Sunday, 01 April 2012 14:26 |
नंदकिशोर आचार्य 'अस्तित्व का आंगन/ कृतज्ञता की धूप से भरा है/ और तिस पर भी/ सूना है विस्तार/ देहरी से ठाकुरद्वारे तक का' ('जैसे याद आ जाता है') भवानी भाई की कविता के हवाले से अज्ञेय का नई कविता के इस अनूठे रस को मिश्र रस कहना और गंभीर बात को हल्के ढंग से कहने की इस भंगिमा को उल्लेखनीय मानना सही लगता है। बोलचाल की इस लय के ही कारण भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में एक विशेष प्रकार की लोक आत्मीयता का स्पर्श महसूस होता है। यह आत्मीयता केवल संप्रेषण के स्तर पर नहीं, बल्कि स्वयं अनुभव के स्तर पर व्यंजित होती है- बल्कि यह कहना शायद अधिक सही होगा कि इसी कारण प्रकृति या अन्य चीजों का अनुभव अधिक आत्मीय या कौटुंबिक स्तर पर होता है और इसलिए भवानी प्रसाद मिश्र की कविता में वह घर बराबर मौजूद रहता है, जिसकी तलाश बाद की कविता बराबर करती रही है। भवानी भाई जिस किसी भी चीज के बारे में बतियाते हैं, उसे घरेलू बना देते हैं- प्रकृति तक को। जब वह कहते हैं: 'बहुद दूर/ दक्षिण की तरफ/ नीली है पहाड़ की चोटी/ और लोटी-लोटी लग रही है/ आंगन के पौधे की आत्मा/ स्तब्ध इस शाम के/ पांवों पर।' ('अंधेरी रात') तो आंगन का पौधा और शाम ही नहीं, दूर दिखती पहाड़ की नीली चोटी भी जैसे परिवार का एक अंग हो जाती है। वृद्धावस्था और मृत्यु तक के प्रति भवानी भाई एक आत्मीय स्वर में बात करते हैं और यह स्वर विस्मित करता है- खासतौर पर जब पश्चिम के आधुनिक साहित्य में इनका त्रासदायक अनुभव ही सघन दीखता है। 'आराम से भाई जिंदगी/ जरा आराम से/ तेजी तुम्हारे प्यार की बरदाश्त नहीं होती अब/ इतना कस कर किया गया आलिंगन/ जरा ज्यादा है इस जर्जर शरीर को।' ('आराम से भाई जिंदगी') भवानी भाई की प्रेम कविताएं भी अलग से ध्यान आकर्षित करती हैं- खासतौर पर प्रौढ़ प्रेम की कविताएं जिनमें उद्दाम शृंगारिकता के बजाय आत्मीय सहजीवन और उसके सुख-दुख ही प्रेम की व्यंजना है। 'कैसे कहता/ सबसे बड़ा सुख/ सपने में मिला था/ सच यही है/ मगर इस सच को कभी मैंने दुख नहीं बनने दिया/ और ले लिए इसलिए उस दिन/ सवाल के जवाब में सरला के दोनों हाथ/ हाथों में/ और देखा हम दोनों ने चुपचाप/ एक दूसरे को थोड़ी देर।' ('क्या चाहती हो तुम') भवानी भाई की कविता में जब भी व्यंग्य या क्षोभ दिखाई देता है- बल्कि उनकी भी उल्लेखनीय उपस्थिति वहां है- तो आत्मीयता के अभाव या उस पर हुए आघातों के विभिन्न रूपों के प्रति विरोध के रूप में ही। इसलिए वहां भी घृणा नहीं एक सात्त्विक क्रोध की ही अभिव्यक्ति है। लेकिन तब क्या भवानी प्रसाद मिश्र का काव्य-संसार साधारण भारतीय जन के ऐतिहासिक और मानसिक द्वंद्वों से प्रसूत अहिंसा-बोध या संवेदन की आधुनिक प्रक्रिया का प्रतिफलन ही नहीं है? हां, निश्चय ही वह काव्यात्मक प्रक्रिया का प्रतिफलन है! |
Sunday, April 1, 2012
कविता में घर
कविता में घर
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