तब 'नकली खुशखबरें' नहीं परोसी जाती थीं
http://bhadas4media.com/article-comment/5492-naunihal-sharma.htmlभाग 23 : जागरण मेरठ के प्रभारी मंगल जायसवाल ने एक दिन संपादकीय विभाग की बैठक में खोज-खबरें लाने पर जोर दिया। वे कई मिनट तक कहते रहे कि ऐसी खबरों से अखबार पाठकों के दिल से जुड़ता है। रिपोर्टर का भी नाम होता है।
बाद में उसके पास ऐसी खबरें खुद चलकर आती हैं। इतना कहकर मंगलजी ने मेज के चारों ओर बैठे सभी लोगों पर नजरें घुमाते हुए पूछा कि ऐसी खबरों का आइडिया है किसी के पास। नौनिहाल उनके ठीक सामने की कुर्सी पर बैठे हुए थे। होठ पढऩे में वे माहिर थे ही। इसलिए एकदम समझ गये कि क्या बात हो रही है। उन्होंने एक कागज पर जल्दी से दो विषय लिखे और मंगलजी की ओर बढ़ा दिये। उनके बराबर में बैठा होने के कारण मैंने वह कागज पढ़ लिया- खेल-सामान बनाने वालों की समस्याएं और पावरलूम मजदूरों की परेशानियां।
मंगलजी को ये विषय तुरंत भा गये। बोले, 'अच्छे हैं। शहर के हजारों लोग इन कामों से जुड़े हैं। जब हम उनकी समस्याएं छापेंगे, तो उनसे सीधे जुड़ाव होगा। उनके परिवारों में अखबार पढ़ा जायेगा। इससे अखबार की लोकप्रियता बढ़ेगी।'
मंगलजी ने खेल-सामान वाली स्टोरी मुझे और पावरलूम वाली विश्वेश्वर को सौंप दी। मुझे तो मजा आ गया, पर विश्वेश्वर जरा परेशान हो गया। नौनिहाल से शिकायती लहजे में बोला, 'मरवा दिया ना। अब मैं पावरलूम मजदूरों को कहां-कहां ढूंढू।'
'इसमें परेशान होने का क्या बात है? मैं ही बता देता हूं।'
'अरे भाई! बता तो दोगे, पर साइकिल तो मुझे ही ना घसीटनी पड़ेगी।'
'अरे! अभी तो जवान पट्ठे हो। साइकिल घसीटने से क्यों घबराते हो?'
'काहे नहीं घबरायेंगे? तुम तो घर से दफ्तर और दफ्तर से घर तक ही घसीटते हो। पूरा शहर तो नहीं ना घूमना पड़ता है हमरी तरह।'
'बबुआ घूमते तो हम भी हैं। तुम काम के बोझ में घूमते हो। इसलिए थकते भी हो और बकते भी हो। हम अपनी खुशी से घूमते हैं। इसलिए ना तो थकते हैं, ना ही बकते हैं।'
'अब आप बहस छोडिय़ेगा भी। तनिक उन मजदूर लोगन के ठिकाने भी तो बताइये।'
और फिर नौनिहाल ने विश्वेश्वर को इस्लामाबाद की लोकेशन बतायी, जहां उन दिनों 50 हजार से ज्यादा पावरलूम थीं। बजाजा, सुभाष बाजार, शाहघासा, लालकुर्ती और सदर बाजार जैसे कई बाजार भी बताये, जहां इन पावरलूमों पर बने खादी के थान बिकते थे।
विश्वेश्वर स्टोरी पर लग गया। उसके मुकाबले मेरा काम आसान था। एक तो मेरठ का ही होने के कारण मुझे खेल-सामान बनाने के तमाम ठिकाने मालूम थे, दूसरे मेरे कई दोस्तों के ऐसे कारखाने सूरजकुंड पर पास-पास ही थे। विश्वेश्वर को यह स्टोरी करने के लिए चार-पांच दिन खूब घूमना पड़ा। मेरा काम दो दिन में ही हो गया। एक दिन आगे-पीछे ये स्टोरी जागरण में पहले पेज पर छपीं। अंदर के पेज पर शेष भी गया। तब खबरों की आज जैसी 300-400 शब्द की सीमा नहीं होती थी। हमारी वे स्टोरी 3000 शब्दों की थीं। एक तरह से इन क्षेत्रों की रिसर्च ही थीं। इन दोनों क्षेत्रों में अगले कई साल तक मेरी और विश्वेश्वर की वे स्टोरी संदर्भ सामग्री की तरह इस्तेमाल की जाती रहीं।
