Pramod Ranjan
हिंदी साहित्य का मिजाज अजीब तरह से हिंदूवादी/ ब्राह्मणवादी रहा है। मजा यह है कि इसके लगभग सभी प्रमुख लेखक खुद को मार्क्सवादी कहते हैं।
विश्व पुस्तक मेले में स्पेनिश नाटककार और कवि लोर्का का नाटक 'मोची की अनोखी बीवी' हाथ लगा। अंग्रेजी से इसका अनुवाद हिंदी के प्रतिनिधि कवियों में से एक सोमदत्त ने किया है।
छोटा सा नाटक है, जिसे 'रचना समय' पत्रिका ने छापा है।
इसे पढते हुए कुछ सवाल उठते हैं :
1. हिंदी में अनुदित नाटक में मोची की बीबी 'मंदिर' की बात करती है। क्या स्पेनिश में भी वह 'मंदिर' रहा होगा। जाहिर है नहीं। 'मंदिर' हिंदू धर्म के पूजा स्थल को कहा जाता है। फिर अनुवादक ने इसे 'मंदिर' ही क्यों कहा? क्या उसे 'अराधना स्थल' या इबादतगाह नहीं कहा जा सकता था?
2. हिंदी अनुवाद में कुछ पात्रों के नाम राधा, गौरा आदि हैं। जाहिर है ये नाम स्पेनिश के नहीं हैं। हिंदी अनुवाद के लिए इन नामों का चुना जाना क्या अनुवादक के अवचेतन हिंदू/ ब्राह्मण मन को नहीं बताता?
3. इस नाटक का आरंभ ही यहां से होता है कि हर पेशा अपने आप में अच्छा है। बस उसे अच्छी तरह करना चाहिए। नाटक के आरंभ में ही मोची की बीबी अपनी पडोसन के लडके से कहती है कि अपनी मां को कहना कि '' वो अचार में सही नमक और मिर्च डालना और झौकना उसी तरह कामयाबी से सीखे, जैसे मेरा मर्द जूते सुधारता है''। जाहिर है, स्पेनिश परिप्रेक्ष्य में इसका एक सकारात्मक अर्थ है लेकिन भारतीय परिप्रेक्ष्य में यह उस हिंदुवाद से जुडता है, जो कहता है कि कोई भी जाति ऊंची और नीची नहीं है। सभी को भगवान ने उसका काम दिया है तथा एक भंगी को सपरिवार अपना काम अच्छी तरह करना चाहिए।
4. क्या यह संभव नहीं कि इस नाटक को अनुवाद के लिए चुनने के समय सोमतदत्त जी को यही सबसे अच्छी चीज लगी हो?
5. मेरा ध्यान इस ओर भी गया कि नाटक के आरंभ में संपादक ने सोमदत्त जी की बेटी नेहा तिवारी का आभार व्यक्त किया है। सोमदत्त जी का असली नाम सुदामा प्रसाद गर्ग था। वे जाति सूचक सरनेम छोडकर सोमदत्त बने थे। लेकिन उनकी अगली पीढी फिर वहीं पहुंच गयी! यह भी तो एक सवाल है न!
No comments:
Post a Comment