटिक्स ने ले ली है। हर गांव के साने पर चढ़ बैठा है इंफ्रा देवमंडल और मुक्त बाजार हमारे खून में बहने लगा है।प्लास्टिक मनी के हम कारोबारी डालर के दल्ला हम सब लोग।नीले उपभोक्ता हैं हम लोग।


अंबेडकर समय में जनता की निगरानी नहीं हुई होगी ड्रोन या प्रिज्म से। इस बदले हुए सामाजिक यथार्थ में किस्सों के दम पर कैसे कोई लड़ सकता है भूमि युद्ध वीडियो गेम की तर्ज पर वर्च्यु्ल।


लेकिन हर जनांदोलन दरअसल भारत रत्न सचिन तेंदुलकर

समय में मुकम्मल वीडियो गेम है।जहां जमीन के योद्धाओं के

लिए कोई जगह है ही नहीं।जहां हजारों साल से जारी

जल जंगल जमीन की कोई लड़ाई है ही नहीं।जमीनदल्ला हैं हम सारे।प्रकृति के बलात्कारी हैं सारे के सारे।


यहां तक कि बाबासाहेब के मूल मंत्र जाति उनमूलन की

कहीं कोई गूंज भी नहीं है।हर तरफ चल रहा है जाति विमर्श

सामाजिक न्याय समता और सत्ता में भागेदारी के लिए

हर कोई जाति अस्मिताओं को संबोधित करने लगा

जायनवादी तंत्र के खिलाफ

धर्मोन्मादी राष्ट्रीयता के खिलाफ

कारपोरेट निर्मित अल्पमत सरकारों

के नरमेध यज्ञ के सारे हैं पुरोहित

वैदिकी रीतिबद्ध हैं क्रांति इनदिनों

वैदिकी कर्मकांड है प्रबल

जिंगल में ऋचाओं में निष्णात हम

रात दिनसातों दिन बरस दर बरस

कर रहे हैं महाविध्वंस का आवाहन

हर दिशा में सजने लगे

अनंत वधस्थल और

आत्मीयजनों के खून से

लहूलुहान हैं सारे हाथ,सारे चेहरे।


तमाम आदिवासी विद्रोहों और किसान आंदोलनों की

गौरवशाली विरासत के विपरीत भूमि सुधार की

मांग छोड़कर लोग मुआवजे और नौकरी के सौदे में सेज महासेज नगर महानगर स्वर्णिम राजमार्ग

बड़े बांध डूब ऊर्जा परियोजनाएं और

परमाणु संयंत्र खरीद रहे हैं लोग इन दिनों।हर शख्स कमीशनखोर,घोटाला बाज इनदिनों।



माफ करना दोस्तों,चैत्यभूमि में मेला लगाने वालों की

कोई प्रतिबद्धता है नहीं बाबासाहेब के संविधान के प्रति।

भाववादी अंधश्रद्धा से बदल नहीं रहा

यह निर्मम वधस्थल

बदल नहीं रही यह

मृत्यु उपत्यका

इसे अब भी महसूस न करने वाले लोगों से

हम कैसे उम्मीद करें कि वे

किसी जनांदोलन के लिए तैयार भी हैं या नहीं


तमाशे,मेले और पिकनिक के मध्य

चल रही है दुकानदारी अबाध

अंध भक्तों के रंग बिरंगे बापू सक्रिय तमाम

अंध भक्तों के रंग बिरंगे मसीहा तमाम

और कहीं कोई विमर्श

शुरु ही नहीं हुआ

इस महा चकाचौंधी तिलिस्म

को तोड़नेके मकसद से।



आजतक किसी अंबेडकर अनुयायी शामिल

नहीं हुआ पांचवीं छठीं अनुसूचियों के लिए।

कोई नहीं बोला सशस्त्र बस विशेषाधिकार कानून के खिलाफ। वामपंथी ट्रेड यूनियनों के विश्वासघात की खूब हुई है चर्चा

