THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Thursday, March 13, 2014

संघ परिवार के पास हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा है तो बाकी लोगों के पास क्या है?

संघ परिवार के पास हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा है तो बाकी लोगों के पास क्या है?

संघ परिवार के पास हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा है तो बाकी लोगों के पास क्या है?

पलाश विश्वास

साठ के दशक के सिंडिकेट जमाने की राजनीति को याद कीजिये, देश भर में जबर्दस्त आन्दोलन था, इंदिरा हटाओ। जवाब में इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया। महज हवाई नारा नहीं था वह।

एक सुनियोजित कार्यक्रम और उसे अमल में लाने की युद्धक राणनीति इंदिराजी के पास थी। उन्होंने हक्सर से लेकर अर्थशास्त्री अशोक मित्र जैसे विशेषज्ञों की टीम की मदद से सुनियोजित तरीके से प्रिवी पर्स खत्म किया, राष्ट्रीयकरण की नीतियाँ लागू की और जब तक राज करती रही अप्रतिद्वंद्वी रहीं।

नेहरु वंश के उत्तराधिकार उनकी पूँजी हर्गिज नहीं थी। वे हालाँकि नेहरु की लाइन पर ही भारत में सोवियत विकास मॉडल को लागू कर रहीं थीं।

तब चूँकि सोवियत संघ महाशक्ति बतौर वैश्विक घटनाओं और विश्व अर्थव्यवस्था में राजनीतिक,राजनयिक और आर्तिक विकल्प देने की स्थिति में था, इंदिरा जी को सोवियत मॉडल लागू करने में खास दिक्कत नहीं हुयी। उन्हें अमेरिकी खेमे की दखलंदाजी के जरिये अस्थिर किया जाने लगा तो उन्होंने लोकतान्त्रिक तौर तरीके को तिलांजलि देकर तानाशाह बनने का विकल्प जो उनके और कांग्रेसी सियासत के अवसान का कारण भी बना।

फिर विश्वानाथ प्रताप सिंह ने भारतीय राजनीति को मंडल रपट लागू करके सत्ता समीकरण बदलने की क्रांतिकारी पहल जो की तो उसके मुकाबले कमंडल वाहिनी को हिन्दुत्व के पुनरुत्थान की पृष्ठभूमि मिल गयी।

हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा तब से लेकर अब तक एक निर्णायक एजेण्डा है, जिसे ग्लोबीकरण के एजेण्डा से जोड़कर संघ परिवार ने एक बेहद मारक प्रक्षेपास्त्र बना दिया।

हम भले ही हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा के खिलाफ हों, हम भले ही मुक्त बाजार के खिलाफ हों,लेकिन न इंदिरा गांधी की तरह और न संघ परिवार की तरह हमारे पास कोई वैकल्पिक एजेण्डा, सुनियोजित रणनीति और मिशन को समर्पित विशेषज्ञ टीम है।

आगामी लोकसभा के परिप्रेक्ष्य में कॉरपोरेट इंडिया, वैश्विक ताकतों और मीडिया के तूफानी करिश्मे के बावजूद हकीकत यही है कि भारतीय राजनीति मे अपने एजंडे और विचारधारा के प्रति संघी कार्यकर्ता सौ फीसद खरा प्रतिबद्ध टीम है।

अब चाहे आप मोदी को हिटलर बता दें या हिन्दुत्व के एजंडे को फासीवादी नाजीवादी साबित कर दें,भारत की मौजूदा परिस्थितियों में किसी परिवर्तन की उम्मीद नहीं है।

केसरिया सुनामी से महाविध्वंस से बचने का कोई विकल्प हमारे पास नहीं है, न कोई एजेण्डा है और न कोई रणनीति जिससे हम व्यापक जनता को गोलबंद करके जनादेश को जनमुखी जनप्रतिबद्ध बना सकें।

पहले इस सत्य और सामाजिक राजनीतिक यथार्थ को आत्मसात कर सकें तो शायद कुछ बात बनें।

मसलन ममता बनर्जी जो रामलीली मैदान में कुर्सियों को संबोधित करती अकेली महाशून्य को संबोधित करती देखी गयीं, उसका मुख्य कारण वे चली तो थीं देश का प्रधानमंत्री बनने लेकिन न उनके पास विचारधारा है, न कार्यक्रम, न युद्धक रणनीति और न ऐसी विशेषज्ञ विशेषज्ञ टीम जो विकल्प का निर्माण कर सकें।

