THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Sunday, June 28, 2015

अमरीका, लोकतंत्र, आतंकवाद व धार्मिक अतिवाद

अमरीका, लोकतंत्र, आतंकवाद व धार्मिक अतिवाद

-प्रो0 नदीम हसनैन 

    बहुत से पाठकों को यह शीर्षक ही बड़ा अटपटा लगेगा लेकिन यह इस निबन्ध की एक पड़ताल का विश्लेषण करने का प्रयास है। जो अमरीका के आतंकवाद, लोकतंत्र व धार्मिक अतिवाद के गठजोड़ पर आधारित है। वर्षों के बड़े प्रोपेगंडा के कारण बहुत से लोग यह मानने लगे हैं कि अमरीका संसार में लोकतंत्र का सबसे बड़ा प्रहरी व प्रोत्साहक है और संसार में हर दशा में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना चाहता है धार्मिक अतिवाद व आतंकवाद के विरोध में लड़ी जा रही लड़ाई का पड़ताल करें और यह भी देखने का प्रयास करें कि भारत में उसकी क्या भूमिका रही है। 
    वर्षों की अंदेखी, उदासीनता व हाशिए पर रहने के बाद दक्षिण एशिया का क्षेत्र अंतर्राष्ट्रीय पटल पर तेजी के साथ उभरा है। इस क्षेत्र में भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल व मालदीप आते हैं। तेल के बड़े भण्डारों व सामरिक महत्व के कारण खाड़ी के देश अधिक महत्वपूर्ण माने जाते रहे। तत्पश्चात अमरीका, योरोपीय यूनियन, चीन व जापान जैसे महत्वपूर्ण देशों ने दक्षिण एशिया की ओर देखना शुरू किया और 9/11 की घटना के बाद तो अमरीका का ध्यान पूरे तौर पर इस ओर हुआ। ''आतंकवाद'' से अमरीका ने सहयोगी देशों की सहायता से इस पूरे क्षेत्र को शक्ति संरचना कर अपने काबू में करना शुरू किया और पाकिस्तान व अफगानिस्तान में यह काफी हद तक सफल भी रहा। साथ ही उसने भारत के अपने रिश्तों को भी मजबूत करने का पूरा प्रयास किया जिससे कि चीन के प्रभाव को भी रोका जा सके। 
    चोम्सकी, जो वर्तमान संसार में सबसे सम्मानित बुद्धिजीवी माने जाते हैं, 2013 के अपने लेख में कहते हैं कि अमरीका विश्व की सबसे बड़ी आतंकी शक्ति का संचालन कर रहा है। चोम्सकी अमरीकी नागरिक हैं तथा प्रख्यात एम0आई0टी0 मेसोच्यूसेट इंस्टीटयूट आॅफ टेक्नोलाॅजी में वर्षों से प्रोफेसर रहे हैं। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अमरीकी व्यवस्था हमेशा कुछ विरोधी व भिन्न मतावलंबितयों को भी बरदाश्त करती रही है जिससे कि संसार को दिखाया जा सके कि अमरीका में असहमति को कितना सम्मान दिया जाता है। इससे मुझे अपने अमरीकी प्रवास में 2006-07 की एक घटना याद आती है हाऊज (अमरीकी राष्ट्रपति का कार्यालय/ आवास) के सामने टेंट लगाये थे या प्लेकार्ड लिए बैठे थे। सबसे अगली कतार में एक अमरीकी महिला एक बड़ा सा पोस्टर लिए बैठी जिस को उस समय मेकअप में दिखाया था और बड़े-बड़े अक्षरों में उसके नीचे लिखा था ''विश्व का सबसे बड़ा आतंकवादी''। अमरीकी स्वार्थो पर हमला नहीं करती। चोक्सी व हरमेन का यह भी मानना है कि तीसरी