लेकिन इतिहास और विरासत के कारोबार

का खुलासा भी तक नहीं हुआ।

जिसकी चर्चा बेहद जरुरी है।


एक विकलांग मलाईदार तबके की

सत्ता में भागीदारी की कीमत पर

देश भर में जो असली भारत है  कृषि समाज

जाति व्यवस्था या नस्ली भेदभाव का शिकार

उत्पीड़नन और अत्याचारों और निर्मम

दमन जिनका रोजनामचा है

जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता से

हो रहा निरंतर बेदखल और सत्ता वर्ग को,कारपोरेट राज को

उन्हीं के बिना शर्त समर्थन से

हर वह  कानून बदल रहा है ,जिसे

आकार दिया हुआ है बाबा साहेब ने।

भूमि युद्ध के मोर्चे से बेदखल है कामयाब

कारपोरेट मैनेजरों और प्लेसमेंट

हायर फायर की पीढ़ियां।

बिन मां बाप की बेशर्म पीढ़ियों का देश है यह अब।


कयामत के मुहाने पर खड़े बाजार के हर जश्न में शामिल हम

फिर भी हमें शर्म नहीं आती इतिहास और विरासत,महापुरुषों के अवतारत्व की दावेदारी से।बुद्ध के शील गैरप्रासंगिक जिनके लिए,बोधिसत्व में निष्णात वे तमाम लोग इन दिनों।


बाबासाहेब का नाम लेकर रोज

अंबेडकर मार रहे हैं वे।

मजे की बात तो यह कि वही लोग

बहस चला रहे हैं बाबा साहेब के मृत्युरहस्य पर

जिन्होंने बाबा साहेब का आंदोलन बेच खाया।

अब देश बेचने वालों की

जमात में शामिल हो गये हैं वे धंधेबाज लोग।


भारत रत्न नेलसन मंडेला के अवसान पर

बाबरी विध्वंस की बरसी पर

पांच दिनों का राष्ट्रीय शोक है और

शोक संदेश जारी कर रहे हैं भारत में रंगभेद

जारी रखने वाले वर्णवर्चस्वी जायनवादी कर्णधार तमाम

तमाम युद्ध अपराधी मनुष्यता के शोक मग्न हैं।

पूरा देश अब सलवा जुड़ुम है।

कृषि समाज की चिताएं सज रही हैं

महानगरों और राजधानियों में।


अश्वेत रक्तबीज की संतानें हम और हमारा यह भूमि युद्ध

अस्पृश्य भूगोल का वर्ण वर्चस्वी इतिहास के विरुद्ध

अनंत

महासंग्राम,जिसमें

जमीन के चप्पे चप्पे पर पर पुरखों का खून।

लेकिन इस महासंग्राम में

अपनी अपनी खाल बचा लेने की शुतुरमुर्ग भूमिका

के सिवाय हमारी कोई हरकत है ही नहीं।


आज भी मंडेला मंडल ही है इस वर्णवर्चस्वी भारतीय रंगभेदी कारपोरेट मुक्त बाजार में।

आज ईश्वर हैं गौतम बुद्ध

और बोधिसत्व हैं

बाबासाहेब अंबेडकर

विष्णु अवतार बन चुके हैं

विश्व की पहली जनक्रांति के

महानायक गौतम बुद्ध

हरिचांद ठाकुर भी पूर्ण ब्रह्म है

समरसता अभियान में

विष्णुरुप में दर्शन देंगे

अब जाति उन्मूलन के

उद्घोषक बाबासाहब हमारे

सामाजिक बदलाव बस इतना सा है

और शायद यही स्वर्णयुग है

बहुजन भारत का।



मैंने बामसेफ कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जो  लिखा थाः


Wednesday, December 4, 2013

अगर मुक्त बाजार के जायनवादी तंत्र यंत्र से टकराना है तो अब बामसेफ के आगे सोचना है। बदले राष्ट्र,समाज व अर्थव्यवस्था में अंबेडकरी आंदोलन को समय के मुताबिक बदलना होगा। इस आलेख को बामसेफ औरर बामसेफ एकीकरण,दोनों से मेरा औपचारिक अलगाव मान लिया जाये।

