THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Saturday, October 11, 2014

कविता का एजेंडा या एजेंडे पर कविता: एक अपील

कविता का एजेंडा या एजेंडे पर कविता: एक अपील



बहसें पुरानी पड़ सकती हैं, लेकिन नए संदर्भ नित नए सिरे से बहस किए जाने की ज़रूरत को अवश्‍य पैदा कर सकते हैं। मसलन, कुछ लोगों की इधर बीच की कविताएं देखकर कुछ लोगों के बीच एक योजना बनी कि कविता पाठ किया जाए। चूंकि उन कविताओं में एक ही सिरा बराबर मौजूद था (नया संदर्भ), इसलिए तय पाया गया कि उस नए सिरे को पकड़े रखा जाए। विषय रखा गया ''कविता: 16 मई के बाद'' और कुछ कवियों से स्‍वीकृति लेकर फेसबुक पर एक ईवेन्‍ट बनाकर डाल दिया गया। ज़ाहिर है, सवाल उठने थे सो उठे। बात को शुरू करने के लिए सवाल ज़रूरी हैं। तो एक सवाल कवि चंद्रभूषणजी ने अपनी टिप्‍पणी में उठाया कि ''काफी टाइम टेबल्‍ड कविता-दृष्टि लगती है''। तो क्‍या कविता-दृष्टि समय/काल निरपेक्ष होनी चाहिए? ऐसे ही एक और मित्र ने कहा कि अगर कविताएं 16 मई के बाद की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों पर हैं तो आप क्‍यों सिर्फ आलोचनात्‍मक कविताएं ही लेंगे? अगर किसी ने नई परिस्थितियों के समर्थन में लिखा है तो उसे भी लेना चाहिए। क्‍या नई परिस्थितियां वाकई समर्थन के लायक हैं? क्‍या ये जनपक्षीय हालात हैं? 

प्रेमचंद कहते थे कि साहित्‍य राजनीति  के आगे चलने वाली मशाल है। संयोग से आज ही प्रेमचंद का निधन हुआ था। सवाल मौजूं है कि क्‍या आज लिखा जा रहा साहित्‍य राजनीति को प्रकाशित करने के उद्देश्‍य से रचा जा रहा है? कतई नहीं। तो यदि हम प्रेमचंद को ठीक मानते हैं, साहित्‍य को राजनीतिक उद्देश्‍य से किया जाने वाला एक सांस्‍कृतिक कर्म मानते हैं, तो समकालीन राजनीति की ठोस पहचान के बगैर साहित्‍य-लेखन की बात करना बेमानी होगा। राजनीति की सही-सही पहचान के बाद ही उसे प्रकाशित करने वाला साहित्‍य लिखा जा सकता है। ध्‍यान देने वाली बात है कि आज केंद्र में जो राजनीतिक सत्‍ता है, उसकी कल्‍पना सामान्‍यत: हम कुछ बरस पहले नहीं कर सकते थे। सिर्फ 2002 के दौर में जाकर देखें तो हम पाएंगे कि आज जैसा राजनीतिक वातावरण देश में बना है और जैसा जनादेश बीते लोकसभा चुनाव में आया है, वह इसी मायने में अभूतपूर्व है कि उसने सिर्फ सरकार को नहीं बदला है। यह चेन्‍ज ऑफ गवर्नमेन्‍ट नहीं है, रेजीम चेन्‍ज है। सरकार नहीं बदली है, सत्‍ता बदली है। सत्‍ता की समूची संरचना और उसके उपादान बदले जा रहे हैं। लोगों के दिमाग बदले जा रहे हैं। सामाजिक मान्‍यताएं बदली जा रही हैं। साथ ही इतिहास को बदलने की कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। 