दुनिया में जो भी क्षेत्र अमरीका के प्रभाव में हैं वहाँ वहाँ आतंक का जमावड़ा है। इन विद्वानों ने दस्तावेजों के साथ यह दिखाया है कि किस प्रकार लातेनी अमरीका के गरीब देशों में कठपुतली शासक अमरीका के समर्थन से आतंक के द्वारा अवामी इच्छाओं का दमन करते रहे हैं। वह यह निष्कर्ष निकालते हैं कि आज भूमंडलीय स्तर पर जितना भी आतंकवाद है। अमरीकी विदेशी नीति का परिणाम है। मेकार्ड व स्टाई बर जैसे विशेषज्ञों का यह मानना है कि 9/11 घटना से पहले भी व बाद में भी अमरीका अल कायदा को धन व हथियारों से सीरिया, लीबिया, बोसनिया, चेचेनिया, इरान जैसे अनेकों देशों में अपनी कार्यवाही के लिए सहायता देता रहा हैं ध्यान देने की बात यह है कि ये सभी देश अमरीका के समर्थक नहीं रहे हैं। कहा जाता है कि विश्व में 74 प्रतिशत देशों में जहाँ आतंकी तरीकों को प्रशासनिक सहमति हासिल है, अमरीका की कठपुतली सरकारें हैं। क्या यह मजाक नहीं लगता कि जो महाशक्ति दुनिया में सुबह से शाम तक शांति की बात करती हो, गले-गले तक आतंकी गतिविधियों में लिप्त रहती है। 
    अमरीका के द्वारा लोकतंत्र व लोकतांत्रिक व्यवस्था को प्रोत्साहन देने के दावों की कलई कई बार खुल चुकी है। एक बार फिर इस की पड़ताल कर ली जाये। यदि हम दुनिया का नक्शा उठा कर देखें तो पाते हैं कि लातीनी अमरीका के देशों से लेकर, 
मध्यपूर्व, दक्षिणी अफ्रीका तथा दक्षिणी एशिया के देशों तक अमरीका की सहायता से लोकतंात्रिक सरकारों का तख्ता पलट कर तानाशाही सत्ता को कभी सफलता पूर्वक और कभी असफल प्रयासों का सहारा लिया गया है। यहाँ पर कुछ विशिष्ट उदाहरणों के द्वारा इस बात को प्रमाणित किया जा रहा है। 
    अमरीका का हमेशा कहना रहा है कि वह लोकतांत्रिक तरीकों से चुनी गई सरकारों को कभी नहीं हटाने का प्रयास करेगा चाहे वह कोई वामपंथी सरकार क्यों न हो। 1970 में दक्षिणी अमरीका के देश चिली में डाॅ. एलेन्डे की वामपंथी सरकार अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षण में होने वाले चुनाव के द्वारा बनाई गई लेकिन उस को बहुत दिन चलने नहीं दिया गया और सी आईए के द्वारा उस का तख्ता पलट कर फौजी शासन स्थापित कर दिया गया जिस ने इस के विरोध में होने वाले जन आन्दोलन को कुचल दिया। ऐसा ही कुछ निकारागुआ में भी किया गया। 1984 में पारदर्शी चुनाव के द्वारा वहाँ पर एक प्रगतिशील वामपंथ की ओर झुकाव वाली सरकार का गठन किया गया लेकिन अमरीका को निकारागुआ की क्यूबा व सोवियत यूनियन से दोस्ती अच्छी नहीं लगी। अमरीका को इस बात का डर भी खाये जा रहा था कि कहीं निकारागुआ का उदाहरण दूसरे शोषित लातीनी अमरीका के देशों को वामपंथ की ओर न मोड़ दे। अमरीका ने निकारागुआ के लिए ऐसे हालात पैदा कर दिए कि उसे अपना ध्यान व संसाधन अपनी सुरक्षा में लगाना पड़ गया और इस प्रकार आर्थिक संकटों से जूझती हुई सरकार को गिरा दिया गया। क्यूबा पर तो लगातार अमरीकी प्रयास जारी रहा। फोडेल कास्त्रो को मारने का कई बार प्रयास भी किया गया। लेकिन क्यूबा की वामपंथी सरकार को गिराया नहीं जा सका।