अगर मुक्त बाजार के जायनवादी तंत्र यंत्र से टकराना है तो अब बामसेफ के आगे सोचना है। बदले राष्ट्र,समाज व अर्थव्यवस्था में अंबेडकरी आंदोलन को समय के मुताबिक बदलना होगा।


इस आलेख को बामसेफ औरर बामसेफ एकीकरण,दोनों से मेरा औपचारिक अलगाव मान लिया जाये।


पलाश विश्वास


मुंबई और नागपुर के एकीकरण सम्मेलनों में देशभर के कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों के फैसले के तहत पटना में राष्ट्रीय एकीकरण सम्मेलन करके नया संविधान लागू करके अंबेडकरी आंदोलन को नयी दिशा देने की हमारी घोषणा अब निरर्थक हो गयी है।


वहां ताराराम मैना के बामसेफ धड़े का राष्ट्रीय सम्मेलन हो रहा है।


ऐसा संदेश देशभर में प्रसारित करने और बामसेफ एकीकरण के कार्यक्रम को अपना तीन साल का समयबद्ध कार्यक्रम बताते हुए उसे पूरा कर लेने के दावे के साथ हो रहे इस सम्मेलन ने तमाम ईमानदार कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की नयी शुरुआत की उम्मीदों पर पानी फेर दिया है।उनकी साख को जबर्दस्त चोट पहुंचायी है।


कार्यकर्ता अंबेडकरी आंदोलन के प्रति समर्पण और प्रतिबद्धता की वजह से एकजुट हुए,न कि किसी व्यक्ति या धड़े के एजंडे के मुताबिक,इसे साफ करने के मकसद से पटना सम्मेलन से अलग रहने का फैसला सर्व सहमति से हुई है।


मैंने निजी तौर पर लगातार सभी पक्षों से संवाद करते हुए पुरातन मित्रों के गालीगलौज के बीच चीजों को सुधारने का हरसंभव प्रयत्न किया है।


लेकिन तीस साल से बामसेफ आंदोलन में शामिल लोग निश्चय ही हमसे ज्यादा बुद्धिमान हैं,वे जैसा उचित समझ रहे हैं,कर रहे हैं।


इसी बीच मुंबई में एकीकरण समिति की बैठक मुंबई में हो गयी और पटना न जाने का फैसला हुआ है।अब अगर समिति पटना जाने का फैसला भी कर लें,तो मैं पचना नहीं जा रहा हूं।


अब बामसेफ जिन्हें चलाना है,चलायें,जिन्हें न चलाना हो,न चलायें,जिन्हें राजनीति करके सत्ता में हिस्सेदारी करनी हैं,करें,अब बामसेफ की कोई प्रासंगिकता नहीं रह गयी है मेरे लिए।


हम बचपन से वामपंथी आंदोलनों और विचारधारा से जुड़े रहे हैं। लेकिन शरणार्थी समस्या के संदर्भ में हमारे वामपंथी मित्रों की अजब तटस्थता ने हमें 2007 से पहले कभी न पढ़े अंबेडकर को पढ़ने और सही मायने में भारतीय से आमने सामने टकराने का मौका मिला।


2005 में बामसेफ की और से नागरिकता संशोधन कानून के विरुद्ध सम्मेलन में शामिल होने के बावजूद हमें अपने वामपंथी मित्रों से अनुसूचित शरणार्थियों,आदिवासियों और नगरों महानगरों में गंदी बस्तियों में रहने वाले सर्वहारा आम जनता के हक हकूक की लड़ाई शुरु करने की उम्मीद थी।लेकिन निरंतर संवाद के बावजूद नतीजा नहीं निकला।


