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Monday, February 8, 2016

रोहिथ वेमुला की मौत: भाजपा के गले का फंदा!हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्र और आंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएशन के कार्यकर्ता रोहिथ वेमुला की आत्महत्या पर आनंद तेलतुंबड़े का स्तंभ. अनुवाद: रेयाज उल हक


रोहिथ वेमुला की मौत: भाजपा के गले का फंदा

Posted by Reyaz-ul-haque on 2/08/2016 02:09:00 PM




हैदराबाद विश्वविद्यालय में दलित छात्र और आंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएशन के कार्यकर्ता रोहिथ वेमुला की आत्महत्या पर आनंद तेलतुंबड़े का स्तंभ. अनुवाद: रेयाज उल हक 

रोहिथ वेमुला विज्ञान पर लिखने के लिए कार्ल सेगान बनना चाहते थे, मगर उनका यह सपना जाति की भेंट चढ़ गया. लेकिन अपनी मौत में ही यह जनता के उस सपने में तब्दील हो गया कि उन हालात का अंत कर दिया जाए, जो इस सपने के अंत की वजह बने थे. जातिवादी सत्ता प्रतिष्ठान ने रोहिथ को एक भावी डॉक्टर ऑफ फिलॉसफी (पीएच.डी) बनने की प्रक्रिया से बाहर कर दिया, लेकिन वे अपने सुसाइड नोट के रूप में जो मर्मस्पर्शी पंक्तियां अपने पीछे छोड़ गए हैं, वे इस बदनसीब धरती में दलित अस्तित्व के दर्शन की एक बानगी है जो बरसों तक जिंदा रहेगी. भले ही एक बेजमीन दलित मां के इस 26 साल के बेटे ने अपने दोस्तो-दुश्मनों में से किसी को भी दोषी नहीं ठहराया हो, जिसकी बुनियाद पर पर उनकी जिंदगी को निगल लेने वाले जातिवादी गिद्ध अपनी बेगुनाही का दावा पेश करेंगे, लेकिन रोहिथ की मौत ने उनके जातिवादी सोच से पैदा होने वाली आपराधिकता को उजागर कर दिया है.

उनकी मौत ने जिस तरह उनके साथी छात्रों के विरोध को जन्म दिया, जिस तरह इसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल हुआ और जिस तरह की प्रतिबद्धता के साथ उनके शिक्षक उनके साथ खड़े हुए, इसने अहंकारी प्रशासन को रोहिथ के बाकी चार कॉमरेडों के निलंबन को वापस लेने पर मजबूर कर दिया है. लेकिन विद्रोह के जज्बे के साथ रोहिथ के लिए एक सच्ची नैतिक श्रद्धांजली पेश करते हुए, छात्रों ने प्रशासन के इस अटपटे प्रस्ताव को फौरन नकार दिया और अपने संघर्ष को जारी रखने के अपने संकल्प का ऐलान किया, जो आज जब मैं लिख रहा हूं 18वें दिन में दाखिल हो चुका है, और जो भूख हड़ताल का चौथा दिन भी है. उन्होंने यह संघर्ष तब तक जारी रखने का ऐलान किया है जब तक स्मृति ईरानी समेत इसके लिए जिम्मेदार लोगों को सजा नहीं दी जाती. यह सवाल अहम नहीं है कि वे सचमुच में फासीवादी हुकूमत की ताकत के आगे सचमुच टिके रह पाएंगे कि नहीं, बल्कि असल में तो इस हुकूमत के खात्मे के ही आसार दिखने लगे हैं. जिन छात्रों ने अपनी मासूमियत में पिछले चुनावों में भाजपा को जिताने में भारी योगदान दिया था, वे एकजुट होकर इसके जातिवादी और सांप्रदायिक एजेंडे को मजबूती से खारिज कर रहे हैं. देश भर के कैंपसों में भाजपा के छात्र धड़े अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के पूरी तरह अलग-थलग पड़ जाने में दिखाई दे रही है. इसके संकेत भी हैं कि यह विरोध एक मजबूत संगठनात्मक शक्ल भी अख्तियार कर सकता है. रोहिथ की मौत ने वह हासिल कर लिया है, जिसे वे अपनी जिंदगी में हासिल करने में कामयाब नहीं रहे होते.

