सैंकड़ों आदिवासी बारिश के मौसम में बेघर
उत्तर प्रदेश के चंदौली के ग्राम भरदुआ तहसील चकिया में पिछले महीने 29 जून को जनपद चन्दौली के ग्राम भरदुआ तहसील चकिया में वनविभाग मय पुलिस फोर्स व कुछ बीएसएफ के जवानों के साथ बुलडोज़र लेकर पहुंचे और लगभग 50 झोपड़ियों को बिना किसी नोटिस दिए ढहा दिया. यह सभी झोपड़ियाँ गोंड़ आदिवासियों, मुसहर जाति, दलित व अन्य ग़रीब समुदाय की थी. इस घटना की जानकारी वनाधिकार पर काम करने वाली रोमा से प्राप्त हुई.
पीड़ितों में से कुछ लोगों के नाम रामवृक्ष गोंड़, सीताराम पु़त्र रामेशर, बलीराम पुत्र सुकालु अहीर, सुखदेव पुत्र रामवृक्ष गोंड़, रामसूरत गोंड, कालीदास पुत्र मोतीलाल गोंड, मनोज पुत्र रामजीयावन गोंड, सुखराम पुत्र शिववरत गोंड, शिवकुमारी पत्नि रामदेव गोंड, माधो पुत्र टेगर मुसहर, विद्याप्रसाद पुत्र सुखई गडेरी, हीरालाल पुत्र गोवरधन मुसहर, बबुन्दर पुत्र मोती मुसहर, पुनवासी पत्नि टेगर मुसहर, कलावती पत्नि विक्रम मुसहर, राधेश्याम पुत्र रामप्यारे मुसहर, अंगद पुत्र रामप्यारे मुसहर, महरी पत्नी स्व0 रामवृक्ष मुसहर, राजेन्द्र पुत्र मोती मुसहर, कलावती पत्नी रामअवध अनु0 जाति, गंगा पुत्र सुखई गड़ेरी,कालीप्रसाद पुत्र तिवारी कोल, रामप्यारे पुत्र कतवारू मुसहर हैं.
वनविभाग के मुताबिक जिन लोगों की झोपड़ियाँ ढहाई गयीं हैं वे अतिक्रमणकारी है. जिलाधिकारी ने अतिक्रमण को हटाने के लिए निर्देश दिया था. इस सम्बन्ध में जब जिलाधिकारी से बात की गई तो उन्होंने इस तरह के किसी भी आदेशसे इंकार किया है. यह कार्यवाही उन परिवारों पर की गई है जो कि प्रदेश में लागू वनाधिकार कानून 2006 के अंतर्गत अपने अधिकारो को पाने के लिए हकदार है. यह परिवार 15 दिसम्बर 2006 के पूर्व से यहां बसे हुए हैं.
इन परिवारों को वर्ष 2003 में भी वनविभाग ने इस भूमि से बेदखल किया था. इनकी फसलें उजाड़ दी गई थी और इन्हें अतिक्रमणकारी घोषित कर भूमि पर वनविभाग द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया था. ये लोग वनविभाग से लगातार संघर्ष करते रहे. वर्ष 2005 में इन परिवारों ने अपनी भूमि को वापिस हासिल किया. वनाधिकार कानून आने के बाद उनका उक्त भूमि पर दावा और भी मजबूत हुआ, लेकिन चन्दौली जनपद के इन आदिवासियों के साथ जनपद के बंटवारे के चलते एक बार फिर धोखाधड़ी हुई.
वर्ष 2002 में सपा सरकार के ही दौरान प्रदेश के तेरह आदिवासी समुदायों को अनुसूचित जनजाति में शामिल किया गया था. उस समय चन्दौली जनपद वाराणसी में ही शामिल था. वर्ष 2004 में चन्दौली को पुन एक अलग जनपद बनाया गया. अलग जनपद बनते ही चन्दौली में रहने वाले तमाम अनुसूचित जनजातियों को प्राप्त दर्जा भी उनसे छीन लिया गया. जबकि अगर वे वाराणसी में अनु0 जनजाति में शामिल थे तो राज्य सरकार द्वारा उन्हें वहीं दर्जा जनपद चन्दौली में दिया जाना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं किया गया. जिसके कारण आज भी जनपद चन्दौली के निवासी अपनी पहचान से महरूम हैं.
यह भी एक विडम्बना ही है कि इस जनपद के आदिवासियों को एक सरकार ने अनु0 जनजाति का दर्जा दिया और दूसरी सरकार ने इस दर्जे को छीन लिया. इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण बात और क्या हो सकती है कि अभी तक यहां के आदिवासियों को कोई भी सरकार उनके संवैधानिक अधिकार को बहाल नहीं कर पाई है.