इसी बीच माननीय वामन मेश्राम की अगुवाई में मूलनिवासी बामसेफ ने नागरिकता संशोधन कानून और आधार योजना पर हमारा समर्थन कर दिया। हमने 2007 से लेकर वामन मेश्राम के राजनीतिक दल बनाने के फैसले से पहले गुलबर्गा सम्मेलन तक बामसेफ के मंच से देशभर में इन मुद्दों को लेकर बहुजन जनता को संबोधित किया।हमें यह मौका देने के लिए मैं पुराने साथियों का आभारी हूं।


अब बंगाली शरमार्थी आंदोलन भी अपने हिसाब से अलग चलाया जा रहा है और उससे मेरा कोई लेना देना नहीं है।लेकिन निराधार आधार और बायोमेट्रिक डिजिटल नाटो सीआईए योजना के खिलाफ हमारी मुहिम बतौर एक मामूली पत्रकरा लेखक जारी रहेगी।


दरअसल मैं बामसेफ के तमाम धड़ों के, धड़ों से बाहर के सभी साथियों का आभारी हूं कि उनकी वजह से मैं भरतीय यथार्थ के संदर्भ में अंबेडकर विचारधारा और आंदोलन को जान सका,जिनके बिना मेरा यह निमित्त मात्र आम आदमी का जीवन निश्चय ही अधूरा रहता।


मैं एक अस्पृश्य विस्थापित शरणार्थी किसान परिवार का सदस्य हूं।पढ़ा लिखा मैं बना अपने किसान पिता की अथक कोशिशों के कारण।जनांदोलनों में मेरी निरंतर हिस्सेदारी भी उनकी ही विरासत की वजह से। बाकी मेरा समाज को,परिवार को या राष्ट्र को कोई योगदान नहीं है।


पेशेवर नौकरी में भी मैं बुरी तरह असफल नगण्य पत्रकार हूं। रचनाकर्म की किसी ने नोटिस कभी ली नहीं है।


इसका मुझे अफसोस नहीं हैं।


बामसेफ में होने और फिर बामसेफ के खास धड़े से अलग हो जाने की वजह से हुई गालीगलौज का लक्ष्य बन जाने का भी मुझे कोई अफसोस नहीं है।


मैं आभारी हूं कि मामूली प्रतिभा,मामूली हैसियत के बावजूद देशभर में लोग अब तक मुझे पढ़ते रहे हैं,सुनते रहे हैं।


मुझे अयोग्य होने  के बावजूद आपने जो प्यार और समर्थन दिया.वह मेरे बाकी जीवन का रसद है।


पिछले कई दिनों से देशभर से मित्रों के आ रहे फोन का मैंने कोई जवाब नहीं दिया है। मैं भहुत असमंजस में था कि अब क्या करना चाहिए।


मैं राजनेता नहीं हूं।मुझे चुनाव नहीं लड़ना है।न मुझे वोट बैंक साधने हैं।इसलिए किसी समीकरण की मुझे परवाह कभी नहीं रही है।


पेशेवर जीवन में भी मैंने कभी किसी समीकरण की परवाह नहीं की।


जो मुझे हमारी जनता के हित में लगा,आजतक वही बोलता लिखता रहा हूं।वही करता रहा हूं।


देश में जो हालात हैं, नियुक्तियां सिरे से बंद हैं और सारी नौकरियां ठेके पर  हैं।रिक्तियां भरी नहीं जा रही हैं।कंप्यूटर की जगह अब रोबोट ले रहे हैं।


कर्मचारियों के वजूद का ही भारी संकट है।उनके हाथ पांव निजीकरण,ग्लोबीकरण,उदारीकरण और मुक्त बाजार की अर्थ व्यवस्था ने काट दिये हैं।


जुबान तालाबंद है,जो बामसेफ की चाबी से खुलनी नहीं है।


आरक्षण को लेकर देशभर में गृहयुद्ध परिस्थितियां हैं। लेकिन जब स्थाई नौकरियां किसी भी क्षेत्र में हैं ही नहीं,जब नियुक्तियां हो नहीं रही है,मनुष्य के बदले रोबोट और कंप्यूटर सारे काम कर रहे हैं,तब आरक्षण को सिरे से गैरप्रासंगिक बना देने में कोई कसर बाकी नहीं रह गयी है।


