THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, July 22, 2012

प्रणव दा जवाब नहीं

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प्रणव दा जवाब नहीं

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प्रणव मुखर्जी की जीत के बाद अगर सिर्फ यह कहें कि पूर्णो संगमा प्रणव मुखर्जी से परास्त हो गये तो यह आधी खबर होगी. खबर पूरी तब होगी जब यह कहेंगे कि राष्ट्रपति चुनाव में यूपीए ने एनडीए और कांग्रेस ने भाजपा को भी परास्त कर दिया है. राष्ट्रपति चुनाव अगर राजनीति रण में लड़ा गया है तो इस रण में भाजपा, एनडीए और संगमा सभी परास्त हुए हैं. जिस अंदाज में प्रणव मुखर्जी और कांग्रेस के रणनीतिकारों ने राष्ट्रपति चुनाव का प्रबंधन किया है उसे देखकर यह कहे बिना कोई रह नहीं सकता कि प्रणव दा जवाब नहीं. विरोधियों को ध्वस्त करते हुए प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति भवन तक पहुंच गये और विरोधी अंत तक अपनी जमीन ही खोजते रह गये जहां खड़े होकर वे लड़ाई लड़ सके.

शाम साढे चार बजे तक वोटो की गिनती चल ही रही थी कि संसदीय कार्य राज्यमंत्री राजीव शुक्ला ने संसद भवन में ही जानकारी दी कि प्रणव मुखर्जी की जीत के लिए जरूरी वोट उन्हें हासिल हो चुके हैं. उस वक्त तक जितनी मतगणना हुई थी उसके मुताबिक प्रणव मुखर्जी को जीत के लिए जरूरी पांच लाख बाइस हजार से अधिक पांच लाख अट्ठावन हजार मत हासिल हो चुके थे. वह भी तब जबकि देश के सबसे बड़े प्रदेश उत्तर प्रदेश के बैलेट बाक्स ही नहीं खुले थे जहां पक्ष और विपक्ष दोनों ही प्रणव मुखर्जी के साथ खड़ा था. जाहिर है, जीत इतनी बड़ी हो गई जितनी उम्मीद प्रणव मुखर्जी ने भी नहीं की होगी.

प्रणव मुखर्जी कुछ सशंकित थे. संगमा की दावेदारी और कांग्रेस की आंतरिक राजनीति को प्रणव मुखर्जी से बेहतर कौन समझ सकता है. शायद यही कारण है कि दावेदारी से पहले और बाद में भी उन्होंने अपनी जीत को पक्का नहीं माना था. हो सकता है उन्हें कुछ ऐसी सूचनाएं हों जो उन्हें आशंकित कर रही हों. शायद यही कारण है कि मुलायम और मायावती जैसे समर्थकों के बाद भी उन्होंने औपचारिक प्रचार नहीं किया. वे जहां गये शिद्दत से अपने लिए वोट मांगा. उन ममता बनर्जी से भी जो उनकी दावेदारी का विरोध कर चुकी थी. मुलायम की पटखनी के बाद हालांकि ममता बनर्जी ने एन वक्त पर प्रणव मुखर्जी को समर्थन दे दिया लेकिन प्रणव मुखर्जी ने कहीं से ममता बनर्जी को यह संकेत नहीं दिया कि दादा की जीत के लिए दीदी के समर्थन की कोई बहुत जरूरत नहीं है. वे अंत तक ममता बनर्जी के प्रति मुलायम ही बने रहे.

शायद यह प्रणव मुखर्जी की कार्यशैली रही है कि बिना पूरी जीत हासिल किये वे अपना धैर्य नहीं खोते हैं. अगर आपकी याददाश्त में हो तो जरा याद करिए अन्ना का रामलीला मैदान का अनशन जब एक तरफ संसद में लोकपाल पर बहस चल रही थी और दूसरी ओर अन्ना हजारे रामलीला मैदान में डटे हुए थे. केवल राजनीतिक वर्ग ही नहीं बल्कि मीडिया भी अपना धैर्य खोता जा रहा था. तमाम उतार चढ़ाव आ रहे थे लेकिन आखिरी वक्त तक प्रणव मुखर्जी डटे रहे बिना धैर्य गंवाए. शायद उनकी इसी खूबी की वजह से उनकी छवि संकटमोचक की बन गई. और अब इस संकटमोचक ने अपने आपको सभी राजनीतिक संकटों से ऊपर उठाते हुए रिकार्ड मतों से जीत के साथ वहां पहुंचा दिया जहां पहुंचने के बाद अब वे देश के सर्वोच्च नागरिक हो गये हैं.

