गैर-द्विज पत्रकार को अश्लीलता के चक्रव्यूह में घेरा गया है!
47 के पहले, 90 के बाद | पत्रकारिता में अश्लीलता और सामाजिक न्याय का सवाल
♦ प्रमोद रंजन
अविनाश जी, मोहल्ला पर आज इंडिया टुडे की 'कथित अश्लील' स्टोरी पर फेसबुक पर चली बहस देख रहा था। कई प्रबुद्ध लोगों ने इस बहस में भाग लिया है। सब को तो नहीं, लेकिन अधिकांश पढ़ गया। अधिकांश ने बहुजन समाज से आने वाले पत्रकार मित्र दिलीप मंडल की लानत-मानत की है। आपने फेसबुक पर अपनी टिप्पणी में तंज किया है कि ऐसे 'अश्लील' पत्रकार को फारवर्ड प्रेस ने सम्मानित किया।
अश्लीलता को लेकर मेरा नजरिया अलग रहा है। जरा, गाव-तकिया लगाकर अपनी कोठी की ड्योढ़ी पर नाच देख रहे सामंत के नौकर-नौकरानियों की नजर से भी इसे देखें। देखिए, वे पान पहुंचाने आते है, शराब की बोतल मालिक के सामने रखते हैं और कनखियों से नाच को देखते हैं। कोठी की नौकरानियां छुप-छुप कर देखने की कोशिश कर रही हैं। ये वे भाग्यशाली लोग हैं, जो कनखियों से भी देख पाते हैं। वरना, गांव के अन्य लोग तो बस उस गाड़ी को ही देखकर संतोष कर लेते हैं, जिसके पर्दे के भीतर लाल पान की बेगम गुजरती है।
बहरहाल, एक लेख जो काफी पहले मेरी पुस्तिका 'मीडिया में हिस्सेदारी' में संकलित था, भेज रहा हूं। उम्मीद करता हूं यह इस बहस को आगे बढ़ाएगा।
प्रमोद रंजन [ हिंदी संपादक, फारवर्ड प्रेस ]
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अविनाश [ मॉडरेटर, मोहल्ला लाइव ]
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मीडिया के बाजारवाद के खतरे और दुष्परिणाम बहुआयामी हैं। नयी तकनीक ने कई मायनों में ब्राह्मणवाद के अस्त्र के प्रभाव को व्यापक बनाया है। लेकिन क्या कारण है कि इसके दुष्परिणामों में से सिर्फ एक – स्त्री शरीर के प्रदर्शन को ही चिन्हित किया जाता है? वस्तुतः यही वह दुष्परिणाम है, जिससे सबसे ज्यादा भारत का सामंती समाज प्रभावित हुआ है। अन्यथा इस बाजारवाद ने अनेक प्रकार की मनोरंजन-विधियों, जो सिर्फ धनिकों तक सीमित थीं, की पहुंच बहुसंख्यक लोगों तक संभव कर दी है।
1890 में प्रतापनारायण मिश्र (ब्राह्मण और हिंदुस्तान के संपादक) (1)
2. 'संवाद मिला है कि एक किसान अपनी गऊएं लेकर पाली जा रहा था, उसने कुएं में गिरकर प्राण दे दिये। कुएं के मालिक से गऊओं को पानी पिलाने के लिए कहा गया किंतु वह अधिक गऊओं को पानी पिलाने में असमर्थ था। गऊओं का दुख किसान से देखा नहीं गया और कुएं में कूद कर प्राण दे दिये।
शहर के दानी सज्जनों द्वारा सेवा संघ को गऊओं की सेवा के लिए काफी सहायता प्राप्त हो रही है। कुछ व्यक्तियों ने अन्यत्र सेवा भी आरंभ कर दी है। पड़ोस के गोदवाड़ प्रांत से भी गऊएं आ रही हैं।'
29 जुलाई, 1939 को दैनिक हिंदुस्तान में प्रकाशित समाचार (2)
3. 'इस देश में पैदा हुए नवधनिकों ने दूरदर्शन को अपने मनोरंजन और मुनाफा का माध्यम बना लिया है। जैसे फाइव स्टार होटलों का जूठा और बचा हुआ खाना भिखमंगों और भूखों में बंटता है, उसी तरह शहरी नवकुलीन वर्ग की जूठन आज देश के गांवों में 173 लो पावर ट्रांसमीटरों के जरिये परोसी जा रही है।'
1986 में कथाकार कमलेश्वर (3)
4. 'एक राष्ट्र में एक संविधान, एक भाषा, एक राष्ट्रीय ध्वज तो एक राष्ट्रधर्म क्यों नहीं? एक राष्ट्र धर्म समय की मांग है।'
29 जुलाई, 2009 को दैनिक जागरण में प्रकाशित समाचार का अंश (4)
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पहला उद्धरण उत्त्र भारतीय पत्रकारिता के आरंभिक दौर का है, जबकि दूसरा स्वतंत्रता प्राप्ति से थोड़ा पहले का। तीसरे उद्धरण में कमलेश्वर ने भारत में दूरदर्शन की शुरुआत के कुछ साल बाद आयी विकृतियों का जिक्र किया है। और चौथा उद्धरण आज का है – आज, यानी 29 जुलाई, 2009, जिसकी उमस भरी सुबह मैं यह लेख लिख रहा हूं।
हिंदी पत्रकारिता के पिछले 150 सालों में क्या बदला है?
यहां हम इस अवधि के बीच आये वर्ष 1949 को याद कर सकते हैं – उस साल 26 नवंबर को हमने एक महान संविधान आत्मार्पित करते हुए खुद से कहा था :
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'समस्त नागरिकों' को विचार, अभिव्यक्ति और विश्वास की भी स्वतंत्रता! इन 60 सालों में यह स्वतंत्रता किन तबकों को उपलब्ध रही है? 1890 में भी तो यह स्वतंत्रता थी। उस समय सामाज सुधार का मतलब था, ब्राह्मणों का नेतृत्व कायम करना। आज कहा जा रहा है, 'एक राष्ट्र में एक संविधान, एक भाषा, एक राष्ट्रीय ध्वज तो एक राष्ट्रधर्म क्यों नहीं?' महज शब्द बदले हैं, साजिश वही पुरानी है। ब्राह्मण धर्म की पुर्नस्थापना।
विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सामाजिक आधार नहीं बदला है। भारत में द्विज हिंदू न सिर्फ पत्रकारिता के माध्यम से एक राष्ट्र-एक धर्म की जरूरत बता रहे हैं, बल्कि न्यायपालिका के माध्यम से भी वर्ण व्यवस्था को मजबूत करने वाली गीता को राष्ट्रीय धर्म शास्त्र माने जाने का उद्घोष कर रहे हैं। (6) … यानी संविधान की रखवाली करने वाली दोनों संस्थाएं कमोबेश द्विज 'विचारों' को अभिव्यक्त कर रहीं हैं।
क्या यह सिर्फ द्विजों की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मामला है? मीडिया संस्थानों में द्विजों का कब्जा है, इसलिए वे अपनी सांस्कृतिक जरूरतों, आकांक्षाओं को अनायास अधिक स्पेस देते रहे हैं?