लेकिन विडंबना है कि अब ब्राह्मणों को भी आरक्षण चाहिए।सबको आरक्षण चाहिए।मुसलमानों का कल्याण भी आरक्षण से।


कल सुबह सोदपुर से रवाना होकर करीब चार बजे के करीब मैं आईआईटी खड़गपुर में प्रसिद्ध विद्वान,लेखक और तकनीक व प्रबंधन विशेषज्ञ आनंद तेलतुंबड़े के स्कूल आफ मैनेजमेंट स्थित चैंबर में पहुंचा।देशभर के मित्रों से अगले कार्यभार तय करने के सिलसिले में थी यह मुलाकात।


मैं आनंद जी को लगातार पढ़ता रहा हूं लेकिन उनसे संवाद का कोई मौका अब तक बना नहीं था।संजोग बना तो चला गया। अंबेडकरी आंदोलन प्रसंग में लगभग ढाई घंटे तक हमारी बात होती रही।


इस मुलाकात की वजह से यह अनिवार्य आलेख थोड़ा विलंबित हो गया।


अब जो लोग हमारे आवेदन पर पटना जाने का कार्यक्रम बना रहे थे,उन्हें बताना बेहद जरुरी है कि जैसे बामसेफ के बाकी दो सम्मेलन नागपुर और लखनऊ में हो रहे हैं,वैसी ही एक और बामसेफ सम्मेलन पटना में हो रहा है।


हम अपना आवेदन वापस ले रहे हैं और अब पटना,लखनऊ या नागपुर जाने या न जाने का फैसला उनका है।


हम कहीं नहीं जा रहे हैं।क्योंकि अब हम कहीं नहीं हैं।


तेलतुंबड़े जी ने बाकायदा आंकड़े और तथ्य देकर साबित किया है कि सन 1997 से आरक्षण लगातार घटते घटते अब शून्य पर है।


जबकि बेरोजगारी के आलम में दिशाहीन देश के करोड़ों युवाओं को आपस में लड़ाने के लिए सरकारे निरंतर आरक्षण का कोटा बढ़ा रही हैं,आरक्षण लेकिन किसी को मिल ही नहीं रहा है।


सवर्णों की क्या कहे,आरक्षण की लड़ाई में पिछड़े, आदिवासी, अल्पसंख्यक और तमाम दलित समुदाय अब एक दूसरे के खिलाफ अपने अपने समूह के हितों केलेए लामबंद हैं।


निराकार ईश्वर की आस्था में जैसे भक्तजनों में मारामारी है वैसे ही निराकार आरक्षण को लेकर भारतीय जन गण एकदूसरे को लहूलुहान कर रहे हैं।


तेलतुंबड़े बाकायदा लिस्टेड कारपोरेट कंपनी पेट्रो नेट के कारपोरेट हेड बचौर सीआईआई की उस समिति में थे,जिसे निजी क्षेत्र में आरक्षण लागूकरने पर विचार करना था।


उस समिति की कार्यवाही का हवाला देते हुए तेलतुंबड़े ने बताया कि मुक्त बाजार में कंपनियों को कर्मचारियों की जरुरत ही नहीं है।कर्मचारी अब नियुक्त नहीं किये जाते,हायर किये जाते हैं। कर्मचारी जिस कंपनी के लिए काम कर रहे होते हैं,वे वहां ठेके पर भी नहीं होते बल्कि वे दूसरी कंपनियों की तरफ से भाड़े पर लगाये गये लोग हैं।


जब कर्मचारी किसी कंपनी के हैं ही नहीं तो उनको आरक्षण कंपनियां कैसे दे सकती हैं?निरंतर विनिवेश से सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का हाल भी यही है।


