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THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, July 29, 2013

आदिवासी साहित्य को अपने मानकों से न परखें : सुखदेव थोराट

आदिवासी साहित्य को अपने मानकों से न परखें : सुखदेव थोराट

[B]आदिवासियों द्वारा लिखा जा रहा साहित्य ही आदिवासी साहित्य - वंदना टेटे : आदिवासी के उन्नयन के लिए लिखा जा रहा साहित्य  आदिवासी साहित्य है, चाहे कोई भी लिखे - संजीव[/B] : सोमवार, 29 जुलाई को असुर लेखिका सुषमा असुर द्वारा सृष्टि और पुरखों के मंत्रोच्चार के साथ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में 'आदिवासी साहित्‍य:स्‍वरूप और संभावनाएं' विषयक संगोष्ठी का आरंभ हुआ. दो दिनों तक चलने वाली इस संगोष्ठी के पहले दिन उद्घाटन सत्र में यूजीसी के पूर्व अध्यक्ष सुखदेव थोराट ने कहा कि हमारा समाज आदिवासियों की समस्याओं के बारे में नहीं जानता. हमें आदिवासियों के बारे में जानने की जरूरत है, जो कि साहित्य के जरिए ही संभव है. उन्होंने आगे कहा कि अब तक वंचित-दलित साहित्य को आलोचकों ने नकारा है और उन्हें मुख्यधारा के मानकों के हिसाब से परखने की कोशिश की है. जबकि आदिवासी समुदाय उन मानदंडों की परवाह नहीं करता. उन्होंने कहा कि आदिवासी साहित्य के साथ आदिवासी समुदाय को समझे जाने की जरूरत है.

जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र द्वारा आयोजित इस संगोष्ठी को संबोधित करते हुए विवि के कुलपति एस.के. सोपोरी ने कहा कि अब तक आदिवासियों की अनदेखी होती आई है. इस स्थिति को खत्म करना है और आदिवासी समाज के सामने समक्ष चुनौतियों को समझने की जरूरत है. इसमें साहित्य मददगार होगा. भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष प्रो. रामबक्ष ने इस मौके पर कहा कि साहित्य में आदिवासी और दूसरे वंचित तबकों से जुड़े विमर्शों को उठाने की जरूरत है.

उद्घाटन सत्र को संबोधित  करते हुए झारखंड से आईं  आदिवासी कार्यकर्ता और लेखिका वंदना टेटे ने इसे परिभाषित करने की कोशिश की कि आदिवासी साहित्य किसे कहा जाए. उन्होंने कहा कि आदिवासियों द्वारा लिखे गए साहित्य को ही आदिवासी साहित्य कहा जाना चाहिए. आदिवासियों के बारे में जो साहित्य गैर आदिवासियों द्वारा रचा जा रहा है, उसे आदिवासी समुदाय पर केंद्रित शोधकार्य माना जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि आदिवासियों को मुख्यधारा में लाने की बातें बहुत कही जाती हैं, लेकिन जब कोई आदिवासी हिंदी में साहित्य लिखता है तो उसे नकार दिया जाता है. टेटे ने आदिवासी और गैर आदिवासी नजरियों के अंतर को भी रेखांकित किया. उन्होंने कहा कि आदिवासियों की दृष्टि अपने जीवन और संसाधनों को बचाने की रहती है जबकि गैर आदिवासियों की दृष्टि उन पर कब्जा करने की होती है.

जेएनयू के समाजशास्त्री प्रो. आनंद कुमार ने उद्घाटन सत्र के अपने संबोधन में कहा कि इस संगोष्ठी की जिम्मेदारी है कि वह आदिवासी साहित्य के स्वरूप को लोगों के सामने लाए. उन्होंने कहा कि वंचित समाज की कथा की धुरी आदिवासी समाज में है. उन्होंने इस पर जोर दिया कि आदिवासी साहित्य पर बात करते हुए आधुनिकता को कहीं छोड़ना नहीं चाहिए और कहा कि आदिवासी साहित्य में व्यक्त असंतोष, अभावों और अविश्वास के स्वर को समझने की जरूरत है.

आयोजन के पहले दिन, आदिवासी साहित्य के स्वरूप और सौंदर्य पर पर केंद्रित पहले सत्र में भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार प्राप्त युवा कवि अनुज लुगुन ने कहा कि आदिवासी समाज को इस तरह नहीं देखना चाहिए कि यह आदिम और पिछडा समाज है. उन्होंने कहा कि हमारी दृष्टि यह होनी चाहिए कि इतिहास में समाज दो अलग अलग दिशाओं में विकसित हुए. इनमें एक में प्रकृति को साथ लेकर चला गया जबकि दूसरे में उसका शोषण किया गया. लुगुन ने कहा कि यह सोच गलत है कि आदिवासी समाज ठहर गया है और इसका विकास नहीं हो पाया. आदिवासी समाज में भी कृषि का विकास हुआ, आजीविका के दूसरे तरीकों का विकास हुआ.

इसी सत्र को संबोधित करते हुए डामू ठाकरे ने कहा कि आदिवासियों का साहित्य मौखिक साहित्य रहा है और नई पीढ़ी उसे लिखित रूप दे कर लोगों के सामने ला रही है. जवाहर लाल बांकिरा ने अपने संबोधन में आदिवासी धर्म में जीवसत्तावाद को रेखांकित किया और कहा कि आदिवासी प्रकृति में अतिमानवीय शक्ति को मानते और पूजते रहे हैं. लेखिका सुषमा असुर ने एक महत्वपूर्ण प्रश्न पेश किया कि आदिवासी जिंदा रहने के लिए लड़ें या साहित्य को बचाने के लिए. उन्होंने कहा कि आदिवासी अपने संसाधनों और जीवन को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं और साहित्य को भी इसी तरह बचाया जा सकता है.

