THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Thursday, February 27, 2014

कृषि : आत्‍महत्‍या की खेती

कृषि : आत्‍महत्‍या की खेती

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विनय सुल्‍तान

हैदराबाद से महबूबनगर रवाना होते वक्त इस बात का रत्तीभर भी इल्म नहीं था कि मैं वहां की सबसे भयावह त्रासदियों से रू-ब-रू होने जा रहा हूं।

farmer-suicideइस देश में नकदी फसल उगाना बहुत महंगा सौदा है। इतना महंगा कि कई बार जान के रूप में कीमत वसूल करता है। कपास भारत में सबसे ज्यादा बोई जाने वाली नकदी फसल है। यह फसल हर साल जितने लोगों की मौत का कारण बनती है, उनकी संख्या सांप्रदायिकता के गुजरात तांडव में मारे गए लोगों से चार गुनी ज्यादा है। 1995 से 2012 तक इस देश में 2,84,694 किसानों ने आत्महत्या की। इसमें से 68 फीसदी आत्महत्याएं कपास उगाने वाले क्षेत्रों में हुईं।

कपास पैदा करने वाले क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर हो रही आत्महत्याओं के कारण बहुत साफ हैं। जहां परंपरागत फसलों जैसे मक्का या ज्वार उगाने का खर्च आठ से दस हजार है, वहीं कपास की लागत चालीस से पचास हजार आती है। जाहिर-सी बात है कि किसान इसके लिए कर्ज लेता है। तेलंगाना में सरकारी बैंक से कर्ज महज 18 फीसदी किसानों के लिए मयस्सर है। 82 फीसदी किसान कर्ज के लिए महाजनी व्यवस्था पर निर्भर हैं। यहां ब्याज की दर 36 फीसदी है। ये दर आपके सामान्य लोन, होम लोन या इस तरह के किसी भी किस्म के लोन से तीन से पांच गुना ज्यादा है। महाजनी कर व्यवस्था का सबसे काला पहलू है सूद न चुकाने की स्थिति में सूद मूल में जुडऩा और उस पर सूद शुरू हो जाता है। फसल को बोने के समय जो कर्जा लिया जाता है, फसल कटते-कटते वह डेढ़ से दो गुना तक बढ़ जाता है। ब्याज मुक्त ऋण का आवंटन यहां 15.24 फीसदी है, जबकि 40 फीसदी कृषि योग्य भूमि इस क्षेत्र में आती है।

गोदावरी, कृष्णा और तुंगभद्रा जैसी नदियों का तीन-चौथाई बहाव क्षेत्र तेलंगाना में है, लेकिन महज चार फीसदी जमीन को ही नहरों का पानी सिंचाई के लिए मिल पाता है। महबूबनगर, खम्मम और रंगारेड्डी में कृष्णा और तुंगभद्रा का बहाव क्षेत्र है। ये जिले पिछले चार साल से सूखे से त्रस्त थे। नागार्जुन सागर बांध नालगोंडा जिले में बना हुआ है। इसके द्वारा कुल 25 लाख एकड़ जमीन के लिए सिंचाई की व्यवस्था की गई। चौंकाने वाला तथ्य ये है कि इसके जरिये सीमांध्र की 20 लाख एकड़ और तेलंगाना की महज 5 लाख एकड़ जमीन सींची जा रही है। इसी तरह जिस श्रीसेलम परियोजना के कारण तेलंगाना के कुर्नूल जिले के 67 गांवों के एक लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा था, उसकी एक बूंद भी तेलंगाना को नहीं मिलती।

हालांकि 'तेलगु गंगा' के नाम पर इसका एक हिस्सा चेन्नई की पेयजल आपूर्ति के लिए दिया जाता है। जिस सुपर साइक्लोन का त्रासदी उत्सव मनाने के लिए लिए हमारा हिंदी मीडिया बड़े पैमाने पर आंध्र और तमिलनाडु पहुंचा था, उसकी असल त्रासदी का सिलसिला अब चालू हुआ है। लेकिन बड़ी त्रासदी ये भी है कि इसको कवर करने के लिए वहां अब कोई ओबी वेन नहीं है। इस सुपर साइक्लोन की वजह से खड़ी फसल बर्बाद हो गई। किसानों की आत्महत्या यहां कोई नई बात नहीं है, पर इस तबाही ने इनकी दर को तेज कर दिया है।

