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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Thursday, April 26, 2012

नक्‍सलवाद से जल्‍द निपटिए नहीं तो कल देर हो जाएगी

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[LARGE][LINK=/index.php/yeduniya/1229-2012-04-26-07-48-56]नक्‍सलवाद से जल्‍द निपटिए नहीं तो कल देर हो जाएगी   [/LINK] [/LARGE]
Written by पंकज झा Category: [LINK=/index.php/yeduniya]सियासत-ताकत-राजकाज-देश-प्रदेश-दुनिया-समाज-सरोकार[/LINK] Published on 26 April 2012 [LINK=/index.php/component/mailto/?tmpl=component&template=youmagazine&link=681cec971a152a29af9046d5c080113a230b4911][IMG]/templates/youmagazine/images/system/emailButton.png[/IMG][/LINK] [LINK=/index.php/yeduniya/1229-2012-04-26-07-48-56?tmpl=component&print=1&layout=default&page=][IMG]/templates/youmagazine/images/system/printButton.png[/IMG][/LINK]
प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह जब सिविल सर्विस डे पर नौकरशाहों को सज़ा के डर से फैसले लेने में कोताही नहीं बरतने की सीख दे रहे थे, लगभग उसी समय छत्तीसगढ़ के नवसृजित जिले सुकमा के कलक्टर एलेक्स पॉल मैनन वी का नक्सलियों द्वारा अपहरण की रूप-रेखा तैयार की जा रही थी. कहते हैं, एलेक्स पॉल भी अपने मातहतों को यही कहते रहे हैं कि नक्सलियों के भय से या उसके बहाने कभी भी काम में कोई कमी नहीं होनी चाहिए. इस घटना के एक ही दिन पहले बीजापुर के विधायक महेश गागड़ा और कलक्टर रजत कुमार बारूदी सुरंग विस्फोट में बाल-बाल बचे थे, जबकि भाजपा के दो स्थानीय नेता और एक वाहन चालक शहीद हो गए थे. खबर के अनुसार इन लोगों के अपहरण की भी साज़िश रची गयी थी. अभी छत्तीसगढ़ से लगे ओडिशा में अपहृत किये गए दो इतालवी पर्यटकों को भारी कीमत चुका कर मुक्त कराया गया है जबकि वहीं बीजद के एक आदिवासी विधायक झिना हिकाका भी नक्सलियों के चंगुल में थे. ज़ाहिर है सौदेबाजी हुई होगी. स्थिति इतनी विकराल है कि विगत चार सालों में ही माओवादियों ने ऐसे 1500 से अधिक लोगों का अपहरण किया और इनमें से 328 को मौत के घाट उतार दिया है. यानी माओवादी समस्या से निपटने में एक बड़ी चुनौती नक्सलियों द्वारा बंधक बनाए जाने के इस तरीकों से निपटना भी है.

हैरत की बात तो ये है कि केंद्र द्वारा विगत 16 अप्रैल को आंतरिक सुरक्षा पर बुलाई गयी मुख्यमंत्रियों की बैठक में ऐसे हालातों से निपटने के तरीकों के बारे में चर्चा तक करना ज़रूरी नहीं समझा गया. पूरी बैठक से मोटे तौर पर यही निष्कर्ष निकला कि केन्द्र जहां राज्यों के अधिकार हड़प लेना चाहती है वहीं गैर कांग्रेसी राज्य अपने अधिकार को बचाने के लिए एक हो गए हैं. ऐसा लगा जैसे वो आंतरिक सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों पर बैठक नहीं हो रहा है बल्कि केन्द्र-राज्य संबंधों संबंधों पर कोई सेमिनार हो रहा हो. एजेंडा में शामिल 10 मुद्दों में से केवल एनसीटीसी का मुद्दा ही पूरे बैठक में हावी रहा. जबकि वह बैठक, विधायक समेत दो विदेशी नागरिकों के अपहरण की पार्श्वभूमि में ही हो रही थी. बैठक आंतरिक सुरक्षा के संकट पर हो रही थी न कि केवल एनसीटीसी पर.

