THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, January 26, 2016

वाह रे बजरंगी,इतिहास की ऐसी निर्मम खिल्ली कि स्वामी दयानंद सरस्वती के मरणोपरांत पद्मभूषण? गोस्वामी तुलसी की अगली बारी या सूर या कबीर या रसखान या मीराबाई की? इतिहास बदल रहा है मसलन,मसलन बंगाल में पिछले लोकसभा चुनाव में विशुध ध्रूवीकरण से दीदी की एकतरफा जीत तय करने के अलावा निरादार सत्रह फीसद वौट बटोरे थे और अब शारदा फर्जीवाड़ा मामला रफा दफा है तो भाजपाई चुनाव युद्ध में बाजीराव पेशवा के सिपाहसालार मरणोपरांत नेताजी हैं।अब नेताजी की फाइलों से कुछ बना हो या नहीं,यह नजारादेखना बहुत दिलचस्प होगा कि जिस मजहबी सियासत से सबसे जियादा नफरत नेताजी को थी,उसके हाथों खिलौना बनकर उनकी गति क्या होती है। जब सचिन तेंदुलकर क्रिकेट खेलकर सर्वश्रेष्ठ बिकाउ आइकन है तो अंबेडकर के हवाले गांधी ने नहीं,देश को आजाद कराया नेताजी ने,यह फरमान जारी होने के बाद एक अदद भारत रत्न तो बनता है। हम सिर्फ स्तंभित है कि इतनी प्रलयंकर केसरिया मीडिया ब्लिट्ज के बाद गांधी हत्या का यह अभिनव उपक्रम अब तक नजर्ंदाज क्यों है और अगर बाबासाहेब ने सचमुच ऐसा कह भी दिया है तो उनका वह उद्धरण अंबेडकरी फौज के हाथ अब तक क्यों नहीं लगा,जबकि म


वाह रे बजरंगी,इतिहास की ऐसी निर्मम खिल्ली कि स्वामी दयानंद सरस्वती के मरणोपरांत पद्मभूषण?

गोस्वामी तुलसी की अगली बारी या सूर या कबीर या रसखान या मीराबाई की?

इतिहास बदल रहा है मसलन,मसलन बंगाल में पिछले लोकसभा चुनाव में विशुध ध्रूवीकरण से दीदी की एकतरफा जीत तय करने के अलावा निरादार सत्रह फीसद वौट बटोरे थे और अब शारदा फर्जीवाड़ा मामला रफा दफा है तो भाजपाई चुनाव युद्ध में बाजीराव पेशवा के सिपाहसालार मरणोपरांत नेताजी हैं।अब नेताजी की फाइलों से कुछ बना हो या नहीं,यह नजारादेखना बहुत दिलचस्प होगा कि जिस मजहबी सियासत से सबसे जियादा नफरत नेताजी को थी,उसके हाथों खिलौना बनकर उनकी गति क्या होती है।


जब सचिन तेंदुलकर क्रिकेट खेलकर सर्वश्रेष्ठ बिकाउ आइकन है तो अंबेडकर के हवाले गांधी ने नहीं,देश को आजाद कराया नेताजी ने,यह फरमान जारी होने के बाद एक अदद भारत रत्न तो बनता है।


हम सिर्फ स्तंभित है कि इतनी प्रलयंकर केसरिया मीडिया ब्लिट्ज के बाद गांधी हत्या का यह अभिनव उपक्रम अब तक नजर्ंदाज क्यों है और अगर बाबासाहेब ने सचमुच ऐसा कह भी दिया है तो उनका वह उद्धरण अंबेडकरी फौज के हाथ अब तक क्यों नहीं लगा,जबकि मीडिया को झख मारकर ब्रेकिंग न्यूज डालकर केसरिया जनता को बताना पड़ रहा है कि देश को आजाद गांधी ने नहीं,बल्कि नेताजी ने कराया।



