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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, March 22, 2014

अकेले जूझते पत्रकारों की सुरक्षा का क्या इंतजाम किया है चुनाव आयोग ने?

अकेले जूझते पत्रकारों की सुरक्षा का क्या इंतजाम किया है चुनाव आयोग ने?


एक्सकैलिबर स्टीवेंस विश्वास


पत्रकारिता में खतरा अब पेड न्यूज के जमाने में सबसे ज्यादा है। जो पेड हैं, उन्हें खबरों के लिए ज्यादा जोखिम उठानी होती नहीं है क्योंकि खबरे उनके प्लेट में यूं ही सज जाती हैं   कि जैसे वे पाठकों के लिए परोसने खातिर पेड किये जाते हैं।असली अग्निपरीक्षा तो प्रतिबद्ध,निष्पक्ष और ईमानदार कलमचियों की होती है,जिनकी ईमानदारी पक्ष विपक्ष किसी पक्ष को रास नहीं आती है ।जाहिर है कि  आज ऐसा  वक्त आ गया है कि कि सही मायने में पत्रकारों की कोई सुरक्षा  है ही नहीं।


एक पत्रकार जब सच की परतें खोलने के लिए हर जोखिम उठाकर खबरें बनाता है तो उसके सामने दसों दिशाओं से विपत्तियो काका पहा़ड़ टूटने लगता है और तब वह एकदम अकेला । अकेले ही उसे ताम उन विपत्तियो से जूझना होता  है,जिनके बिना सत्यके सिंहद्वार पर कोई दस्तक नामुमकिन है।


चुनाव आयोग राजनेकताओं के लिए हर किस्म की सुरक्षा सुनिऎश्चित करता है।मतदाताओं को अभय देता है।पेड न्यूज पर कड़ी निगाह रखता है। पर कलम और कैमरा पहरे के बावजूद जब सच के अनुसंधान में हो तो उसके लिए कहीं से कोई सुरक्षाकवच होता ही नहीं है।


सूचना महाविस्फोट में सबसे ज्यादा लहूलुहान पत्रकारिता है। एक तरफ तो सूचना की हर खिड़की और हर दरवाजे पर चाकचौबंद पहरा है और सत्ता और गिरोहबंद हिंसा के मध्यहर सूचना के लिए अभिमन्यु चारों तरफ से घिरा होता है।सारे रथी महारथी वार पर वार करते हैं।सरेबाजार नीलाम होता है सच।सूचनाओं की भ्रूणह्या हो जाती है और मुक्त बाजार,पूंजी के अट्टहास से जमीन आसमान एक हो जाता है।


मंहगे उपहार,ऊंची हैसियत की पेड पत्रकारिता के बरअक्स इस देश में पराड़कर और गणेशशंकर विद्यार्थी की पत्रकारिता की विरासत जिंदा रखने वाले लोग सिरे से फुटपाथ पर है।स्थाई नौकरियां उनके लिए होती नहीं है।सच का सामना करना नहीं चाहता कोई और सच के सौदागरों को कहीं किसी कोने में गुलशन का कारोबार चलाने की इजाजत भी नहीं है।


चमकीले चंद नामों से कारपोरेट लाबिइंग का कारोबार चलता है।चमकीले चेहरे सत्ता के गलियारे में मजे मजे में सज जाते हैं और वहीं से पूरी पत्रकारिता में उन्हीं का राज चलता है।लेकिन सच के सिपाहियों को जूता मारकर किनारे कर दिया जाता है।उन्हें चूं तक करने का स्पेस नहीं मिलता।उनकी खबरें अमूमन छपती भी नहीं है।उनके लिखे को ट्रेश में डाल दिया जाता है।उनके बाइट की माइट एडिट कर दी जाती है।फिर भी बिना किसी सुविधा या बिना नियमित रोजगार पत्रकारिता की एक बड़ी पैदल सेना है,जो अभीतक बिकी नहीं है।महानगरों से लेकर गांव कस्बे तक में वे बखूब सक्रिय हैं।


इनमें से ज्यादातर स्ट्रिंगर हैं।ऐसे पत्रकरा जिन्हें मान्यता तो दूर,पहचान पत्र तक नहीं मिलता।लेकिन खबरों की दुनिया उनके खून पसीने के बिना मुकम्मल नहीं है।जिनका नाम खबरों के साथ चस्पां होता नहीं है,लेकिन सेंटीमीटर से जिनकी मेहनत और कमाई मापी जाती है।छह महीने सालभर तक जिन्हें अपनी मजूरी का मासिक भुगतान काइंतजार करना होता है और जिनके मालिक बिना भुगतान किये एक के बाद एक संस्करण खोले चले जाते हैं।


खबर सबको चाहिए।सब चाहते हैं कि पत्रकार हर तरह की जोखिम उठाये।उसके घर चूल्हा जले चाहे न जले,हम उसे खबरों के पीछे रात दिन सातों दिन भागते हुए देखना पसंद करते हैं। कहीं वह पिट गया या उलसपर जानलेवा हमला हो गया या उसकी जान चली गयी,तो सुनवाई तक नहीं होती।गली मुहल्ले के कुत्ते भी उनके पीछे पड़ जाते हैं।बाहुबलियों और माफिया से रोज उनका आमना सामना होता है और राजनीति की ओर से पेरोल में शामिल करने की पेशकश रोज होती है।वह बिक गया तो कूकूर हो गया और नहीं बिका तो भी उसकी कूकूरगति तय है। क्योंकि उसपर जब मार पड़ती है तब वह एकदम अरकेला होता है।जिस अखबार चैनल के लिए वह काम करता है,वे लोग भी उसे अपनाते नहीं हैं।


बंगाल में आये दिन खबरों के कवरेज में पत्रकारों पर हमला होना आम बात है तो देश भर में राजनीतिक हिंसा का अनिवार्य हिस्सा कैमरे और कलम पर तलवारों का खींच जाना है।


चुनाव आयोग राजनीतिक हिंसा रोकने का इंतजाम तो करता है,लेकिन पत्रकारों की सुरक्षा का कोई इंतजाम नहीं करता।जिसके बगैर निष्पक्ष मतदान प्रक्रिया सिरे से असंभव है।


जाहिर है की हर सच की  उम्मीद  फिर फिर एक झूठ में बदल जाती है।

अच्छे पत्रकार अब भी हैं। बस, जरूरत है उम्मीद की।


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