अपराध उजागर

दलितों के खिलाफ अपराधों की दास्तान हालांकि बहुत पुरानी है, हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय (एचसीयू) में मौजूदा घटना की जड़ें पुलिस में दर्ज कराई गई उस झूठी शिकायत में हैं, जिसमें एबीवीपी के एचसीयू इकाई के अध्यक्ष और इसकी राज्य समिति के सदस्य एन. सुशील कुमार ने आरोप लगाया था कि फेसबुक पर उनके द्वारा आंबेडकर स्टूडेंट्स असोसिएशन (एएसए) को 'गुंडे' कहने पर एएसए के तीस सदस्यों की एक भीड़ ने उनकी पिटाई करके एक माफीनामे पर उनसे दस्तखत कराया है. यह फेसबुक पोस्ट एएसए द्वारा किए गए एक प्रदर्शन पर प्रतिक्रिया थी, जिसमें संगठन ने दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में मुजफ्फरनगर बाकी है फिल्म के प्रदर्शन पर एबीवीपी के हमले की निंदा की थी. उस पोस्ट में 'मैं हिंदू हूं, मैं तुझे थप्पड़ मारूंगा' जैसा उद्दंडता भरा बयान भी था. इस पर नाराजगी जताते हुए एएसए ने सुशील कुमार को घेर कर उससे एक लिखित माफीनामे की मांग की, जिसे उसने एक सुरक्षाकर्मी की मौजूदगी में लिख कर दे दिया. लेकिन अगली सुबह वह एक निजी अस्पताल में भर्ती हुआ, फोटो खिंचवाया और एक पुलिस शिकायत दर्ज करा दी. एचसीयू के प्रॉक्टोरियल बोर्ड ने अपनी जांच में पिटाई का कोई 'ठोस सबूत' नहीं पाया; डॉक्टर और उस सुरक्षाकर्मी ने भी नकारात्मक बयान दिए. लेकिन फिर भी, कुछ अदृश्य गवाहों के आधार पर, बोर्ड ने एक सेमेस्टर के लिए पांच छात्रों के निलंबन की सिफारिश कर दी. खबरों के मुताबिक इसके पीछे भाजपा विधायक रामचंद्र राव और केंद्रीय श्रम राज्य मंत्री बंडारू दत्तात्रेय का दबाव था. राव ने तब के कुलपति प्रो. आर.पी. शर्मा से मुलाकात की थी और दत्तात्रेय ने केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी को चिट्ठी लिखी थी.

शैक्षिक संस्थानों में हिंदुत्व के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए बदनाम हो चुकीं स्मृति ईरानी को लिखी गई दत्तात्रेय की चिट्ठी आखिरकार उस मनहूस सजा की वजह बनी, जिसके नतीजे में रोहिथ की मौत हुई. 50 बरसों से आरएसएस के सदस्य, दो दशकों से प्रचारक, एक बुजुर्ग भाजपा नेता और अटल बिहारी वाजपेयी और मौजूदा मोदी सरकार में राज्य मंत्री दत्तात्रेय ने चिट्ठी में गैर जिम्मेदार तरीके से एचसीयू के खिलाफ शिकायत की थी कि यह एएसए की 'जातिवादी, चरमपंथी और राष्ट्र विरोधी' गतिविधियों का मूक तमाशबीन बन गया है. इस बात के समर्थन में उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि एएसए ने याकूब मेमन की फांसी के खिलाफ विरोध जताया था. और स्मृति ईरानी ने कुलपति को इस पर कार्रवाई करने के संकेत देते हुए चिट्ठी लिखी, जैसा वे पहले भी आईआईटी, मद्रास में आंबेडकर पेरियार स्टडी सर्किल के खिलाफ एक गुमनाम शिकायत के मामले में कर चुकी थीं. इन सिफारिशों के आधार पर, एएसए के पांच सदस्य एक सेमेस्टर के लिए निलंबित कर दिए गए. इसके बाद व्यापक विरोध भड़क उठा, जिसने कुलपति को इस फैसले को वापस लेने और एक नई समिति को जांच सौंपने पर मजबूर किया. इसके बाद प्रो. अप्पा राव नए कुलपति बने जिनका दलित छात्रों को निकालने का दो दशक पुराना इतिहास रहा है और जिनको उनका अपना ही स्टाफ खुलेआम जातिवादी कहने लगा है (द न्यूज मिनट, 22 जनवरी 2016). राव ने फौरन इन पांच छात्रों को होस्टल से निलंबित कर दिया और पुस्तकालय, होस्टल और प्रशासनिक भवन में समूह में दाखिल होने पर पाबंदी लगा दी. मनुस्मृति में अवर्णों (यानी दलितों) के लिए जो सजाएं तय की गई हैं, वे सभी प्रतीकात्मक रूप में इस सजा में निहित थीं.