अगर सिर्फ ऐसा ही है, तो 29 जुलाई, 1939 के दूसरे उद्धरण में अखबार अपना आशय व्यक्त करने के लिए छल का सहारा लेता क्यों दिखता है? गायों को पानी न मिलने पर कोई कुंए में तो नहीं ही कूदेगा। 'खबर' गोरक्षा आंदोलन के पक्ष में हवा बनाने के लिए लिखी गयी है। यह उसकी अगली पंक्तियों से भी साफ हो जाता है। गोरक्षा आंदोलन द्विज हिंदुओं के सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रभुत्व का आंदोलन था।
ध्यान इस पर दिया जाना चाहिए कि इस छल में आलंबन 'किसान' को क्यों बनाया गया है। सामान्य तौर पर इस काल्पनिक खबर में कोई ब्राह्मण गौ-व्यथा में कुंए में कूद पड़ता तो ज्यादा तर्कसंगत होता। इससे ब्राह्मण जाति का गौरव बढ़ता। लेकिन इस समाचार का उद्देश्य इससे अधिक दूरगामी है। इसे किसान, जो मुख्यतः गैर-द्विज, पिछड़ी जातियों का समूह रहा है, को निशाने पर रख कर लिखा गया है। उद्देश्य है किसान जातियों का द्विज-हितों के पक्ष में मानसिक अनुकूलन। यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का छलपूर्ण नमूना भर नहीं है बल्कि द्विजों के सांस्कृतिक-राजनीतिक प्रभुत्व के लिए भारतीय पत्रकारिता द्वारा चलायी जाने वाली अनवरत कवायद का हिस्सा है।
कहने की जरूरत नहीं कि कवायद आज भी जारी है। समाचार माध्यम वंचित तबकों की सामाजिक-राजनीतिक सक्रियताओं को दिग्भ्रमित करने, इनके नायकों को श्रीहीन करने, इनके पक्ष में जाने वाले तथ्यों को अंडरप्ले करने और द्विज प्रभुत्व को चुनौती देने वाले तर्कों को डायल्यूट करने की मुहिम में जुटे हैं।
तो; क्या बदला है? वास्तव में यही वह सवाल है, जिसे हमें भारतीय पत्रकारिता पर चर्चा के आरंभ में पूछना चाहिए। क्या पत्रकारिता आजादी के बाद पतित हुई है? क्या पत्रकारिता ज्ञान की सत्ता का ही एक हिस्सा नहीं, जिसके चारों ओर द्विजों ने चारदीवारियां खींच रखी थीं और जिसका दुरुपयोग वे 1947 के बहुत पहले से और उसके बाद भी अपनी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक सत्ता को बचाये रखने, पुर्नस्थापित करने के लिए करते रहे हैं?
बदलाव भारतीय प्रेस की मानसिकता में नहीं, तकनीक में हुआ है। यह दुनिया के पहले अखबार के प्रकाशन का 400वां साल है। जर्मनी में सामान्य अभिरुचि का पहला अखबार 'अविका रिलेशंस ओडर जोइतुंग' 1609 में शुरू हुआ था। इसके लगभग 200 साल बाद भारत में अखबारों का छपना शुरू हुआ। संचार व्यवस्था की अद्यतन प्रौद्योगिकी के लिए भारत हमेशा यूरोप का मुखाक्षेपी रहा है। जबकि वहां 'दूसरे विश्वयुद्ध से लेकर आज तक प्रौद्योगिकी – खासकर संचार की प्रौद्योगिकी – की परिकल्पना और उसका विकास पूंजीवाद के हितों और उसकी विशेष जरूरतों से जुड़ा रहा है।' (7) … ब्रिटिश चिंतक रेमंड विलियम्स ने भी तर्कपूर्ण ढंग से प्रमाणित किया है कि 'रेडियो और दूरदर्शन के प्रसारण का आरंभ और विकास बाजार द्वारा शासित विकास का अनिवार्य परिणाम है'। (8)
मीडिया के बाजारवाद के खतरे और दुष्परिणाम बहुआयामी हैं। नयी तकनीक ने कई मायनों में ब्राह्मणवाद के अस्त्र के प्रभाव को व्यापक बनाया है। लेकिन क्या कारण है कि इसके दुष्परिणामों में से सिर्फ एक – स्त्री शरीर के प्रदर्शन को ही चिन्हित किया जाता है? वस्तुतः यही वह दुष्परिणाम है, जिससे सबसे ज्यादा भारत का सामंती समाज प्रभावित हुआ है। अन्यथा इस बाजारवाद ने अनेक प्रकार की मनोरंजन-विधियों, जो सिर्फ धनिकों तक सीमित थीं, की पहुंच बहुसंख्यक लोगों तक संभव कर दी है। निश्चित तौर पर यह छलावा पिछड़ी और दलित जातियों का ध्यान मूल मुद्दों से भटकाता है, उन्हें यथास्थिति के लिए अनुकूलित करता है और उनकी संघर्ष चेतना को कुंद कर उन्हें अराजनीतिक बनाये रखने की साजिश में शामिल रहता है। वह इन तबकों में परिवर्तनकामी बौद्धिक विकास को बाधित करता है तथा इनके नायकों की पहचान को धुंधला कर डालता है। किंतु, ये बातें इस देश में बाजारवाद के खतरे और दुष्परिणामों पर विमर्श का हिस्सा नहीं बनतीं।
यूरोपीय बाजार द्वारा शासित मास-मीडिया की तकनीक 'बाजारवाद' के साथ 1990 में भारत पहुंची थी। उसी साल पहली बार विदेशी समाचार चैनल सीएनएन ने कदम रखा। 1991 में यहां दुनिया के सबसे विशाल टीवी नेटवर्कों में से एक स्टार टीवी की शुरुआत हुई। उसके बाद से देशी-विदेशी निजी टेलीविजन केबल नेटवर्कों का जाल फैलता गया।