इसके बाद तो मंगलजी ने ऐसी खबरों का अंबार लगवा दिया। भगवतजी ने जो ठोस शुरूआत की थी, उसे मंगलजी ने आगे बढ़ाया। उन्होंने पाठकों के मन की खबरों का सिलसिला शुरू किया। जन-समस्याओं की सीरीज ही शुरू कर दी। इससे हुआ ये कि खबरें खुद चलकर जागरण तक आने लगीं। पाठक अपने आसपास की समस्याएं लिखकर भेजने लगे, फोन करके बताने लगे। परतापुर की औद्योगिक इकाइयों में उन दिनों मजदूर यूनियनें काफी सक्रिय थीं। वहां उनका फैक्ट्री मालिकों से विवाद चलता रहता था। उस पर भी मंगलजी की नजर थी। वे कहते थे, 'खबर ऐसी हो, जो पाठक को अपने साथ रोक ले।'
परतापुर की कई फैक्ट्रियों के मजदूर-मालिक विवाद तब जागरण ने प्रमुखता से छापे थे। कई उद्योगपति तो जागरण को दिये जाने वाले विज्ञापन की दुहाई देते हुए दफ्तर तक आ गये थे। पहले उन्होंने विज्ञापन विभाग वालों से संपर्क किया। तब विज्ञापन विभाग आज की तरह खबरों में सीधे तौर पर कोई हस्तक्षेप नहीं करता था। ऐस विज्ञापनदाताओं से वे कह देते थे कि खबर के सिलसिले में बात करनी है, तो मंगलजी से कर लो। कोई-कोई सीधे धीरेन्द्र मोहन तक पहुंच जाता था। वे मंगलजी को बुलाकर कुछ कहते, तो मंगलजी यह कहकर आ जाते, 'आइये, एडिटोरियल डिपार्टमेंट में चलते हैं। आप अपना वर्जन दे दीजिये। न्यूज की तरह उसे भी छाप देंगे।'
उन्होंने कभी किसी भी सिफारिश में आकर कोई खबर नहीं दबायी। किसी भी शोषित-वंचित का विश्वास नहीं तोड़ा। खबरों के एंगल में कभी कोई तोड़-मोड़ नहीं की। इसीलिए जागरण बहुत तेजी से पाठकों का प्रिय अखबार बन गया।
जागरण के मेरठ आने के दो साल बाद, 1986 में मेरठ से 'अमर उजाला' शुरू हुआ। तब शुरू हुई जोरदार स्पर्धा। इस स्पर्धा में साम-दाम-दंड-भेद, सब कुछ आजमाया गया। उसके रोचक किस्से बाद में। लेकिन इस सबसे मेरठ में लोकल खबरों की कवरेज और बढ़ गयी। इसका नतीजा यह हुआ कि दिल्ली के अखबार मेरठ से उखड़ गये। कभी दस हजार बिकने वाला 'नवभारत टाइम्स' तक दिखना बंद हो गया, तो बाकी की क्या बिसात? 'हिन्दुस्तान' को भी मेरठ के पाठकों ने तभी दोबारा अपनाया, जब उसने हाल में मेरठ से संस्करण शुरू किया।
वो जमाना पाठकों की जरूरतों का ख्याल रखने वाला और उन्हें जागरूक बनाने वाला था। तब पाठकों को 'नकली खुशखबरें' नहीं परोसी जाती थीं। ये तो आज का चलन है। 'कारों' से ज्यादा ध्यान 'साइकिलों' का रहता था। आज खबरों से साइकिल गायब हो गयी है। ठीक उसी तरह, जैसे हिन्दी फिल्मों से गांव गायब हो गये हैं। तो संघर्ष हर युग में 'कार' और 'साइकिल' का ही रहा है। अब साइकल वालों का तो मीडिया अस्तित्व ही नहीं मानता। आश्चर्य नहीं, एक दशक में यही हालत कारवालों की भी हो जाये। हो सकता है कि 2020 तक 'कारों' की जगह मीडिया में 'प्लेन' महत्वपूर्ण हो जायें।
बहरहाल, मंगलजी का हाथ हमेशा पाठकों की नब्ज पर रहता था। वे पाठकों के शिकायतों के पत्रों में से भी खबर सूंघ लेते थे। संपादकीय पेज पर छपने के लिए आने वाले पत्रों में अक्सर पाठक अपने आसपास की समस्याएं भी लिख भेजते थे। मंगलजी ऐसे पत्रों को अपने पास रख लेते थे। फिर किसी रिपोर्टर को उस पाठक के पास भेजते थे। इस तरह एक्सक्लूसिव खबरें मिल जाती थीं।
नौनिहाल जगरण में काम करने के अलावा अपने दोस्तों की मदद भी करते थे। उनके काम में सहयोग करके। उन्होंने कई प्रिंटिंग प्रेसों में कंपोजिंग और प्रूफ रीडिंग का काम किया था। वे भी जरूरत पडऩे पर जब-तब उन्हें बुला भेजते। जागरण में उपसंपादक होकर भी नौनिहाल को उन प्रेसों के लिए कंपोजिंग या प्रूफ रीडिंग करने में कोई गुरेज नहीं होता था। कोई संकोच नहीं होता था। इसी तरह वे अपने कई दोस्तों के साप्ताहिक अखबार निलवाने में भी मदद करते थे। ऐसा ही एक अखबार था लवीन्द्र