डॉ. कलबुर्गी, पंसारे और दोभालकर की याद में आज ही ये कविता लिखी। उनकी हत्या के विरोध में आज जंतर-मंतर पर हुए कार्यक्रम में ये कविता पढ़ना चाहता था, लेकिन मौका नहीं मिला। आपके लिए इसका एक अंश।
बेचारे हत्यारे!
सुनो, हत्यारो!
तुमने ग़लत आदमी को मार दिया है
डॉ. एमएम कलबुर्गी तो ज़िंदा हैं
सच्ची! मैंने उन्हें देखा है दिल्ली के जंतर-मंतर पर
इसी तरह गोविंद पंसारे और नरेंद्र दोभालकर को लेकर भी
तुम्हे धोखा हुआ है
वे दोनों भी जीवित हैं/ मस्त हैं
मैंने उन्हें कलबुर्गी के साथ ही देखा है
तीनों हाथों में हाथ डाले गपिया रहे थे
हँस रहे थे, ठहाके लगा रहे थे
क्या, इनकी हत्याओं से पहले
तुम्हारे आकाओं ने तुम्हे इनकी तस्वीरें नहीं दिखाईं थी?
हाँ, तुम्हारे आकाओं ने...
मैं जानता हूं कि
तुम तो निमित्त मात्र हो
किराये के हत्यारे
शार्प शूटर
तुम्हे पूरा पेमेंट तो मिल गया न...
नहीं!
तुम्हे कुछ पेमेंट तो एडवांस में ले ही लेना चाहिए था
अब वे तुम्हे कुछ भी नहीं देने वाले
क्या कहूँ, तुमने काम भी तो पूरा नहीं किया
तुम्हे पता है कि जिसे तुमने धमकाया था
वो तमिल लेखक पेरुमल मुरगन...
वो भी एकदम झुट्ठा निकला
उसने भले ही "अपने लेखक की मृत्यु का ऐलान" कर दिया
लेकिन आज भी लिख रहा है धड़ाधड़
मेरे क़लम से... मेरे जैसे न जाने कितनों के क़लम से
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