माना जाता है कि इन परिवर्तनों के कारण 1990 के बाद से भारत के मीडिया का चरित्र बदलने लगा। यह सच है कि भारत की द्विज पत्रकारिता 1990 के बाद से बाजार का आदेश अधिक से अधिक मानने के लिए उत्त्रोत्त्र मजबूर होती गयी है। लेकिन इससे पहले भारतीय अखबार और सरकारी 'दूरदर्शन' किनके हितों के लिए काम कर रहे थे? इसका उत्तर इस लेख के आरंभ में दिये गये तीसरे उद्धरण से मिल सकता है। कमलेश्वर का यह लेख ('दूरदर्शन की भूमिका') रविवार के 7-13 दिसंबर, 1986 अंक में प्रकाशित हुआ था। यही नहीं कि यह लेख 1990 के चार साल पहले छपा था बल्कि जाहिर तौर पर, इसमें वर्णित दूरदर्शन के 'पतित' होने की घटना उससे काफी पहले की है। कमलेश्वर दूरदर्शन की शुरुआत (1959) के समय से ही प्रथम स्क्रिप्ट राइटर के तौर पर उससे जुड़े थे और बाद मं एडीशनल डायरेक्टर जनरल तक बने। कमलेश्वर बताते हैं कि भारत में दूरदर्शन का उद्घाटन करते हुए प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसके लक्ष्यों को एकदम स्पष्ट रखा था। नेहरू ने कहा था कि भारत जैसे देश में दूरदर्शन की उपयोगिता के सामाजिक लक्ष्य तय करने होंगे, तभी इस पर होने वाले खर्च को 'सामाजिक आमदनी' के रूप में प्राप्त किया जा सकेगा। उन्होंने दूरदर्शन का लक्ष्य 'सामाजिक परिवर्तन' लाने वाले माध्यम के रूप में तय किया था। इसे देश में सामाजिक, आर्थिक और वैज्ञानिक परिवर्तनों के लिए जमीन तैयार करनी थी। इसके जरिये पुरातन और विषमता पीड़ित देश की मानसिक, वैचारिक और सामाजिक गरीबी मिटायी जानी थी। सदियों के पागलखाने से उन तंदुरुस्त लोगों को बाहर निकाला जाना था, जो स्वस्थ थे, पर पागलों का पथ्य खाते-खाते खुद पागल होते जा रहे थे। (9) … लेकिन नेहरू द्वारा तय किये गये इन लक्ष्यों का क्या हश्र हुआ? प्रारंभिक दिनों में नेहरू के लक्ष्यों के अनुसार 'नयी मानसिकता के निर्माण का काम दूरदर्शन ने शुरू किया'। लेकिन यह सब ज्यादा समय तक नहीं चल सका। कुछ ही समय बाद दूरदर्शन '75 प्रतिशत गरीबों को 5 प्रतिशत शहराती कुलीनों की सांस्कृतिक जूठन खाने के लिए मजबूर' करने लगा। 'सदियों की सभ्यता और संस्कृति का वह सफर, जो इस देश में भयानक विषमताओं को जन्म देकर भी सही दिशा की ओर जाने के लिए प्रतिबद्ध और तत्पर हुआ था, वह सफर और उसकी दिशा ही बदल' दी गयी। और यह सब हुआ 1990 से बहुत पहले। उस समय बहुराष्ट्रीय मीडिया हाउस नहीं थे। तो फिर किन ताकतों की रुचि इसमें थी कि दूरदर्शन 'सामाजिक परिवर्तन' का माध्यम न बन सके? कमलेश्वर कहते हैं कि वे 'इसी देश में पैदा हुए नवधनिक' थे। (10)
अपवादों से इनकार न करने के बावजूद वस्तुनिष्ठ तथ्य यह है कि भारतीय मीडिया के चरित्र में बदलाव को चिन्हित करने के लिए 1947 या 1990 आदि को पैमाना नहीं बनाया जा सकता। जैसा कि मैंने पहले कहा 1990 में परिवर्तन उसके मूल चरित्र में नहीं, प्रौद्योगिकी में आया था। पत्रकारिता आरंभ से ही द्विजों के कब्जे में रही है। भारत के इस पारंपरिक प्रभुवर्ग ने हर दौर में अपने हितों के लिए इस अस्त्र का इस्तेमाल किया है। स्थितियां आज भी बदली नहीं हैं।
संदर्भ व टिप्पणियां
(2) पुनर्प्रकाशित, दैनिक हिंदुस्तान, 29 जुलाई, 2009
(3) कमलेश्वर, 'दूरदर्शन की भूमिका'। रविवार, 7-13 दिसंबर, 1986
(4) दैनिक जागरण, पटना संस्करण में प्रकाशित समाचार 'एक राष्ट्रधर्म घोषित करे सरकार', 29 जुलाई, 2009
(5) भारतीय संविधान की उद्देश्यिका
(6) इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश एसएन श्रीवास्तव ने 30 अगस्त, 2007 को दिये एक फैसले में गीता को राष्ट्रीय धर्मशास्त्र घोषित करने को कहा है। इस फैसले से संबंधित षड्यंत्र का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि इसके महज चार दिन बाद 4 सितंबर, 07 को श्रीवास्तव का सेवाकाल समाप्त हो रहा था। इतना ही नहीं, मीडिया में यह खबर उनकी सेवानिवृत्ति के 7 दिन बाद 11 सितंबर, 2007 को अचानक जोर-शोर से उछाली गयी। 12 सितंबर, 2007 को विश्व हिंदू परिषद ने सेतु समुद्रम परियोजना के विरोध में भारत बंद का आह्वान किया था। इस तरह, यह खबर अपना अपेक्षित प्रभाव छोड़ने में भी सफल रही और भारत बंद के हो-हंगामे के कारण इसे गैर-ब्राह्मण तबके की ओर से कोई चुनौती भी नहीं मिल सकी। सेवानिवृत्ति के कारण न्यायाधीश श्रीवास्तव के खिलाफ कोई वाद भी नहीं लाया जा सका। देखें – प्रमोद रंजन, ब्राह्मणवाद की पुर्नस्थापना का षड्यंत्र, जनविकल्प, (संपादक: प्रेमकुमार मणि/ प्रमोद रंजन), अक्टूबर, 07 और 'गये राम आये कृष्ण', फारवर्ड प्रेस, फरवरी 2012
