THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Monday, March 30, 2015

দখলেই থাকছে আদি বুড়িগঙ্গার শতাধিক একর জমি

দখলেই থাকছে আদি বুড়িগঙ্গার শতাধিক একর জমি 




বুড়িগঙ্গার আদি চ্যানেল আর উদ্ধার হচ্ছে না। দখলদারদের কবলেই থেকে যাচ্ছে নদীর শতাধিক একর জমি। এর আগে মন্ত্রীরা সরেজমিন পরিদর্শন শেষে নদীর আদি চ্যানেল উদ্ধারের ঘোষণা দিলেও শেষ পর্যন্ত সেখান থেকে সরে এসেছেন তারা।

 http://www.banglatribune.com/%E0%A6%A6%E0%A6%96%E0%A6%B2%E0%A7%87%E0%A6%87-%E0%A6%A5%E0%A6%BE%E0%A6%95%E0%A6%9B%E0%A7%87-%E0%A6%86%E0%A6%A6%E0%A6%BF-%E0%A6%AC%E0%A7%81%E0%A7%9C%E0%A6%BF%E0%A6%97%E0%A6%99%E0%A7%8D%E0%A6%97

FEDERATING NEPAL IN THREE STATES AND EIGHTEEN AUTONOMOUS REGIONS

Tilak Shrestha <tilakbs@gmail.com> wrote:

Dr. Basudev Jee
Namaste!
You missed the basic issue. Federal states is Not the demand of Nepalese people. It is imposed from outside interests. There must be public debate on the pros and cons of federal states and referendum for people's mandate. Imposing such issues without people's mandate constitute treason and unacceptable. 
     गणतन्त्रधर्म निरपेक्षता  संघीयता जनआन्दोलनका एजेन्डा थिएनन् 
     Annapurna Post, Jan. 7, 2015   
www.annapurnapost.com/News.aspx/story/5782
We have over 100 ethnic groups. Which ethnic group gets state and which does not? Which districts go to Newa rajya and which go to Tamasaling? Do you realize the way is to breaking our nation. When in fact, we never had ethnic problems in Nepal. Yes, some ethnic groups are marginalized than others. But problem can be handled with decentralization and targeted application of a. education, b. job diversification, and c. inclusive politics. But ethnic federal states is a recipe national division. 
Maoists intrinsically are not for federal states. They would rather have a very strong centralized government where Maximum leader has full control. However, to impose communism, they are willing to play any dirty games including potential division of the country, They are aided by Churches to weaken our nation to facilitate conversions. 
Nationalist Nepalese must stand up against these divisive forces. Thanks!

On Sat, Mar 28, 2015 at 7:41 PM, The Himalayan Voice <himalayanvoice@gmail.com> wrote:

May 16, 2013


FEDERATING NEPAL IN THREE STATES AND EIGHTEEN AUTONOMOUS REGIONS

Posted by The Himalayan Voice:
[A federal structure is proposed here which can go a long way to fulfill many such desirable qualities, including the aspirations of the Utpidit Pesha Karmi, Madhesis and the ethnic communities for having identity based autonomy – and also the agenda of the Maoists' party for federating Nepal into identity-based autonomous regions – without compromising the unification of the country so that parties like NC and UML may also find it acceptable.]

By Dr. Basudev Uprety*

"HINDU EPICS TO BE PRIORITY AREAS FOR INDIAN COUNCIL OF HISTORICAL RESEARCH (ICHR)", SAYS ITS CHAIRPERSON Y. S. RAO

"HINDU EPICS TO BE PRIORITY AREAS FOR INDIAN COUNCIL OF HISTORICAL RESEARCH (ICHR)", SAYS ITS CHAIRPERSON Y. S. RAO

"Hindu epics to be priority areas for Indian Council of Historical Research (ICHR)", says its chairperson Y. S. Rao. My concern is, why can't it be 'The Rigveda' and other vedas etc.? How would Y. S. Rao and his team respond to the birth myths of Ramayana's Ram, his other brothers and Sita herself or those five Pandavs or Draupadi of The Mahabharat as well ? Here is an interesting video link https://www.youtube.com/watch?v=6UDwSWxKcwk Y. S. Rao and his team members, if they have not yet, should watch in their leisure. Facts are always facts, aren't they ? ]

हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!

दोस्‍तो, इस जानकारी काे ज्‍यादा से ज्‍यादा फैलायें। अगर आप पत्रकार या सम्‍पादक हैं तो अपनी पत्रिका/अख़बार/वेबसाइट पर इसे जगह दें। इस खबर का अंग्रेजी वर्जन आपको पहले ही मेल किया जा चुका है। 
Dear friends, if you are not comfortable with Hindi, please refer to our earlier mail which was in English. 


केजरीवाल सरकार के आदेश पर 25 मार्च 2015 को दिल्ली सचिवालय के बाहर मज़दूरों पर बर्बर लाठी चार्ज की घटना का पूरा ब्यौरा
हम हार नहीं मानेंगे! हम लड़ना नहीं छोड़ेंगे!
अभिनव सिन्हा
(संपादकमज़दूर बिगुल और मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वानकार्यकर्ता बिगुल मज़दूर दस्ता और इतिहास विभागदिल्ली वि‍श्वविद्यालय में शोध छात्र)



​25 
मार्च को दिल्ली में मज़दूरों पर जो लाठी चार्ज हुआ वह दिल्ली में पिछले दो दशक में विरोध प्रदर्शनों पर पुलिस के हमले की शायद सबसे बर्बर घटनाओं में से एक था। ध्यान देने की बात यह है कि इस लाठी चार्ज का आदेश सीधे अरविंद केजरीवाल की ओर से आया थाजैसा कि मेरे पुलिस हिरासत में रहने के दौरान कुछ पुलिसकर्मियों ने बातचीत में जिक्र किया था। कुछ लोगों को इससे हैरानी हो सकती है क्योंकि औपचारिक रूप से दिल्ली पुलिस केंद्र सरकार के मातहत है। लेकिन जब मैंने पुलिस वालों से इस बाबत पूछा तो उन्हों ने बताया कि रोज-ब-रोज की कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिल्ली पुलिस को दिल्ली के मुख्यमंत्री के निर्देशों का पालन करना होता हैजबतक कि यह केन्द्र सरकार के किसी निर्देश/आदेश के विपरीत नहीं हो। 'आपसरकार अब मुसीबत में पड़ चुकी है क्योंकि वह दिल्ली के मजदूरों से चुनाव में किए वायदे पूरा नहीं कर सकती। और दिल्ली के मजदूर 'आपऔर अरविन्द केजरीवाल द्वारा उनसे किए गए वायदे को भूलने से इनकार कर रहे हैं। मालूम हो कि बीती 17 फरवरी कोदिल्ली यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ लर्निंग के छात्रों ने खासी तादाद में वहां पहुंचकर मुख्यमंत्री को ज्ञापन दिया। इसके बाद, 3 मार्च को डीएमआरसी के सैकड़ों ठेका कर्मचारी केजरीवाल सरकार को अपना ज्ञापन देने गए थे और वहां उन पर भी लाठीचार्ज किया गया।
इस महीने की शुरुआत से ही विभिन्न मजदूर संगठनयूनियनेंमहिला संगठनछात्र एवं युवा संगठन दिल्ली में 'वादा न तोड़ो अभियानचला रहे हैंजिसका मकसद है केजरीवाल सरकार को दिल्ली के गरीब मजदूरों के साथ किए गए उसके वायदों जैसे कि नियमित प्रकृति के काम में ठेका प्रथा को खत्म करनाबारहवीं तक मुफ्त शिक्षादिल्ली सरकार में पचपन हजार खाली पदों को भरनासत्रह हजार नये शिक्षकों की भर्ती करनासभी घरेलू कामगारों और संविदा शिक्षकों को स्थायी करनाइत्यादि की याद दिलाना और इसके बाद सरकार को ऐसा करने के लिए बाध्य करना। 25 मार्च के प्रदर्शन की सूचना केजरीवाल सरकार और पुलिस प्रशासन को पहले से ही दे दी गयी थी और पुलिस ने पहले से कोई निषेधाज्ञा लागू नही की थी। लेकिन 25 मार्च को जो हुआ वह भयानक था और क्योंकि मैं उन कार्यकर्ताओं में से एक था जिन पर पुलिस ने हमला कियाधमकी दी और गिरफ्तार कियामैं बताना चाहूंगा कि 25 मार्च को हुआ क्या थाक्यों हजारों मजदूरमहिलाएं और छात्र दिल्ली सचिवालय गएउनके साथ कैसा व्यवहार हुआ और किस तरह मुख्य धारा के मीडिया चैनलों और अखबारों ने मजदूरोंमहिलाओं और छात्रों पर हुए बर्बर दमन को बहुत आसानी से ब्लैक आउट कर दिया?
25 मार्च को हजारों मजदूरमहिलाएं और छात्र दिल्ली सचिवालय क्यों गए?