सरकार द्वारा यहां के आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों की बहाली न करने का खामियाजा आज भी यहां के आदिवासी चुका रहे हैं. उन्हें वनाधिकार कानून 2006 से वंचित किया जा रहा है . वहीं वनविभाग द्वारा इस स्थिति का फायदा उठा कर मनमानीपूर्ण कार्यवाही की जा रही है. यहां पर रहने वाले आदिवासियों का उत्पीड़न किया जा रहा है, उनके घरों से उन्हें बेदखल किया जा रहा है, उनके उपर झूठे मुकदमे लादे जा रहे हैं और उन्हें जेल भेजा जा रहा है. जबकि 2010 में ग्राम बिसेसरपुर में तत्कालीन जिलाधिकारी रिगजिन सैंफल के साथ एक संयुक्त बैठक हुई थी जिसमें रा0 वनजन श्रमजीवी मंच के प्रतिनिधि भी शामिल थे, जहां पर वनाधिकार कानून की प्रक्रिया उनके द्वारा शुरू कराई गई थी.
लेकिन यह प्रक्रिया इसलिए अभी तक अधर में अटकी हुई है, क्योंकि यहां के आदिवासियों के दावे यह कहकर खारिज किए गए कि वे 75 वर्ष का प्रमाण नहीं पेश कर पा रहे हैं. उनके दावों को स्वीकार ही नहीं किया गया और इस स्तर पर भी वनविभाग द्वारा अंड़गा लगा कर तमाम दावों को उपखंड़ स्तरीय समिति द्वारा ही खारिज कर दिया गया है. जबकि दावों को खारिज करने का अधिकार उपखंड स्तरीय समिति को कानूनी रूप से नहीं है. यहां तो यह कहावत चरित्रार्थ है ' उल्टा चोर कोतवाल को डांटे'. 75 वर्ष का रिकॉर्ड तो यहां का वनविभाग ही नहीं दे सकता, जो कि यहां पर चिरकाल से रहने वाले आदिवासियों से इस प्रमाण को मांग रहे हैं. आदिवासी कैमूर की इन पहाड़ियों में कब से रह रहे है, इसका जीता जागता प्रमाण आज भी यहां की भृतिकाए ' राक पेंन्टिंग' हैं जो कि कई स्थानों पर पाई गई हैं.
29 जून को वनविभाग द्वारा बुलडोजर चलाकर आदिवासियों व दलितों के घर गिराने की कार्यवाही पूर्ण रूप से गैरसंवैधानिक और आपराधिक है. यह संसद व संविधान की अवमानना भी है. वैसे भी मानसून के मौसम में किसी भी प्रकार से घर तोड़ने की कार्यवाही आपराधिक है. वनविभाग, पुलिस व प्रशासन ने यह जो आपराधिक कार्यवाही की है वह दण्डनीय है. वनाधिकार कानून 2006 के की धारा 4 (5) के तहत जब तक दावों की प्रक्रिया पूर्ण नहीं हो जाती तब तक किसी भी प्रकार की बेदखली की कार्यवाही नहीं हो सकती. लेकिन वनविभाग व प्रशासन ने कानून को अपने हाथ में लेकर उन्हीं लोगों के अधिकारों का हनन किया है जिनकी उन्हें सुरक्षा करनी चाहिए थी.
अधिकारीगण वनाधिकार कानून से अवगत ही नहीं हैं. जिलाधिकारी को यह भी नहीं मालूम कि इस कानून के तहत जिला स्तरीय समिति के वे अध्यक्ष है. यह बेहद ही गंभीर घटना है. बरसात के मौसम में महिलाए व बच्चे खुले में रहने के लिए मजबूर हैं. इस घटना के संदर्भ में रा0 वनजन श्रमजीवी मंच व ग्रामीणों ने मुख्यमंत्री से पत्र के माध्यम से उच्च स्तरीय कार्यवाही की मांग की है और दोषी आधिकारियों को वनाधिकार कानून की अवमानना व आदिवासियों के जीने के अधिकार से वंचित करने के लिए प्राथमिकी दर्ज करने व जेल भेजने की मांग की है.
इस घटना के विरोध में ग्राम भरदुआ की महिलाओं ने 6 जुलाई को नौगढ़ स्थित वनविभाग के कार्यलय को घेरने की योजना बनाई. चूंकि उनके घर उजड़ चुके हैं इसलिए उन्होंने तय किया है कि वे अपने बच्चों के साथ रेंज कार्यालय पर ही रहना शुरू करेगीं, जब तक उनके घरों को प्रशासन दोबारा आबाद नहीं किया जाता. रा0 वनजन श्रमजीवी मंच ने जिलाधिकारी से बुलडोजर भेजने के आदेश के बारे में भी जानकारी मांगी है, लेकिन जिलाधिकारी इस बात से मुकर गए कि प्रशासन द्वारा बुलडोजर भेजने के आदेश दिए गए हैं. इस घटना के बारे में कुछ संगठनों की चहलकदमी से वनविभाग व प्रशासन की नींद उड़ गई है व वे एक दूसरे पर घरों को ढहाए जाने के आरोप मढ़ रहे हैं.
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