(7) हरबर्ट आई शिलर, संचार माध्यम और सांस्कृतिक वर्चस्व, ग्रंथ शिल्पी, पृष्ठ 65
(8) वही, रेमंड विलियम्स का उद्धरण। ग्रंथ शिल्पी, पृष्ठ 61
(9) कमलेश्वर, 'दूरदर्शन की भूमिका'। रविवार, 7-13 दिसंबर, 1986
(10) वही
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(प्रमोद रंजन। प्रखर युवा पत्रकार एवं समीक्षक। अपनी त्वरा और सजगता के लिए विशेष रूप से जाने जाते हैं। फॉरवर्ड प्रेस के संपादक। जनविकल्प नाम की पत्रिका भी निकाली। कई अखबारों में नौकरी की। बाद में स्वतंत्र रूप से तीन पुस्तिकाएं लिखकर नीतीश कुमार के शासन के इर्द-गिर्द रचे जा रहे छद्म और पाखंड को उजागर करने वाले वह संभवत: सबसे पहले पत्रकार बने। उनसे pramodrnjn@gmail.com पर संपर्क करें।)
धन्यवाद अविनाश जी, आपकी बातों पर विस्तार से बात करने की गुंजाईश है। मैं काफी समय से इस विषय पर अपनी बात सार्वजनिक रूप से कहना भी चाह रहा हूं। वस्तुत: यह सिर्फ दृष्टिकोण का फर्क नहीं है, अभिजन-प्रगतिशीलता और बहुजन-क्रांतिधर्मिता की परंपरा और उदेश्यों के बीच भी बडा अंतर है। कल फारवर्ड का अंक प्रेस में जाना है, इसलिए आज व्यस्तता काफी है। फारिग होकर अपनी बात कहूंगा। उम्मीद है तब तक यह बहस कुछ आगे भी बढ चुकी होगी ..
प्रमोदजी, मैं सिर्फ इतना जानना चाहता हूं कि दिलीप मंडल का इंडिया टुड़े का कार्यकारी संपादक बनने की पीछे की योग्यता क्या है ? उनका गैरद्विज होना या फिर मीडिया में लंबे समय का अनुभव और समझ ? मुझे नहीं लगता कि स्वयं दिलीप मंडल ने गैरद्विज का कार्ड किसी भी मीडिया संस्थान में काम पाने के लिए किया होगा ? मैं राजनीतिक हलकों और संगठनों की बात कतई नहीं कर रहा.आपकी किताब और शोध मीडिया में हिस्सेदारी मैंने पढ़ी है और पूरी तरह सहमत हूं. लेकिन दिलीप मंडल के मामले में यहां आप न सिर्फ कुतर्क कर रहे हैं बल्कि डीयू के हॉस्टलों में होनेवाली राजनीति जैसा ही घटिया दलील पेश कर रहे हैं.जब तक साथ रहते,खाते-पीते और पढ़ते हैं,तब तक वो दोस्त होता है और जैसे ही कहीं मामला फंसता है,वो दलित,ओबीसी हो जाता है. ऐसे में तो कोई दिलीप मंडल या किसी भी गैरद्विज पत्रकार पर तो बात ही नहीं कर पाएगा. मैं इस पूरे मामले में सिर्फ इतना कहना चाहता हूं कि अगर दिलीप मंडल के संपादक/पत्रकार होने के पीछे जाति का मामला नहीं जुड़ा है तो फिर उनके काम का विश्लेषण करते समय आप इसे क्यों जबरदस्ती टिका दे रहे हैं ? आखिर आप चाहते क्या हैं,गैरद्विज मीडिया में जो भी करे,उसकी आलोचना सिर्फ गैरद्विज ही करे? माफ कीजिएगा,माइलेज लेने के लिए ये आप सही कर रहे हैं लेकिन विमर्श की दुनिया में आप किस तरह की रेजिमेंटेशन चाह रहे हैं,इस पर गौर करने की क्या जरुरत है ?
और फिर सोचिए न, तथाकथित मनुवादी,ब्राह्मणवादी दिलीप मंडल से क्या अपेक्षा कर रहे हैं ? वो बस उन्हीं मुद्दों और बातों की उम्मीद कर रहे हैं जो स्वयं दिलीप मंडल फेसबुक और सेमिनारों में कहते आए हैं. वो कह रहे हैं कि दलित,आदिवासी,अन्य पिछड़े वर्ग के सवाल को जितना संभव हो सके,इस पत्रिका के माध्यम से उठाएं. आपने स्वयं संपादकीय जो कि मोहल्ला पर पोस्ट की शक्ल में मौजूद है( संजय कुंदन की कहानियों का जिसमें जिक्र है)लिखा है- वास्तव में प्रतिगामी रुझान अकेले नहीं होते। इनका एक पूरा पैकेज होता है। अगर आप जाति को लेकर रूढ़ हैं, तो स्त्रियों के प्रति भी आपका नजरिया वही रहेगा। ऐसे में इस पंक्ति को उलटकर ये निष्कर्ष दें कि दिलीप मंडल स्त्री-विरोधी हैं,वो सवर्ण स्त्रियों के साथ वही सबकुछ होते देखना चाहते हैं जो अब तक सवर्णों ने गैरद्विज स्त्रियों के साथ किया है.माफ कीजिएगा,कवर पर छपी स्त्री-देह की जाति मालूम नहीं.