पलाश विश्वास

यकीन मानिये कि आखर पढ़ लेने की तमीजआते ही हमने सत्यार्थ प्रकाश ना पढ़ा होता तो यह टिप्पणी करने की जुर्रत न करता।वैसे पद्म पुरस्कारों का ऐलान होते ही अनुपम खेर को पद्म भूषण के बहाने बहस चल पड़ी थी।


अब हमारा शुरु से मानना रहा है कि नोबेल पुरस्कार भी राजनीतक होता है तो पद्म सम्मान तो सत्ता वर्चस्व का दरबारी विमर्श है।


इसीलिए मजा लीजिये कि अनुपम खेर को पद्म भूषण,सईद जाफरी को मरणोपरांत पद्मश्री,धीरुभाई अंबानी को पद्म विभूषण और खेर साहेब की पांत में सानिया,साइनी के साथ मरणोपरांत खड़े स्वामी दयानंद सरस्वती।


अब दुनियावालों,हम पर रहम इतना करना कि मरने पर हमारी मौत पर न आंसू बहाना और मारे जाने पर हमें शहादत अता मत फरमाना कि हमारी याद पर किस्सी कुत्ते बिल्ली को पेशाब करने का मौका न मिल जाये।


कृपया याद रखें कि दुनिया में कुछ भी मौलिक नहीं होता।हम तो लाउडस्पीकर है और मूक वधिर मनुष्यता की आवाज प्रसारित करते हुए,उनसे लिया उन्हींको वापस करके कायनात को अपना कर्जअदा कर रहे हैं।


हमें चैन से मर जाने दें कि हम बेहद डर गये कि किसी खेमे ने अगर हमें खुदा न खस्ता महान मान लिया तो कहीं स्वामी दयानंद सरस्वती की तरह हमें कारपोरेट हस्तियों और रंग बिरंगी सेलिब्रिटियों के साथ धर्मांध राजनीतिक समीकरण के तहत हमारा यह अश्वेत अछूत वजूद नत्थी होकर शुध न हो जाये क्योंकि हमारी सारी लड़ाई अशुध देसी लोक की आवाजें दर्ज कराने की है और हम गंगा नहाकर पाप स्खलन करनेवालों में से नहीं हैं।


इतिहास बदलने वालों को अक्सर ही पागल कुत्ता काट लेता है।हम सिर्फ यह समझने में असमर्थ हैं कि इतने चाकचौबंद सुरक्षा इंतजाम में पागल कुत्ता कहां से रायसीना हिल्स में दाखिल हो गया और किस पागल कुत्ते के काटने पर स्वामी दयानंद सरस्वती को पुनरुज्जीवित करने की जरुरत आन पड़ी।


पृथ्वीराज चौहन के बाद तो हम इकलौते बिरंची बाबा को ही हिंदू ह्रदयसम्राट मान बैठे थे।अब स्वामी जी पधारे हैं तो किन किन चरणचिन्हों में हम आत्मा फूकेंगे,पहेली यही है।


बहरहाल पागल कुत्ते दसों दिशाओं में अश्वमेधी घोड़े बनकर दौड़ रहे हैं।उनकी टापे हैं नहीं और न उनके खुर हैं,सिर्फ वे भौंकते हैं,काटने के दांत होते तो न जाने कितने लाख करोड़ का सफाया हो गया रहता इस राजसूय यज्ञ आयोजन में भारततीर्थे कुरुक्षेत्रे।


अरसा बाद टीवी पर परेड की झांकियां देख ली।


मरने से पहले स्वर्गवास का अहसास हो गया।विदेशी पूंजी,विदेशी हित के बाद अब बिदेशी फौजों की भी मौजूदगी अपने गणतंत्र महोत्सव के मौके पर राजपथ पर मनोहारी दृश्य।सत्तरा साल बूढ़ी आजादी यकबयक जवान हो गयी कि सैन्यशक्ति से हमने दुनिया को जतला दिया कि हम भी महाशक्ति हैं।


