THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, January 31, 2012

सामाजिक न्याय का पैमाना

सामाजिक न्याय का पैमाना


Tuesday, 31 January 2012 09:37

मृणालिनी 
जनसत्ता 31 जनवरी, 2012: मस्तराम कपूर ने 'योग्यता पर नई बहस' (जनसत्ता, 6 जनवरी) लेख में तर्क और तथ्य दोनों गलत पेश किए हैं। यह उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है। इस लेख में एक भी बिंदु ऐसा नहीं है, जिससे इसे नई बहस की शुरुआत माना जाए। पहले तो यही समझ नहीं आता कि प्रिंस्टन विश्वविद्यालय के छात्र द्वारा लिखा गया वह लेख, जिसका जिक्र उन्होंने शुरू के तीन पैराग्राफ में किया है, किस तरफ जाता है। हां, उन्होंने अपनी उन्हीं बातों को दोहराया है, जिनसे वे जाति, जाति-वैमनस्य और इसी की ढाल में जाति-गणना को मजबूत करने के लिए इधर साल-दो साल से बार-बार दोहरा रहे हैं।
सबसे पहले उन्होंने तर्क दिया है कि क्रीमी लेयर के सिद्धांत को लागू करने से, आरक्षित पदों को अनारक्षित घोषित करके ऊंची जातियों के हिस्से में शामिल किया जाता है। जबकि आरक्षित पदों को अनारक्षित घोषित करने की व्यवस्था बीस बरस पहले ही खत्म कर दी गई है। आरक्षित पद को अब केवल आरक्षित व्यक्ति से भरा जा सकता है। अगर मैरिट-मानदंडों को अंतिम स्तर तक कम करने के बावजूद आरक्षित श्रेणी के उम्मीदवार नहीं मिलते तो उन्हें अगले वर्ष की आरक्षित सीटों में शामिल किया जाता है। 
सुप्रीम कोर्ट और संसद द्वारा स्वीकृत क्रीमी लेयर सिद्धांत को लेखक ने विचित्र और सवर्णों की तिकड़म कहा है। दरअसल, क्रीमी लेयर का विचार आरक्षित वर्ग के बुद्धिजीवियों, नौकरशाहों और नेताओं ने मिल कर सरकार को सुझाया था। इसका कारण यह था कि बडेÞ नगरों में रहने वाले जो लोग सरकार की आरक्षण नीति के कारण पिछले पचास वर्षों में विशेष पदों तक पहुंच चुके हैं, उनके बच्चों को यह लाभ उन्हीं की जाति के गरीबों के हितों की खातिर नहीं दिया जाना चाहिए। इस नीति में यह कहीं भी नहीं प्रतिध्वनित होता है कि पंद्रह प्रतिशत, साढेÞ सात प्रतिशत या सत्ताईस प्रतिशत से इन वर्गों का कोटा कम किया जाएगा। 
उद््देश्य सिर्फ इतना था कि बुंदेलखंड, झारखंड, असम या मणिपुर के सुदूर गांवों के उन गरीबों तक भी आरक्षण का लाभ पहुंच सके। क्या चाणक्यपुरी में रहने वाले अमीरों के बच्चों के साथ प्रतियोगिता में एटा, समस्तीपुर, सीतामढ़ी या त्रिपुरा के गरीब दलितों को तो छोड़ो, दिल्ली की खिचड़ीपुर, नंदनगरी बस्ती का रहने वाला दलित भी आगे आ सकता है? 