घिनौनी तिकड़म

यह किसी जातिवादी पदाधिकारी के पूर्वाग्रहों का कोई छिटपुट  मामला नहीं है, न ही एचसीयू में एक दलित छात्र की आत्महत्या का यह पहला मामला है और न ही एचसीयू देश का अकेला विश्वविद्यालय है जहां ऐसी घटनाएं होती हैं. इस देश में जाति का जहर अब भी कायम है, इसको 1950 के दशक से लेकर अभी हाल के 2015 तक में हुए (एनसीएईआर द्वारा किया गया द इंडिया ह्यूमन डेवेलपमेंट सर्वे (आईएचडीएस-2)) अनेक सर्वेक्षणों ने इसे साबित किया है और पिछले कुछ वर्षों में इसकी घटनाओं में शायद इजाफा ही हुआ है, जिसकी क्रूर झलक अत्याचारों के रूप में दिखाई देती है. (राष्ट्रीय अपराध शोध ब्यूरो के मुताबिक अत्याचार 2001 के 33507 से बढ़ कर 2014 में 47,064 हो गए हैं). इसकी वजह नवउदारवाद के सामाजिक डार्विनवादी कायदे में देखी जा सकती है, जिसने कीन्सीय अर्थशास्त्र द्वारा बनाए गए कल्याणकारी आदर्श को बेदखल कर दिया है. ऊपर से भले यह जाहिर न हो, लेकिन इसी का सामाजिक नतीजा यह है कि देश में हिंदुत्व ताकतों का उभार हुआ है, जिसका सबूत 1980 के दशक में हाशिए पर पड़ी भाजपा का केंद्र में राजनीतिक ताकत का दावेदार बन जाना है. पहले जहां जाति व्यवस्था के बारे में ढंके-छुपे सुर में बातें होती थी, वहीं अब खुलेआम उन पर अकड़ के साथ बातें की जाती हैं और उन्हें जायज ठहराया जाता है. हिंदू धार्मिकता को पिछड़ेपन की निशानी माना जाता था, अब उसे अध्ययन-अध्यापन से जुड़े तबके द्वारा भी कलाई में बंधे सिंदूरी धागों और ललाट पर कुमकुम के चिह्न के साथ गर्व से दिखाया जाता है.

यह वो ब्राह्मणवादी उभार है, जो दलित अध्येताओं को आत्महत्या करने की तरफ धकेल रहा है. एचसीयू की ही बात करें तो 1970 में इसकी स्थापना से लेकर अब तक 12 दलित अध्येताओं की आत्महत्या की खबरें हैं, लेकिन उनमें से ज्यादातर (8) पिछले एक दशक में हुई हैं; रोहित की आत्महत्या नौवीं है. भौतिकी में पीएच.डी. कर रहे सेंथिल कुमार (2008), तेलुगु साहित्य में पीएच.डी. कर रहे आर. बलराज (2010), हाई एनर्जी मटेरियल्स में पीएच.डी. कर रहे मादरी वेंकटेश (2013) और अप्लाइड भाषाविज्ञान में स्नातकोत्तर छात्र पुल्यला राजु उनमें से कुछ नाम हैं, जो आसानी से याद आते हैं क्योंकि उनके मामलों की समितियों ने जांच की थी जिन्होंने इसकी तरफ ध्यान दिलाया था कि व्यापक जातीय भेदभाव इन आत्महत्याओं की वजह हो सकता है. लेकिन वे जातिवादी प्रशासन को संवेदनशील बना पाने में नाकाम रहे. इसके उलट, प्रशासन को इन भेदभावों को कायम रखने के लिए और बढ़ावा ही दिया गया, जाहिर है कि उन्हें इसके लिए सत्ताधारी दक्षिणपंथी ताकतों से हौसला मिलता है.