मैं अच्छा किस्सागो नहीं हूं और जो पांच घटनाएं मैं आपको बताने जा रहा हूं, वो भी कोई कहानी नहीं हैं। यहां त्रासदियां की ऐसी जंजीर है, जिसमें एक से बड़ी दूसरी त्रासदी का सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। साथ ही यह हमारे पैंसठसाला लोकतंत्र में किसानों के बदतर हालात का लिटमस परीक्षण भी है।

जमीन हत्या की बारी

महबूबनगर के बीजनापल्ली मंडल का गांव है नंदी वड्डेमान। इस सफर में मेरे साथ थे आंध्र ज्योति के पत्रकार महेश और उनके साथी महबूब खान। ये हमारे लिए अनुवादक, दोस्त, गाइड और मेजबान की भूमिका एक साथ निभा रहे थे। नंदी वड्डेमान में पिछले एक महीने में दो किसानों ने आत्महत्या की है। गांव की सरपंच पी. ज्योति के अनुसार पिछले पांच साल में दस हजार की आबादी वाला ये गांव 80 से ज्यादा आत्महत्याओं का गवाह बन चुका है।

सबसे पहले हम जी. अंजनैलू के घर पहुंचे। अंजनैलू सागर समुदाय के सदस्य थे, जो पिछड़े वर्ग में आता है। अंजनैलू के पास चार एकड़ जमीन थी और इतनी ही जमीन उन्होंने बटाई पर ली थी। छह बच्चियों के पिता अंजनैलू के ऊपर चार लाख का कर्जा था, लेकिन खेत की लहलहाती फसल अंजनैलू के हौसले के लिए रीढ़ की हड्डी का कम करती थी। चार साल के अकाल के बाद धरती ने छाती फाड़कर कुछ उगाया था, लेकिन बेमौसम की बरसात के कारण अंजनैलू के खेत तालाब बन गए। फसलों के साथ-साथ वह हौसला भी डूब गया, जिसने अंजनैलू को कर्ज के पहाड़ के सामने जिंदादिली से खड़ा कर रखा था। पिछले सितंबर की 27 तारीख को अंजनैलू ने फांसी पर लटककर जान दे दी।

आज अंजनैलू की बीवी इंदिरा आवास योजना की सहायता से बने एक कमरे के लगभग घर जैसे ढांचे में अपनी छह बेटियों के साथ एक ऐसी लड़ाई लड़ रही है, जिसका नतीजा पहले से तय है। उनकी सबसे बड़ी बारह वर्षीय बेटी जयम्मा खेत में मजदूरी करती है। उनकी दो बेटियां कंधों पर यूरिया खाद के कट्टों से बने स्कूल बैग लटकाए ऐसी नौकरी के लिए पढ़ रही हैं, जो शायद ही उन्हें कभी मिल सके।

नंदी वड्डेमान का ये परिवार पहले अपने मुखिया को खो चुका है, अब इस परिवार की जमीन पर हत्यारे साये मंडरा रहे हैं। कर्जदाता अंजनैलू की पत्नी विजयम्मा पर जमीन बेचकर कर्जा उतारने के लिए दबाव बना रहे हैं। छोटी जोत वाले किसान किस प्रक्रिया के जरिये खेत-मजदूर बनते जा रहे हैं, इसे समझना कोई मुश्किल पहेली नहीं है।

किताबें तुम्हारी दोस्त नहीं रहीं

नंदी वड्डेमान में जी. अंजनैलू के पड़ोसी वी. मलेश के घर की कहानी और अधिक त्रासदीपूर्ण है। मलेश एक भूमिहीन किसान थे। वह बटाई पर खेती किया करते थे। उन्होंने पांच एकड़ जमीन बटाई पर ली थी। पिछड़े सागर समुदाय के मलेश ने एक बेहतर कल की उम्मीद में कपास बोया। इस बेहतर कल को और बेहतर बनाने के लिए खाद और कीटनाशकों की जरूरत हुई। मलेश ने बेहतर कल के लिए आज से कुछ कर्ज लिया। बेमौसम बरसात ने मलेश के बेहतर कल पर पानी फेर दिया। वह आज से लिए दो लाख के कर्ज के साथ इस दुनिया से चले गए। पिछली 6 अक्तूबर को मलेश ने कर्ज की वजह से फांसी पर लटककर अपनी जान दे दी, ऐसा पुलिस के दस्तावेज में लिखा हुआ है।