क्‍या अब भी किसी और ''बदतर'' का इंतज़ार करने का मन है? ब्रेख्‍त की एक कविता है- ''क्‍या अंधेरे में भी गीत गाए जाएंगे? हां, अंधेरे के बारे में भी गीत गाए जाएंगे।'' अगर आप मानते हैं कि अंधेरा है, और यह अंधेरा अभूतपूर्व है, तो इसके बारे में आपको गीत रचने ही होंगे। ज़ाहिर है, अंधेरे के खिलाफ़ गीत लिखने होंगे। और इस अंधेरे की शिनाख्‍त करनी होगी। इस अंधेरे की शिनाख्‍त की एक तारीख है। यह कुछ साल बाद जब तवारीख में तब्‍दील होगी, तब वह तारीख हमें याद आएगी। सिर्फ और सिर्फ इसीलिए कि सत्‍ता ने कुछ तारीखें हमारे लिए तय कर रखी हैं जिनका सहारा लेकर वह हमारे खिलाफ़ अपने मंसूबे रचती है- जैसे 9/11 या 26/11- ठीक वैसे ही हमारी तरफ़ से भी एक तारीख की पहचान किया जाना ज़रूरी है। वह तारीख़ बेशक 16/05 है  (सत्‍ता के फॉर्मेट में कहें तो 5/16)। यही वह तारीख़ है जब इस देश ने दस साल पहले तक अकल्‍पनीय मानी जा रही ताकत को भारी जनादेश दिया था कि वह उस पर राज करे। और यहीं से अंधेरे का आग़ाज़ हुआ है। 

अंधेरे के खिलाफ़ गाए जाने वाले हर गीत का प्रस्‍थान बिंदु इसीलिए 16 मई होगा। 16 मई 2014... 

और यह रचना-दृष्टि ''टाइम-टेबल्‍ड'' नहीं कही जाएगी। यह समय की मजबूरी है। यह रचनाकर्म की मजबूरी है। यह इंसानियत का तकाज़ा है। यदि आप मानते हैं कि 16 मई एक ऐसी तारीख़ है जो तवारीख में अंधेरे के आग़ाज़ के लिए जानी जाएगी, तो आपको उन लोगों को सुनना चाहिए जो समय में हस्‍तक्षेप कर रहे हैं। बेशक ऐसे बहुत से लोग हैं और इन सब को सुना जाना और एक जगह इकट्ठा किया जाना ज़रूरी है। एक साथ हालांकि यह एक बार में संभव नहीं था। अंधेरे के खिलाफ रोशनी का आगाज़ यानी राजनीति के आगे चलने वाली साहित्‍य की मशाल को दोबारा जिलाने के लिए हम दस कवियों का एक कविता पाठ रख रहे हैं। 

ऐसे सैकड़ों कवि हैं, दिल्‍ली के भीतर और दिल्‍ली के बाहर। इसीलिए ''कविता: 16 मई के बाद'' कोई आयोजन नहीं है। यह एक अभियान है। मशाल से मशालों को जलाने का एक सिलसिला है। एक बार दिल्‍ली में दस कवियों के कविता पाठ के बाद हमारा प्रयास है कि यह श्रृंखला अपने बूते, अपनी ज़रूरत के बूते लखनऊ, पटना, भोपाल से लेकर बनारस, जयपुर और रांची तक पहुंचे। उन गांवों तक पहुंचे जहां 16 मई के बाद की स्थिति को सबसे ज्‍यादा महसूस किया जा रहा है और आवाज़ें बेसब्र हैं। 

फिलहाल, गुज़ारिश यह है कि इस पोस्‍ट को पढ़ने वाले सभी पाठक दिल्‍ली के प्रेस क्‍लब ऑफ इंडिया में 11 अक्‍टूबर, 2014 यानी शनिवार को शाम 4 बजे वक्‍त से पहुंच जाएं जहां मंगलेश डबराल, विमल कुमार, रंजीत वर्मा, निखिल आनंद गिरि, अवनीश मिश्र, पाणिनि आनंद, मिथिलेश श्रीवास्‍तव समेत कुल दस कवि अपनी कविताएं पढ़ेंगे। 

एक बार फिर इस बात को कहे जाने की ज़रूरत है कि 16 मई से शुरू हुआ अंधेरा और उसके खिलाफ संघर्ष अगर आज की कविता का बुनियादी एजेंडा है तो 11 अक्‍टूबर को होने वाला यह आयोजन कविता को उसके बुनियादी एजेंडे पर वापस लाने का एक प्रयास है। कविता के इंसानी एजेंडे को समझिए, उस इंसानी एजेंडे पर कविता को वापस लाने में अपना हाथ दीजिए। 




उत्‍तरापेक्षी 

अभिषेक श्रीवास्‍तव 

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