जोवाकिम तोपनो ने मुंडारी भाषा और इसकी शाब्दिक समृद्धि के विभिन्न आयामों पर रोशनी डाली. श्यामचरण टुडू ने संथाल साहित्य का अवलोकन किया. इसी सत्र में काशराय कुदाद ने आदिवासी साहित्य को व्यापक समाज तक लाने के लिए शिक्षा और भाषा के विकास पर जोर दिया.

बहुसांस्कृतिक एवं बहुभाषीय भारतीय साहित्यिक अभिव्यक्तियों में आदिवासी जीवन और समाज की उपस्थिति पर केंद्रित दूसरे सत्र में और चर्चित उपन्यास ग्लोबल गांव के देवता के लेखक रणेन्द्र ने मुंडारी भाषा में लिखे जा रहे साहित्य पर विस्तार से बताया. उन्होंने लेमुरिया द्वीप के मिथक की ऐतिहासिकता पर भी रोशनी डाली. इसी सत्र में प्रख्यात कथाकार संजीव ने कहा कि आदिवासी समाज के उन्नयन के लिए लिखे जा रहे साहित्य को आदिवासी साहित्य माना जाना चाहिए, चाहे उसे कोई भी लिखे. उन्होंने यह भी कहा कि वे आदिवासी समुदाय की रूढ़ियों और अंधविश्वासों को ढोते जाने के पक्ष में नहीं हैं. दूसरे सत्र को प्रख्यात आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल और लेखिका रमणिका गुप्ता ने भी संबोधित किया. रमणिका गुप्ता ने कहा कि आदिवासी साहित्य और संस्कृति की बात करते हुए उनके इतिहास पर नजर डालनी होगी, जो कि संघर्षों से भरा हुआ है. गुप्ता ने कहा कि साहित्य मजदूरों किसानों को जिंदा रखता है, साहित्यकार तो उसका परिष्कार करता है. उन्होंने दलित और आदिवासी समुदायों में अंतर को रेखांकित करते हुए कहा कि दलितों को उनकी संस्कृति तक से वंचित कर दिया गया और वे हिंदू धर्म की संस्कृति पर ही चलते हैं, जबकि आदिवासियों की अपनी संस्कृति है, जिसमें धर्म नहीं है बल्कि आस्था और विश्वास है. निर्मला पुतुल ने कहा कि आदिवासी साहित्य की हजारों वर्षों की पुरानी परंपरा है. आदिवासियों के गीतों और कथाओं के मूल में में जल, जंगल और जमीन तथा प्रकृति ही रहे हैं. पुतुल ने यह भी कहा कि आधुनिक भाषाओं के विकास में आदिवासी भाषाओं का अहम योगदान है.  महाराष्ट्र से आए वाहरू सोनवणे ने कहा कि आदिवासी साहित्य अभी लिखा जा रहा है. अभी इसमें बहुत सारे बदलाव होने हैं इसलिए अभी आदिवासी साहित्य के सौंदर्यशास्त्र के बारे में कुछ कहना अधूरा होगा. उन्होंने कहा कि साहित्य का केंद्रबिंदु जीवन प्रणाली और संस्कृति की अभियक्ति है. साहित्य का काम है जीवन को दिशा देना. सोनवणे ने कहा कि साहित्य दो तरह का होता है- एक वह साहित्य होता है जो व्यवस्था के विरुद्ध लिखा जाता है और दूसरी तरह का साहित्य व्यवस्था के पक्ष में. उन्होंने कहा कि हम आदिवासी उन्हें नहीं कहते जो आदिम काल से रह रहे हैं, बल्कि उन्हें कहते हैं जो बराबरी और इंसाफ पर आधारित जंगल की संस्कृति को अपनाते हैं.

पहले दिन के आयोजन का समापन अश्विनी कुमार पंकज द्वारा निर्देशित नाटक भाषा कर रही है दावा से किया गया. इसके साथ ही आदिवासी नृत्य भी पेश किया गया.

संगोष्ठी के दूसरे  और अंतिम दिन, मंगलवार 30 जुलाई  को सुबह 9.30 बजे पहले सत्र में आदिवासी साहित्य की अवधारणा और इतिहास के परिप्रेक्ष्य में विभिन्न विधाओं में हो रहे समकालीन लेखन की पड़ताल की जाएगी. इस दिन सुबह 11 बजे से दूसरे सत्र में आदिवासी लेखन के समाजशास्त्र पर विचार किया जाएगा. दोपहर बाद दो बजे से शुरू होने वाले तीसरे सत्र में ग्लोबल समाज में आदिवासी भाषा, समाज और साहित्य पर विचार-विमर्श होगा. इस सत्र का मकसद ग्लोबल आर्थिक संरचना में आदिवासी समाज के वास्तविक मुद्दों और उससे संबंधित साहित्य की चुनौतियां, संभावना और भूमिका को सूत्रबद्ध करना है. इन सत्रों में विभिन्न शोधार्थी और विशेषज्ञ भागीदारी करेंगे. कार्यक्रम का समापन पद्मश्री प्रो. अन्विता अब्बी, प्रो सुधा पई और दिलीप मंडल की उपस्थिति में किया जाएगा.

प्रेस रिलीज

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