अब अंबेडकरी आंदोलन या तो आरक्षण बचाओ का प्रायय बन गया है या फिर सत्ता में भागेदारी का।या विशुद्ध जाति अस्मिता का।जातियां रहेंगी तो तो जाति वर्चस्व भी रहेगा। जाति से बाहर जो लोग हैं मसलन आदिवासी,उन्हें बहुजन कहकर गले लगाने से  ही वे जाति अस्मिता के नाम पर आपके साथ खड़े नहीं हो सकते।अंबेडकरी आंदोलन में आदिवासियों की अनुपस्तिति की सबसे बड़ी वजह यही है।


तेलतुंबड़े और मेरा मानना है कि अंबेडकर विमर्श का बुनियादी मुद्दा जाति उन्मूलन है।जाति को मजबूत करके आप अंबेडकर के अनुयायी हो ही नहीं सकते।बल्कि अनजाने उनके अनुयायी हैं,जिनका विरोध अंबेडकर आंदोलन का घोषित लक्ष्य है।




अब जबकि सरकारी गैरसरकारी कंपनियों,प्रतिष्ठानों,केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के अधीन संगठित क्षेत्रों और असंगठित क्षेत्र में बेहद असुरक्षित हैं कर्मचारी और उनके पांव के नीचे कोई जमीन है ही नहीं।जुगाड़ बाजी से वे हवाई जिंदगी जी रहे हैं।


तो ऐसे कर्मचारियों को विचारधारा के नाम पर गोलबंद कैसे किया जा सकता है,देशभर के मित्र लगातार यह सवाल पूछ रहे थे।


हम संगठित क्षेत्र में पहल के जरिये फिरभी चाह रहे थे कि शायद मुक्त बाजार की अर्थव्यवस्था में निरंकुश आर्थिक अश्वमेधी अभियान के प्रतिरोध की शुरुआत कर पाये हम।


लेकिन बामसेफ बहुसंख्यक  कार्यकर्ताओं को कारपोरेट राजनीति में ही भविष्य दीख रहा है और उनके इस मानस को हम बदल नहीं सकते।जो लोग निरंतर तानाशाही में जीने मरने के अभ्यस्त हैं,उन्हें रातोरात संस्तागत लोकतांत्रिक संगठन सके लिए सक्रिय किया ही नहीं जा सकता।


बाकी जो लोग अब भी सामाजिक राजनीतिक आंदोलन की बात करते हैं,वे अब भी उदारीकऱण,ग्लोबीकरण और निजीकरण बायोमेट्रिक डिजिटल जमाने से पहले के समय में जी रहे हैं।


उनका मोड बदलना असंभव है। वे प्रोग्राम्ड हैं।


वे सारे लोग डीएक्टिवेटेड फेसबुक प्रोफाइल हैं,जिनसे संवाद की कोई गुंजाइश ही नहीं है।


आंदोलन बहुत दूर की बात है। किन्ही दो अंबेडकरी संगठन के लोग एक साथ बैठ भी नहीं सकते।


हम कहीं भी अंबेडकरी आंदोलन के विभिन्न संगठनों की राज्यवार बैठक कर पाने में असमर्थ हैं।संगठन निर्माण की प्रक्रिया तो बहुत दूर की बात है।


ऐसे में पटना बामसेफ एकीकरण सम्मेलन के गर्भपात के बाद इस सिरे से गैरप्रासंगिक हो गये बामसेफ का टैग धारण किये हुए आगे कोई प्रगति असंभव हैं,यह साबित हो गया है।


बल्कि इस टैग  की वजह से बामसेफ और अंबेडकरी आंदोलन से बाहर जो संगठन जल जंगल जमीन आजीविका और नागरिकता की लड़ाई लडड रहे हैं,उनसे हमारा कोई संवाद नहीं हो पा रहा है।


तेलतुंबड़े और मेरा मानना है कि राष्ट्र,समाज और अर्थ व्यवस्था अब ठीक उसीतरह नहीं है,जैसे कि बाबासाहेब अंबेडकर से लेकर मान्यवर कांशीराम ने देखा है।