इसी व्यक्ति केन्द्रित राजनीति के कारण ही सामाजिक और उत्पादक ताकतों के व्यापक गोलबंदी, छात्र युवाओं की विपुल गोलबंदी के बावजूद आम आदमी पार्टी अब भी हवा हवाई है और संघियों की बुलेट ट्रेन को रोकने लायक हिन्दू राष्ट्र के एजेण्डे का मुकाबला करने लायक कोई एजेण्डा उनके पास नहीं है।

भारत का लोकतान्त्रिक एक व्यक्ति एक वोट के नागरिक अधिकार की नींव पर तो खड़ा है,लेकिन नागरिकों के सामाजिक आर्थिक राजनीतिक सशक्तीकरण का काम हुआ ही नहीं।

भारत वर्ष में नागरिक सिर्फ वोट हैं और वोट के अलावा नागरिकता का न कोई वजूद है, न अभिव्यक्ति है।

जनगणना है, लेकिन जनगण नहीं हैं।

वियतनाम युद्ध हो या इराक अफगानिस्तान से वापसी का मामला हो, यह ध्यान देने लायक बात है कि अमेरिकी साम्राज्यवाद को वैश्विक परिस्थितियों और चुनौतिों के मद्देनजर नहीं, अमेरिकी नागरिकों के प्रतिरोध आन्दोलन की वजह से पीछे हटना पड़ा।

अमेरिका ने परमणु संधि पर दस्तखत किया, लेकिन उसे अमल में लाने के लिये संसद से पास कराना अनिवार्य था। जबकि हमारे यह किसी शासकीय आदेश, केबिनेट के फैसले या राजनयिक कारोबारी समझौते का संसदीय अनुमोदन जरूरी नहीं है।

बायोमेट्रिक नागरिकता के सवाल पर इंग्लेंड में सरकार बदल गयी, लेकिन हमारे यहाँ बिना किसी संसदीय अनुमोदन के गैरकानूनी असंवैधानिक कॉरपोरेट आधार योजना बिना प्रतिरोध चालू रहा।

अब चुपके से आधार पुरुष भारतीय राजनीति के ईश्वर बनने की तैयारी में है।

नागरिकता और नागरिक आन्दोलनों की अनुपस्थिति पर बहुत सारे उदाहरण सिलसिलेवार पेस किये जा सकते हैं। उसकी जरुरत फिलहाल नहीं है।

हम जिसे नागरिक समाज मानते हैं, उसमें, इलिट अभिजन उस आयोजन में हाशिये के लोग,बहिस्कृत समुदायों के लोग और क्रयशक्ति हीन आम शहरी लोग कहीं नही हैं।

वे दरअसल जनान्दोलन हैं ही नहीं, वैश्विक आर्थिक सस्थानों के प्रोजेक्ट मात्र हैं जो नख से सिख तक व्यक्ति केन्द्रित हैं।

व्यक्ति केन्द्रित राजनीति, व्यक्ति केन्द्रित आन्दोलन और व्यक्ति केन्द्रित विमर्श और एजेण्डा से बहुसंख्य जनता के धर्मोन्माद का मुकाबला नहीं किया जा सकता।

अगर हम कहीं मुकाबले में हैं, तो हमें सबसे पहले इस जमीनी हकीकत को समझ ही लेना चाहिए,जिसकी वजह से संघ परिवार इतना अपराजेय है और उसे चुनौती देनी वाली कोई ताकत मैदान में है ही नहीं।

अब तो रामलीला मैदान के फ्लाप शो से साबित हो गया कि संघ परिवार ने अपने एक्शन प्लान बी को समेट लिया है। संघ रिमोटित अन्ना फिर अराजनीतिक मोड में वापस।

दीदी बंगाल के अपने मजबूत जनाधार पर खड़ी होकर अपना जख्म चाटने के लिये और बंगाल में कांग्रेस और वामदलों पर भूखी शेरनी की तरह झपटने के लिये कोलकाता वापस।

दो मौकापरस्त लोगों के गठजोड़ की संघ परिवार को जब तक जरूरत थी, उसका गुब्बारा खूब उड़ाया गया और फिर राष्ट्रीय मंच पर गुब्बारा में पिन।