​जैसा पहले बताया जा चुका हैकई मजदूर संगठन अरविन्द केजरीवाल को उन वायदों की याद दिलाने के लिए पिछले एक महीने से दिल्ली में 'वादा न तोड़ो अभियानचला रहे हैं जो उनकी पार्टी ने दिल्ली के मजदूरों से किए थे। इन वायदों में शामिल हैं नियमित प्रकृति के काम में ठेका प्रथा खत्म करनादिल्ली सरकार में पचपन हजार खाली पदों को भरना;सत्रह हजार नये शिक्षकों की भर्ती करना और संविदा शिक्षकों को स्थायी करनासभी संविदा सफाई कर्मचारियों को स्थायी करनाबारहवीं कक्षा तक स्कूली शिक्षा मुफ्त करनाये वे वायदे हैं जो तत्काल पूरे किए जा सकते हैं। हम जानते हैं कि सभी झुग्गीवासियों के लिए मकान बनाने में समय लगेगाफिर भीदिल्ली की जनता के सामने एक रोडमैप प्रस्तुत किया जाना चाहिए। इसी तरहहम जानते हैं कि बीस नये कॉलेज उपलब्ध कराने में समय लगेगाहालांकि केजरीवाल मीडिया से कह चुके हैं कि कुछ व्यक्तियों ने दो कॉलेजों के लिए जमीन दी है और उन्हें यह जरूर बताना चाहिए कि वो जमीनें कहां हैं और राज्य सरकार इन कॉलेजों का निर्माण कब शुरू करने जा रही है। ऐसा नहीं है कि केजरीवाल ने अपने किसी वायदे को पूरा नहीं किया। उन्होंने दिल्ली के फैक्टरी मालिकों और दुकानदारों से किए वायदे तत्काल पूरे किए! और उन्होंने ठेका मजदूरों के लिए क्या कियाकुछ भी नहीं,सिवाय केवल सरकारी विभागों के ठेका मजदूरों के बारे में एक दिखावटी अन्तरिम आदेश जारी करने केजो कहता है कि सरकारी विभागों/निगमों में काम करने वाले किसी ठेका कर्मचारी को अगली सूचना तक बर्खास्त नहीं किया जाएगा। हालांकिकुछ दिनों बाद ही अखबारों में खबर आयी कि इस दिखावटी अन्तरिम आदेश के मात्र कुछ दिनों बाद ही दर्जनों होमगार्डों को बर्खास्त कर दिया गया! इसका साधारण सा मतलब है कि अन्तरिम आदेश सरकारी विभागों में ठेका मजदूरों और दिल्ली की जनता को बेवकूफ बनाने का दिखावा मात्र था। इन कारकों ने दिल्ली के मजदूरों के बीच संदेह पैदा किया और इसके परिणामस्वरूप विभिन्न ट्रेड यूनियनोंमहिला संगठनोंछात्र संगठनों ने केजरीवाल को दिल्ली की आम मजदूर आबादी से किए गए अपने वायदों की याद दिलाने के लिए अभियान चलाने के बारे में सोचना शुरू किया।

इसलिए, 3 मार्च को डीएमआरसी के ठेका मजदूरों के प्रदर्शन के साथ वादा न तोडो अभियान की शुरुआत की गयी। उसी दिनकेजरीवाल सरकार को 25 मार्च के प्रदर्शन के बारे में औपचारिक रूप से सूचना दे दी गयी थी और बाद में पुलिस प्रशासन को इस बारे में आधिकारिक तौर पर सूचना दी गयी। पुलिस ने प्रदर्शन से पहले संगठनकर्ताओं को किसी भी प्रकार की निषेधाज्ञा नोटिस जारी नहीं की। लेकिनजैसे ही प्रदर्शनकारी किसान घाट पहुंचेउन्हें मनमाने तरीके से वहां से चले जाने को कहा गया! पुलिस ने उन्हें सरकार को अपना ज्ञापन और मांगपत्रक सौंपने से रोक दियाजोकि उनका मूलभूत संवैधानिक अधिकार हैजैसेकिउन्हें सुने जाने का अधिकारशान्तिपूर्ण एकत्र होने और अभिव्यक्ति का अधिकार।
25 मार्च को वास्तव में क्या हुआ?
दोपहर करीब 1:30 बजेलगभग 3500 लोग किसान घाट पर जमा हुए। आरएएफ और सीआरपीएफ को वहां सुबह से ही तैनात किया गया था। इसके बादमजदूर जुलूस की शक्ल में शान्तिपूर्ण तरीके से दिल्ली सचिवालय की ओर रवाना हुए। उन्हें पहले बैरिकेड पर रोक दिया गया और पुलिस ने उनसे वहां से चले जाने को कहा। प्रदर्शनकरियों ने सरकार के किसी प्रतिनिधि से मिलने और उन्हें अपना ज्ञापन देने की बात कही। प्रदर्शनकारियों ने दिल्ली सचिवालय की ओर बढ़ने की कोशिश की। तभी पुलिस ने बिना कोई चेतावनी दिए बर्बर तरीके से लाठीचार्ज शुरू कर दिया और प्रदर्शनकारियों को खदेड़ना शुरू कर दिया। पहले चक्र के लाठीचार्ज में कुछ महिला मजदूर और कार्यकर्ता गंभीर रूप से घायल हो गयीं और सैकड़ों मजदूरों को पुलिस ने दौड़ा लिया। हालांकिबड़ी संख्या में मजदूर वहां बैरिकेड पर रुके रहे और अपना 'मजदूर सत्याग्रहशुरू कर दिया। यद्यपि पुलिस ने कई मजदूरों को वहां से खदेड़ कर भगा दियाफिर भीलगभग 1300 मजदूर वहां जमे हुए थे और उन्होंने अपना सत्याग्रह जारी रखा था। लगभग 700 संविदा शिक्षक सचिवालय के दूसरी ओर थेजो प्रदर्शन में शामिल होने आए थेलेकिन पुलिस ने उन्हें प्रदर्शन स्थल तक जाने नहीं दिया। इसलिए उन्होंने सचिवालय के दूसरी तरफ अपना विरोध प्रदर्शन जारी रखा। मजदूर संगठनकर्ता बार-बार पुलिस से आग्रह कर रहे थे कि उन्हें सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन देने दिया जाए। पुलिस ने इससे सीधे इनकार कर दिया। तब संगठनकर्ताओं ने पुलिस को याद दिलाया कि सरकार को ज्ञापन देना उनका संवैधानिक अधिकार है और सरकार इसे स्वीकार करने के लिए बाध्य है। इसके बाद भीपुलिस ने प्रदर्शनकारियों को सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन सौंपने नहीं दिया। तकरीबन डेढ़ घंटे इंतजार करने के बाद मजदूरों ने पुलिस को अल्टीमेटम दिया कि यदि आधे घंटे में उन्हें जाने नहीं दिया गया तो वे सचिवालय की ओर बढ़ेंगे। जब आधे घंटे के बाद पुलिस ने उन्हें सचिवालय जाने और अपना ज्ञापन सौंपने नहीं दियाइसके बाद पुलिस ने फिर से लाठीचार्ज किया। इस बार लाठीचार्ज ज्यादा बर्बर तरीके से हुआ।

​मैं पिछले 16 वर्ष से दिल्ली के छात्र आंदोलन और मज़दूर आंदोलन में सक्रिय रहा हूं और मैं कह सकता हूं कि मैंने दिल्ली में किसी प्रदर्शन के विरुद्ध पुलिस की ऐसी क्रूरता नहीं देखी है। महिला मज़दूरों और कार्यकर्ताओं को और मज़दूरों के नेताओं को खासतौर पर निशाना बनाया गया। पुरुष पुलिसकर्मियों ने निर्ममता के साथ स्त्रियों की पिटाई कीउन्हें बाल पकड़कर सड़कों पर घसीटाकपड़े फाड़ेनोच-खसोट की और अपमानित किया। किसी के लिए भी यह विश्वास करना मुश्किल होता कि किस तरह अनेक पुलिसकर्मी स्त्री मज़दूरों और कार्यकर्ताओं को पकड़कर पीट रहे थे। कुछ स्त्री कार्यकर्ताओं को तब तक पीटा गया जब तक लाठियां टूट गयीं या स्त्रियां बेहोश हो गयीं। मज़दूरों पर नजदीक से आंसू गैस छोड़ी गयी।
सैकड़ों मज़दूर इसके विरोध में शांतिपूर्ण सत्याग्रह के लिए ज़मीन पर लेट गयेफिर भी पुलिसवाले उन्हें पीटते रहे। आखिरकार मज़दूरों ने वहां से हटकर राजघाट पर विरोध जारी रखने की कोशिश की लेकिन पुलिस और रैपिड एक्शमन फोर्स ने वहां भी उनका पीछा किया और फिर से पिटाई की। पुलिस ने 17 कार्यकर्ताओं और मज़दूरों को गिरफ्तार किया जिनमें से एक मैं भी था। मेरे एक साथीयुवा कार्यकर्ता अनन्त को हिरासत में लेने के बाद भी मेरे सामने पीटा जाता रहा। पुलिस ने उसे भद्दी-भद्दी गालियां दीं। हिरासत में अन्य कार्यकर्ताओं और मज़दूरों के साथ भी ऐसा ही बर्ताव जारी रहा। लगभग सभी गिरफ्तार व्यक्ति घायल थे और उनमें से कुछ को गंभीर चोटें आयी थीं।