इस पर तुर्रा यह कि विश्वयुद्द के विदेशी स्मारक इंडिया गेड की जगह वहीं फिर भव्य रमामंदिर की तर्ज पर देशी असली स्मारक तानने का अभूतपूर्व निर्णय।हमें अपने चर्म चक्षु से उस स्मारक का दर्शन भले हो न हो,वह बनकर रहेगा और तब तक शायद हिंदू राष्ट्र का भव्य राममंदिर भी बन जाये।इस बपर में कास ऐतराज भी नहीं है क्योंकि बांग्लादेश विजय कीस्मृति में इंदिराम्मा ने अमर ज्योति पर श्रद्धांजलि की परंपरा डाली तो विश्वविजेता बिरंची बाबा टायटैनिक महाजिन्न के राजसूय का स्मारक भी बनना चाहिए।


दफ्तर में ही अपने पच्चीस साल के पुरातन सहकर्मी गुरुघंटाल जयनारायण ने यक्ष प्रश्न दाग दिया माननीय ओम थानवी का ताजा स्टेटस को पढ़कर कि इस ससुरे पद्म सम्मान को लोग कहां लगाते हैं,खाते हैं कि पीते हैं।पहले से सम्मानित प्रतिष्ठित लोगों पर राष्ट्र का ठप्पा लगाना क्यों जरुरी होता है।


इस पर गुरुजी ने लंबा चौड़ा प्रवचन दे डाला जिसे जस का तस दोहराना जरुरी भी नहीं है।सिर्फ इतना बता दें कि जयनारायण प्रसाद भारत के किंवदंती फुटबालर थे जो ओलंपिक सेमीफाइनल तक पहुंचने वाली टीम में पीके बनर्जी और चुन्नी गोस्वामी के सात ओलंपियन है और भुक्तभोगी जयनारायण का कहना है कि पद्म पुरस्कार उन्हें भी मिला,जिसका उन्हें दो कौड़ी का फायदा न हुआ।



जाहिर सी बात है कि मेवालाल दलित थे और बंगाल और भारत को गर्वित करने के बावजूद उनका सामाजिक स्टेटस हम जैसे स्थाई सबएडीटर जितना भी नहीं था।खेल छोड़ने के बाद उनके सामने भूखों मरने की नौबत आ गयी।


बकौल जयनारायण किसी कुत्ते ने भी उनका हालचाल नहीं पूछा।परिवार सात न दिया होता तो वे लावारिश मर जाते और बंगाल या बाकी भारत में उस टीम की जयजयकार के मध्य मेवालालका नाम कोई लेती नहीं है।


बहरहाल हमें इस विवाद में पड़ना नहीं है कि कैसे किस किसको कौन सा सममान किस समीकरण के तहत मिला और पद्म सम्मान या दूसरे पुरस्कारों की कसौटी क्या है और वरीयता कैसी तय होती है।


मसलन नेताजी को मरणोपरांत भारत रत्न देने की सिफारिश थी।अब नेताजी फाइलें प्रकासित करने के बाद भारत सरकार ने उनकी मृत्यु हो गयी है,ऐसा मानने के लिए उनके परिजनों को मना लिया।तो नेताजी को भारत रत्न अब देर सवेर मिलना तय है।


जब सचिन तेंदुलकर क्रिकेट खेलकर सर्वश्रेष्ठ बिकाउ आइकन है तो अंबेडकर के हवाले गांधी ने नहीं,देश को आजाद कराया नेताजी ने,यह फरमान जारी होने के बाद एक अदद भारत रत्न तो बनता है।