मलेश अपनी 40 साल की जिंदगी में ऐसा कोई ढांचा खड़ा करने में कामयाब नहीं हो पाए, जिसे घर कहा जा सके। न ही 510,072,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल वाली इस ग्रह पृथ्वी पर ऐसी एक इंच जमीन है जिसे मलेश का परिवार अपना कह सके। आज उनकी पत्नी वी. अनीता अपनी दो बच्चियों के साथ एक कमरे वाले किराए के मकान में रह रही हैं। इसके लिए वह हर महीने 500 रुपए अदा करती हैं। उनकी दोनों बिटिया रानी फिलहाल पढ़ रही हैं। उन्हें इस बात का थोड़ा भी गुमान नहीं है कि परिस्थितियों के निर्मम हाथ उनकी किताबें छीनने में देर नहीं लगाने वाले हैं। किताबें जो दुनिया में इंसान कि सबसे अच्छी दोस्त कही जाती हैं, अब उनकी दोस्त नहीं रही हैं।

जब मैंने अनीता से कर्ज के बाबत पूछा तो उनका जवाब था 'सरकार ने अगर सहायता नहीं की तो मेरे और मेरे बच्चों के पास जहर खाने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।' वह मेरी तरफ लगातार उम्मीद भरी नजरों से ताक रही थीं। उनकी आंखों में विधानसभा के प्रतिबिंब को बनते-बिगड़ते देखा जा सकता था।

नंदी वड्डेमान से वापस लौटते हुए हम रास्ते में मक्के की बर्बाद हुई फसल के फोटोग्राफ लेने के लिए रुके। जैसे ही मेरे साथी पत्रकार फोटो लेकर खेत से लौटने लगे, एक महिला उनके कदमों में लोट गई। इस महिला कि उम्र हमसे दो-गुनी रही होगी। इस अनुभव ने मेरे सामने दो बातों को बहुत साफ तरीके से रखा। पहला, दिल्ली आज भी गांव के गरीब-गुरबा लोगों के लिए एक जादुई शब्द है। दूसरा, पैंसठ साला लोकतंत्र अपने लोगों को इस बात का अहसास दिलाने में पूरी तरह से नाकामयाब रहा है कि उनके पास इज्जत से जिंदगी जीने का हक है। (वैसे यह मुश्किल काम है भी, क्योंकि उनके पास ऐसा कोई हक दार-असल है भी नहीं।)

गणेश अब बॉय बन गया है

महबूब नगर का जड्चर्ला मंडल। यहां हमारी यात्राओं के हमराह थे उदय मित्रा। उदय मित्रा साहब स्थानीय डिग्री कॉलेज में अंग्रेजी के प्राध्यापक रहे हैं। वह तेलगु में कहानियां भी लिखते हैं। मैं, उदय मित्रा साहब और उनका स्कूटर सबसे पहले गंगापुर गांव की तरफ निकले। ये गांव स्थानीय मेले के लिए मशहूर है।

गंगापुर के सी. कृष्णय्या मुद्दीराज समाज के सदस्य थे, जो कि पिछड़ी जाति में आता है। कृष्णय्या के पास चार एकड़ जमीन थी। तीन लड़कियां और एक लड़के के पिता कृष्णय्या की सबसे बड़ी बेटी सयानी हो चुकी थी। अपनी चार एकड़ और बटाई की पांच एकड़ जमीन के भरोसे कृष्णय्या ने अपनी बेटी के हाथ पीले कर दिए। दहेज भारतीय समाज की क्रूर सच्चाई है। कृष्णय्या ने कर्ज लेकर बेटी को दहेज दिया। कृष्णय्या को उम्मीद थी कि नौ एकड़ पर जब कपास की फसल लहलहाएगी, तो उनका सारा कर्ज रुई कि तरह उड़ जाएगा। पर बेमौसम की बरसात ने छह लाख के कर्ज को भीगी रुई की मानिंद भारी बना दिया।

