THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Friday, April 27, 2012

स्थानीय बनाम वैश्विक विकास का पैमाना

स्थानीय बनाम वैश्विक विकास का पैमाना


Friday, 27 April 2012 11:09

नरेश गोस्वामी 
जनसत्ता 27 अप्रैल, 2012: छोटे उद्योग और घरेलू जरूरतों से तय होता उत्पादन और उनसे बनने वाली स्थानीयता विश्व की एकीकृत या राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था में पिछड़ेपन की सूचक मानी जाती है। पिछली एक सदी में जिस तरह मनुष्य समाज और उसका बोध विकसित हुआ है, उसमें ये तत्त्व प्रगति नहीं, केवल जीवन-निर्वाह के द्योतक माने जाते हैं। विकसित और उन्नत कहे जाने वाले देश तो इस स्थिति को औपनिवेशिक दौर से ही पिछड़ेपन का पर्याय मानते रहे हैं, लेकिन यूरोपीय प्रभुता से मुक्त हुए देशों का नेतृत्व भी इसे कमोबेश तभी से एक अवांछनीय स्थिति मानता आया है। 
यह मानसिकता पिछली सदी से लेकर इस सदी तक प्रश्नांकित होने के बजाय लगातार मजबूत होती गई है। संक्षेप में कहें तो दुनिया को एक ही मॉडल से समझने की कोशिश करने वाला वर्ग इसे सार्वभौमिक सत्य की तरह स्वीकार करता है कि दुनिया जिस तरह बदलती जा रही है उसमें उच्च तकनीक और वृहत से जुड़े बिना कोई देश और समाज आगे नहीं बढ़ सकता। 
इस धारणा का समेकित प्रभाव यह रहा है कि किसी भी समाज का अग्रगामी वर्ग निर्विकल्प भाव से यही सोचता है कि व्यापार, बड़े उद्योगों और तकनीक के बिना अभाव या गरीबी दूर नहीं किए जा सकते। यह इस धारणा का ही वर्चस्व है कि मौजूदा दौर में हमारे समाज का वह हिस्सा भी, जो आर्थिक वृद्धि के महामंत्र से बहुत कम लाभान्वित हुआ है, इसी मत का पैरोकार बन बैठा है कि समृद्धि केंद्रीकृत नियोजन और उच्च तकनीक से ही आ सकती है। इसके पीछे शायद यह उप-धारणा काम करती है कि एक बार आर्थिक वृद्धि एक निश्चित स्तर पर पहुंच जाए तो फिर वह नीचे की ओर चलने लगती है। 
एक तरह से देखें तो पिछली और मौजूदा सदी विकास को लेकर ऐसी ही धारणाओं की सदी रही है। इस पूरे दौर में कुछ चीजों को लेकर एक सहमति-सी बन गई है, जिन्हें बौद्धिक संस्थाएं अनवरत दोहराती रहती हैं। एक समय के बाद वे जनमानस में इस कदर पैठ जाती हैं कि फिर उन्हें कोई विकल्प संभव नहीं दिखता। इसके साथ एक घटना और घटती है- लोग यह भूलते जाते हैं कि धारणाएं भौतिक-प्राकृतिक सत्य नहीं हैं, जिन्हें बदला न जा सके। उन्हें इस बात का यकीन नहीं रहता कि अगर मनुष्य ने कोई धारणा बनाई है तो वह उसे दुरुस्त भी कर सकता है। 
इस तरह ध्यान से देखें तो समाज और व्यक्ति का वृहत्तर जीवन लगातार कुछ धारणाओं से नियंत्रित होता जा रहा है। विडंबना यह है कि व्यक्ति की कुशाग्रता और प्रतिभा को इन धारणाओं से नियंत्रित व्यवस्था को संभालने में जोत दिया गया है। जबकि वास्तविक अनुभव बताते हैं कि व्यक्ति और समाज की खुशहाली के स्रोत कहीं और हैं। 