चार स्त्री कार्यकर्ता शिवानीवर्षावारुणी और वृशाली को हिरासत में लिया गया था और पिटायी में भी उन्हें खासतौर से निशाना बनाया गया था। वृशाली की उंगलियों में फ्रैक्चिर हैवर्षा के पैरों पर बुरी तरह लाठियां मारी गयींशिवानी की पीठ पर कई पुलिस वालों ने बार-बार चोट की और उनके सिर में भी चोट आयी और वारुणी को भी बुरी तरह पीटा गया। चोटों का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वारुणी और वर्षा को जमानत पर छूटने के बाद 27 मार्च को फिर से अरुणा आसफअली अस्पाताल में भर्ती कराना पड़ा। स्त्री कार्यकर्ताओं को पुलिस वाले लगातार गालियां देते रहें। पुलिसकर्मियों ने स्त्री कार्यकर्ता को जैसी अश्लील गालियां और अपमानजनक टिप्परणियों का निशाना बनाया जिसे यहां लिखा नहीं जा सकता। कार्यकर्ताओं और विरोध प्रदर्शन करने वालों के सम्मान को कुचलने की पुरानी पुलिसिया रणनीति का ही यह हिस्सा था।
गिरफ्तार किये गये 13 पुरुष कार्यकर्ता भी घायल थे और उनमें से को गंभीर चोटें आयी थीं। लेकिन उन्हें चिकित्सा उपचार के लिए घंटे से ज्यादा इंतजार कराया गया जबकि उनमें से दो के सिर की चोट से खून बह रहा था। आईपी स्टेंट पुलिस थाने में रहने के दौरान कई पुलिस वालों ने हमें बार-बार बताया कि लाठी चार्ज का आदेश सीधे मुख्यपमंत्री कार्यालय से दिया गया था। साथ हीपुलिस की मंशा शुरू से साफ थी : वे विरोध प्रदर्शनकारियों की बर्बर पिटाई करना चाहते थे। उन्होंने हमसे कहा कि इसका मकसद सबक सिखाना था।
अगले दिन स्त्री साथियों को जमानत मिल गयी और 13 पुरुष कार्यकर्ताओं को दो दिन के लिए सशर्त जमानत दी गयी। आई पी स्टेट पुलिस थाने को जमानतदारों और गिरफ्तार लोगों के पते सत्यापित करने के लिए कहा गया। पुलिस गिरफ्तार कार्यकर्ताओं को 14 दिन की पुलिस हिरासत में लेने की मांग कर रही थी। प्रशासन की मंशा साफ है : एक बार फिर कार्यकर्ताओं की पिटाई और यंत्रणा। पुलिस लगातार हमें फिर से गिरफ्तार करने और हम पर झूठे आरोप मढ़ने की कोशिश में है। जैसा कि अब पुलिस प्रशासन की रिवायत बन गयी हैजो कोई भी व्यवस्था के अन्याय का विरोध करता है उसे 'माओवादी'', ''नक्सलवादी'', ''आतंकवादी'' आदि बता दिया जाता है। इस मामले में भी पुलिस की मंशा साफ है। इससे यही पता चलता है कि भारत का पूंजीवादी लोकतंत्र कैसे काम करता है। खासतौर पर राजनीति और आर्थिक संकट के समय मेंयह व्यंवस्था की नग्न बर्बरता के विरुद्ध मेहनतकश अवाम के किसी भी तरह के प्रतिरोध का गला घोंटकर ही टिका रह सकता है। 25 मार्च की घटनायें इस तथ्य की गवाह हैं।
आगे क्या होना है?
शासक हमेशा ही यह मानने की ग़लती करते रहे हैं कि संघर्षरत स्त्रियोंमज़दूरों और छात्रों-युवाओं को बर्बरता का शिकार बनाकर वे विरोध की आवाज़ों को चुप करा देंगे। वे बार-बार ऐसी ग़लती करते हैं। यहां भी उन्होंने वही ग़लती दोहरायी है। 25 मार्च की पुलिस बर्बरता केजरीवाल सरकार द्वारा दिल्ली के मेहनतकश ग़रीबों को एक सन्देश देने की कोशिश थी और सन्देश यही था कि अगर दिल्ली के ग़रीबों के साथ केजरीवाल सरकार के विश्वासघात के विरुद्ध तुमने आवाज़ उठायी तो तुमसे ऐसे ही क्रूरता के साथ निपटा जायेगा। हमारे घाव अभी ताजा हैंहममें से कई की टांगें सूजी हैंउंगलियां टूटी हैंसिर फटे हुए हैं और शरीर की हर हरकत में हमें दर्द महसूस होता है। लेकिनइस अन्याय के विरुद्ध लड़ने और अरविंद केजरीवाल और उसकी 'आपपार्टी की घृणित धोखाधड़ी का पर्दाफाश करने का हमारा संकल्प और भी मज़बूत हो गया है।
ट्रेडयूनियनोंस्त्री संगठनों और छात्र संगठनों तथा हज़ारों मज़दूरों ने हार मानने से इंकार कर दिया है। उन्होंने घुटने टेकने से इंकार कर दिया है। हालांकि उनके बहुत से कार्यकर्ता अब भी चोटिल हैं और हममें से कुछ ठीक से चल भी नहीं सकते,फिर भी उन्होंने दिल्ली भर में भंडाफोड़ अभियान शुरू कर दिये हैं। केजरीवाल सरकार ने दिल्ली की मज़दूर आबादी के साथ घिनौना विश्वासघात किया है जिन्हों ने 'आपपर बहुत अधिक भरोसा किया था। दिल्ली की मेहनतकश आबादी आम आदमी पार्टी की धोखाधड़ी के लिए उसे माफ नहीं करेगी। मेरे ख्याल से आम आदमी पार्टी का फासीवादकम से कम थोड़े समय के लिए,भाजपा जैसी मुख्‍य धारा की फासिस्ट पार्टी से भी ज्यादा खतरनाक हैऔर मैंने 25 मार्च को खुद इसे महसूस किया। और इसका कारण साफ है। जिस तरह कम से कम तात्कालिक तौर पर छोटी पूंजी बड़ी पूंजी के मुकाबले अधिक शोषक और उत्पीड़क होती हैउसी तरह छोटी पूंजी का शासनकम से कम थोड़े समय के लिए बड़ी पूंजी के शासन की तुलना में कहीं अधिक उत्पीड़क होता है और आप की सरकार छोटी पूंजी की दक्षिणपंथी पापुलिस्टस तानाशाही का प्रतिनिधित्व करती हैऔर बेशक उसमें अंधराष्ट्रवादी फासीवाद का पुट भी है।25 मार्च की घटनाओं ने इस तथ्य को साफ जाहिर कर दिया है।

जाहिर है कि केजरीवाल घबराया हुआ है और उसे कुछ सूझ नहीं रहा। और इसीलिए उसकी सरकार इस तरह के कदम उठा रही है जो उसे और उसकी पार्टी को पूरी तरह नंगा कर रहे हैं। वह जानता है कि दिल्ली की ग़रीब मेहनतकश आबादी से किये गये वादे वह पूरा नहीं कर सकता हैखासकर स्था‍यी प्रकृति के कामों में ठेका प्रथा खत्मा करनाक्योंकि अगर उसने ऐसा करने की कोशिश भी कितो वह दिल्लीं के व्यापारियोंकारखाना मालिकों,ठेकेदारों और छोटे बिचौलियों के बीच अपना सामाजिक और आर्थिक आधार खो बैठेगा।'आपके एजेंडा की यही खासियत है : यह भानुमती के पिटारे जैसा एजेंडा है (साफ तौर पर वर्ग संश्रयवादी एजेंडा) जो छोटे व्यापारियोंधनी दुकानदारोंबिचौलियों और प्रोफेशनल्स/स्‍वरोजगार वाले निम्न बुर्जुआ वर्ग के अन्य हिस्सों के साथ ही झुग्गीवासियोंमज़दूरों आदि की मांगों को भी शामिल करता है। यह अपने एजेंडा की सभी मांगों को पूरा कर ही नहीं सकताक्यों कि इन अलग-अलग सामाजिक समूहों की मांगें एक-दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं। आप की असली पक्षधरता दिल्लीं के निम्न बुर्जुआ वर्ग के साथ है जो कि आप के दो महीने के शासन में साफ जाहिर हो चुका है। 'आपवास्तव में और राजनीतिक रूप से इन्हीं परजीवी नवधनाढ्य वर्गों की पार्टी है। 'आम आदमीकी जुमलेबाजी सिर्फ कांग्रेस और भाजपा से लोगों के पूर्ण मोहभंग से पैदा हुए अवसर का लाभ उठाने के लिए थी। चुनावों होने तक यह जुमलेबाजी उपयोगी थी। जैसे ही लोगों ने 'आपके पक्ष में वोट दियाकिसी विकल्प के अभाव मेंअरविंद केजरीवाल का असली कुरूप फासिस्ट चेहरा सामने आ गया।
आंतरिक तौर पर भीकेजरीवाल धड़े और यादव-भूषण धड़े के बीच जारी सत्ता संघर्ष के चलते 'आपकी राजनीति नंगी हो गयी है। इसका यह मतलब नहीं कि अगर यादव धड़े का वर्चस्व होतातो दिल्ली के मेहनतकशों के लिए हालात कुछ अलग होते। यह गंदी आंतरिक लड़ाई 'आपके असली चरित्र को ही उजागर करती है और बहुत से लोगों को यह समझने में मदद करती है कि 'आपकोई विकल्प़ नहीं है और यह कांग्रेसभाजपासपाबसपा,सीपीएम जैसी पार्टियों से कतई अलग नहीं है। खासतौर परदिल्ली के मज़दूर इस सच्चाई को समझ रहे हैं। यही वजह है कि 25 मार्च को ही पुलिस बर्बरता और केजरीवाल सरकार के विरुद्ध दिल्ली के हेडगेवार अस्पताल के कर्मचारियों ने स्वत:स्फू्र्त हड़ताल कर दी थी। दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन के मज़दूरोंअन्य अस्पतालों के ठेका मज़दूरोंठेके पर काम करने वाले शिक्षकोंझुग्गीवासियों और दिल्ली के ग़रीब विद्यार्थियों और बेरोजगार नौजवानों में गुस्सा सुलग रहा है। दिल्ली का मज़दूर वर्ग अपने अधिकार हासिल करने और केजरीवाल सरकार को उसके वादे पूरे करने के लिए बाध्य करने के लिए संगठित होने की शुरुआत कर चुका है। मज़दूरों को कुचलने की केजरीवाल सरकार की बौखलाहट भरी कोशिशें निश्चित तौर पर उसे भारी पड़ेंगी।
मज़दूरछात्र और स्त्री संगठनों ने दिल्ली के विभिन्न मेहनतकश और ग़रीब इलाकों में अपना भंडाफोड़ अभियान शुरू कर दिया है। अगर 'आपसरकार दिल्ली के ग़रीब मेहनतकशों से किये गये अपने वादे पूरे करने में नाकाम रहती है और हजारों स्त्रियों,मज़दूरों और छात्रों पर किये गये घृणित और बर्बर हमले के लिए माफी नहीं मांगती है तो उसे दिल्ली के मेहनतकश अवाम के बहिष्कार का सामना करना होगा। 25 मार्च को हम परदिल्ली के मज़दूरोंस्त्रियों और युवाओं पर की गयी हरेक चोट इस सरकार की एक घातक भूल साबित होगी।