हम सिर्फ स्तंभित है कि इतनी प्रलयंकर केसरिया मीडिया ब्लिट्ज के बाद गांधी हत्या का यह अभिनव उपक्रम अब तक नजर्ंदाज क्यों है और अगर बाबासाहेब ने सचमुच ऐसा कह भी दिया है तो उनका वह उद्धरण अंबेडकरी फौज के हाथ अब तक क्यों नहीं लगा,जबकि मीडिया को झख मारकर ब्रेकिंग न्यूज डालकर केसरिया जनता को बताना पड़ रहा है कि देश को आजाद गांधी ने नहीं,बल्कि नेताजी ने कराया।


नेहरु वंश के सफाये के बाद इस झटके से कांग्रेस कैसे निपटेगी,इस बारे में वे हमारे विचार तो सुनने नहीं जा रही है तो यह अपना उच्च विचार जाया नहीं करने वाले हैं।


वैसे हमारी सेवा इस केसरिया परिदृश्य में जारी रहने की कोई संभावना नहीं है।खाने पीने जीने का फिर कोई सहारा भी नहीं है।सर पर छत नहीं है और फिर मुझे कोई रखेगा नहीं।ऐसे फालतू आदमी के लिए राजनीति में पुनर्वास सबसे बढ़िया विकल्प है और देश को हमेशा बूढ़े नेतृत्व की जरुरत होती है।फिर इतना तो पिछले चालीस साल से कमाया है कि देश के किसी भी कोने से हम चुनाव लड़ सकते हैं।दिल्ली से कोलकाता तक।चाहे तो अपराजेय दीदी का मुकाबला भी कर सकते हैं।


जीने का सबसे आसान तरीका यह है और इसमें भविष्यन केवल उज्जवल है बल्कि सुरक्षित भी है चाहे हारे या जीते।


अव्वल तो हमें कोई दल अपने दलदल में खींचने का जोखिम उठायेगा नहीं।फिर ताउम्र लड़ने का जो मजा है,उससे हम हरगिज बेदखल भी नहीं होना चाहते और भारतीय जनता की फटीचरी में जिस माफिया गिरोह का सबसे बड़ा कृतित्व है,उसमे दाखिल होकर हम खुदकशी भी करना न चाहेगें।


अब हम प्रगतिशील हो या न हो,अंबेडकरी हो या न हो,धर्मनिरपेक्ष हो या नहो,केसरिया जनता या लाल या नीली जनता माने न माने,हम सिर्फ अपने समयको संबोधित कर रहे हैं।जता की पीड़ा,जीवन यंत्रनणाओं,उनके सपनों और आकांक्षाओं की गूंज में ही हमारा वजूद है वरना हम तो हुए हवा हवाई।


हमारे कहे लिखे से किसी का कुछ बनता बिगड़ता भी नहीं है।मजे लेते रहें।आपको मजा आ जाये तो बहुत है।हम लोग इतने नासमझ नहीं होते तो यह देस पागल कुत्तों और छुट्टा साँढ़ों के हवाले नहीं होता।जाहिर है कि हमारा लिखा बोला समझने के लिए नहीं है।


वाम आवाम से कुछ जियादा ही प्रेम होने की वजह से उन्हें भले हम बार बार आगाह करते हे हैं कि भारत के बहुजन ही सर्वहारा है और जाति उन्मूलन का एजंडा ही भारत का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो है।


तो हमारे वाम या अंबेडकरी साथियों ने जब हमारी एक नहीं सुनी तो कांग्रेसी सुनेंगे इसकी आसंका है नहीं।


बहरहाल इक सुवाल तो बनता है कि गांधी या नेताजी ने देश आजाद करा लिया तो सन सत्तावन से देश के कोने कोने से जो लोग लुगाई अपनी जान इस मुल्क के लिए कुर्बान करते रहे उन्हें हम शहीद मानते हैं या नहीं।


फिर उनने क्या उखाड़ा है या फिर क्या बोया है।


भारतीय इतिहास में उन असंख्य लोगों का क्या चूं चं का मुरब्बा बनता है,हम न गांधी हैं और न नेताजी और न अंबेडकर,लेकिन हम बाहैसियत इस मरघट के निमित्तमात्र नागिरक को यह सवाल करने का हक है या नहीं,बतायें तो कर दूं वरना क्या पता इसी सवाल के लिए हमें भी आप राष्ट्रद्रोही हिंदूद्रोही करार दें।


