THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, April 29, 2012

हमने तो ढोर डंगरों से अंग्रेजी सीखी! (09:21:05 PM) 29, Apr, 2012, Sunday

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हमने तो ढोर डंगरों से अंग्रेजी सीखी!
(09:21:05 PM) 29, Apr, 2012, Sunday

पलाश विश्वास
हमने तो ढोर डंगरों से अंग्रेजी सीखी! हमारे बच्चों के मुकाबले हम खुशकिस्मत जरूर हैं कि हमें सिब्बल समय में निजी ग्लोबल विश्व विद्यालयों में गरीबों को मिले आरक्षण के भरोसे पढ़ना लिखना नहीं पड़ा। सरकारी स्कूलों का तब कबाड़ा नहीं हुआ था और बिना टयूशन बिना कोचिंग हम लोग थोड़ा बहुत लिख पढ़ गये। वरना हमारे माता पिता की क्या औकात थी कि हमें स्कूल में दाखिला दिला पाते। गरीब बच्चों के हित में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट का सख्त आदेश है कि अब शिक्षा अधिकार कानून नियम हर स्कूल में लागू होगा। सुप्रीम कोर्ट के देश में सभी सरकारी और गैरसहायता प्राप्त निजी स्कूलों की 25 प्रतिशत सीटें गरीबों को मुफ्त में देने के प्रावधान पर सहमति के सवाल पर मंत्री ने कहा कि इस मामले में यह विषय बड़े मुद्दों में से एक था।  चलिए 25 फीसद सीटें गरीबों के लिए आरक्षित तो  हो गयीं। गरीबी की सरकारी परिभाषा या गरीबी रेखा पर न जाकर यह तो जरूर पूछा जा सकता है कि देशभर में कुल कितने बच्चों को ऐसे महान शिक्षा केंद्रों में दाखिले का विशेषाधिकार मिल सकेगा। चौदह साल तक मुफ्त शिक्षा का अधिकार वाकई ऐतिहासिक है। पर बच्चों को समान शिक्षा का अधिकार है क्या सरकारी और निजी स्कूलों के भेद क्या इस कानून से खत्म हो जायेंगे। देसी विश्वविद्यालय आईआईटी और आईआईएम के समकक्ष होंगे या फिर शिक्षा के अधिकार से लैस बच्चों को आखिरकार लाखों की फीस लेने वाले इन इलीट संस्थाओं में प्रवेश मिलेगा क्या? क्या देशी और विदेशी विश्वविद्यालयों में शिक्षा का तारतम्य का समाधान होगा? अलग अलग पाठयम के बावजूद शिक्षा के इस  अधिकार  के क्या मायने हैं? क्या देश के आम नागरिक बाहैसियत से ये सवालात हम पूछ नहीं सकते?
हमारे वक्त तो हालत यह थी कि बसंतीपुर और दिनेशपुर के पूरे इलाके में अंग्रेजी बोलना वाला कोई नहीं था। स्कूल में पांचवीं तक हमें अंग्रेजी पढ़ने का कोई मौका नहीं था। खुद ही अभ्यास करना था। हमने इसके लिए नायाब तरीका  बांग्ला के विख्यात बागी कवि माइकेल मधूसूदन दत्त की प्रेरणा से ईजाद कर लिया। हमारे चाचाजी साहित्य के शौकीन थे। उनके कारण घर में अंग्रेजी और विश्व साहित्य का छोटा मोटा खजाना जमा हो ही गया था। पिताजी को भी खूब पढ़ने लिखने का शौक था, उनके पास भी तरह तरह का साहित्य था। देश बांग्ला में, अंग्रेजी में रीडर्स डाइजेस्ट और हिंदी में उत्कर्ष हमारे यहां आया करते थे। मुरादाबाद से छपने वाली अरुण भी कभी कभार बांचने को मिल जाया करते थे। उन दिनों दिनेशपुर में अखबार नहीं आता था। हमारे घर कोलकाता से बांग्ला अखबार बसुमती आया करता था। नौ मील साइकिल चलाकर रूद्रपुर जाकर अंग्रेजी अखबार के साथ साथ दिनमान, धर्मयुग साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं भी उठा लाते थे हम। बांग्ला, हिंदी और अंग्रेजी अखबारों का संपादकीय हमें चीख चीखकर पढ़ना होता था। हमारे पास पीसी रेन का ग्रामर था और एक इंगलिश टू बेंगाली डिक्शनरी! नालंदा वालों की हिंदी टू इंग्लिश और इंग्लिश टू हिंदी डिक्शनरियां भी हमारे पास थीं। यहां तक तो ठीक था। पर माइकेल के नुस्खे के मुताबिक कोई भाषा सीखने के लिए उस भाषा में बोलना, लिखना, पढ़ना, हंसना, रोना, खिलखिलाना और सपने देखना भी जरूरी था। उन दिनों हमारे ग्वाल घर में बैलों, गायों, भैंसों और बकरियों की भरमार थी। हमारी जिम्मेवारी उन्हें चराने, घास पानी देने की थी। हमने इसका जमकर फायदा उठाया। हम उनके साथ अंग्रेजी में बोला करते थे और ताजुब की बात यह थी कि वे समझ भी लेते थे। खेत में हल जोतते हुए, पाटा चलाते हुए या बैल गाड़ी हांकते हुए भी मैं तमाम निर्देश अंग्रेजी में देता था। सभी लोग इस पर एक राय थे कि यह लड़का पगला गया है। पर मुझे इसकी कोई परवाह न थी।