इस बर्बर लाठीचार्ज से जुड़ी अन्‍य फोटोवीडियो व न्‍युज कवरेज को देखने के लिए इस लिंक पर जायें - http://www.mazdoorbigul.net/archives/7076

Avoir peur de la police, pas des manifs

Avoir peur de la police, pas des manifs

23 mars 2013 10h43 · Véronique Robert
Ce matin, dans La Presse, on pouvait lire ceci:
«Depuis les trois dernières manifestations, nous intervenons plus rapidement, a confirmé le sergent Jean-Bruno Latour, porte-parole du SPVM. Il ne faut pas prendre en otage les citoyens qui veulent venir au centre-ville de Montréal. Le Charte [des droits et libertés] protège le droit d'expression, mais il n'y pas de droit de manifestation»
Cette assertion aussi hurluberlue qu'affolante, alarmante, effrayante d'un policier du Service de police de la ville de Montréal mène à deux constats: Le premier, les policiers devraient impérativement suivre plus de cours de droit dans le cadre de leur formation. Le second, ça ne va pas du tout au Québec actuellement, et ça fait peur.
La Charte canadienne des droits et libertés, qui est le document de protection des droits fondamentaux régissant les rapports entre l'État et les individus, protège clairement le droit de manifester.
Protection, donc, de la liberté de conscience, de pensée, de croyance, d'opinion et d'expression.  Protection, en sus, de la liberté de réunion pacifique et de la liberté d'association.  Une association, et une réunion pacifique, sont entre autres des modes de transmission de cette expression.
Ces droits garantis par la Charte sont aussi garantis dans tous les documents de protection des droits fondamentaux au monde.  Oui, oui, au monde.
La Déclaration universelle des droits de l'homme, qui n'a pas force de loi mais qui demeure une magnifique déclaration de principe à laquelle le Canada a adhéré en 1948 énonce ceci :
«Article 19 : Tout individu a le droit à la liberté d'opinion et d'expression, ce qui implique le droit de ne pas être inquiété pour ses opinions et celui de chercher, de recevoir, et de répandre, sans considérations de frontières, les informations et les idées par quelque moyen d'expression que ce soit».
Le Pacte international relatif aux droits civils et politiques, dont le Canada est signataire, énonce non seulement le droit à la liberté d'expression, mais aussi les limites légales des restrictions à ce droit :
1. Nul ne peut être inquiété pour ses opinions.
2. Toute personne a droit à la liberté d'expression; ce droit comprend la liberté de rechercher, de recevoir et de répandre des informations et des idées de toute espèce, sans considération de frontières, sous une forme orale, écrite, imprimée ou artistique, ou par tout autre moyen de son choix.
3. L'exercice des libertés prévues au paragraphe 2 du présent article comporte des devoirs spéciaux et des responsabilités spéciales. Il peut en conséquence être soumis à certaines restrictions qui doivent toutefois être expressément fixées par la loi et qui sont nécessaires:
a) Au respect des droits ou de la réputation d'autrui;
b) A la sauvegarde de la sécurité nationale, de l'ordre public, de la santé ou de la moralité publiques.
Une loi, un règlement d'un État signataire, peut donc restreindre le droit à l'expression et le droit à la réunion pacifique, pour autant que la restriction soit nécessaire pour assurer la sécurité de la nation.
Ce type de restriction est d'usage, et normal, dans une société libre et démocratique.  Au Canada, une telle restriction prend place à l'article premier de la Charte.  L'exemple le plus facile à comprendre est celui de la propagande haineuse.  La liberté d'expression, oui, mais pas au point de protéger le droit à l'expression de la haine publique dangereuse. C'est ainsi que les dispositions qui criminalisent la propagande haineuse sont des restrictions raisonnables au droit à la liberté d'expression.
Il est évident que la participation active à une émeute ne fait l'objet d'aucune protection constitutionnelle. Il en va autrement de la participation à une manifestation.
Mais pour revenir au Pacte civil, le Comité des droits de l'homme de l'ONU s'est inquiété, en 2005, des arrestations de masse au Canada, plus particulièrement au Québec, plus particulièrement à Montréal, arrestations de masse qui, par définition, violent le droit à la liberté d'expression[1].
Le Comité a entre autres émis le constat suivant :
L'état partie devrait veiller à ce que le droit de chacun de participer pacifiquement à des manifestation de protestation sociale soit respecté et à ce que seuls ceux qui ont commis des infractions pénales au cours d'une manifestation soient arrêtés. 
Le Comité des droits de l'homme a, du même souffle, recommandé que le Canada mène une enquête publique sur les interventions de la police de Montréal pendant les manifestations et demandé à recevoir des informations sur l'article 63 du Code criminel qui prohibe l'attroupement illégal.
C'était il y a huit ans.  Rien n'a changé.  Pire, tout s'est envenimé.
Quand des policiers viennent dire sans gêne sur la place publique que le droit de manifester n'est pas un droit fondamental, il y a vraiment de quoi s'inquiéter alors inquiétons-nous.  (Et manifestons?)
Le Règlement P-6 de la ville de Montréal (Règlement sur la prévention des troubles de la paix, de la sécurité et de l'ordre publics, et sur l'utilisation du domaine public ) doit faire l'objet d'une contestation devant les tribunaux, certes, puisque l'obligation de donner l'itinéraire d'une manifestation à l'avance, tout comme l'interdiction de se déguiser ou de se protéger le visage lors d'une manifestation doivent être étudiés juridiquement.  Mais c'est surtout, dans le contexte actuel, l'application de ce règlement, et son interprétation, par le SPVM, qui doit faire l'objet d'une contestation.
Les organismes de défense des droits, dont la Ligue des droits et libertés, s'opposent à ce règlement.  L'Association des juristes progressistesen demande l'abrogation immédiate.  LeBarreau du Québec a aussi pris position contre cette mesure excessive qu'est le Règlement P.-6.
Que des jeunes, et des moins jeunes, reçoivent des contraventions de 614 dollars pour avoir participé à des assemblées publiques fait peur.  Que des mouvements de protestation soient brimés dès lors qu'ils se forment fait peur.  Que des policiers détiennent massivement des citoyens pour rien fait peur.  Qu'on confonde interpellation policière et arrestation arbitraire pour avoir exercé un droit constitutionnel fait peur.
Ce qui fait peur, à Montréal, actuellement, c'est la police avec ses déclarations totalitaires.  Ce qui fait peur c'est l'État et son mode de gouvernance.  Pas les manifestants.


[1] Le texte du rapport est ici :   Lire aussi à ce sujet DUPUIS-DÉRI, Francis, «Broyer du noir : manifestations et répression policière au Québec», Les ateliers de l'éthique, v.1. no. 1, printemps 2006.