बाशौक करें लेकिन उसमें हमारा सबसे बड़ा अहित इतिहास में दर्ज होने का खतरा है क्योंकि हम तुच्छ प्राणी हैं और नेताजी, गांधी, अंबेडकर या दयानंद सरस्वती बनना हमें बेहद महंगा सौदा लगता है क्योंकि हम जहरीले सांपों से भले कबहुं न डरे हों लेकिन छुट्टा साँढ़ों और पागल कुत्तों से हम बहुतै डरै हैं।


बंगाल में पिछले लोकसभा चुनाव में विशुध ध्रूवीकरण से दीदी की एकतरफा जीत तय करने के अलावा निरादार सत्रह फीसद वौट बटोरे थे और अब शारदा फर्जीवाड़ा मामला रफा दफा है तो भाजपाई चुनाव युद्ध में बाजीराव पेशवा के सिपाहसालार मरणोपरांत नेताजी हैं।अब नेताजी की फाइलों से कुछ बना हो या नहीं,यह नजारादेखना बहुत दिलचस्प होगा कि जिस मजहबी सियासत से सबसे जियादा नफरत नेताजी को थी,उसके हाथों खिलौना बनकर उनकी गति क्या होती है।

दयानंद सरस्वती  

दयानंद सरस्वती

दयानंद सरस्वती

पूरा नाम

स्वामी दयानन्द सरस्वती

जन्म

12 फरवरी, 1824

जन्म भूमि

मोरबी, गुजरात

मृत्यु

31 अक्टूबर, 1883 [1]

मृत्यु स्थान

अजमेर, राजस्थान

अभिभावक

अम्बाशंकर

गुरु

स्वामी विरजानन्द

मुख्य रचनाएँ

सत्यार्थ प्रकाश, आर्योद्देश्यरत्नमाला, गोकरुणानिधि, व्यवहारभानु, स्वीकारपत्र आदि।

भाषा

हिन्दी

पुरस्कार-उपाधि

महर्षि

विशेष योगदान

आर्य समाज की स्थापना

नागरिकता

भारतीय

संबंधित लेख

दयानंद सरस्वती के प्रेरक प्रसंग

अन्य जानकारी

दयानन्द सरस्वती के जन्म का नाम 'मूलशंकर तिवारी' था।

अद्यतन‎

12:32, 25 सितम्बर 2011 (IST)

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती (जन्म- 12 फरवरी, 1824 - गुजरात, भारत; मृत्यु- 31 अक्टूबर, 1883 अजमेर, राजस्थान) आर्य समाज के प्रवर्तक और प्रखर सुधारवादी सन्न्यासी थे। जिस समय केशवचन्द्र सेन ब्रह्मसमाज के प्रचार में संलग्न थे लगभग उसी समय दण्डी स्वामी विरजानन्द की मथुरा पुरी स्थित कुटी से प्रचण्ड अग्निशिखा के समान तपोबल से प्रज्वलित, वेदविद्यानिधान एक सन्न्यासी निकला, जिसने पहले-पहल संस्कृतज्ञ विद्वात्संसार को वेदार्थ और शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। यह सन्न्यासी स्वामी दयानन्द सरस्वती थे।