छठीं में दाखिला लेकर दिनेशपुर हाई स्कूल में गया तो वहां सुरेश चंद्र शर्मा जैसे सख्त टीचर मिले, जिन्हें मार मारकर ग्रामर में दुरुस्त करने की आदत थी। जब नौवीं में पढ़ने शक्तिफार्म राजकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय में पहुंचे, तब वहां चराने के लिए ढोर डंगर न थे, पर जिस रतन फार्म नंबर दो में मैं लाजिंग में रहकर बच्चों को पढाया करता था, वहां से करीब दो मील दूर घना जंगल था, जहां अंग्रेजी बोलने से मुझे कोई रोक नहीं सकता था। सारे पेड़ पौधे मेरे दोस्त बन गये थे। इसका नतीजा यह निकला कि जीआईसी नैनीताल में दाखिला मिलने के बाद वहां शेरवूड, बिड़ला मंदिर, सेंट जोजफ से आये बच्चों के मुकाबले खड़ा होने में मुझे कोई दिक्कत नहीं हुई। डीएसबी में दाखिला लेते ही हम अंग्रेजी माध्यम में चले गये। वहां हमारे साथ कांवेंट में पढ़ी बड़े घरों की बेटियां भी थीं। मैं ही क्या सरकारी स्कूलें से जीआईसी और डीएसबी में पहुंचने वाले तमाम बच्चों को निजी महंगे स्कूलों में पढ़कर आनेवालों में कोई सुर्खाब के पर लगे नजर नहीं आते थे। हाईस्कूल तक गणित और विज्ञान विषयों में मेरी गहरी रुचि थी। पर उसके लिए भी कोई टयूशन की जरुरत कभी नहीं पड़ी। बल्कि जिला परिषद स्कूल होने के कारण अक्सर दिनेशपुर हाई स्कूल में इन विषयों के टीचर नहीं होते थे। मैं सिर्फ  एक साल नवीं कक्षा में शक्तिफार्म में था। दसवीं पढ़ने फिर घर लौट आया था। शक्तिफार्म में प्रशिक्षित शिक्षकों के कारण परीक्षाओं की तैयारी करना आ गया था। 
तब खेती हम लोग खुद करते थे। दर्जनों मजदूर काम करते थे।हर मौसम में खेती का काम रहता था। हमें पढ़ाने लिखाने का उद्देश्य कोई कैरियर बनाना न था। घरवाले चाहते थे कि समाज में चलने लायक पढ़ा लिखा जरूर बनना चाहिए। पर सर्वोच्च प्राथमिकता खेती थी। चूंकि मैं हमेशा पढ़ने लिखने में डूबा रहता था दिन दिन भर और रात रात भर सवालों से जूझता रहता था, अक्सर खेती के काम में गलतियां हो जाया करती ती। हमरे ताउजी की राय थी कि मैं नंबरी कामचोर हूं और काम से बचने के लिए ही किताबों कापियों में डूबने का बहाना करता हूं। इससे कड़ी गरमी में जब उनका मिजाज गरमा जाता था, तो अक्सर वे मुझे पढ़ने लिखने के अपराध में जमकर धुन डालते थे। मार हजम करने की कला का हमने भी खूब अभ्यास किया था। क्योंकि घर और स्कूल दोनों जगह बेमौसम बरसात की तरह अमूमन पिटाई हो जाती थी। इसलिए मार पीट का हमारी सेहत पर कोई यादा असर होना न था। हम अपनी आदतों से कभी बाज नहीं आये। यहां तक कि डीएसबी में पढ़ते हुए भी नेतीगिरि की साख बन जाने के बावजूद खेती के काम से कोई छुट्टी की गुंजाइश नहीं थी। गरमी और जाड़ों की छुट्टियों में आकर हम घर में बाकायदा खेतिहर मजदूर बन जाते थे। फर्क सिर्फ इतना था कि तब हम ट्रैक्टर भी चलाने लगे थे। लेकिन तब तक हम तारा चंद्र त्रिपाठी चाणक्य के शिष्य बन चुके थे और चंद्रगुप्त मौर्य हमें सपने में आने लगे थे। कपिलेश भोज की युगलबंदी के  साथ गिर्दा की दुनिया में दाखिल थे हम जहां दुनिया का कोई पाठयम हमें बांध नहीं सकता था। खेती बाड़ी के काम से क्यों घबराते। हमारे बेहद कामयाब मित्र सवाल उठा सकते हैं कि इस तरह पढ़ लिखकर हमने कौन से तीर मार लिये। मेरा बेटा भी यही सवाल करता रहा है, जबभी हमने उसके साथ अपना बचपन शेयर करना चाहा। यह सही है कि हममें से कुछ लोग बेहद नाकामयाब साबित हो सकते हैं। पर हकीकत यह है कि हमसे भी यादा मुश्किलात का सामना करते हुए हमारे समय के लोग कामयाबी के शीर्ष तक पहुंचे और उनकी कामयाबी में निजी स्कूलों का कोई योगदान नहीं रहा। पहाड़ों में रोजाना मीलों पगडंडियों पर सवार होकर बच्चे देश भर में कामयाबी के झंडे गाड़ चुके हैं। यहीं नहीं, इलाहाबाद और वाराणसी हिंदू विश्वविद्योलयों में साधनहीन बच्चों ने हमेशा चमत्कार किया है। लेकिन तब सिब्बल समय नहीं था और न नालेज इकानामी का कोई वजूद था। जेएनयू और तमाम केंद्रीय विश्वविद्यालय तो खैर बाद में बने, पर हमारे लिए काशी, इलाहाबाद और अलीगढ़ विश्वविद्यालय किसी विदेशी विश्वविद्यालय से  कम नहीं थे।अपने डीएसबी में पढ़ने लिखने का माहौल ऐसा था कि रीडिंग रूम और लाइब्रेरी में हमेशा कतार लगी रहती थी।आज विश्वविद्यालयों और कालेजों के क्या हाल हैं।

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