मैं आपसे बहुत ही भावुक होकर अपील करता हूं, हमसे हमारे दिलीप मंडल को मत छीनिए. उस दिलीप मंडल को जो अपने व्यस्ततम क्षणों में भी मीडिया की बारीकियों को हमेशा साझा किया..जाति को लेकर जो उनकी समझ है,उसे शामिल करते हुए भी मीडिया को स्वतंत्र रुप से देखने की समझ पैदा की हमारे भीतर. मीडिया के अर्थशास्त्र को समझाया. आप दिलीप मंडल से हुई इस असहमति पर द्विज पत्रकारों का ठप्पा न लगाएं. प्लीज दिलीप मंडल पर गैरद्विज संपादक की स्टीगर लगाकर सहानुभूति और ललकार की लहर पैदा न करें. आप चाहें तो उन्हें जहां और जितनी बार इच्छा हो,राजनीतिक-गैरसरकारी स्वयंसेवी संगठनों में अभिनंदन कर लें. लेकिन एक संपादक/पत्रकार के तौर पर दिलीप मंडल की जरुरत जितनी जरुरत गैर द्विज समाज को है,द्विजों की इससे रत्तीभर भी कम नहीं.इंडिया टुड़े में जिस समय जाना हुआ, बहुत सारे लोगों ने इसका समर्थन या फिर इसका विरोध इसलिए भी नहीं किया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि दिलीप मंडल हाशिए के समाज के लिए कुछ तो करेंगे. मुझे लगता है,इस पूरे मामले को जातिगत विमर्श के बजाय पूंजी की कोई जाति नहीं होती लेकिन क्रूर होता है के हिसाब से देखें. कल को तो आप इसी जाति के बिना पर टिप्पणीकारों पर कार्रवाई करने की भी बात करेंगे.मेरे ख्याल से खतरनाक है, बहुत ही घटिया एप्रोच.
उदास चाँद-सितारों को हमने छोड़ दिया.
हवा के साथ चले और हवा को मोड़ दिया..
अभी तो एक दिलीप मंडल उस अंडरवर्ल्ड में घुस पाए हैं. वे यहाँ शार्प शूटर का काम करने लगे हैं और फिलहाल भाई का ही हुकम बजाते हैं. जब उनके जैसे अनेक लोग उस अंडरवर्ल्ड में घुस जाएंगे तो हो सकता है गैंग पर कब्ज़ा करके वे लोग खुद प्लान सैट करने लगें कि किसको छोड़ना है और किसको बजाना है.
और एक बात,आखिर किसके भरोसे अपने एजेंडे,बहुजन के एजेंडे इंडिया टुडे दफ्तर के बाहर छोड़ जाते हैं ? और क्यों उसी पूंजीवादी ढर्रे में जिसमें कि ब्राह्णवाद के बारीक रेशे बहुत ही खूबसूरती से बिंधे गए है, विस्तार देने में लग जाते हैं ? मेरे ख्याल से ये मौका ब्राह्मणवादी, द्विज टिप्पणीकारों पर आरोप लगाने से कहीं ज्यादा दिलीप मंडल से सवाल करने का है- क्या सर, आपको भीतर से रत्तीभर भी ग्लानि नहीं होती,आपने जिस समाज के भीतर सपने पैदा किए,उसे रोज इंडिया टुडे की डस्टबिन में डाल आते हैं ? आपको ऐसा करते हुए अफसोस नहीं होता कभी ? आखिर ऐसा आप किस मजबूरी के तहत कर रहे हैं ? आपको कभी किसी चैपल में जाकर कन्फेश करने का मन नहीं करता ? प्रमोदजी इंडिया टु़डे के वर्तमान कार्यकारी संपादक भले ही गैरद्विज हैं लेकिन पाठकों की जो संख्या लाखों में है,उनकी जाति ग्राहक की है और उन्हें हक है कि सवाल करे.आप उस पर सवाल खड़े नहीं कर सकते.
ये ध्यान देने की बात है की हिंदी इंडिया टुडे मूलतः अंग्रेजी इंडिया टुडे का अनुवाद होती है. दिलीप मंडल चाहें भी तो उसमे कुछ नहीं कर सकते. हिंदी संपादक के पास तो अंत के ही कुछ पन्ने होते हैं, इसके आलावा वो हिंदी में एकाध स्टोरी करा सकता है बस. पूछा ये जाना चाहिए की एम जे अकबर क्या कर रहे हैं?
दिलीप सी मंडल के बचाव के लिए दलित वाली बात जम नहीं रही है ,यदि विरोध दलित होने का होता तो लोग बाग़ उन एम जे अकबर का विरोध करते, जिसने स्वयं दलित ना होकर दिलीपजी को अपने साथ रखा. दिलीप जी पर चर्चा की मुख्य वजह उनका नौकरी में ना रहते हुए, वाला स्टैंड था, वैसे इस कवर में उनके वश वाली कोई बात नहीं है, यह सब उन लोगों ने तय किया है जो दलित नहीं हैं. लेकिन उन्होंने कभी मीडिया में नैतिकता की बात नहीं की. दिलीप जी करते रहे हैं, आज उनकी नैतिकता पर उनकी कमाई भारी पर गई, इसलिए सवाल उठ रहे हैं. दिलीप सी मंडल इसे स्वीकार लें और बहस समाप्त हो जाएगी. "
india today aur dalit card- dilip mandal nahi rahte to iss cover story aur photo ki charcha kahan hoti ? manuwadi media -dalit excutive editor, kyon na sawal kiya jaye jab tak dilip mandal jee khud samne akar apni jati ke prati prtibdhta sabit na kar de?vaise bhi unki chuppi khal rahi hai
अजित अंजुम, अविनाश दास और विनीत कुमार वगैरह की ओर से दिलीप मंडल के अश्लील 'कृत्यों' के विरोध में चलाये जाने वाले अभियान में रूचि रखनेवालों की खिदमत में-
http://mohallalive.com/2009/11/29/milind-soman-madhu-sapre-acquitted/
भाई अब इसमें इतना हो हल्ला मचाने की क्या जरुरत है. क्या दलित स्त्रियों को अपने स्तन सुन्दर करवाने का हक नहीं है? अब मुझे statistics का तो पता नहीं पर अनुमान से कह सकता हूँ की दिलीप मंडल के इंडिया टुडे का संपादक बनने के बाद जरुर उसके दलित पाठकों की संख्या में वृद्धि हुई होगी जो दिलीप मंडल की इस उपलब्धि (इंडिया टुडे के संपादक बनने को लेकर) को दलित अस्मिता से जोड़ कर देखते होंगे. अब दिलीप जी में हमेशा से ही गलतियाँ खोजने वाले भाइयों इस घटना में छिपे हुए सकारात्मक पहलु को भी जरा देखने की कोशिश करिए – ये भी तो हो सकता है कि हमेशा से दलितों के हित के लिए मनुवादियों से असहज प्रश्न करने वाले दिलीप जी ने कुछ सोच समझकर ही शायद दलितों में स्तन सौंदर्य की चेतना विकसित करने के लिए ही ऐसे लेख को आवरण कथा के रूप में छापना उचित समझा हो. रोटी, कपडा, मकान, शिक्षा जैसी बुनियादी सरोकारों की बात तो अन्य छुटभैय्ये पत्रकार और संपादक करते ही रहते हैं, लेकिन मेरे हिसाब से स्तन सौंदर्य के लिए की जाने वाली शल्य क्रिया की सम-सामयिक जानकारी इंडिया टुडे के हिंदी अंक में आवरण कथा के रूप में छापकर दिलीप जी ने दलित, पिछड़ी और आदिवासियों में आधुनिक सौंदर्य चेतना जागृत करने का क्रांतिकारी काम किया है. मेरा पूरा विश्वास है कि इतिहास में दिलीप जी का यह क्रांतिकारी कदम स्वर्णिम अक्षरों में अंकित हो कर रहेगा और आने वाले समय में दिलीप जी इस बात के लिए याद किये जायेंगे कि किस प्रकार जब सारे सवर्ण, मनुवादी लेखक दलितों को रोटी, कपडा, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसी छोटी बातों में उलझाये हुए थे, तब दिलीप जी ने अपने कुशल संपादकीय नेतृत्व में दलितों में यौन चेतना के बीज बोने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी. दलित और पिछड़े खासकर स्त्रियाँ उनकी स्तनों के आकार को लेकर उत्पन्न हुई मानसिक हीन भावना जैसी भयंकर स्वास्थ्य संबंधी समस्या (तपेदिक, मलेरिया, कुपोषण, कैंसर, कम आयु में विवाह और उससे जनित बीमारियों को पीछे छोड़ कर) को लेकर दिलीप जी द्वारा फैलाई गयी चेतना के लिए हमेशा आभारी रहेंगे…..