मसलन, विकास की स्थापित धारणा को विकल्पहीन मानने वाले लोगों से सतत बहस करने वाली अध्येता हेलेना नोरबर्ग-होज 1975 में लद्दाख गई थीं। उन्होंने वहां की अर्थव्यवस्था और समाज का नजदीक से अध्ययन किया। प्राकृतिक संसाधनों की कमी और जलवायु की तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद हेलेना ने लद्दाखी समाज को पर्याप्त  संपन्न और खुशहाल पाया। 
आधुनिक विकास की पदावली और अवधारणाओं में प्रशिक्षित प्रतिभा को यह पहली ही दृष्टि में असामान्य बात लगेगी कि ऐसे हालत में कोई समाज कैसे आत्मनिर्भर और संपन्न हो सकता है। लेकिन जब हेलेना ने उस व्यवस्था की पड़ताल की तो कुछ बुनियादी चीजें सामने आर्इं, जिनसे उन्हें पता चला कि लद्दाखी समाज में उत्पादित वस्तुओं का व्यापार अपने समाज की खुशहाली के लिए होता है। 
वह अर्थव्यवस्था का केंद्रीय लक्ष्य न होकर एक आनुषंगिक गतिविधि है। जबकि वर्तमान अर्थव्यवस्था का बुनियादी लक्षण और तत्त्व यह है कि उसमें उत्पादन इस स्तर पर किया जाए, जिसे राष्ट्रीय या फिर वैश्विक बाजार में बेचा जा सके। इस धारणा के तहत मान लिया गया है कि इस तरह व्यापार करने से देश में संपदा का निर्माण होगा। विकास की आधुनिक अवधारणा इसी विचार से निकलती है। 
इसीलिए हेलेना विकास के तर्क को समझने के लिए उपनिवेशवाद के इतिहास में जाती हैं। वे बताती हैं कि उपनिवेशी शक्तियों के यूरोप से निकल कर दुनिया के विभिन्न भूभागों पर राजनीतिक नियंत्रण करने के पीछे मकसद उन देशों के संसाधनों और उत्पादन को इस तरह नियोजित करना था कि अंतत: व्यापार को बढ़ावा मिले। उनका मानना है कि उपनिवेशवाद की इसी प्रक्रिया को दूसरे विश्वयुद्ध के बाद धीरे-धीरे विकास कहा जाने लगा। 
यह अकारण नहीं है कि औपनिवेशिक दौर जब अपने उरूज पर था तो कई देशों के नाम वहां पाए जाने वाले संसाधनों पर ही रख दिए गए थे। गोल्ट कोस्ट और आइवरी कोस्ट जैसे नाम इसी तरफ इशारा करते हैं। विडंबना यह हुई कि महायुद्ध के बाद जब तबाह हुए देशों के पुनर्निर्माण की योजना बनाई गई तो उसमें उपनिवेशीकरण के इस तत्त्व से मुक्ति पाने के बजाय उसे इन देशों की प्रगति का बुनियादी आधार बना दिया गया। इसके तहत यह माना गया कि उत्पादन का मकसद स्थानीय और घरेलू जरूरतों को पूरा करना नहीं, बल्कि व्यापार को बढ़ावा देना होता है। 
अर्थव्यवस्था को देखने की यह मौलिक दृष्टि मुख्यधारा के विचारकों को आंशिक, अपूर्ण, सीमित और कुल मिला कर आज की दुनिया के हिसाब से अप्रासंगिक लगती है। उनके लद्दाख अध्ययन को लेकर कहा जाता रहा है कि लद्दाख को प्रतिनिधि उदाहरण नहीं माना जा सकता। क्योंकि वह एक ऐसा भूखंड है, जो बाकी दुनिया से कटा-फटा रहा है। इसलिए उस क्षेत्र और समाज के निष्कर्षों को बाकी दुनिया पर लागू नहीं किया जा सकता। 