Direct  Democracy   Movement
Mouvement  démocratie  directe




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Let be enlightened Bengal

Let be enlightened Bengal
One after one the horrible and shameful acts are being continuing in West Bengal. It because of the shameless role of West Bengal government who ignored the RAPE CASES as organized conspiracy (SAJANO GHATANA). After the gang rape at Park Street Mamata Benerjee reacted it as SAJANO GHATANA. No fruitful steps done by her. Hole Bengal raised their voices after the terrible gang rape at Kamduni. The government gave support to the rapist rather giving the JUSTICE to the victim. For this shameless and nonsense responsibility the position of West Bengal come into first place in RAPPING in India. We doubt there be a hidden agenda to socialize the shameful act for their political game !!
The RAPING POLITICAL GAME of West Bengal Government has crossed the limit at the Gangnapur incident. A 72-year-old nun was allegedly gang-raped at a convent school in Ranaghat area of West Bengal`s Nadia district.
It has held head down of us. It has held head down of West Bengal in the World !!
We are loudly condemning the political game of RAPING and giving moral support to the respectful Nun. JAI SACHETAN BANGLA

'Let be enlightened Bengal :    One after one the horrible and shameful acts are being continuing in West Bengal. It because of the shameless role of West Bengal government who ignored the RAPE CASES as organized conspiracy (SAJANO GHATANA).  After the gang rape at Park Street Mamata Benerjee reacted it as SAJANO GHATANA. No fruitful steps done by her. Hole Bengal raised their voices after the terrible gang rape at Kamduni. The government gave support to the rapist rather giving the JUSTICE to the victim. For this shameless and nonsense responsibility the position of West Bengal come into first place in RAPPING in India. We doubt there be a hidden agenda to socialize the shameful act for their political game !!    The RAPING POLITICAL GAME of West Bengal Government has crossed the limit at the Gangnapur incident.  A 72-year-old nun was allegedly gang-raped at a convent school in Ranaghat area of West Bengal`s Nadia district.   It has held head down of us. It has held head down of West Bengal in the World !!      We are loudly condemning the political game of RAPING and giving moral support to the respectful Nun. JAI SACHETAN BANGLA'

‘बदलते परिवेश में जन प्रतिरोध्’ विषय पर 'समकालीन तीसरी दुनिया' के सम्पादक आनंद स्वरूप वर्मा के भाषण का संक्षिप्त रूप

उमेश डोभाल स्मृति रजत जयंती समारोह 
पौड़ी गढ़वाल/25 मार्च, 2015 
'बदलते परिवेश में जन प्रतिरोध्विषय पर
'समकालीन तीसरी दुनिया' के सम्पादक 
आनंद स्वरूप वर्मा के भाषण का संक्षिप्त रूप 

...उमेश डोभाल की याद में आयोजित इस समारोह में आने का अवसर पा कर मैं काफी गर्व का अनुभव कर रहा हूं। बहुत दिनों से पौड़ी आने की इच्छा थी। 1980 में जब मैंने समकालीन तीसरी दुनिया का प्रकाशन शुरू किया था उस समय से ही यहां राजेन्द्र रावत राजू से मेरी मित्रता शुरू हुई जो काफी समय तक बनी रही। उनके निधन के बाद यह जगह मेरे लिए अपरिचित सी हो गयी और फिर धीरे-धीरे यहां से संबंध् कमजोर पड़ता चला गया। आज उमेश डोभाल की कर्मभूमि में आने का जो अवसर प्राप्त हुआ उसका लाभ उठाते हुए मैं कुछ बातें आपके साथ साझा करना चाहता हूं। 

उमेश डोभाल की हत्या के बाद कई महीनों तक यह मामला राष्ट्रीय चर्चा का विषय नहीं बन सका था। फिर जून 1988 में एक दिन मेरे पत्रकार मित्र राजेश जोशी ने जो उन दिनों जनसत्ता में थे इस घटना के बारे में जानकारी दी और बताया कि किस तरह 25 मार्च से ही उमेश लापता हैं और संदेह है कि शराब माफिया ने उनकी हत्या कर दी लेकिन प्रशासन बिल्कुल इस घटना से बेपरवाह है। फिर हम लोगों ने जून 1988 को तीसरी दुनिया अध्ययन केन्द्र की ओर से एक अपील जारी की जिसकी एक प्रति यहां मेरे पास है और फिर एक कमेटी बनाकर उमेश डोभाल की हत्या के सवाल को उजागर किया गया। धीरे-धीरे यह आंदोलन का रूप लेता गया और बाद में तो आपको पता है कि यह कितना बड़ा आंदोलन हो गया जिसने न केवल तत्कालीन उत्तर प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र में बल्कि पूरे देश में एक हलचल मचा दी। यहां यह भी मैं बताना चाहूंगा कि उमेश डोभाल की हत्या के पीछे मनमोहन सिंह नेगी उर्फ मन्नू नामक कुख्यात शराब माफिया का इतना आतंक था कि दिल्ली तक में उत्तराखंड का कोई पत्रकार इस मामले में पहल लेने के लिए तैयार नहीं था। नतीजतन जो समिति बनी उसका संयोजक मुझे बनाया गया। धरनाप्रदर्शनोंजुलूसों आदि का सिलसिला शुरू हुआ जो तेज होता गया और पत्रकारों के अलावा विभिन्न तबकों के बीच इस प्रसंग पर चर्चा होने लगी। बहरहाल इस अवसर पर 27 वर्ष पूर्व की सारी घटनाएं मुझे याद आ गयीं जिसे मैंने आपसे शेयर किया।