संघी बर्ह्मास्त्र फिर तूण में वापस अगले वार के लिये। इस युद्ध नीति को समझिये।

संघ परिवार निजी और अस्मिता एजेण्डे के सारे चमकदार चेहरों और मसीहों को अपने में समाहित करने के लिये कामयाब इसलिये है कि उसको चुनौती देने वाला कोई एजेण्डा है ही नहीं। भारत में वर्ग और जाति के घटाटोप में दरअसल निजी कारोबार ही चलाया जाता रहा है।

अंबेडकर अपने समूचे लेखन में जाति विमर्श से कोसों दूर रहे हैं। शिड्युल कास्ट फेडरेशन की राजनीति के बावजूद वे डिप्रेस्ड क्लास की बात कर रहे थे और जाति को भी जन्मजात अपरिवर्तनीय वर्ग बता रहे थे।

इसके बावजूद जाति पहचान के आधार पर अंबेडकर विचारधारा और उनकी विरासत आत्मकेन्द्रित वंशवादी,नस्ली, जाति अस्मिताओं के बहाने सत्ता चाबी बतौर इस्तेमाल हो रही है। अंबेडकर के जाति उन्मूलन एजेण्डे का कहीं कोई चिन्ह नहीं है।

इसी तरह वाम आन्दोलन भी वर्चस्ववादी विचलन में भटक बिखर गया और कुछ कोनों को छोड़कर सही मायने में उसका कोई राष्ट्रीय वजूद है ही नहीं। न वर्ग चेतना का विस्तार हुआ और न कहीं वर्ग संघर्ष के हालात बने। फिर जाति को वर्ग बताने वाले समाजवादी लोग भी व्यक्ति केन्द्रित पहचान, अस्मिता और सत्ता में भागेदारी में निष्णात।

चूहे हमने ही पैदा किये हैं तो चूहादौड़ की इस नियति से क्षण प्रतिक्षण बदल रहे राजनीतिक समीकरण को आम जनता के बुनियादी मुद्दों से जोड़ने की हमारी आकाँक्षा भी बेबुनियाद है।

हिन्दू राष्ट्र का एजेण्डा सीधे बहुसंख्य जनता के धर्मोन्माद के आवाहन के सिद्धांत पर आधारित है जिसे अल्पसंख्यकों की कोई परवाह नहीं है।

वर्णवर्चस्वी नस्ली इस विचारधारा की खूबी यह है कि वह न जाति विमर्श में कैद है और न कोई वर्ग चेतना उसकी अवरोधक है।

इस संघी समरसता और डायवर्सिटी के मुकाबले हम जाति, धर्म, क्षेत्र, वर्ग, भाषा जैसी हजारों अस्मिताओं में कैद उसके अश्वमेधी घोड़ों को रोकने का ख्वाब ही देख सकते हैं या कागद कारे ही कर सकते हैं और फिलहाल कुछ भी सम्भव नहीं है।

बैलेंस जीरो है।

लेकिन शुरुआत कहीं न कहीं से तो करनी ही होगी।

इस जनादेश को हम बदलने की हालत में नहीं है।

ममता की दुर्गति से जाहिर है कि तमाम व्यक्ति विकल्पों की रेतीली बाड़ केसरिया सुनामी को रोकने में कामयाब होगी,ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती।

तो आइये, अभी से तय करे कि इस निरंकुश पुनरुत्थान के खिलाफ हमारा वैकल्पिक एजेण्डा क्या होगा और अस्मिताओं के तिलिस्म और आत्मघाती धर्मोन्माद के शिकार भारतीय जनगण को हम कैसे इस अशनिसंकेत के विरुद्ध मोर्चाबंद करेंगे।

जाति और वर्ग विमर्श में हमारे लोग एक दूसर के दुश्मन हो गये हैं।

पूरे देश को एक सूत्र में बांधे बिना तमाम अस्मितओं को तोड़कर देश समाज जोड़े बिना फिलाहाल हिन्दू राष्ट्र के अमोघ एजेण्डा से लड़ने के लिये कोई हथियार हमारे पास है ही नहीं।

About The Author

पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं। आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। "अमेरिका से सावधान "उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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