गाब्रिएल गार्सिया मार्केस से एक बातचीत
Posted by Reyaz-ul-haque on 4/18/2014 12:43:00 PMगाब्रिएल गार्सिया मार्केस के साथ पीटर एच. स्टोन की बातचीत का सम्पादित अंश. जानकीपुलसे साभार
प्रश्न- टेपरिकार्डर के उपयोग के बारे में आप क्या सोचते हैं?
मुश्किल यह है कि जैसे ही आपको इस बात का पता चलता है कि इंटरव्यू को टेप किया जा रहा है, आपका रवैया बदल जाता है. जहाँ तक मेरा सवाल है मैं तो तुरंत रक्षात्मक रुख अख्तियार कर लेता हूँ. एक पत्रकार के रूप में मुझे लगता है कि हमने अभी यह नहीं सीखा है कि इंटरव्यू के दौरान टेपरिकार्डर किस तरह से उपयोग किया जाना चाहिए. सबसे अच्छा तरीका जो मुझे लगता है कि पत्रकार लंबी बातचीत करे जिसके दौरान वह किसी प्रकार का नोट नहीं ले. बाद में उस बातचीत के आधार पर उसे वह लिखना चाहिए जैसा उसने उस साक्षात्कार के दौरान महसूस किया, ज़रूरी नहीं है कि वह हुबहू वही लिखे जिस तरह से इंटरव्यू देने वाले ने बोला. टेपरिकार्डर से जो भान होता है वह यह कि वह उस व्यक्ति के प्रति ईमानदार नहीं होता जिसका इंटरव्यू लिया जा रहा हो क्योंकि यह उसको भी रिकॉर्ड करके दर्ज कर लेता है जब सामने वाला अपना मजाक उड़ा रहा होता है. इसीलिए जब सामने टेपरिकार्डर होता है तो मैं इसको लेकर सजग होता हूँ कि मेरा इंटरव्यू लिया जा रहा है; लेकिन जब टेपरिकार्डर नहीं होता है मैं सहज और स्वाभाविक रूप से बात करता हूँ.प्रश्न- तो आपने इंटरव्यू के लिए कभी टेपरिकार्डर का इस्तेमाल नहीं किया?
पत्रकार के तौर पर तो मैंने कभी उसका उपयोग नहीं किया. मेरे पास एक बहुत बढ़िया टेपरिकार्डर है लेकिन मैं उसका उपयोग केवल संगीत सुनने के लिए करता हूँ. लेकिन यह भी है कि पत्रकार के रूप में मैंने कभी इंटरव्यू नहीं किया, मैंने रिपोर्ट किए लेकिन सवाल-जवाब वाला इंटरव्यू तो कभी नहीं किया.प्रश्न- मैंने आपके एक मशहूर इंटरव्यू के बारे में सुना है, जो एक जहाजी से था जिसका जहाज़ टूट गया था...
वह सवाल-जवाब के रूप में नहीं था. उस जहाजी ने मुझे अपने अनुभव बताये थे, मैंने उसे लिखा और यह कोशिश की उसी के शब्दों में लिखूं. मैंने कोशिश कि कि प्रथम पुरुष में लिखूं, ताकि यह लगे कि वही लिख रहा है. बाद में वह एक समाचारपत्र में धारावाहिक छपा, दो सप्ताह तक रोज उसका एक-एक खंड प्रकाशित हुआ, तो वह उसके नाम से छपा था, मेरे नाम से नहीं. जब 20 सालों बाद जब वह पुस्तक के रूप में प्रकाशित हुआ तब लोगों को इस बात की जानकारी हुई कि उसे मैंने लिखा था. किसी संपादक को तब तक ऐसा नहीं लगा था कि वह अच्छा है जब तक कि मैंनेवन हंड्रेड इयर्स ऑफ सालीटयूड नहीं लिखा था.प्रश्न- हमने बातचीत की शुरुआत पत्रकारिता के बारे में बात करने से आरम्भ की थी, फिर से पत्रकारिता से जुड़ना कैसा लगता है, जबकि इतने दिन से आप उपन्यास लिख रहे हैं? क्या कुछ अलग तरह का महसूस होता है, क्या नजरिया कुछ बदल जाता है?