संकरवर्ण वाले ऐसा ही काम करते हैं।
poori bahas mein sirf india today ke cover ka photo hi interesting hai….:)
अश्लीलता पर घमासान को लेकर कुछ सवाल
पलाश विश्वास
वैकल्पिक मीडिया के फोरम में इंडिया टूडे के ताजा अंक की अश्लीलता को लेकर घमासान मचा हुआ है। हमारे प्रिय मित्र, अगर वे हम जैसे नाचीज को मित्र मान लेने की उदारता दिखायें तो, आपस में भिड़े हुए हैं मूल्यबोध और प्रतिबद्धता के सवाल पर।
मैं १९७३ से दैनिक पर्वतीय से जुड़ गया था नैनीताल में। छात्रजीवन में दिनमान के लिए भी पत्रकारिता की। १९७८ से नैनीतील समाचार की टीम के साथ लग गया। सितारगंज में केवल कृष्ण ढल के साथ मिलकर साप्ताहिक लघुभारत भी चलाया।थोड़े वक्त के लिए इलाहाबाद और दिल्ली से फ्रीलांसिंग भी की।१९८० से पत्रकारिता मेरा पेशा है। १९९१ में जनसत्ता कोलकाता आ गया। तब दिलीप मंडल भी हमारे साथ थे।मैं अमर उजाला छोड़कर आया था, जहां दिल्ली ब्यूरो में तब अजित अंजुम पत्रकार थे।आज दिलीप इंडिया टूडे के संपादक हैं और अजित अंजुम एक टीवी चैनल के मैनेजिंग एडिटर हैं। अविनाश भी प्रख्यात पत्रकार हैं।अब इन लोगों ने जो लफड़ा खड़ा कर दिया है, कायदे से अगस्त्य मुनि के आशीर्वाद से विंध्याचल बने हुए मेरे जैसे लोगों को उसमें पड़ना ही नहीं चाहिए। लेकिन बहस जिस दिशा में जा रही है, उससे न चाहकर भी कुछ बातें कह देना अपनी हैसियत के प्रतिकूल जरूरी लगता है!
क्या वैकल्पिक मीडिया को कामर्शियल मीडिया पर इतना स्पेस जाया करना चाहिए, बुनियादी मुद्दा यह है।
क्या नौकरी की मजबूरी प्रतिबद्धता और मूल्यबोध की कसौटी है, मुद्दा यह भी है।
क्या आज की व्यवसायिक पत्रकारिता में संपादक नाम की किसी संस्था का कोई वजूद है?
फिर अगर हम इंडिया टूडे जैसी पत्रिका से मूल्यबोध और प्रतिबद्धता की अपेक्षा रखते हैं, तो हमें वैकल्पिक मीडिया की क्यों बात करते हैं?
मेरा मकसद किसी का बचाव करना या किसी के खिलाफ हमलावर तेवर अपनाना नहीं है बल्कि इस बहस की गुंजाइश पैदा करना है कि आज की सूचना विस्फोटक विकट स्थिति में हम अपने संसाधनों और प्रतिभाओं को जन सरोकार की दिशा में कैसे संयोजित कर सकते हैं।
दिनमान के संपादक पद से जब माननीय रघुवीर सहाय को हटा दिया गया. तभी साफ हो गया था कि आगे क्या होनेवाला है।खासकर अंग्रेजी मीडिया के सहयोगी हिंदी पत्र पत्रिकाओं में मौलिक पत्रकारिता की नियति तय हो गयी थी। इसका ज्यादा खुलासा करने की शायद जरुरत नहीं है।
कुछ दिलचस्प किस्से सुनाये बगैर मेरी बातें स्पष्ट नहीं होंगी। मेरे बहस गंभीर मित्रों, इसके लिए माफ करना।
१९८१ में दैनिक आवाज धनबाद में काम करते हुए मैंने टाइम्स आफ इंडिया के प्रशिक्षु पत्रकार बनने के लिए परीक्षा दी थी।इंटरब्यू में तब धर्मयुग के संपादक धर्मवीर भारती ने मुझसे सीधे पूछ लिया था,आपकी विचारधारा क्या है। मैंने बेहिचक जवाब दिया था- साम्यवाद। जाहिर है कि मैं फेल हो गया।उस परीक्षा में उत्तीर्ण होकर जीआईसी के हमारे सहपाठी बाद में बड़े संपादक बने।दिलीप मंडल और सुमंत बट्टाचार्य ने तो टाइम्स के प्रशिक्षण से ही पत्रकारिता की शुरूआत की हालांकि काफी बाद में।
इससे भी पहले १९७९ में मंगलेश डबराल की पहल पर में इलाहाबाद में फाकाकशी करते हुए हम अमृतप्रभात की नौकरी के लिए परीक्षा पर बैठे। मैं शेखर जोशी जी के घर रहता था। नीलाभ से लेकर शैलेश मटियानी ,भैरव प्रसाद गुप्त और मार्कंडेय के साथ चलता था। हमारी विचारधारा स्पष्ट थी और तब भी हम सड़क पर थे।समाचार संपादक माथुर साहब सर्वेसर्वा थे। उन्होंने बाकी सबको रख लिया, मुझे नहीं रखा।
आवाज में तब घोषित कम्युनिस्ट उर्मिलेश की मध्यस्थता में मुझे नौकरी दी गयी। आवाज प्रबंधन इससे पहले कम से कम दो कट्टर कम्युनिस्टों वीर भारत तलवार और मदन कश्यप को झेल चुका था। उन्होंने हमारी विचारधारा पर ऐतराज नहीं किया।