परिचय

प्राचीन ऋषियों के वैदिक सिद्धांतों की पक्षपाती प्रसिद्ध संस्था, जिसके प्रतिष्ठाता स्वामी दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात की छोटी-सी रियासत मोरवी के टंकारा नामक गाँव में हुआ था। मूल नक्षत्र में पैदा होने के कारण पुत्र का नाम मूलशंकर रखा गया। मूलशंकर की बुद्धि बहुत ही तेज़ थी। 14 वर्ष की उम्र तक उन्हें रुद्री आदि के साथ-साथ यजुर्वेद तथा अन्य वेदों के भी कुछ अंश कंठस्थ हो गए थे। व्याकरण के भी वे अच्छे ज्ञाता थे। इनके पिता का नाम 'अम्बाशंकर' था। स्वामी दयानन्द बाल्यकाल में शंकर के भक्त थे। यह बड़े मेधावी और होनहार थे। शिवभक्त पिता के कहने पर मूलशंकर ने भी एक बार शिवरात्रि का व्रत रखा था। लेकिन जब उन्होंने देखा कि एक चुहिया शिवलिंग पर चढ़कर नैवेद्य खा रही है, तो उन्हें आश्चर्य हुआ और धक्का भी लगा। उसी क्षण से उनका मूर्तिपूजा पर से विश्वास उठ गया। पुत्र के विचारों में परिवर्तन होता देखकर पिता उनके विवाह की तैयारी करने लगे। ज्यों ही मूलशंकर को इसकी भनक लगी, वे घर से भाग निकले। उन्होंने सिर मुंडा लिया और गेरुए वस्त्र धारण कर लिए। ब्रह्मचर्यकाल में ही ये भारतोद्धार का व्रत लेकर घर से निकल पड़े। इनके जीवन को मोटे तौर से तीन भागों में बाँट सकते हैं:

  • घर का जीवन(1824-1845),

  • भ्रमण तथा अध्ययन (1845-1863) एवं

  • प्रचार तथा सार्वजनिक सेवा। (1863-1883)

महत्त्वपूर्ण घटनाएँ

स्वामी दयानन्द जी के प्रारम्भिक घरेलू जीवन की तीन घटनाएँ धार्मिक महत्त्व की हैं :

  1. चौदह वर्ष की अवस्था में मूर्तिपूजा के प्रति विद्रोह (जब शिवचतुर्दशी की रात में इन्होंने एक चूहे को शिव की मूर्ति पर चढ़ते तथा उसे गन्दा करते देखा),

  2. अपनी बहिन की मृत्यु से अत्यन्त दु:खी होकर संसार त्याग करने तथा मुक्ति प्राप्त करने का निश्चय।

  3. इक्कीस वर्ष की आयु में विवाह का अवसर उपस्थित जान, घर से भागना। घर त्यागने के पश्चात 18 वर्ष तक इन्होंने सन्न्यासी का जीवन बिताया। इन्होंने बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की।

शिक्षा

बहुत से स्थानों में भ्रमण करते हुए इन्होंने कतिपय आचार्यों से शिक्षा प्राप्त की। प्रथमत: वेदान्त के प्रभाव में आये तथा आत्मा एवं ब्रह्म की एकता को स्वीकार किया। ये अद्वैत मत में दीक्षित हुए एवं इनका नाम 'शुद्ध चैतन्य" पड़ा। पश्चात ये सन्न्यासियों की चतुर्थ श्रेणी में दीक्षित हुए एवं यहाँ इनकी प्रचलित उपाधि दयानन्द सरस्वती हुई।

दयानन्द सरस्वती

Dayanand Saraswati

फिर इन्होंने योग को अपनाते हुए वेदान्त के सभी सिद्धान्तों को छोड़ दिया।

स्वामी विरजानन्द के शिष्य

सच्चे ज्ञान की खोज में इधर-उधर घूमने के बाद मूलशंकर , जो कि अब स्वामी दयानन्द सरस्वती बन चुके थे, मथुरा में वेदों के प्रकाण्ड विद्वान प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द के पास पहुँचे। दयानन्द ने उनसे शिक्षा ग्रहण की। मथुरा के प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द, जो वैदिक साहित्य के माने हुए विद्वान थे। उन्होंने इन्हें वेद पढ़ाया । वेद की शिक्षा दे चुकने के बाद उन्होंने इन शब्दों के साथ दयानन्द को छुट्टी दी "मैं चाहता हूँ कि तुम संसार में जाओं और मनुष्यों में ज्ञान की ज्योति फैलाओ।" संक्षेप में इनके जीवन को हम पौराणिक हिन्दुत्व से आरम्भ कर दार्शनिक हिन्दुत्व के पथ पर चलते हुए हिन्दुत्व की आधार शिला वैदिक धर्म तक पहुँचता हुआ पाते हैं।