क्रीमी लेयर के पूरे समाजशास्त्र को विस्तार से जानने के लिए प्रसिद्ध चिंतक धीरूभाई शेठ की किताब 'सत्ता और समाज' देख सकते हैं। धीरूभाई पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य रहे हैं और उन्हें किसी भी कोण से सवर्णों का हिमायती नहीं माना जा सकता। इस पुस्तक में उन्होंने आंकड़ों के साथ पुरजोर वकालत की है कि अगर क्रीमी लेयर और आरक्षण नीति पर सरकार स्पष्टता से आगे नहीं बढ़ती तो ऊपर से रिस कर गरीबों तक आरक्षण का लाभ कभी नहीं पहुंचेगा। 
हाल में, सुनील जैन और राजेश की एक महत्त्वपूर्ण किताब बिजनस स्टैंडर्ड प्रकाशनसे आई है, 'कास्ट इन डिफरेंट मोल्ड'। इस पुस्तक में ढेरों तथ्यों के साथ यह बताया गया है कि एससी, एसटी की आर्थिक स्थिति, शिक्षा आदि पूरे देश में न समान है और न केवल जाति पर निर्भर है। देश के अलग-अलग हिस्सों में उसके अनेक रूप हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश के सवर्ण की वार्षिक आय कर्नाटक, तमिलनाडु के दलित से भी कम होती है। बिहार के गैर-आरक्षित वर्ग की औसतन प्रतिवर्ष आय जहां तिरालीस हजार रुपए है, वहीं पंजाब के दलित की तिरसठ हजार और कर्नाटक के आदिवासी की बासठ हजार रुपए।
जाहिर है, विभिन्न राज्यों में जातियों की शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में फर्क है। राज्यों की आर्थिक स्थिति और सुव्यवस्था से भी गरीब दलितों का उत्थान जुड़ा हुआ है। जातियों की स्थिति में सिर्फ क्षेत्रीय फर्क नहीं है। हर जाति के भीतर संपन्न और वंचित दोनों हैं और यह फर्क बढ़ता जा रहा है। लिहाजा, सामाजिक न्याय के बारे में सोचते समय भारतीय समाज में आए इन बदलावों को ध्यान में रखा जाना चाहिए। पिछड़ेपन का केवल जाति का पैमाना पर्याप्त नहीं है। 
कितना बड़ा मजाक है कि गरीबी रेखा का मापदंड प्रतिव्यक्ति रोजाना पैंतीस रुपए है, वहां क्रीमी लेयर के लिए इसे लगभग पचीस सौ-अट््ठाईस सौ रुपए प्रतिदिन का (दस लाख रुपए प्रतिवर्ष करने का) प्रस्ताव विचाराधीन है। क्या गरीबी रेखा वाले दलित-पिछडेÞ सत्तर-अस्सी गुना ज्यादा के आयवर्ग से मुकाबला कर सकते हैं? लेकिन सवर्णों का बोलना तिकड़म माना जा सकता है। इसलिए स्वयं दलित, पिछडेÞ या उनके पैरवीकार सामने आकर अपनी ही जातियों के लिए रास्ता छोडेंÞ तभी इनका भला संभव है। क्रीमी लेयर के भाइयों को चाहिए कि जाति की मौजूदा स्थितियों को बनाए रखते हुए फिलहाल बराबरी की खातिर अपने ही जाति-भाइयों को लाभ पहुंचने दें। 
एक भयंकर तथ्यात्मक गलती मस्तराम कपूर के लेख में यह है: 'एससी-एसटी-ओबीसी उम्मीदवार को सामान्य श्रेणी के अंकों में परीक्षा पास करने के बावजूद