१९८४ में जब मैंने दैनिक जागरण ज्वाइन किया, तब तड़ित कुमार गोरखपुर में हड़ताल करवाने के लिए दोषी माने गये थे। नरेंद्र मोहन ने सीधे कह दिया था, आप बंगाली हो और बंगाली कम्युनिस्ट होते हैं। आपकी विचारधारा से हमें कुछ लेना देना नहीं है। हम जो हैं, हैं, बदलेंगे नहीं। आप हमें बदलने की कोशिश हरगिज नहीं करना। नारायण दत्त तिवारी के खास थे नरेंद्र मोहन जी। महतोष मोड़ आंदोलन के दौरान जब तिवारी ने कम से कम तीन बार मुझे हटाने के लिए उनसे कहा तो उन्होंने सीधे न कर दिया।कई बार ऐसा भी हुआ कि छह सौ रूपये महीने पर रखे गये तमाम पत्रकार काम सीखने के बाद एकमुश्त भाग गये। डेस्क पर नरेंद्र मोहन जी हमारे सामने बैठ गये और बोले कि पहले प्रशिक्षु पत्रकार के लिए विज्ञापन बनाओ। जब तक, यानी पूरे छह साल मैं जागरण मेरठ में रहा और तमाम पत्रकारों की नियुक्तियां हमने की। नरेंद्र मोहन जी कहते थे कि जब आप अखबार निकालते हो, हम हस्तक्षेप नहीं करेंगे, गड़बड़ी हुई तो अगले दिन बात करेंगे। हमारी विचारधारा कभी आड़े नहीं आयी।
हाशिमपुरा और मलियाना नरसंहारों की खबरें हम जो छाप नहीं सके , उसके लिए नरेंद्र मोहन या धीरेंद्रमोहन जिम्मेवार नहीं थे। संपादकीय प्रभारी और चीफ रिपोर्टर के तार संघ परिवार से जुड़े थे, उन्होंने अपने स्तर पर खबरें रोकीं या फिर मुसलमानों के खिलाफ खबरें छपवायीं, जिसे हम रोक नहीं सकें। पर महज मुख्य उपसंपादक होने के बावजूद लोग हमें घेरते रहे। विचारधारा और प्रतिबद्धता पर सवाल खड़े करते रहे।लोगों को यह समझाना वाकई मुश्किल था कि मैं सिर्फ नौकरी कर रहा था। नीति निर्धारण में मेरी कोई भूमिका नहीं थी।
इससे भी बुरी हालत में मुझे आवाज और अमर उजाला की नौकरियां छोड़नी पड़ी।
आवाज में रोजाना पेज पेजभर रपटें मेरे नाम के साथ छपती थीं। तमाम कोयला खान दुर्घटनाओं की हमने पड़ताल कीं। कोल इंडिया को कटगरे में खड़े करता रहा। पाठकों के फोरम चालू किये। झारखंड आंदोलन से मजदूर आंदोलन तक को आवाज दी। १९८३ में मैंने शादी की और सविता के गृहस्थी संभालते न संभालते अखबार की नीतियां बदल गयीं।
खान दुर्घटना की रपट मैं बना नहीं सकता था। फर्जी मुठभेड़ की खबरें मैं छाप नहीं सकता था। तमाम खबरें हमारी प्रतिबद्धता के खिलाफ थीं। तब तक बिना सोचे समझे हमने अपने को पूरे झारखंड में मशहूर कर लिया था। लोगों को हमसे भारी अपेक्षाएं थीं। हमारा खाना पीना मुश्किल हो गया था। झारखंड के कोने कोने से लोग सीधे हमारे यहां आ धमकते थे और सविता के सामने लानत सलामत करते थे।शादी को सालभर नहीं हुआ था, पर मेरी पत्रकारिता सविता के लिए दहशत में तब्दील हो गयी थी।
तब हमने आवाज छोडने का पैसला कर लिया और कसम खायी कि अब अखबारों में नौकरी ही करनी है। दूसरे के अखबार से अपनी क्रांति नहीं हो सकती, यह बात हम समझ चुके थे।तभी हमने तय किया कि जिस अखबार में काम करना है, उसके लिए बाई लाइन के साथ हरगिज नहीं लिखना है।
पर जागरण में महतोष मोड़ आंदोलन के दरम्यान और अमरउजाला में खाड़ी युद्ध के मौके पर हमें यह कसम तोड़नी पड़ी।
अमर उजाला हमने अतुल माहेश्वरी जी के कारण ज्वाइन की थी। पर गलती यह की कि मेरठ जागरण में बिताये छह साल के लिहाज से मेरठ के बदले बरेली को चुन लिया। बरेली से घर नजदीक पड़ता था, शायद यह भी एक कारण था।
राजुल माहेश्वरी बरेली में स्थानीय संपादक थे। पर सर्वेसर्वा थे उनके आगरा में रहने वाले अशोक अग्रवाल, जिनसे हमारी कभी पटरी नहीं बैठी। बाबरी मस्जिद दंगों के दौरान जब न जाने कितने मारे गये, जैसी सुर्खिया छापी जा रही थी बैनर बनाकर, हम लोग संयमित अखबार निकालने की कोशिश कर रहे थे और सर्कुलेशन दनादन गिर रहा था। इस पर तुर्रा यह कि हम राजेश श्रीनेत और दीप अग्रवाल के समकालीन नजरिये से भी जुड़े हुए थे। आगरा से अशोक अग्रवाल जी आये और बरस पड़े।अखबार की दुर्गति के लिए उन्होंने वीरेन डंगवाल, सुनील साह और मुझे जिम्मेवार ठहराया। हालत यह हो गयी कि मैंन राजुल जी से कह दिया कि अब आपके यहां नौकरी नहीं करनी। इसी वजह से बिना नियुक्ति पत्र मैं कोलकात निकल गया प्रबाष जी के कहने पर। छह महीने बाद नियुक्तिपत्र मिला और मैं सब एडीटर था।वीरेन डंगवाल और सुनील साह तब भी वहीं थे।बाद में वीरेन दा अमरउजाला के संपादक भी बने। फिर मतभेद की वजह से उन्होंने भी नौकरी छोड़ी।