अंबेडकर को ईश्वर या बोधिसत्व या उससे भी कुछ बनाकर हम उन्हें भी मुक्त  बाजार का सचिन तेंदुलकर ही बना रहे हैं।


देश काल परिस्थिति के मुताबिक तमाम विचारधाराओं और आंदोलन को जड़ता तोड़कर आगे बढ़ना पड़ा है।


लेकिन अबेडकर के अनुयायी नये संदर्भो,और नये प्रसंगों में अंबेडकर की प्रासंगिकता पर विचार करने के लिए कतई तैयार नहीं है,यह आत्मघाती है।


जैसा कि विजय कुजुर और भास्कर वाकड़े जैसे हमारे तमाम आदिवासी साथी मानते हैं कि लडाई के बिना कोई विकल्प है ही नहीं और भाववादी चिंतन और कर्म से हम अपने ही अंधकार में फिर पिर कैद हो रहे हैं,भावनात्मक मुद्दों के बजाय एकदम वस्तुनिष्ठ तरीके से अंबेडकरी आंदोलन को पुनर्जीवित करने की तैयारी है।


इस सिलसिले में इच्छुक साथियों से आगे भी विचार विमर्श होता रहेगा।


बाकी अंबेडकर अनुयायियों की तरह मुक्त बाजार को हम बहुजनों का स्वर्ण युग नहीं मानते।


मुक्त बाजार में फालतू मनुष्यों का मार देना ही राष्ट्र का मुख्य कार्यभार है।


इसमें बहुजनों को सत्यानाश और मृत्यु के अलाव कुछ हासिल नहीं होना है।


इस पर मैं और आनंद तेलतुंबड़े शत प्रतिशत सहमत हैं।


इस अवस्थान के बाद अब अगर हमारे मित्र हमें अबंडकर आंदोलन से हमेशा के लिए बहिस्कृत कर दें तो भी हमें इसकी कोई परवाह नहीं है।


बहरहाल मेरे जीवन के बामसेफ अध्याय का यही पटाक्षेप हैं।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि वे देश के हालात और दूसरे मुद्दों पर जरुर बात कर सकता हैं,लेकिन बामसेफ के बारे में मुझे भविष्य में कुछ भी कहना नहीं है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि बामसेफ की अब कोई प्रासंगिकता नहीं है और न ही इसका एकीकरण संभव है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि अगर मुक्त बाजार के जायनवादी तंत्र यंत्र से टकराना है तोअब बामसेफ के आगे सोचना है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि जो सहमत हैं,उनका स्वागत है।बाकी लोगों का आभार।


मैंने बामसेफ एकीकरण अभियान से जुड़े साथियों को निरंतर अपना पक्ष बताया है और यह मेरा कोई आकस्मिक फैसला नहीं है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि एकीकरण प्रक्रिया की तार्किक परिणति है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि बामसेफ का एकीकरण असंभव है और इसीलिए कार्यकर्ताओं और समविचारी संगठनों की एकता के लिए भी बामसेफ के अलग अलग धड़ों समेत समूचे बामसेफ आंदोलन से अलगाव जरूरी है।


हम देशभर के साथियों से निवेदन करना चाहते हैं कि हमारा लक्ष्य चूंकि बामसेफ नहीं,मुक्त बाजार व्यवस्था के विरुद्ध,जनसंहार संस्कृति के विरुद्ध निनानब्वे फीसद जनता की चट्टानी गोलबंदी है,इसलिए अतीत से भावात्मक नाता ख्तम करने का यह मौजूं वक्त है।


मैंने अपने फैसले की सूचना साथियों को दे दी है और इस पर पुनर्विचार की कोई संभावना नहीं है।


इस आलेख को बामसेफ और बामसेफ एकीकरण,दोनों से मेरा औपचारिक अलगाव मान लिया जाये।


तेलतुंबड़े और देशभर में दूसरे समविचारी मित्रों से संवाद उनकी सहमति से मैं आप सबके साथ शेयर करता रहूंगा।


Posted by Palash Biswas at 2:46 AM



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