अब आज के विषय पर चर्चा की जाय। आज का विषय है 'बदलते परिवेश में जनप्रतिरोध्'। हमें जानना है कि परिवेश में किस तरह का बदलाव आया है और जनप्रतिरोध् ने कौन से रूप अख्तियार किए हैं। पिछले सत्र में उमेश डोभाल के बड़े भाई साहब ने एक बात कही थी कि जिन परिस्थितियों में उमेश डोभाल जनता के पक्ष में पत्रकारिता कर रहे थे वे परिस्थितियां आज और भी ज्यादा तीव्र और खतरनाक हो गयी हैं इसलिए आज पत्रकारों को पहले के मुकाबले कहीं ज्यादा शिद्दत के साथ काम करने की जरूरत है। मैं उनकी बात से पूरी तरह सहमत हूं और इसी संदर्भ में बदली हुई परिस्थितियों पर बहुत संक्षेप में कुछ कहना चाहूंगा। 1990 के बाद से वैश्वीकरण का जो दौर शुरू हुआ उसकी वजह से हमारा समूचा शासनतंत्र बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बड़े कॉरपोरेट घरानों के कब्जे में आ गया। सत्ता पर उनका नियंत्रण मजबूत होता चला गया। यह सिलसिला नरसिंह राव की सरकार से शुरू हुआ और अटल बिहारी वाजपेयीमनमोहन सिंह की सरकार से लेकर नरेन्द्र मोदी की सरकार आते-आते काफी खतरनाक रूप ले चुका है। इसी संदर्भ में मैं विश्व बैंक द्वारा जारी उस दस्तावेज का जिक्र करना चाहूंगा जिसका शीर्षक था 'रीडिफाइनिंग दि रोल ऑफ स्टेटअर्थात राज्य की भूमिका को पुनर्परिभाषित करना। इस दस्तावेज को नोबेल पुरस्कार विजेता प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जोसेफ स्तिगलीज ने तैयार किया था जो उन दिनों विश्व बैंक के उपाध्यक्ष थे और वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक थे। बाद में स्तिगलीज वैश्वीकरण के जबर्दस्त विरोधी हो गए और उन्होंने वैश्वीकरण की खामियों को लेकर कुछ बहुत अच्छी चर्चित पुस्तकें लिखीं। इस दस्तावेज को सारी दुनिया के पूंजीवादपरस्तों ने और खास तौर पर तीसरी दुनिया अर्थात एशिया,फ्रीका और लातिन अमेरिका के देशों के शासकों ने बाइबिल की तरह अपना लिया। इस दस्तावेज में इन देशों की सरकारों को सलाह दी गयी थी कि वे कल्याणकारी कार्यों से अपना हाथ खींच लें और इन सारे कामों को निजी कंपनियों को सौंप दें। इसमें यह भी कहा गया था कि यह जिम्मेदारी सौंपने के बाद सरकार एक 'फेसिलिटेटरअर्थात सहजकर्ता की भूमिका निभाए। इसका अर्थ यह हुआ कि शिक्षास्वास्थ्यपेयजलपरिवहन आदि की जिम्मेदारी निजी कंपनियों को सौंप दी जाए। अब इसके निहितार्थ पर गौर करें। 1947 के बाद से हम एक कल्याणकारी राज्य की कल्पना कर रहे थे और हमें उम्मीद थी कि क्रमशः हम उस दिशा में बढ़ते जाएंगे। अगर जन कल्याणकारी कामों की जिम्मेदारी निजी कंपनियों को सौंप दी जाती है तो ये कंपनियां इन कामों को फायदे और नुकसान के तराजू पर तौलकर ही आगे बढ़ेंगी जबकि इन क्षेत्रों में नुकसान और फायदे के अर्थ में नहीं सोचा जाना चाहिए। इस नीति पर काम करते हुए 1998 में प्रधनमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 'पी.एम. कौंसिल ऑन ट्रेड ऐंड इंडस्ट्रीजका गठन किया और देश के प्रमुख उद्योगपतियों को अलग-अलग जिम्मेदारियां सौंपी। मसलन शिक्षा की जिम्मेदारी मुकेश अंबानी कोस्वास्थ्य की जिम्मेदारी राहुल बजाज को और इसी तरह विभिन्न विभागों की जिम्मेदारी अलग-अलग उद्योगपतियों को सौंप दी गयी। अब इसके निहितार्थों पर गौर करें। अगर ऐसा हो जाता है तो जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों की न तो कोई जरूरत रहेगी और न इन प्रतिनिधियों की संस्थाओं अर्थात विधानमंडलों और संसद की कोई प्रासंगिकता रह जाएगी। प्रधानमंत्री कार्यालय ने सभी मंत्रालयों को यह निर्देश भेजा कि पी.एम. कौंसिल ऑन ट्रेड ऐंड इंडस्ट्रीज को एपेक्स बॉडी माना जाए और इन पंूजीपतियों को मंत्रालय की वे सभी फाइलें उपलब्ध् करायी जाएं जो वे चाहते हैं। मजे की बात यह है कि इतनी बड़ी घटना को किसी अखबार ने अपने यहां प्रकाशित करने की जरूरत नहीं महसूस की। केवल 'हिन्दूनामक अंग्रेजी अखबार में एक छोटी सी खबर प्रकाशित हुई थी। बाद में कुछ उत्साही पत्रकारों ने अपनी पहल से इसे प्रचारित किया और जब यह खबर काफी चर्चा में आ गयी तो इस योजना को बैक बर्नर पर डाल दिया गया। मेरा मानना है कि यह सारा काम छुपे तौर पर होने लगा जो आज पूरी तरह उजागर हो चुका है। आपने खुद महसूस किया होगा कि छत्तीसगढ़ हो या झारखंड या उड़ीसा-इन सारे क्षेत्रों में किस तरह बड़े कार्पोरेट घराने जलजंगल और जमीन की लूट में लगे हुए हैं। किस तरह वेदांता ने उड़ीसा में नियामगिरि की पहाड़ियों को बॉक्साइट के लिए खोद डाला और पर्यावरण का सत्यानाश कर दिया। किस तरह छत्तीसगढ़ में जनता के शांतिपूर्ण प्रतिरोध् का दमन करते हुए बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने कच्चे लोहे की तलाश में गांव के गांव उजाड़ दिए और लोगों को तबाही के कगार में झोकने के साथ ही समूचे इलाके को हिंसा की चपेट में डाल दिया। 
मैं जोर देकर यह कहना चाहता हूं कि अगर जनतांत्रिक आंदोलनों का दायरा सिकुड़ता जाएगा तो इससे हिंसा का रास्ता तैयार होगा। यह बात देश-विदेश के सभी समाज वैज्ञानिक कहते रहे हैं। अगर आप प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक हेराल्ड लॉस्की के प्रसिद्ध ग्रंथ 'ग्रामर ऑफ पॉलिटिक्सको पढें तो पता चलता है कि क्यों उन्होंने सरकारों को सलाह दी थी कि कभी भी न तो खुले संगठनों पर पाबंदी लगाओ और न कल्याणकारी कार्यों को राज्य के दायरे से बाहर रखो। उन्होंने चेतावनी दी थी कि अगर ऐसा किया तो पूरा समाज हिंसा और विद्रोह की चपेट में आ जाएगा और तुम कुछ नहीं कर सकोगे। जिन इलाकों का मैंने जिक्र किया है वे आज हिंसा की चपेट में हैं और यह स्थिति सरकार की कॉरपोरेटपरस्त नीतियों की वजह से तैयार हुई है। यह बात केवल मैं नहीं कह रहा हूं-सरकारी दस्तावेज मेरे इस कथन की पुष्टि करते हैं। यहा मैं 2008 में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा जारी उस रिपोर्ट का जिक्र करना चाहूंगा जिसका शीर्षक है 'कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस ऐंड अनफिनिश्ड टॉस्क ऑफ लैंड रिफार्म्स'। इसकी अध्यक्षता केन्द्रीय ग्राम विकास मंत्री ने की।  15 सदस्यों वाली इस समिति में अनेक राज्यों के सचिव और विभिन्न क्षेत्रों के विद्वान तथा कुछ अवकाशप्राप्त प्रशासनिक अधिकारी शामिल थे। इस रिपोर्ट में बताया गया है कि विकास परियोजनाओं के नाम पर कितने बड़े पैमाने पर उपजाऊ जमीन और वन क्षेत्र को उद्योगपतियों को दिया गया। 
मैं इस रिपोर्ट के एक अंश को पढ़कर सुनाना चाहूंगा-'आदिवासियों की जमीन हड़पने की कोलंबस के बाद की सबसे बड़ी कार्रवाईउपशीर्षक के अंतर्गत भारत सरकार की इस रिपोर्ट में बताया गया है कि- 
''छत्तीसगढ़ के तीन दक्षिणी जिलों बस्तरदांतेवाड़ा और बीजापुर में गृहयुद्ध जैसी स्थिति बनी हुई है। यहां एक तरफ तो आदिवासी पुरुषों और महिलाओं के हथियारबंद दस्ते हैं जो पहले पीपुल्स वॉर ग्रुप में थे और अब भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ जुड़े हैं तथा दूसरी तरफ सरकार द्वारा प्रोत्साहित सलवा जुडुम के हथियारबंद आदिवासी लड़ाकू हैं जिनको आधुनिक हथियारों और केंद्रीय पुलिस बल के तमाम संगठनों का समर्थन प्राप्त है। यहां जमीन हड़पने की अब तक की सबसे बड़ी कार्रवाई चल रही है और जो पटकथा तैयार की गयी है वह अगर इसी तरह आगे बढ़ती रही तो यह युद्ध लंबे समय तक जारी रहेगा। इस पटकथा को तैयार किया है टाटा स्टील और एस्सार स्टील ने जो सात गांवों पर और आसपास के इलाकों पर कब्जा करना चाहते थे ताकि भारत के समृद्धतम लौह भंडार का खनन कर सकें। 
''शुरू में जमीन अधिग्रहण और विस्थापन का आदिवासियों ने प्रतिरोध् किया। प्रतिरोध् इतना तीव्र था कि राज्य को अपनी योजना से हाथ खींचना पड़ा... सलवा जुडुम के साथ नये सिरे से काम शुरू हुआ। अजीब विडंबना है कि कांग्रेसी विधायक और सदन में विपक्ष के नेता महेंद्र कर्मा ने इसकी शुरुआत की लेकिन भाजपा शासित सरकार से इसे भरपूर समर्थन मिला... इस अभियान के पीछे व्यापारीठेकेदार और खानों की खुदाई के कारोबार में लगे लेाग हैं जो अपनी इस रणनीति के सफल नतीजे की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सलवा जुडुम शुरू करने के लिए पैसे मुहैया करने का काम टाटा और एस्सार ग्रुप ने किया क्योंकि वे 'शांतिकी तलाश में थे। सलवा जुडुम का पहला प्रहार मुड़िया लेागों पर हुआ जो अभी भी भाकपा (माओवादीद्) के प्रति निष्ठावान हैं। यह भाई भाई के बीच खुला युद्ध बन गया। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 640 गांव खाली करा दिये गयेइन गांवों के मकानों को ढाह दिया गया और बंदूक की नोक पर तथा राज्य के अशीर्वाद से लोगों को इलाके से बेदखल कर दिया गया। साढ़े तीन लाख आदिवासीजो दांतेवाड़ा जिले की आधी आबादी के बराबर हैंविस्थापित हुएउनकी औरतें बलात्कार की शिकार हुईंउनकी बेटियां मारी गयीं और उनके युवकों को विकलांग बना दिया गया। जो भागकर जंगल तक नहीं जा पाये उन्हें झुंड के झुंड में विस्थापितों के लिए बने शिविरों में डाल दिया गया जिसका संचालन सलवा जुडुम द्वारा किया जाता है। जो बच रहे वे छुपते छुपाते जंगलों में भाग गये या उन्होंने पड़ोस के महाराष्ट्रआंध्र प्रदेश और उड़ीसा में जाकर शरण ली। 
''640 गांव खाली हो चुके हैं। हजारों लाखों टन लोहे के ऊपर बैठे इन गांवों से लोगों को भगा दिया गया है और अब ये गांव सबसे ऊँची बोली बोलने वाले के लिए तैयार बैठे हैं। ताजा जानकारी के अुनसार टाटा स्टील और एस्सार स्टील दोनों इस इलाके पर कब्जा करना चाहते हैं ताकि वहां की खानें इनके पास आ जायं।'' (पृ. 160-161) 
यह रिपोर्ट अभी भी इंटरनेट पर उपलब्ध् है जिसे आप देख सकते हैं।