कृष्णय्या ने अपनी आखिरी शाम के लिए वो जगह चुनी, जो उनकी जिंदगी कि एकमात्र उम्मीद था, यानी उनके खेत। दस अक्टूबर की शाम को कृष्णय्या ने अपने जीवन को अपने खेतों को आखिरी अलविदा कहा और जहर पीकर हमेशा के लिए सो गए।

हम जब कृष्णय्या के घर पहुंचे, उस समय उनकी पत्नी याद्दाम्मा दूसरों के खेत में मजदूरी करने गई हुई थीं। उनकी चार एकड़ जमीन आज बटाई पर चढ़ चुकी है। कृष्णय्या का पंद्रह वर्षीय मैट्रिक पास बेटा जड्चर्ला में एक निजी दफ्तर में 3,000 के वेतन पर चपरासी का काम करता है। वहां साहब लोग उसे गणेश नहीं बॉय कहकर बुलाते हैं।

हम सपने भी नहीं देख सकते

महबूबनगर के जड्चर्ला मंडल का कोडगल गांव। गंगापुर से कोडगल की दूरी महज छह किलोमीटर थी। शाम के चार बज रहे थे। गंगापुर से कोडगल की मेरी छोटी-सी यात्रा कोडगल के सरकारी स्कूल के सामने जाकर ठिठक गई। समय स्कूल की छुट्टी का था। बच्चे बेतहाशा दौड़ रहे थे। चारों तरफ चिल्ल-पों मची हुई थी। हालांकि मेरे पास इस बात के लिए कोई सरकारी तथ्य तो मौजूद नहीं है, पर लगभग चालीस फीसदी बच्चे नंगे पांव थे। स्कूल के बाहर एक लड़के और लड़की का चित्र बना हुआ था, जो कि पेंसिल पर बैठे हुए थे। इस चित्र पर लिखी इबादत तेलगु में होने के बावजूद मुझे समझने में कोई कठिनाई नहीं हुई कि ये दीवार सर्वशिक्षा अभियान के मूर्खतापूर्ण दावों से रंगी हुई है।

कोडगल के के. नरसिंहलू 40 वर्षीय किसान थे। उनके परिवार में उनके बूढ़े पिता नगय्या(85), पत्नी भीमम्मा(36) और बेटा श्रीलू(13) और बिटिया स्वाति(15) हैं। नरसिंहलू के पास पहले चार एकड़ जमीन थी। उसमें से दो एकड़ बेचकर इंदिरा आवास योजना से मिली तीस हजार की सहायता द्वारा डेढ़ लाख की लागत वाला दो कमरों का घर तैयार किया। अपने पास बची दो एकड़ जमीन और इतनी ही जमीन बटाई पर लेकर नरसिंहलू ने कपास और तरबूज बोया। घर बनाने और फसल बोने के लिए गया कुल कर्ज लगभग दो लाख था।

नरसिंहलू के बूढ़े पिता नगय्या के जीवन की यह क्रूर त्रासदी है कि उनका एक बेटा फेफड़े की बीमारी के कारण मर गया और दूसरा तरबूज की बीमारी के कारण। इस 25 अक्टूबर को नरसिंहलू को आत्महत्या किए हुए एक साल बीत चुका है। उनकी दो एकड़ जमीन पांच हजार रुपए प्रति एकड़ की दर से बटाई पर चढ़ चुकी है। उनकी पत्नी भीमम्मा के पास न तो खेत जोतने की ताकत बची है और न ही खाद-बीज के लिए पैसा। ऊपर से रोज-रोज होने वाला तकाजा मूल के साथ हर दिन जिल्लत को भी बढ़ा रहा है।

नरसिंहलू की पंद्रह वर्षीय बिटिया इस साल 12वीं में आ गई है। मैंने उससे पूछा कि वह बड़ी होकर क्या बनना चाहती है? उसका जवाब था कि कोई भी छोटी-मोटी नौकरी करके मां की मदद करना चाहती हूं। मैंने जब उससे पूछा कि क्या उसके पास डॉक्टर, इंजीनियर, टीचर या कलेक्टर बनने जैसा कोई सपना नहीं है? तो उसने बड़े ही सपाट स्वर में कहा 'हम ऐसे सपने भी नहीं देख सकते।' अपनी लाख कोशिशों और सभ्यता के तमाम तकाजों के बावजूद वह अपना गुस्सा छुपा नहीं पा रही थी।

