समाज के सच्चे शिक्षक तो राहुल सांकृत्यायन, राधा मोहन गोकुल, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे ज्ञान प्रसारक थे। या फिर जयचंद विद्यालंकार, छबील दास आदि (डी.ए.वी. कॉलेज लाहौर में भगत सिंह और उनके साथियों के शिक्षक) जैसे लोग थे। 'शिक्षक दिवस' ऐसे लोगों की स्मृति को समर्पित होता तो इसकी कोई सार्थकता भी होती।
लेकिन उन डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिन्हें गौरांग महाप्रभुओं से ठीक उसी वर्ष 'सर' की उपाधि मिली थी, जिस वर्ष भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा हुई थी। राष्ट्रीय आंदोलन में यह व्यक्ति कहीं नहीं था।
राधाकृष्णन एक दार्शनिक तो कहीं से नहीं थे, वे मात्र हिन्दू धर्म-दर्शन के एक सतही, कूपमण्डूक और दकियानूस व्याख्याकार मात्र थे। अपने ''नव वेदान्ती'' दर्शन में उन्होंने अद्वैत वेदान्त के साथ विलियम जेम्स, फ्रांसिस हर्बर्ट ब्रैडले, हेनरी बर्गसां और फ्रेडरिक फॉन हयूगेल जैसे पश्चिम के मीडियाकर प्रत्ययवादी दार्शनिकों के विचारों की खिचड़ी पकाई है। राधाकृष्णन की मूर्खता की हद यह थी कि अन्य सभी धर्मों को वह हिन्दू धर्म के निम्नतर रूप मानते थे और उनका ''हिन्दूकरण'' करने की कोशिश करते थे।
राधाकृष्ण्ान पर अपने ही एक छात्र जदुनाथ सिन्हा की थीसिस चुराकर भारतीय दर्शन की पुस्तक लिखने का भी आरोप लगा था और 'मॉडर्न रिव्यू' में सिन्हा के साथ उनका एक लम्बा पत्र व्यवहार छपा था। जदुनाथ सिन्हा की थीसिस आने आप में ब्राहम्णवाद की दार्शनिकीकरण की एक घटिया कोशिश मात्र थी।
शासक वर्ग और सत्तातंत्र नये-नये उत्सवों-त्योहारों-दिवसों को प्रचारित-स्थापित करके प्रतिगामी मूल्यों और छद्म नायकों को स्वीकार करने के लिए हमारे मानस को अनुकूलित करता है।
-- कविता कृष्ण्ापल्लवी
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लेकिन उन डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिन्हें गौरांग महाप्रभुओं से ठीक उसी वर्ष 'सर' की उपाधि मिली थी, जिस वर्ष भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फाँसी की सज़ा हुई थी। राष्ट्रीय आंदोलन में यह व्यक्ति कहीं नहीं था।
राधाकृष्णन एक दार्शनिक तो कहीं से नहीं थे, वे मात्र हिन्दू धर्म-दर्शन के एक सतही, कूपमण्डूक और दकियानूस व्याख्याकार मात्र थे। अपने ''नव वेदान्ती'' दर्शन में उन्होंने अद्वैत वेदान्त के साथ विलियम जेम्स, फ्रांसिस हर्बर्ट ब्रैडले, हेनरी बर्गसां और फ्रेडरिक फॉन हयूगेल जैसे पश्चिम के मीडियाकर प्रत्ययवादी दार्शनिकों के विचारों की खिचड़ी पकाई है। राधाकृष्णन की मूर्खता की हद यह थी कि अन्य सभी धर्मों को वह हिन्दू धर्म के निम्नतर रूप मानते थे और उनका ''हिन्दूकरण'' करने की कोशिश करते थे।
राधाकृष्ण्ान पर अपने ही एक छात्र जदुनाथ सिन्हा की थीसिस चुराकर भारतीय दर्शन की पुस्तक लिखने का भी आरोप लगा था और 'मॉडर्न रिव्यू' में सिन्हा के साथ उनका एक लम्बा पत्र व्यवहार छपा था। जदुनाथ सिन्हा की थीसिस आने आप में ब्राहम्णवाद की दार्शनिकीकरण की एक घटिया कोशिश मात्र थी।
शासक वर्ग और सत्तातंत्र नये-नये उत्सवों-त्योहारों-दिवसों को प्रचारित-स्थापित करके प्रतिगामी मूल्यों और छद्म नायकों को स्वीकार करने के लिए हमारे मानस को अनुकूलित करता है।
-- कविता कृष्ण्ापल्लवी
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