सरकारें अपने स्वार्थ के लिए किस तरह जनतांत्रिक आंदोलनों के दायरे को खत्म करती जा रही हैं इसका उदाहरण देते हुए मैं आपके सामने कुछ तथ्य रखना चाहूंगा। मैं आपको 1998 की याद दिलाऊंगा जब गृहमंत्री के पद पर लालकृष्ण आडवाणी थे। उस वर्ष हैदराबाद में आडवाणी ने नक्सलवाद प्रभावित राज्यों के मुख्यमंत्रियों और पुलिस महानिरीक्षकों की अलग-अलग बैठकें बुलाईं। इन बैठकों में चार राज्य-आंध्र प्रदेशमध्य प्रदेशउड़ीसा और महाराष्ट्र शामिल थे। सितंबर 2005 में इसी विषय पर तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने एक बैठक बुलायी जिसमें 13 राज्यों के मुख्यमंत्रियों को आमंत्रित किया गया था। फिर जनवरी 2006 में पाटिल ने एक और बैठक बुलायी और इस बार 15 राज्यों के मुख्यमंत्री शामिल थे। अखबारों में छपी खबरों के अनुसार बैठक के दौरान लंच के समय तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता ने बाहर कुछ पत्रकारों से कहा कि उनके राज्य में नक्सलवाद या माओवाद बिल्कुल नहीं है फिर भी उन्हें बुला लिया गया। अब जरा आंकड़ों पर विचार करें।
1998 में नक्सलवाद प्रभावित राज्यों की संख्या सरकारी आंकड़े के अनुसार चार थी जो 2006 आते-आते 15 हो गयी थी। देश के अंदर कुल 28-29 राज्य हैं। अब इनमें अगर 15 को नक्सलवाद प्रभावित मान लिया जाए तो क्या स्थिति दिखायी देती है। उत्तर पूर्व के सात राज्य पहले से ही अशांत घोषित हैं जहां 1958 से ही आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पॉवर्स ऐक्ट लगाकर शासन किया जा रहा है। कश्मीर स्थायी तौर पर अशांत रहता है तो ऐसी स्थिति में क्या यह माना जाय कि 28 में से 23 राज्य ऐसे हैं जहां शासन करना सरकार के लिए मुश्किल है?
ऐसा है नहीं। दरअसल यह सारा कुछ माओवाद का हौवा खड़ा करना था जिसका मकसद यह था कि जब इन इलाकों में बाजार की ताकतें प्रवेश करेंगी और इनके खिलाफ प्रतिरोध् शुरू होगा तो उसका दमन करने के लिए पहले से ही एक वातावरण तैयार किया जाए। अपने दमन को न्यायोचित ठहराने और बाजार की ताकतों को मदद पहुंचाने के लिए सरकार ने यह माहौल तैयार किया। वह झूठे आंकड़े प्रचारित करती रही। 
ऊपर जिन बैठकों की चर्चा की गयी है उसी में गृहमंत्री ने केन्द्र सरकार की इस नीति का खुलासा किया कि जिन राज्यों में नक्सलवाद या माओवाद विकसित हो रहा है उन्हें केन्द्र से इस बात के लिए विशेष पैकेज दिया जाएगा ताकि वे अपने यहां उग्रवाद का मुकाबला कर सकंे। 21 दिसंबर 2007 को विभिन्न अखबारों के नैनीताल संस्करण में एक खबर प्रकाशित हुई कि उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवनचंद खंडूरी ने केन्द्र सरकार से राज्य की आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था को उन्नत करने के लिए 208 करोड़ की मांग की है। खंडूरी का कहना था कि राज्य में माओवाद का खतरा बढ़ गया है क्योंकि पड़ोस में नेपाल है और वहां से माओवादी इनके इलाके में घुसपैठ करते हैं। उसी दिन के अमर उजाला के नैनीताल संस्करण में यह खबर छपी कि हंसपुर खत्ता और चौखुटिया के जंगलों में कुछ सशस्त्र लोग घूमते हुए दिखायी दिए जिनके माओवादी होने का संदेह है। फिर 24 दिसंबर को इन्हीं अखबारों ने प्रकाशित किया कि प्रशांत राही नामक जोनल कमांडर को हंसपुर खत्ता के जंगलों से उस समय गिरफ्रतार किया गया जब वह अपने पांच साथियों के साथ मीटिंग कर रहे थे। इसके बाद उत्तराखंड में एक के बाद सात आठ लोगों की गिरफ्रतारी हुई और उन्हें माओवादी बताकर जेल में डाल दिया गया। यह अलग बात है कि बाद में अदालत ने उन सभी को सबूत के अभाव में रिहा कर दिया लेकिन तब तक वे लोग सात वर्ष जेल में बिता चुके थे। आज इतने वर्षों बाद भी अभी तक ऐसी कोई खबर नहीं मिली है जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि उत्तराखंड में माओवादी हिंसा का कोई प्रभाव दिखाई देता है। दरअसल सभी गिरफ्तार युवक सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता थे जो निश्चित तौर पर कम्युनिस्ट विचारों से प्रेरित थे लेकिन जिनका संघर्ष संवैधानिक दायरे के अंदर ही था। 
उन्हीं दिनों हमलोग एक फैक्ट फाइडिंग टीम लेकर उत्तराखंड आए थे। उस टीम में मेरे अलावा गौतम नवलखापंकज बिष्टराजेन्द्र धस्मानाभूपेन आदि कुछ साथी थे और हमने उस समय यहां के एक अत्यंत महत्वपूर्ण पुलिस अधिकारी से जिनका उपनाम गणपति था भेंट की और जानना चाहा कि किस आधार पर इन सारे लोगों को पकड़कर जेल में डाल दिया गया है। उस अधिकारी ने हमें बताया कि खुफिया सूत्रों से सरकार को जानकारी मिली थी कि राज्य में माओवादी गतिविधियां शुरू हो रही हैं। हमने जब उनसे कहा कि हमें तो कहीं भी इस तरह की गतिविधियाँ नहीं दिखायी दी तो उनका जवाब था कि 'आपको इसलिए नहीं दिखायी दीं क्योंकि हमने उन्हें पहले ही पकड़ लिया 'ऐंड वी निप्पड इट इन दि बडमतलब यह कि बिना किसी प्रमाण के इस आशंका के आधार पर कि राजनीतिक तौर पर जनता के पक्ष में सक्रिय ये लोग आने वाले दिनों में माओवादी हो सकते हैंउन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और जेल में डाल दिया गया। 
तो ऐसी स्थिति है। मीडिया भी दुर्भाग्यवश पुलिस विभाग का स्टेनो बन गया है। विभाग जो बयान देता है या जो सर्कुलर जारी करता है उसके आधार पर वे अपनी रिपोर्ट तैयार करते हैं और किसी तरह की खोजबीन की जहमत नहीं उठाते। उन्होंने कभी यह जानने की कोशिश ही नहीं की कि प्रशांत राही देहरादून में अपने घर के सामने गिरफ्तार किए गए या हंसपुर खत्ता के जंगल में जैसा कि पुलिस बता रही है। बहरहाल ये कुछ ऐसी बातें हैं जिनपर हमें बड़ी संजीदगी से विचार करना है और इनका ताल्लुक सीधे-सीधे जनतंत्र से है। मैं एक कम्युनिस्ट हूं लेकिन अपने कम्युनिस्ट मित्रों से कहता हूं कि देश के मौजूदा हालात को देखते हुए वे अभी क्रांति और कम्युनिज्म के एजेंडा को कुछ समय के लिए दरकिनार करते हुए जनतंत्र को बचाने के एजेंडा पर सक्रिय हो जाएं। ऐसा मैं इसलिए कहता हूं कि हमारे देश में आज जनतंत्र पर ही खतरा मंडरा रहा है जो मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद और भी ज्यादा खतरनाक रूप ले चुका है। हमें इस पर बहुत गंभीरता से सोचने की जरूरत है क्योंकि अगर जनतंत्र ही नहीं रहेगा तो समाजवाद या साम्यवाद की भी कल्पना नहीं की जा सकती। 
अब मैं थोड़ा बौद्धिक कर्म और बुद्धिजीवियों की भूमिका की चर्चा करना चाहूंगा। यह एक अजीब सी बात है कि हमारी पूरी सोच यूरो सेंट्रिक या अमेरिका सेंट्रिक है। आप खुद देखिए कि अखबारों से आपको यूरोप और अमेरिका के बारे में तो काफी कुछ जानकारी मिल जाती है लेकिन भूटानमालदीव,बांग्लादेश या अगल-बगल के देशों की घटनाओं की कोई जानकारी नहीं मिलती। वैसे भी मीडिया का लगातार ह्रास होता गया है। अब से 30 साल पहले कम पन्नों के अखबार निकलते थेएक या दो संस्करण निकलते थे लेकिन किसी न किसी रूप में पूरे देश या कम से कम पूरे प्रदेश की जानकारी मिल जाती थी। लेकिन आज 30-30 पेज के अखबार निकलते हैंउनके बीसियों संस्करण निकलते हैं लेकिन पौड़ी की खबर श्रीनगर को नहीं या देहरादून की खबर मसूरी के लोगों को नहीं मिलती जबकि ये इलाके एक-दूसरे से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर हैं। अब खबरें स्थानीय पृष्ठों तक सिमट कर रह गयी हैं। मैं इसे मीडिया का विकास कैसे कहूं जब सूचना प्रौद्योगिकी के इस युग में लोग लगातार एक-दूसरे से कटते जा रहे हों। दरअसल हमने प्रिंटिंग टेक्नोलॉजी के विकास को मीडिया का विकास समझने की भूल की। मीडिया आज मिस-इन्फॉरमेशन और डिस-इन्फॉरमेशन फैलाने में लगा है। सत्ता ने सूचना को या कहें कि खबरों को एक हथियार बना लिया है-जनता को गलत सूचनाएं देना। इस हथियार का मुकाबला हमें इसी हथियार से करना होगा अर्थात जनता को ज्यादा से ज्यादा सही सूचनाएं पहुंचाना। मैंने तीसरी दुनिया के माध्यम से इसी काम को लगातार आगे बढ़ाया है। हमें नए-नए तरीके विकसित करने होंगे ताकि जनता को सही जानकारियों से लैस कर सकें। अगर हम लोगों को जागरूक बना सकें तो सामाजिक बदलाव में लगी शक्तियां खुद-ब-खुद उनका सही इस्तेमाल कर लेंगी। 