स्वयं सहायता समूह सहायता नहीं कर सका

जड्चर्ला मंडल का गांव लिंगमपेट। तीन महीने में इस गांव के आठ किसान आत्महत्या कर चुके हैं। इनमें से तीन महिलाएं हैं। पिछली तीन आत्महत्याएं 10 दिन के भीतर हुई थीं। ये मेरे सफर का आखिरी पड़ाव था। इसके बाद मुझे फिर दिल्ली लौट जाना था।

ढलती शाम को कंधे पर लटकाए हम वैंकटय्या के घर पहुंचे। वेंकटय्या मुदिका समुदाय के सदस्य हैं, जो अनुसूचित जाति में आती है। उनकी पत्नी वेंकटम्मा ने 15 अक्टूबर को आत्महत्या कर ली। ये गांव में दस दिन के भीतर होने वाली तीसरी आत्महत्या थी।

वेंकटय्या के पास कुल जमा एक एकड़ जमीन है,जिस पर उन्होंने मक्का बोया। बुवाई के दो दिन बाद ही तेज बारिश के चलते किए-कराये पर पानी फिर गया। वेंकटय्या के पास फिर से बुवाई करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं था, पर उसके पास अब बुवाई लिए पैसे नहीं थे।

वेंकटम्मा गांव में स्वयं सहायता समूह चलाती थी। संकट में फंसे पति की मदद के लिए उन्होंने स्वयं सहायता समूह के खाते से किसी को बिना बताए चालीस हजार रुपए अपने पति को दे दिए। वेंकटम्मा ने सोचा था कि फसल कटने के बाद वह सारे पैसे वापस जमा करावा देंगी। वैसे भी अगर खेती ही नहीं रही तो उनका परिवार खाता क्या?

वेंकटम्मा को क्या पता था कि ये बारिश उनका इतनी जल्दी पीछा नहीं छोडऩे वाली है। पहले बारिश ने बीजों को तबाह किया और दूसरी दफा खड़ी फसलों को तबाह किया। अपनी साथिनों द्वारा लगाए जा रहे गबन और विश्वासघात के आरोप वेंकटम्मा कि जिंदगी को नरक बनाने के लिए काफी थे।

15 अक्टूबर की शाम वेंकटम्मा ने जिस मिट्टी और घास-फूस की संरचना को इतने जतन से एक मुक्कमल घर की शक्ल दी थी, उसी घर के पिछवाड़े में फांसी पर लटककर जान दे दी। वेंकटम्मा के सात साल के बेटे अंजनैलू इस बात को शायद ही ठीक-ठीक समझ पा रहा है। कैमरे के सामने आते ही वह बरबस मुस्कुरा देता है। मेरे पास इस रिपोर्ट में चस्पां करने के लिए वेंकटय्या के बयान की जगह उनकी आंखों से गिरते आंसू हैं, जो कि हमारे वापस लौटने के वक्त तक बह रहे थे। मैं आज भी दावे के साथ नहीं कह सकता कि वेंकटय्या बोल सकते हैं।

हम जैसे ही वेंकटय्या के घर से निकलने को हुए वेंकटय्या के पिता मेरे बहुत करीब आकर तेलगु में कुछ बोलने लगे। मैं कुछ समझ पाता, इससे पहले मेरे गाइड उदय मित्रा ने कुछ पैसे उनके हाथ में रख दिए। लौटते-लौटते अंधेरा हो चुका था। सड़क किनारे एक आदमी धुत्त नशे में बड़बड़ा रहा था। हम जड्चर्ला के लिए टैंपो में सवार हुए। टैंपो का इंजन स्थायी भाव से भड़भड़ा रहा था, लेकिन इससे भी ज्यादा एक-एक सवाल दिमाग को भड़भड़ा रहा था। इसे किसानों की आत्महत्या कहा जाए, जैसा की पुलिस के दस्तावेजों में दर्ज है या फिर हमारी राजनीतिक व्यवस्था द्वारा सुनियोजित तरीके से किया जा रहा नरसंहार। खैर,आप इसे जो भी कहें, ये इन परिवारों के नारकीय जीवन में कोई खास फर्क नहीं पैदा करेगा।

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