1969 में इंदिरा गांधी के इशारे पर राजनीतिक यात्रा शुरू करनेवाले प्रणव मुखर्जी को इंदिरा के इतने करीबी लोगों में गिना जाता था कि आपातकाल के दिनों में भी प्रणव मुखर्जी ही इंदिरा गांधी के सबसे विश्वसनीय सिपहसालार होते थे. प्रणव मुखर्जी के राजनीतिक जीवन में आपातकाल एक ऐसा दाग है जिसे वे चाहें भी तो नहीं धो सकते हैं. आज प्रणव मुखर्जी भले ही सेनाओं के सर्वोच्च कमाण्डर हो गये हों लेकिन उस वक्त वे सिर्फ इंदिरा गांधी के कमाण्डर थे और इंदिरा गांधी की खुशी के लिए उन्होंने आपातकाल को सख्ती से लागू करने में उनकी पूरी मदद भी की. लेकिन यह भी क्या कम राजनीतिक कौशल है कि आपातकाल के विरोध से राजनीतिक नौजवान पैदा हुए थे उसमें से नीतीश कुमार और शरद यादव ने उन्हीं प्रणव मुखर्जी के लिए एनडीए को अंगूठा दिखा दिया जिन्हें शायद सिर्फ इसी एक तर्क पर प्रणव मुखर्जी को वोट नहीं करना चाहिए था क्योंकि प्रणव मुखर्जी आपातकाल के शिल्पकारों में रहे हैं. 

लेकिन नीतीश या शरद जिस एनडीए का हिस्सा हैं उस एनडीए की ही राजनीति इतनी उदासीन हो चली है कि दलों के समुच्चय से सत्ता के शिखर को छूने का प्रयोग अब उसी भाजपा को नहीं भा रहा है जिसकी शुरूआत उसके राजनीतिक आका अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी. संघ विचार और राजनीतिक व्यवहार में इतने विरोधाभाष पैदा हो गये कि एनडीए दलों का दलदल बनता जा रहा है. अगर एनडीए सचमुच राजनीतिक विकल्प होता तो वह कभी भी पीए संगमा को सपोर्ट नहीं करता. विरोध की राजनीति यह थी कि यूपीए का उम्मीदवार आने से पहले ही एनडीए अपना उम्मीदवार मैदान में उतार देता. उहापोह की स्थिति में एनडीए के घटक दल हारने के लिए ही सही, एक अदद उम्मीदवार भी नहीं खोज सके. लेकिन जब प्रणव मुखर्जी की दावेदारी सामने आ गई और एनडीए के ही कुछ घटक दलों प्रणव दा का समर्थन कर दिया तब भाजपा ने पीए संगमा को सपोर्ट करके दूसरी बड़ी राजीनतिक गलती कर दी. भाजपा को समझना चाहिए कि न तो डूबते सूरज को सलाम किया जाता है और न ही हारते उम्मीदवार को वोट दिया जाता है. भला कौन ऐसा भला मानुष होगा जो अपने वोट की कमाई दरिया में डुबो आयेगा? एनडीए के सबसे बड़े भाजपा नहीं वही किया.

अगर आप पूरे राष्ट्रपति चुनाव के घटनाक्रम को देखें तो समझते देर नहीं लगेगी कि कांग्रेस और खुद प्रणव मुखर्जी ने यह चुनाव बहुत राजनीतिक तरीके से लड़ा है. सहयोगी दलों में एका करने, उनका पेट भरने के साथ ही विरोधी दलों को भी बिखरने के दांव चले गये. कांग्रेस की ओर से राजनीतिक प्रबंधन कर रहे कुछ शीर्ष के लोगों ने अपने अपने संपर्कों का इस्तेमाल करके राजनीतिक रूप से फूट डालने और विरोधियों को हवा हो जाने की योजनाओं को भी अंजाम दिया. चुनाव परिणाम इसके गवाह हैं. कर्नाटक में जमकर क्रास वोटिंग हुई, और प्रणव मुखर्जी को संगमा से ज्यादा वोट मिल गया जबकि वहां भाजपा की सरकार है. जिस झारखण्ड में भाजपा शिबू सोरेन के साथ मिलकर सरकार चला रही है वहां भी संगमा से तीन गुना अधिक वोट प्रणव मुखर्जी को मिला है. साफ तौर पर दिख रहा है कि सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी शॉल ओढ़कर प्रणव मुखर्जी निश्चिंत नहीं हुए. जीत की देहरी चूमने के लिए उन्होंने और उनके लिए काम कर रहे राजनीतिक पंडितों ने पूरा पूरा काम किया और मनमाफिक अंजाम हासिल कर लिया.

अब जबकि प्रणव मुखर्जी राष्ट्रपति भवन के लॉन में मार्निंग वाक करने की संसदीय अनुमति पा चुके हैं तब कांग्रेस के अंदर के राजनीतिक समीकरण क्या बनेंगे या बिगड़ेंगे इससे बड़ा सवाल यह होगा कि एनडीए इस राजनीतिक हार की शर्म कैसे छिपाएगी? अगर एनडीए में बैठे राजनीतिक पंडितों की यही राजनीतिक समझ और कौशल है तो तय मानिए कि कांग्रेस के एकला पसंद बना लेने के अलावा देश के नागरिकों के पास और कोई विकल्प नहीं होगा. प्रणव की जीत और पूर्णों की हार में यही संदेश छिपा है. मिराती के इस मानुष के लिए एनडीए बाराती बनने को तैयार हो जाती तो इसका एक अच्छा राजनीतिक संदेश जरूर जाता कि राजनीति सिर्फ विरोध के लिए विरोध का नाम नहीं होता है. एनडीए की इन भूलों की वजह से न सही लेकिन अपने राजनीतिक कौशल की वजह से प्रणव मुखर्जी अपनी राजनीतिक यात्रा के उस पराकाष्ठा पर पहुंच गये हैं जिसके बाद और कोई शिखर बचता नहीं है. भला कौन है जो उन्हें बधाई नहीं देना चाहेगा?

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