भूषण का 'लवीन्द्र टाइम्स'। लवीन्द्र लायंस क्लब में भी सक्रिय थे। उनका अखबार शुरू हुआ था लायंस क्लब और व्यापारियों की खबरों से। लेकिन नौनिहाल ने उसे एक अच्छा साप्ताहिक अखबार बनवा दिया। वे हफ्ते में एक बार थापर नगर में उनके दफ्तर जाते और उस हफ्ते का अंक फाइनल करते। अगले अंक की रूपरेखा बना आते। कई बार तो लवीन्द्र भूषण उन्हें उनके घर से अपने पर जबरदस्ती बैठाकर ले जाते। सुधा भाभी कहती रह जातीं कि अभी तो इन्होंने खाना भी नहीं खाया है।
इस तरह नौनिहाल को मैंने कभी वीकली आफ मनाते नहीं देखा। किसी दिन 13-14 घंटे से कम काम करते नहीं देखा। फिर भी उनके चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती थी। मानो काम से उन्हें जीवनी शक्ति मिलती थी।
मुझे उनकी सबसे बड़ी सीख यही थी।
लेखक भुवेन्द्र त्यागी को नौनिहाल का शिष्य होने का गर्व है. वे नवभारत टाइम्स, मुम्बई में चीफ सब एडिटर पद पर कार्यरत हैं. उनसे संपर्क bhuvtyagi@yahoo.com के जरिए किया जा सकता है.
बाजार है हावी तो नैतिकता की बात क्यों?
सकारात्मक पत्रकारिता कैसे होगी? : आज अखबार वालों पर आंसू बहाने वाले या पत्रकारों के खिलाफ आग उगलने वाले लोग हर जगह मिल जाएंगे। आखिर क्यों पत्रकारों पर ऐसे आरोप लग रहे हैं? कुछ अखबार पत्रकारों को नाम मात्र का पैसा देकर उन्हें खुली कमाई के लिए छोड़ देते हैं।
पिछले महीने एक अखबार के पत्रकार ने बताया कि एक स्ट्रिंगर ने कई लाख का फ्लैट खरीदा है। मैंने पूछा- इतना पैसा कहां से आता है? पत्रकार ने कहा- विज्ञापन में धोखाधड़ी या कमीशनबाजी करके। ऐसे पत्रकार से आप किस नैतिकता की उम्मीद करेंगे? बड़ी- बड़ी कंपनियां प्रेस कांफ्रेंस करती हैं और पत्रकारों को उपहार देती हैं। जाहिर है उपहार पाने वाले पत्रकार उनके पक्ष में खबरें लिखते हैं। कहां है नैतिकता?
अब आइए अखबारों में जो छपता है उसे देखें। जो लोग राज्यसभा के लिए चुने गए, उनके हंसते हुए फोटो छपे। यह नहीं छपा कि वे वहां जाकर क्या करेंगे। आम आदमी हाशिए पर चला गया है। अखबार में आपको कोई नेता, कोई अभिनेता या मशहूर हस्ती हंसते हुए मिलेगी। जिस देश में ८० प्रतिशत लोग किसी तरह अपना जीवन यापन कर रहे हों, वहां के अखबारों में आम आदमी गायब है। नेता जी हंस रहे हैं। क्या इससे पाठक धन्य होंगे? महंगाई आम आदमी को परेशान कर रही है। कीमतें बढ़ रही हैं। नेता जी हंस रहे हैं। राज्यसभा के लिए चुने गए हैं न? हंसे क्यों नहीं।
आप कहेंगे हंसना भी मना है क्या? नहीं, हंसना कोई गुनाह नहीं है। अच्छा है। हंसी सबको अच्छी लगती है। लेकिन आपकी हंसी में आम आदमी या जनता की सेवा का अक्स नहीं है। फिर यह हंसी किस काम की?
आज कौन खोजी पत्रकारिता कर रहा है? ज्यादातर पत्रकार तो फाइव या सेवेन स्टार होटलों में होने वाले प्रोग्रामों में ही व्यस्त रहते हैं। खोजी पत्रकारिता कौन करेगा? कौन शरीर और दिमाग को कष्ट देगा? बाजार हावी है तो नैतिकता की बात कैसे हो? कोई अखबार सर्वे कराता है कि कितने लोगों को सिर्फ माड़- भात खा कर गुजारा करना पड़ता है? कितने लोगों को नया कपड़ा बनवाए दो साल हो गया? कितने लोगों के बच्चे इलाज के बिना मर गए? नहीं न? तो फिर आंख बंद रखिए औऱ आंख खोलते ही रंगीन चश्मा पहन लीजिए और अखबार में रंगीन ही रंगीन लिखिए।
लेखक विनय बिहारी सिंह कोलकाता के वरिष्ठ पत्रकार हैं.
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