हरिद्वार में

गुरु की आज्ञा शिरोधार्य करके महर्षि स्वामी दयानन्द ने अपना शेष जीवन इसी कार्य में लगा दिया। हरिद्वार जाकर उन्होंने 'पाखण्डखण्डिनी पताका' फहराई और मूर्ति पूजा का विरोध किया। उनका कहना था कि यदि गंगा नहाने, सिर मुंडाने और भभूत मलने से स्वर्ग मिलता, तोमछली, भेड़ और गधा स्वर्ग के पहले अधिकारी होते। बुजुर्गों का अपमान करके मृत्यु के बाद उनका श्राद्ध करना वे निरा ढोंग मानते थे। छूत का उन्होंने ज़ोरदार खण्डन किया। दूसरे धर्म वालों के लिए हिन्दू धर्म के द्वार खोले। महिलाओं की स्थिति सुधारने के प्रयत्न किए। मिथ्याडंबर और असमानता के समर्थकों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपने मत के प्रचार के लिए स्वामी जी 1863 से 1875 तक देश का भ्रमण करते रहे। 1875 में आपने मुम्बई में 'आर्यसमाज' की स्थापना की और देखते ही देखते देशभर में इसकी शाखाएँ खुल गईं। आर्यसमाज वेदों को ही प्रमाण और अपौरुषेय मानता है।

हिन्दी में ग्रन्थ रचना

आर्यसमाज की स्थापना के साथ ही स्वामी जी ने हिन्दी में ग्रन्थ रचना आरम्भ की। साथ ही पहले के संस्कृत में लिखित ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद किया। 'ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका' उनकी असाधारण योग्यता का परिचायक ग्रन्थ है। 'सत्यार्थप्रकाश' सबसे प्रसिद्ध ग्रन्थ है। अहिन्दी भाषी होते हुए भी स्वामी जी हिन्दी के प्रबल समर्थक थे। उनके शब्द थे - 'मेरी आँखें तो उस दिन को देखने के लिए तरस रहीं हैं, जबकश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा को बोलने और समझने लग जायेंगे।' अपने विचारों के कारण स्वामी जी को प्रबल विरोध का भी सामना करना पड़ा। उन पर पत्थर मारे गए, विष देने के प्रयत्न भी हुए, डुबाने की चेष्टा की गई, पर वे पाखण्ड के विरोध और वेदों के प्रचार के अपने कार्य पर अडिग रहे।

इन्होंने शैवमत एवं वेदान्त का परित्याग किया, सांख्ययोग को अपनाया जो उनका दार्शनिक लक्ष्य था और इसी दार्शनिक माध्यम से वेद की भी व्याख्या की। जीवन के अन्तिम बीस वर्ष इन्होंने जनता को अपना संदेश सुनाने में लगाये। दक्षिण में बम्बई से पूरा दक्षिण भारत, उत्तर में कलकत्ता से लाहौर तक इन्होंने अपनी शिक्षाएँ घूम-घूम कर दीं। पण्डितों, मौलवियों एवं पादरियों से इन्होंने शास्त्रार्थ किया, जिसमें काशी का शास्त्रार्थ महत्त्वपूर्ण था। इस बीच इन्होंने साहित्य कार्य भी किये। चार वर्ष की उपदेश यात्रा के पश्चात ये गंगातट पर स्वास्थ्य सुधारने के लिए फिर बैठ गये। ढाई वर्ष के बाद पुन: जनसेवा का कार्य आरम्भ किया।