मुझे हमेशा से इस बात का भरोसा रहा है कि मेरा असली पेशा पत्रकारिता ही है. पहले इसके बारे में जो बात मुझे अच्छी नहीं लगती थी वह काम करने की स्थितियां थीं, साथ ही, मुझे अपने सोच-विचारों को अखबार के हितों के मुताबिक़ ढालना पड़ता था. अब उपन्यास लिखकर मैंने आर्थिक स्वतंत्रता अर्जित कर ली है. अब मैं अपनी रूचि और विचारों के मुताबिक़ लिख सकता हूँ. वैसे भी, पत्रकारिता के माध्यम से जब भी मुझे कुछ अच्छा लिखने अवसर मिलता है तो मुझे बहुत आनंद आता है.प्रश्न- पत्रकारिता का अच्छा नमूना क्या है आपके लिए?
जॉन हर्सी का हिरोशिमा पत्रकारिता का असाधारण नमूना है.प्रश्न- क्या आपको लगता है कि उपन्यास कुछ ऐसा कर सकता है जो पत्रकारिता नहीं कर सकती?
कुछ भी नहीं. मुझे नहीं लगता कि इनमें कोई अंतर है. इनके स्रोत एकसमान होते हैं, सामग्री समान होती है, संसाधन और भाषा भी समान ही होती है. डेनियल डेफो का जर्नल ऑफ द प्लेग इयर्स एक महान उपन्यास है जबकि हिरोशिमा पत्रकारिता का बेहतरीन नमूना.प्रश्न- सत्य बनाम कल्पना के बीच संतुलन बनाने में पत्रकारों और उपन्यासकारों की अलग-अलग तरह की जिम्मेदारियां होती हैं?
पत्रकारिता में अगर एक तथ्य भी गलत हो तो वह पूरे लेख को संदिघ्ध बना देता है. इसके विपरीत अगर उपन्यास में अगर एक तथ्य भी सही हो तो वह पूरी कृति को वैध बना देता है. यही एक अंतर है और यह लेखक के कमिटमेंट पर निर्भर करता है. एक उपन्यासकार जो चाहे वह कर सकता है जब तक कि लोग उसमें विश्वास करें.वैसे अब उपन्यास और पत्रकारिता दोनों के लिए लिख पाना मुझे पहले से मुश्किल लगने लगा है. जब मैं अखबार में काम करता था तो मैं अपने लिखे प्रत्येक शब्द को लेकर उतना सजग नहीं रहता था, जबकि अब रहता हूँ. जब मैं बोगोटा में एल स्पेक्तादोर में काम कर रहा था तब मैं सप्ताह में कम से कम तीन 'स्टोरी' करता था, रोज तीन सम्पादकीय लिखता था, फिर मैं सिनेमा के रिव्यू लिखता था. फिर रात में जब सब चले जाते थे तब मैं वहीँ रुककर उपन्यास लिखता था. मुझे लिनोटाइप मशीनों की आवाजें अच्छी लगती थी, जो सुनने में बारिश की तरह लगती थी. अगर वे थम जाते तो मैं ख़ामोशी के साथ तनहा रह जाता था, फिर मैं लिख नहीं पाता था. अब उसके मुकाबले मैं कम लिखता हूँ. जिस दिन सुबह के 9 बजे से दोपहर के दो या तीन बजे तक अच्छी तरह काम कर लूं तो मैं मुश्किल से चार-पांच पंक्तियों का एक पैराग्राफ लिख पाता हूँ, जिसे अक्सर अगले दिन मैं फाड़ देता हूँ.
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