इस संदर्भ   में दिलचस्प बात यह है कि इस बीच जैसे-जैसे वैश्वीकरण की प्रकिया गहराती गई है, लद्दाखी समाज और उसकी अर्थव्यवस्था भी दुनिया के बाकी हिस्सों जैसी होती गई है। जिस तरह हेलेना की दृष्टि को मुख्यधारा के चिंतक अतीतगामी और अतार्किक मान कर खारिज करते हैं वैसा ही कुछ भारत में गांधी के साथ हुआ है। 
गांधी को लेकर आम धारणा है कि वे विज्ञान और तकनीक के विरोधी थे। इसलिए मान लिया जाता है कि वे मशीन और उद्योगों के खिलाफ थे। यह धारणा लोकमानस में शायद इसलिए दृढ़ होती गई है कि आजादी के बाद एक स्वतंत्र देश के रूप में भारत ने विकास का जो रास्ता चुना उसमें विज्ञान और तकनीक के एक खास रूप को तरजीह दी गई। विज्ञान और तकनीक का यह ढांचा बड़ी मशीनों और बड़े उद्योगों के इस्तेमाल पर आधारित था। उसकी श्रेष्ठता को विभिन्न मंचों और तरीकों से प्रचारित किया गया, जिसके चलते यह बात ही कहीं बिसर गई कि गांधी भी मशीनों की बात कर रहे थे। फर्क बस यह था कि गांधी की मशीनें कुछ अलग तरह की थीं। वे ऐसी मशीनों के पक्षधर थे, जिन्हें गांव के लोग खुद बना और बरत सकें। उनकी चिंता यह भी थी कि ये मशीनें ऐसी न हों कि उनका दूसरों के शोषण में इस्तेमाल किया जाने लगे। 
गांधी की बुनियादी चिंता यह थी कि विकास की भारतीय योजना में गांवों का स्थान क्या होगा। नेहरू को लिखे एक पत्र में उन्होंने यह भी साफ कर दिया था कि अगर विकास की योजना का केंद्र बिंदु गांव रहता है तो उन्हें रेलवे और टेलीग्राफ जैसी तकनीक से कोई उज्र नहीं है। इसलिए इस बात को शायद बार-बार दोहराना होगा कि गांधी का आधुनिक विज्ञान और तकनीक से कोई बैर नहीं था। यह कोई ऐसी चिढ़ नहीं थी, जो गांधी के मन-मस्तिष्क में अचेत रूप से बैठ गई थी।
गांधी ऐसे विकास के दुष्परिणामों को बहुत बारीकी से देख रहे थे। उन्होंने 'यंग इंडिया' के 7 अक्तूूबर, 1926 के अंक में लिखा था कि अगर भारत भी अमेरिका और इंग्लैंड की तरह बनना चाहता है तो उसे दुनिया के अन्य देशों की खोज करनी पड़ेगी। जाहिर है कि गांधी इस बात को बखूबी समझते थे कि विराट स्तर पर होने वाला विकास दूसरे देशों का शोषण किए बिना मुमकिन नहीं है। क्या यही बात आज के भारत में लागू नहीं होती, जहां विकास के समर्थकों और योजनाकारों को देश के आदिवासी क्षेत्रों की संपदा देश के विकास के लिए अनिवार्य लगने लगी है! 
गांधी की गांव को आत्मनिर्भर बनाने की पक्षधरता के पीछे एक गहरी समझ है, जो पूंजीवाद, विज्ञान और तकनीक की संपूरक और अनिवार्य पारस्परिकता से पैदा हुई है। वे पूंजीवाद के बुनियादी तर्क को उतनी ही सफाई से समझते थे, जितना हेलेना नोरबर्ग-होज जैसे परवर्ती राजनीतिक चिंतकों ने समझा है कि स्थानीय जरूरतों का दायरा छोड़ते ही पूंजी शोषणकारी हो जाती है। 
इस तरह स्थानीय और वृहत के बीच सिर्फ पैमाने का फर्क नहीं है। वृहत केवल स्थानीय स्तर पर होने वाली उत्पादन की समस्त प्रकियाओं का समुच्चय मात्र नहीं है। उन दोनों के बीच एक गुणात्मक अंतर है। वृहत में यह बात लाजमी तौर पर शामिल है कि संसाधनों और तकनीक पर वास्तविक कामगार का नहीं, बल्कि पूंजी के स्वामी और उसके प्रबंधकों का नियंत्रण हो जाता है। 
पूंजीवाद और आधुनिक तकनीक से उपजी सभ्यता के इस छलावे को लोहिया भी इतने ही सटीक ढंग से पकड़ते हैं। जैसा कि किशन पटनायक अपने एक लेख में कहते हैं, 'लोहिया कभी-कभी आधुनिक सभ्यता की उपलब्धियों से प्रभावित होते थे, लेकिन उनका विश्वास अपनी जगह कायम रहता था कि यह सभ्यता समानता और समता का वादा तो करेगी, पर उसे कभी प्रदान नहीं करेगी।'
लेकिन, ब्रिटिश अधीनता के दौर में भी भारत के राजनीतिक नेतृत्व की एक धारा, जो सत्ता के ऊपर से शांत दिखने वाले संघर्ष में अंतत: समाज के सामूहिक हित से भारी साबित हुई, देश के विकास के लिए बड़ी पूंजी और बड़ी मशीनों का रास्ता अपनाना चाहती थी। इसलिए इसे विडंबना की तरह नहीं, बल्कि इस सोच की निरंतरता की तरह देखा जाना चाहिए कि आजादी के बाद जब इस नेतृत्व को अपने देश, समाज का भविष्य तय करने का अवसर मिला तो उसने अमेरिका बनना ही स्वीकार किया। इसमें अगर कोई विडंबना है तो केवल यही कि जब जाहिरा तौर पर देश को संप्रभु और गणतंत्र बनाने के संकल्प को संविधान में कलमबंद किया जा रहा था तो हमारा राजनीतिक नेतृत्व मन और चेतना के स्तर पर वही बनना चाह रहा था, जो अमेरिका और इंग्लैंड हमसे बहुत पहले बन चुके थे। 
विकास की वह रूढ़ वैचारिक प्रस्थापना, जिससे हेलेना पिछले तीन दशकों से  लगातार बहसतलब रही हैं, अब लद्दाख को भी अपने प्रभाव में ले चुकी है। अपनी नियमित यात्राओं के दौरान हेलेना ने महसूस किया है कि अब विश्व के अन्य समाजों की तरह लद्दाख के लोगों को भी लगने लगा है कि विकास कोई और अवस्था है और वे जैसा जीवन जीते रहे हैं, वह नाकाफी है। इस सांस्कृतिक बदलाव को हेलेना इस उदाहरण से समझाती हैं कि अब वहां की युवतियां अपनी त्वचा को यूरोपीय रंगत देने के लिए गोरेपन की क्रीम का इस्तेमाल करने लगी हैं। यानी उन्हें अचानक लगने लगा है कि उनकी त्वचा उतनी गोरी नहीं है। क्या लद्दाख का यह विपर्यय बाकी दुनिया का भी सच नहीं बन गया है!

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