संपादक बनने की महत्वाकांक्षा हर पत्रकार की होती है। संपादक न बनकर भी लोग संपादकी तेवर में बदल जाते हैं। हमारे पुराने मित्र धीरेंद्र अस्थाना से हमारी पहली मुलाकात आपातकाल के दौरान जनवादी लेखक संघ बनने से पहले शिवराम आयोजित कोटा में साहित्यकारों की गुप्त सभा में हुई थी। नैनीतीस से मैं और कपिलेश भोज उस सभा में तब शामिल हुए जब हम बीए पहले वर्ष के छात्र थे।चिपको आंदोलन के दौरान यह दोसती गहराती गयी। जब मैं मेरठ में था, तब धीरेंद्र दिल्ली में थे। पर जनसत्ता मुंबई में वे फीचर संपादक थे और कोलकाता में मैं सब एडीटर। कोलकाता आये तो मुझे पहचाना तक नहीं।
जनसत्ता से जो लोग निकल गये, वे सबके सब संपादक बन गये। गनीमत है कि हम नहीं निकले और गनीमत यह भी कि दिवंगत जोशी जी सबएडीटरी का हमारा स्थाई बंदोबस्त कर गये। वरना संपादकों की जो दुर्गति हो रही है, उससे हम साफ बच नहीं पाते और जाहिर है कि दांव पर होता दिलीप की तरह हमारी प्रतिबद्धता भी।
हमने पत्रकारिता के दो सिद्धांत पिछले तीन चार दशकों में गढ़ लिये हैं , चाहे तो आप भी उन्हे आजमा सकते हैं। पहला यह कि बनिये के अखबार को अपना अखबार कभी मत समझो और हमेशा उससे अपनी पहचान अलग रखो। अपने ही हाउस में एस निहाल सिंह और अरुण शौरी की दुर्गति देखते हुए हमने पिछले बाइस साल से इस सिद्धांत पर सख्ती से अमल किया है।
दूसरा सिद्धांत थोड़ा खतरनाक है। वह यह कि बनिया की नौकरी करो, पर बनिये से कभी मत डरो। हम शुरू से इस सिद्दांत को मानते रहे हैं और उसका खामियाजा भी भुगतते रहे हैं।
इतना गप हो जाने के बाद हमारा सवाल है कि क्या हमारे प्रतिबद्ध प्रतिभाशील लोगों को व्यवसायिक मीडिया की नौरकियां छोड़ देनी चाहिए, क्योंकि उस मीडिया के जरिये श्लील अश्लील से ऊपर जो कुछ प्रकाशित या प्रसारित होता है, उसकी जिम्मेवारी से वे बच नहीं सकते?यानी व्यवसायिक मीडिया में जनता के हक में थोड़ा बहुत जो स्पेस बच जाता है, उसका इस्तेमाल हम दूसरे लोगों को करने के लिए मैदान खुल्ला छोड़ दें? कृपया आप विद्वतजन इस पर सलाह मशविरा करके अपनी राय दें।
गौरतलब है कि जब इकोनामिक टाइम्स की नौकरी छोड़कर जेएनय़ू में जाने का फैसला किया दिलीप ने तो उसने मुझसे भी पूछा था और हमने मना किया था। हमने कहा था कि कम से कम एक आदमी तो हमारा वहां है। दिलीप ने कहा था कि कारपोरेट पत्रकारिता में कहीं भी कुछ करने की गुंजाइश नहीं है।हम निरुत्तर हो गये थे। फिर उसने मीडिया का अंडरवर्ल्ड किताब लिखी। जेएनय़ू में गया। जब वह इंडिया टूडे का संपादक बना तो गुलबर्गा में बामसेफ के राष्ट्रीय अधिवेशन में फारवर्ड प्रेस के संपादक इवान कोस्तका से इसकी जानकारी मिली।दिलीप के इंडिया टूडे के संपादक बनने की खबर सुनाते हुए इवान ने कहा था कि मालूम नहीं कि यह अच्छा हुआ कि बुरा। उन्होंने यह भी कहा कि खुद दिलीप को नहीं मालूम।
हैमलेट की सोलीलकी याद है न ? टू बी आर नट टू बी?
बुनियादी मसला यह है कि क्या किसी व्यवसायिक मीडिया के शीर्ष पर किसी प्रतिबद्ध पत्रकार को होना चाहिए? द्विज या गैर द्विज, कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे गैर द्विज हैं ही कितने पत्रकारिता में? संपादक गिनाने जायें तो दिलीप के अलावा हिंदी में दूसरा नाम नजर नहीं आता जो अस्पृश्य हो।सत्ता में भागेदारी का सिद्धांत आजमायें तो शायद शुरू यहीं से करना पड़े कि मायावती का मुख्यमंत्री बनना ठीक था या गलत!
मूल्यबोध की बात करे तों जनसत्ता, देशबंधु और लोकमत समाचार जैसे दो चार अखबारों को छोड़कर तमाम पोर्टल पर नंगे चित्रों की भरमार है। नंग चित्र रहे दूर बाकायदा पोर्नोग्राफी के सहारे नेट पर रीडरशिप और विज्ञापन बटोरने की होड़ है। तब क्या इन सभी मीडियासमूह के पत्रकारों को मूल्यबोध और प्रतिबद्धता की दुहाई देकर अपनी अपनी नौकरियां छोड़ देनी चाहिए।बहस की शुरुआत की है, अजित अंजुम ने जो एक टीवी चैनस के मैनेजिंग एडीटर है। चैनलों में टीआरपी के लिए क्या क्या पापड़ नहीं बेलने पड़ते, उनसे बेहतर क्या जानेंगे हम?
तो क्या वे प्रतिबद्ध मूल्यबोध वाले पत्रकारों को दागी चैनलों की नौकरियां छोड़ने के लिए कहेंगे?