    यह सूची इतनी लम्बी है कि दर्जनों पन्ने सियाह हो जाएँगे इस लिए निम्न संक्षिप्त सारणी के द्वारा यह बात आगे बढ़ाई जा रही है  जिस से पाठकों को यह अन्दाजा भली भाँति हो जाएगा कि विश्व के अनेक क्षेत्रों में लोकतंत्र का गला घोंट कर तानाशाहों को किस प्रकार मजबूत किया गया और उनकी सत्ता को कैसे जायज़ ठहराया गया 
1    लातीनी अमरीका:
    पिनोशेट (चिली), नोरेगा (पनामा), 
    डुवेलियर (हैती), बेनजे़र (बोलेविया)
2    ऐशिया:
    ओमान, कतर, बहरैन के शेख 
    सऊदी अरब के बादशाह 
    सुहारतों (इण्डोनेशिया) 
    जि़याउलहक़ व मुशर्रफ़ (पाकिस्तान) 
    बादशाह रज़ाशाह पहेलवीं (ईरान)
3    अफ्रीका:
    बादशाह हसन (मोराक्को) 
    गफ्फार नुमैरी (सुडान) 
    होसनी मुबारक (मिश्र) 
    द0 अफ्रीका के नस्लवादी शासक
4    योरोप:
    फ्रानको (स्पेन) 
    सालाज़ार (पुर्तगाल)     

    तुर्की व यूनान की फ़ौजी सत्ता इन तथा इन जैसे अनेक दूसरे उदाहरणों से यह प्रमाणित हो जाता है कि अमरीकी लोकतंत्र का मुखौटा कितना महीन है और लोकतंत्र को आगे बढ़ाने के इस के दावे कितने खोखले हैं वरना फौजी शासकों, बादशाहों तथा नस्लवादी शासकों को सभी प्रकार के समर्थन देकर उन की सत्ता को बचाना क्या अर्थ रख सकता है। जाहिर है अपने आर्थिक, राजनैतिक व सामरिक हितों के सामने लोकतंत्र की कोई कीमत नहीं है। सऊदी अरब व ईरान के निर्मम व जालिम बादशाहों को वर्षों तक अमरीका ने बचाया क्योंकि वे उस की कठपुतली थे। ईरान के अवाम ने बादशाह के विरोध में बगावत किया, कुरबानी दी और उसे खदेड़ दिया। यह अलग बात है कि ईरान में चुनाव वो करवाती है लेकिन लोकतंत्र पर लगाम है। सऊदी अरब में बादशाहत अब भी बनी हुई है, अभिव्यक्ति की आजादी नहीं है, महिलाओं की हालत बहुत खराब है तथा धार्मिक कट्टरता ने अवाम, विशेष कर अल्पसंख्यकों को पैरों के नीचे दबा रखा है लेकिन अमरीका के आर्थिक व सामरिक हित सर्वाेपरि हैं। 
    अजीब विडंबना है कि संसार भर में आतंकवादी गतिविधियों में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में अमरीका का हाथ देखा जा सकता है और इस्लाम के नाम पर होने वाली आतंकी गतिविधियों में तो सीधे अमरीका की भूमिका देखी जा सकती है। चूँकि अमरीका के आर्थिक व सामरिक हितों को सब से अधिक खतरा इस्लामी चरमपंथियों से था इस लिए उस ने विश्व मीडिया शक्ति को इस्लामी आतंकवाद का डर दिखाने को लगा दिया। बहुतों को इस बात पर विश्वास भी हो गया कि मुस्लिम आतंकवाद विश्व शांति के लिए सब से बड़ा खतरा है। जब हकीकत यह है कि मुस्लिम आतंकवाद विश्व आतंकवाद का केवल एक छोटा सा अंशमात्र