मैं बौद्धिक कर्म की बात कर रहा था। दुनिया के कुछ देशों में ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं जहां बुद्धिजीवियों ने पहल की और उनके सांस्कृतिक संगठनों ने आगे चलकर एक ऐसे राजनीतिक संगठन का रूप लिया जिसने सशस्त्र संघर्ष के जरिए अपने देश से विदेशी सत्ता को उखाड़ फेंका। मैं यहां अफ्रीका के तीन देशों का जिक्र करना चाहूंगा जो पुर्तगाली उपनिवेश थे और जहां संस्कृतिकर्मियों ने मुक्ति आंदोलनों की शुरुआत की। ये देश हैं-अंगोला,मोजाम्बीक और गिनी बिसाऊ। अंगोला में युवा कवि अगोस्तिनो नेतोमोजाम्बीक में एडुवार्डों मोण्डालेन और गिनी बिसाऊ में अमिल्कर कबराल नामक बुद्धिजीवियों ने पुर्तगाल की राजधनी लिज्बन में छात्र रहते हुए एक सांस्कृतिक संगठन की स्थापना की जिसका नाम अगर अंग्रेजी में कहें तो 'लेट अस डिस्कवर अफ़्रीकाथा। यही संगठन आगे चलकर अंगोला में एमपीएलए (पीपुल्स मूवमेंट फॉर दि लिबरेशन ऑफ अंगोला)मोजाम्बीक में फ्रेलिमो (फ्रंटफॉर दि लिबरेशन ऑफ मोजाम्बीकद्) और गिनी बिसाऊ में 'पीएआईजीसी (फ्रीकन पार्टी फॉर दि इंडिपेंडेंस ऑफ गिनी ऐंड केपवर्डे) के नाम से सक्रिय हुआ और सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत करते हुए 1975 में इसने पुर्तगाली उपनिवेश से अपने-अपने देशों को आजाद कराया। अगोस्तीनो नेतो की कविताएं और अमिल्कर कबराल के संस्कृति से संबंधित लेख हिन्दी सहित दुनिया की सभी भाषाओं में चर्चित और उपलब्ध् हैं। 
दूसरी घटना का संबंध् भी पश्चिम अफ्रीकी देश नाइजीरिया से है... मैं यहां जानबूझ कर इन देशों का उदाहरण दे रहा हूं क्योंकि तीसरी दुनिया के देशों की सामाजिकराजनीतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों और हमारे देश की परिस्थितियों में काफी समानता दिखायी देती है। पहली बात तो यह है कि यहां अधिकांश देश ब्रिटेन के गुलाम रहेइनकी समाज व्यवस्थाएं काफी हद तक पिछड़ी रहीं और इनमें से अधिकांश देश चूंकि भारत की तरह कृषि प्रधान थे इसलिए इनके मुहावरे भी हमारे मुहावरों से काफी मिलते-जुलते हैं। विडंबना यह है कि हम इन देशों के बारे में कम बल्कि बहुत कम जानते हैं... तो मैं नाइजीरिया की बात कर रहा था। 1965 में नाइजीरिया में सैनिक तानाशाहों ने फर्जी चुनाव कराए और अपने पक्ष में नतीजे घोषित कराने लगे। वहां के एक कवि हैं वोले सोयिंका जिन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार मिल चुका है। उन दिनों वह युवा थे और कवि के रूप में उनकी एक पहचान बनी हुई थी। उन्होंने जब देखा कि रेडियो लगातार झूठी खबरें प्रसारित कर रहा है तो आवेश में आकर उन्होंने एक बंदूक उठायी और सीधे रेडियो स्टेशन में घुस गएसमाचारवाचक के सामने से माइक अपने सामने किया और ऐलान किया कि सारी झूठी खबरें प्रसारित हो रही हैं और चुनाव में जबर्दस्त धांधली हुई है। जाहिर सी बात है कि इसके बाद उन्हें गिरफ्तार होना ही था। वह जेल गए और जेल में ही उन्होंने एक बड़ी शानदार किताब लिखी।1996 में वोले सोयिंका ने सैनिक तानाशाह सानी अबाचा के खिलाफ गुप्त रूप से एक रेडियो स्टेशन स्थापित किया और जनता को सरकार के खिलाफ विद्रोह के लिए प्रेरित करते रहे। अब आप खुद देखें कि 1965 में जिस जज्बे के साथ उन्होंने रेडियो स्टेशन पर कब्जा किया था वह जज्बा नोबेल पुरस्कार पाने के बावजूद 30 साल बाद भी उनके अंदर कायम था। सोयिंका कम्युनिस्ट नहीं हैं-बल्कि उन्हें कम्युनिस्ट विरोधी भी कहा जा सकता है लेकिन वह जनतंत्र और जनतांत्रिक मूल्यों के प्रबल समर्थक हैं और जब भी कहीं जनतंत्र पर हमला देखते हैं तो पूरे साहस के साथ उसकी रक्षा के लिए खड़े हो जाते हैं। एक बुद्धिजीवी की यही सही भूमिका है। 2004 में मैं कुछ महीनों के लिए नाइजीरिया गया था और उन्हीं दिनों सोयिंका की एक पुस्तक'क्लाइमेट ऑफ फीयरप्रकाशित हुई थी जो नाइजीरिया में रिलीज होने जा रही थी। उस अवसर पर शहर में लगे बड़े-बड़े पोस्टरों और सोयिंका के प्रति आम जनता के सम्मान को देखकर मैं हैरान रह गया। तो यह होती है एक जनपक्षीय बुद्धिजीवी की भूमिका। हमें इन चीजों से सबक लेना चाहिए। 
अपना वक्तव्य समाप्त करने से पूर्व मैं बुद्धिजीवियों की भूमिका के ही संदर्भ में कुछ ऐसी बातें कहने जा रहा हूं जो शायद कुछ लोगों को पसंद ना आए। हमारी यह खुशकिस्मती है कि मुख्यमंत्री आज इस समारोह का उद्घाटन करने नहीं आए। मैं आयोजकों से जानना चाहूंगा कि ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसकी वजह से किसी बौद्धिक कार्यक्रम के उद्घाटन के लिए मुख्यमंत्री को बुलाने की जरूरत पड़ती है। उमेश डोभाल की स्मृति के कार्यक्रम का सरोकार पत्रकारिता और संस्कृति से है। उमेश डोभाल की जब हत्या हुई तब उत्तराखंड राज्य नहीं बना था और उस समय उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और इस सरकार के दिग्गज नेता मनमोहन सिंह नेगी नामक माफिया के हिमायती माने जाते थे। मुख्य मंत्री हरीश रावत आज उसी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। वह कितने भी अच्छे आदमी क्यों न हों लेकिन वह राज्य के मुख्यमंत्री हैं और उसी कांग्रेस का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं जिसके शासनकाल में उमेश डोभाल की हत्या हुई थी। कम से कम इस तथ्य को ध्यान में रखकर ही आयोजकों को उन्हें बुलाने से बचना चाहिए था। मेरे सामने बैठे मेरे मित्र शेखर पाठक या राजीव लोचन शाह भी अगर मुख्यमंत्री होते तो मैं यही बात कहता।
दूसरेपिछले सत्र में शेखर पाठक जी ने यह जो कहा कि अगर मुख्यमंत्री यहां आए होते तो हम उनको रू-ब-रू होकर बताते कि उनकी वजह से राज्य की जनता किन संकटों का सामना कर रही है। मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हूं। यह बताने के लिए मुख्यमंत्री को उद्घाटन के लिए बुलाने की जरूरत नहीं है। वह आएंश्रोताओं के बीच बैठें या एक नागरिक के रूप में वक्तव्य दें इससे मुझे कोई ऐतराज नहीं है लेकिन उन्हें सम्मानजनक स्थिति देना उमेश डोभाल का अपमान है। इसके अलावा एक बात और मैं कहना चाहूंगा कि आप लोग इस तरह के आयोजनों के लिए सरकार से क्यों पैसा लेते हैंआपका जनता पर भरोसा क्यों नहीं हैक्या आपको पता नहीं कि यह पैसा आपकी आंखों को पीलियाग्रस्त कर देता हैअभी हाशिमपुरा के जनसंहार के दोषियों की रिहाई की खबर आयी है। मैं आपको बताऊँ कि उस घटना की रिपोर्टिंग पत्रकार वीरेन्द्र सेंगर ने की थी और चौथी दुनिया नामक अखबार में बैनर न्यूज के रूप में इस शीर्षक से छपा था-'लाइन में खड़ा कियागोली मारी और नहर में फेंक दिया'। यह ब्रेकिंग न्यूज थी। लेकिन दिल्ली के किसी भी अखबार ने इसे 'लिफ्टनहीं किया। दरअसल अखबारों के मालिकसंपादक और प्रमुख पत्रकार तत्कालीन मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह के इतने कृपापात्र थे कि उन्हें यह खबर ऐसी लगी ही नहीं जिसे छापा जाए। इसे रोकने के लिए वीर बहादुर सिंह ने लोगों को फोन किया हो-ऐसा भी नहीं था। होता यह है कि जब आप सत्ता से लाभ लेने लगते हैं तो आंखों पर एक ऐसा पर्दा चढ़ जाता है कि सत्ता की गड़बड़ियां आपको नजर ही नहीं आती। इसलिए कृपया ऐसे कार्यक्रमों के लिए सत्ता से दूरी बनाएं रखें और मंत्रियों और मुख्यमंत्रियों को बुलाने की परंपरा बंद करें। मैंने यह भी गौर किया है कि उत्तराखंड में लगभग हर महीने कोई न कोई लेखक अपनी पुस्तक का लोकार्पण किसी न किसी मंत्री से कराता है और खुद को गौरवान्वित महसूस करता है। यह अत्यंत शर्म की बात है। मैं समझता हूं कि मेरा यह कथन मुमकिन है अभी आपको कटु लगे लेकिन इस पर जरूर विचार करिएगा। 
अंत में मैं जॉर्ज ऑरवेल के इस कथन से अपनी बात समाप्त करना चाहूंगा कि 'ऐट दि टाइम ऑफ यूनीवर्सल डिसीटटेलिंग द ट्रुथ इज ए रिवोल्यूशनरी ऐक्टअर्थात जब चारो तरफ धेखाधड़ी का साम्राज्य हो तब सच बोलना ही क्रांतिकारी कर्म है। धन्यवाद। 

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