आर्य समाज की स्थापना

1863 से 1875 ई. तक स्वामी जी देश का भ्रमण करके अपने विचारों का प्रचार करते रहें। उन्होंने वेदों के प्रचार का बीडा उठाया और इस काम को पूरा करने के लिए संभवत: 7 या 10 अप्रैल 1875 ई. को 'आर्य समाज' नामक संस्था की स्थापना की[2]। शीघ्र ही इसकी शाखाएं देश-भर में फैल गई। देश के सांस्कृतिक और राष्ट्रीय नवजागरण में आर्य समाज की बहुत बड़ी देन रही है। हिन्दू समाज को इससे नई चेतना मिली और अनेक संस्कारगत कुरीतियों से छुटकारा मिला। स्वामी जी एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे। उन्होंने जातिवाद और बाल-विवाहका विरोध किया और नारी शिक्षा तथा विधवा विवाह को प्रोत्साहित किया। उनका कहना था कि किसी भी अहिन्दू को हिन्दू धर्म में लिया जा सकता है। इससे हिंदुओं का धर्म परिवर्तन रूक गया।

हिन्दी भाषा का प्रचार

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने विचारों के प्रचार के लिए हिन्दी भाषा को अपनाया। उनकी सभी रचनाएं और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' मूल रूप में हिन्दी भाषा में लिखा गया। उनका कहना था - "मेरी आंख तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही है। जबकश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा बोलने और समझने लग जाएंगे।" स्वामी जी धार्मिक संकीर्णता और पाखंड के विरोधी थे। अत: कुछ लोग उनसे शत्रुता भी करने लगे। इन्हीं में से किसी ने 1883 ई. में दूध में कांच पीसकर पिला दिया जिससे आपका देहांत हो गया। आज भी उनके अनुयायी देश में शिक्षा आदि का महत्त्वपूर्ण कार्य कर रहे हैं।

अन्य रचनाएँ

स्वामी दयानन्द द्वारा लिखी गयी महत्त्वपूर्ण रचनाएं - सत्यार्थप्रकाश (1874 संस्कृत), पाखण्ड खण्डन (1866), वेद भाष्य भूमिका (1876), ऋग्वेद भाष्य (1877), अद्वैतमत का खण्डन (1873), पंचमहायज्ञ विधि (1875), वल्लभाचार्य मत का खण्डन (1875) आदि।

निधन

स्वामी दयानन्द सरस्वती का निधन एक वेश्या के कुचक्र से हुआ। जोधपुर की एक वेश्या ने, जिसे स्वामी जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर राजा ने त्याग दिया था, स्वामी जी के रसोइये को अपनी ओर मिला लिया और विष मिला दूध स्वामी जी को पिला दिया। इसी षड्यंत्र के कारण 30 अक्टूबर 1883 ई. को दीपावली के दिन स्वामी जी का भौतिक शरीर समाप्त हो गया। लेकिन उनकी शिक्षाएँ और संदेश उनका 'आर्यसमाज' आन्दोलन बीसवीं सदी के भारतीय इतिहास में एक ज्वलंत अध्याय लिख गए, जिसकी अनुगूँज आज तक सुनी जाती है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऊपर जायें↑ Swami Dayanand Saraswati (अंग्रेज़ी) culturalindia। अभिगमन तिथि: 25 सितंबर, 2011।

  2. ऊपर जायें↑ वर्ष 1875 निश्चित है परन्तु तिथि के संबंध में सभी विश्वसनीय स्रोत कोई जानकारी नहीं देते। इस संबंध में सत्यार्थ प्रकाश, इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका आदि सभी भारतकोश द्वारा देखे गये

शर्मा 'पर्वतीय', लीलाधर भारतीय चरित कोश, 2011 (हिन्दी), भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: शिक्षा भारती, दिल्ली, पृष्ठ सं 371।



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