आरक्षित कोटि में डाल दिया जाता है, जिसके कारण आरक्षित श्रेणी के पद घट जाते हैं।' 
यह कथन न नियमों से मेल खाता है, न संघ लोकसेवा आयोग, कर्मचारी चयन आयोग की प्रणालियों से। अब तो सूचनाधिकार के तहत संघ लोकसेवा आयोग जैसी संस्थाओं से जानकारी मांगी जा सकती है या इंटरनेट पर जाकर उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में देख सकते हैं कि पिछले वर्षों में कितने एससी-एसटी कर्मचारी चुने गए और किसने किसका हक मारा। 
नियम यह है कि अगर   सामान्य श्रेणी के अंतिम उम्मीदवार के नंबर सौ में से पचास आए हैं तो पचास से ऊपर जो एससी-एसटी और ओबीसी हैं, उन्हें अपनी मैरिट पर चुना माना जाएगा। आरक्षित पदों के लिए पचास नंबर से नीचे मैरिट में जाते हैं। इस प्रक्रिया में सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार उसी अनुपात में कम होते जाते हैं। संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सिविल सेवा परीक्षा-2007 में कुल छह सौ अड़तीस उम्मीदवार चुने गए। इसमें जहां सामान्य श्रेणी के दो सौ छियासी थे, वहीं आरक्षित तीन सौ बावन (एससी-109, एसटी-53, ओबीसी-190)। 2008 में चुने गए कुल सात सौ इक्यानवे में सामान्य उम्मीदवारों की संख्या तीन सौ चौंसठ थी और आरक्षित की चार सौ सत्ताईस। 
सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई पचास प्रतिशत की सीमा के बावजूद दोनों बरसों में लगभग पचपन प्रतिशत आरक्षण दिया गया। यानी 2007 में छियासठ और 2008 में तिरसठ अफसर अपने आरक्षित कोटे से ज्यादा लिए गए। यह इसलिए कि जो दलित-ओबीसी उम्मीदवार सामान्य श्रेणी में पास कर लेते हैं, उन्हें आरक्षण में नहीं गिना जाता। आरक्षण उसके बाद शुरू होता है। कर्मचारी चयन आयोग से लेकर संघ लोकसेवा आयोग और राज्यों की सभी सेवाओं की परीक्षाओं में भारत सरकार के कार्मिक विभाग के आदेशों के अनुसार ऐसा हो रहा है। 
यह अच्छी बात है कि पिछले बीस-तीस वर्षों में ऐसे आरक्षित उम्मीदवारों की संख्या लगातार बढ़ रही है और उसी अनुपात में सामान्य कम होते जा रहे हैं। लेकिन मस्तराम जी क्यों इसे नजरअंदाज करके भिन्न तस्वीर पेश कर रहे हैं? पदोन्नति के संदर्भ में उन्होंने सवर्णों द्वारा जान-बूझ कर दलित-पिछड़ों की गोपनीय रिपोर्ट को खराब करने का मुद्दा भी उठाया है। पहले यह गोपनीय रही होगी, पिछले कई वर्षों से इसे गोपनीय रिपोर्ट के बजाय वार्षिक मूल्यांकन रिपोर्ट कहा जाता है। 
हर कर्मचारी अपनी इस रिपोर्ट को वेबसाइट पर देख सकता है। हर तीसरे वाक्य में उच्च जातियों की तिकड़म व्यवस्था, छोटी जातियों के प्रति अत्याचार का रोना रोने के बजाय किसी भी विभाग से पूछ कर पता किया जा सकता है कि जिनकी रिपोर्ट खराब हुई, वह सवर्ण जाति ने की या दूसरे वर्गों ने उसी अनुपात में? सवर्ण तो अब भूल कर भी ऐसी जुर्रत नहीं कर सकते हैं, क्योंकि मामला कई आयोगों में उन्हें झगड़ों की तरफ ले जाता है। सरकारी कर्मचारी के लिए सरकार डूब जाए कोई हर्ज नहीं, लेकिन उसका व्यक्तिगत नुकसान नहीं होना चाहिए और यही हो रहा है। कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे माहौल में धीरे-धीरे सरकारी स्कूल डूब गए या डूबते जा रहे हैं। सरकारी अस्पताल गए, एअरलाइंस अस्पताल में भर्ती है और सुना है एक और बडेÞ विभाग, भारतीय रेल की भी स्थिति कुछ अच्छी नहीं है। 
इस बात की पड़ताल की जानी चाहिए कि पिछले बीस वर्षों में ये सरकारी विभाग वैश्वीकरण या उदारीकरण की नीतियों से डूबे या आरक्षण की ऐसी बहसों, मुकदमेबाजियों की तनातनी और परस्पर वैमनस्य से। आग भड़काऊ दलीलों से आखिर फायदा उन्हीं पूंजीपतियों को पहुंचेगा जो सरकारी जगह लेना चाहते हैं। अगर सरकारें खत्म हुर्इं तो सबसे ज्यादा अहित होगा दलितों और पिछडेÞ वर्ग के गरीबों का। याद दिलाने की जरूरत नहीं कि अगर लोहिया आज जीवित होते तो मौजूदा आरक्षण नीति की समीक्षा की मांग जरूर करते। हर तीसरी पंक्ति में जाति का वर्चस्व, उनकी तिकड़म! भ्रष्टाचार का मैल कितने सालों में धुलेगा? लोहिया के शब्दों को याद करें तो भूखी कौम पांच साल इंतजार नहीं करती। इस मैल को तो सन 1960 तक ही दूर हो जाना चाहिए था। फिर पचास साल में क्यों नहीं दूर कर पाए और पिछले बीस वर्षों से तो उत्तर प्रदेश, बिहार में सत्ता सवर्णों के पास नहीं है। 
निष्कर्ष यह है कि आरक्षण के हिमायतियों को भी अपने चश्मे के नंबर बदलने की जरूरत है, जिससे कि आरक्षण और योग्यता-वरीयता की बहसों से परे जाकर पूरे समाज की खातिर ये सरकारी विभाग अपनी दक्षता के बूते दम ठोंक कर निजीकरण के खिलाफ खडेÞ हो सकें। आखिर क्या कारण है कि आरक्षण जैसे शब्द के पीछे सारे देश की विधायिका, राजनीति और उसके साथ-साथ मस्तराम जैसे विचारक भी पूरी ताकत से लगे हुए हैं, लेकिन समान शिक्षा या अपनी भाषा या इन सरकारी विभागों की दक्षता को लेकर एक आवाज सुनने को नहीं मिलती है। शायद इन सभी मुद््दों पर ठहर कर सोचने की जरूरत है।

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