तो हर बार ऐसी कोई घटना हो जाने पर ही ऐसा लगता है मानो हम आग लग जाने पर कुंआ खोदने निकले हों. पूर्व की कोई तैयारी न होने के कारण अंततः हर बार नक्सलियों की ऐसी मांगों को मानना पड़ता है जो बाद में काफी महंगी साबित हो जाया करती है. कम से कम अब नीति निर्धारकों से यह उम्मीद किया जाना उचित होगा कि बंधक समस्या के सम्बन्ध में एक बाध्यकारी और सर्व-स्वीकार्य नीति बनाया जाय. इस नीति में हो यह सकता है कि सबसे पहले सरकार यह घोषित कर दे कि किसी भी हालत में अपहरणकर्ताओं से कोई बात नहीं की जायेगी साथ ही पारिस्थित कितनी भी विषम हो, किसी भी कीमत पर कोई फिरौती किसी भी रूप में देना स्वीकार नहीं किया जाएगा. जब भी आतंकी या अपराधियों द्वारा किये गए किसी भी अपहरण की खबर मिलेगी, बिना किसी नुकसान की परवाह किये सीधा आक्रमण किया जायेगा. एक नज़र में भले ही यह नीति ज़रूरत से ज्यादे कड़ा लगे लेकिन परिस्थितियां जिस तरह की होती जा रही है वहां 'साफ्ट स्टेट' बन कर ऐसे संकटों का सामना नहीं किया जा सकता है.

लोकतंत्र में कोई भी सरकार जनता को नाराज़ नहीं करना चाहती यह उचित भी है. लेकिन कई बार तो यह तुष्टिकरण की हद तक चला जाता है. यह सही है कि अपने परिजनों को खोना या खोने की आशंका भी कितना त्रासद होता है यह भुक्तभोगी ही समझ सकता है. लेकिन जैसा की हाल में गृह सचिव ने कहा, यह भी सही है कि लाख आतंकी कार्रवाइयों के बावजूद भी आज भी आतंकी हमलों में हताहत लोगों से ज्यादा सड़क दुर्घटनाओं में जान जाती है. इश्वर करे सुकमा के कलक्टर सकुशल वापस लौट आय. केन्द्र समेत सभी संबंधित सरकारों की एकमात्र प्राथमिकता यही होना भी चाहिए, है भी. लेकिन इस प्रकरण के निपटारे के फ़ौरन बाद केंद्र को चाहिए कि आगामी 5 मई को फिर आंतरिक सुरक्षा पर आयोजित बैठक में बिना किसी भेदभाव के भविष्य में बंधक संबंधी मामलों से कैसे निपटा जाय इस पर मतैक्य स्थापित करे. अगर संभव हो तो यथाशीघ्र क़ानून बनाकर फिर उसी आधार पर लोकमत के निर्माण के लिए पहल करे.

इस मामले में अभी सही समय है कल को काफी देर हो जायेगी. राज्य सरकारों द्वारा की जा रही लगातार कारवाई, आंध्र में आज़ाद से लेकर झारखंड में किशन जी तक बड़े-बड़े नक्सलियों के मारे जाने, छत्तीसगढ़ में कुछ मास्टरमाइंड के गिरफ्तार होने, उन्हें सज़ा होने के बाद के बाद ऐसा लगता है कि नक्सल गिरोहों की हालत अभी लौटती हुई सेना जैसी है. तो ऐसे बिखरे गिरोह ज्यादे खतरनाक होते हैं. बंधकों को छुडाने के लिए अनिवार्य बातचीत के अलावा इनसे किसी भी तरह की बातचीत निष्फल ही साबित होनी है. ज़ाहिर है इनसे किसी भी तरह की बातचीत करने का हमेशा यही मतलब निकलता है कि हम इन्हें एक 'पक्ष' के रूप में मान्यता दे रहे हैं. जबकि सीधे तौर पर देश-दुनिया को यह सन्देश देने की ज़रूरत है कि नक्सली हमारी आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़ी चुनौती हैं और इनसे हमें उसी तरह निपटना है जैसे बाहरी दुश्मनों से निपटा जाता है.

समाज के मुख्यधारा में शामिल होने का विकल्प एक कल्याणकारी राज्य में भले हर वक्त खुला रहना चाहिए. लेकिन साथ ही ज़रूरत इस बात का भी है [IMG]/images/stories/food/pjha.jpg[/IMG]कि ऐसा न करने वाले समूहों से सीधे आर-पार की लड़ाई लड़ी जाय. सरकारों को एक बार यह तय कर लेना ही होगा कि हालात चाहे कैसी भी हो हम किसी भी कीमत पर इस तरह अपने लोकतंत्र को ब्लैकमेल बिलकुल नहीं होने देंगे. ध्यान रखें न ही केवल तात्कालिक संकट से पार पा लेना ही अपेक्षित नहीं है बल्कि आंतरिक सुरक्षा पर सबसे बड़े संकट के रूप में चिन्हित किये गए माओवाद को सख्ती से कुचलने हेतु दीर्घकाल की सुस्पष्ट और सबल नीति की ज़रूरत ज्यादे है.

[B]लेखक पंकज झा छत्‍तीसगढ़ से प्रकाशित भाजपा के मुखपत्र दीपकमल के संपादक हैं. [/B]

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