तब सवाल उठता है कि दक्षिणपंथी सरकार दलितों के प्रतीक बाबासाहेब आंबेडकर के प्रति कुछ ज्यादा ही प्यार जताते हुए दलितों को लुभाने की जो बेतहाशा कोशिशें कर रही है, उसके साथ कैसे इन सबका तालमेल बैठ सकता है? इसे समझना मुश्किल नहीं है. वह अपने हिंदुत्व के एजेंडे को पूरा करने के लिए दलितों को चाहती है लेकिन उसे रेडिकल दलित नहीं चाहिए, जो उसके खेल को बिगाड़ सकते हैं. आंबेडकर के स्मारक बना कर या फिर उनकी 125वीं जन्मशती को जोर-शोर से मना कर वह उम्मीद करती है कि यह सीधी-सादी दलित जनता को अपने लिए वोट डालने के लिए बेवकूफ बना सकती है. लेकिन रेडिकल बन चुके कुछेक रोहिथ इसके सपनों को चूर चूर कर सकते हैं. यह बदकिस्मती है; दलित यह नहीं समझते कि आंबेडकर चाहते थे कि उनके अनुयायी प्रबुद्ध दलित बनें न कि भजन गाने वाले भक्त. इसीलिए आंबेडकर ने प्राथमिक शिक्षा से ज्यादा उच्च शिक्षा पर जोर देने का जोखिम उठाया, क्योंकि उन्होंने देखा कि सिर्फ यही लोगों में आलोचनात्मक सोच को विकसित कर सकती है और प्रभुत्वशाली तत्वों के जातीय पूर्वाग्रहों के खुले खेल के खिलाफ खड़े होने की नैतिक ताकत मुहैया करा सकती है. सरकार आंबेडकर के जयकारे लगा रही है और दूसरी ओर आंबेडकर की मशाल को संभावित रूप से आगे बढ़ाने वालों को कुचल रही है. हिंदुत्व खेमे की रणनीति दलितों में से आम लोगों का ब्राह्मणवादीकरण करना और रेडिकल दलितों को बुराई की जड़ के रूप में पेश करना है. जिस तरह असहमत मुसलमान नौजवानों को आतंकवादी के रूप में पेश किया जा रहा है, दलित-आदिवासी नौजवानों पर चरमपंथी, जातिवादी और राष्ट्र-द्रोही का ठप्पा लगाया जा रहा है. भारतीय जेलें ऐसे बेगुनाह नौजवानों से भरी हुई हैं, जो देशद्रोह और गैरकानूनी गतिविधियों के संदिग्ध आरोपों में बरसों से कैद हैं. समरसता के लबादे में जाति की पट्टी आंखों पर बांधे हिंदुत्व ताकतें दलितों पर बेधड़क जुल्म करती रह सकती हैं. मौत इस जुल्म से छुटकारा पाने का प्रतीक है और जिंदगी इसको सहते जाने का.

राजनीतिक चेतावनियां

रोहिथ की मौत ने भगवा सत्ता प्रतिष्ठान की अनेक परतों वाली नाइंसाफी को उजागर किया है. पूरा छात्र समुदाय, बेशक एबीवीपी को छोड़ कर, फौरन हिंदुत्व की गुंडागर्दी की आलोचना करने के लिए सड़कों पर उतर आया. इसने दलित नेताओं के चेहरे भी उजागर किए, जो ऐसी भारी नाइंसाफी के सामने, अपने राजनीतिक आकाओं के खिलाफ मुंह खोलने तक में नाकाम रहे. उनके हाथों बेवकूफ बन कर हिंदुत्व ताकतों को वोट देने वाले दलितों की आंखें खुल रही हैं और वे धीरे धीरे अपनी गलती को देख रहे हैं. जाति भारत की प्राचीन संस्कृति है, जो हिंदुत्व ताकतों की चाहत है. दलित जिसे भेदभाव कहते हैं, वह हिंदुत्व के लिए स्वाभाविक बात है. अपनी राजनीतिक रणनीति के लिए एक तिकड़म के रूप में उन्होंने भले ही इसको छुपा कर रखा हो, लेकिन यह हर रोज अनेक तरीकों से उजागर होता रहता है. लखनऊ विश्वविद्यालय में बोलते हुए प्रधानमंत्री ने रोहित की मौत को बस एक मां का नुकसान बताया और फिल्मी अंदाज में मगरमच्छ के आंसू बहाए. भारी राजनीतिक विरोध के बावजूद, उन्होंने अपने खुद के मंत्रियों की करतूतों पर चुप्पी साधे रखी, जिन्होंने रोहिथ को मौत की कगार पर पहुंचा दिया. स्मृति ईरानी ने अपनी खास नाकाबिलियत के तहत यह झूठ बोलते हुए पूरे एचसीयू की घटनाओं के लिए दलितों को ही कसूरवार ठहराने की कोशिश की कि एक दलित प्रोफेसर उस उपसमिति के अध्यक्ष थे, जिसने सजा की सिफारिश की थी. इससे उत्तेजित एचसीयू के सभी दलित शिक्षकों ने सामूहिक रूप से अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारियों से सामूहिक रूप से इस्तीफा दे दिया. एक दिन पहले, एचसीयू के शिक्षकों की संस्था ने सजा को वापस लिए जाने तक कुलपति के इस आग्रह को मुखरता से ठुकरा दिया कि क्लासों को बहाल किया जाए. कुलपति को मुंह की खानी पड़ी और निलंबन को वापस लेना पड़ा. प्रधानमंत्री ने अपने कुनबे के गुनाहों को रफा-दफा करने की एक और कोशिश करते हुए पूरे मामले की जांच के लिए न्यायिक आयोग के गठन का ऐलान किया. जनता की निगाहों से ये सब चीजें छुपी हुई नहीं रहेंगी. अपनी उद्दंडता के ब्राह्मणवादी गर्व में अंधी भाजपा नहीं देख पा रही है कि रोहिथ का फंदा उसके गले में भी कसता जा रहा है.
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