है। अमरीका के सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री प्रोफेसर चाल्र्स कुर्ज़मैन ने अपने अध्ययन ष्ज्ीम उपेेपदह डंतजलते रू ॅील जीमतम ंतम ेव मिू उनेसपउ ज्मततवतपेजेघ्ष् के द्वारा यह स्थापित किया है कि मुस्लिम आतंकवाद को बहुत बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया। उन्होंने यह सवाल भी किया कि हमने इस बात पर क्यों विश्वास किया कि उनकी संख्या बहुत बड़ी है और हम इतना क्यों डरे हुए थे। पिछले पाँच वर्षों की घटनाओं ने प्रोफेसर कुर्जमैन की बात को सही साबित कर दिया। आज पूरे योरोप व अमरीका में प्ेसंउवचीवइपं अर्थात इस्लाम का डर जीवन की एक हकीकत बन चुका है और समाज के दिन प्रतिदिन जीवन में देखा जा सकता है। 
    तथाकथित मुस्लिम या इस्लामी आतंकवाद की ताकत व फैलाव चाहे जितना हो लेकिन आज यह स्थापित हो चुका है कि इसके पीछे काफी हद तक इस्लाम की वह चरमपंथी व्याख्या है जो साम्राजी के नाम से जानी जाती है और जिसका प्रमुख स्रोत सऊदी अरब है जो साम्राजी विचारधारा को ही सच्चा इस्लाम मान कर उसके प्रचार व प्रसार पर अरबों डालर खर्च करता रहा है। अब इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तान व अफगानिस्तान के तालिबान से लेकर नाइजीरिया के अलशबाब व बोकोहरम व इराक-सीरिया के इस्लामिक स्टेट (आई0एस0) तक सभी विचारधारा से प्रोत्साहित होते हैं। योरोप व अमरीका सहित समूचे विश्व में सऊदी पेट्रोडालर की सहायता से मस्जिदों व मदरसों पर कब्जा किया जा रहा है और वहीं से साम्राजी विचारधारा को ही सही इस्लाम के रूप में प्रसारित व प्रचारित किया जा रहा है। कैसा मज़ाक है, कि वह अमरीका जो सुबह से शाम तक इस्लामी आतंकवाद की रट लगाए रहता है, मुस्लिम संसार में अपने को ही गले से लगाये हुए हैं। बादशाहत, धार्मिक अतिवाद व पूँजीवाद के इस अजीबों गरीब मिश्रण को अमरीका ही 
साध सकता है। संतोष की बात यह है कि अपने सभी प्रयासों के बावजूद समूचे विश्व की आबादी का एक छोटा सा हिस्सा ही इस विचारधारा के प्रभाव में है लेकिन जिस तेजी के साथ यह फैल रहा है शांति के लिए बड़ा खतरा बन सकता हैं।
        यह हम कैसे भूल जाएँ कि अफगानिस्तान में सोवियत रूस के विरोध में अमरीका ने ही तालीबान को प्रोत्साहन व समर्थन दिया था और पाकिस्तान के फौजी शासकों के द्वारा उन के मदरसों को बढ़ावा मिला था। भारत में हिन्दुत्व व चरमपंथी हिन्दु शक्तियों के पीछे भी अप्रत्यक्ष रूप से अमरीका को देखा जा सकता है। भारत के मजदूर-किसान-दलित-आदिवासी की एकता आदि को तोड़ने के लिए जिस प्रकार से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा उस के अनुषंगी संगठन लगे हुए हैं उसे कोई भी देख सकता है। स्वदेशी व भारतीयता का गला फाड़ फाड़ कर नारा लगाने वालों की जब केन्द्र में सत्ता स्थापित हुई तो कारपोरेट सेक्टर के हित ही देशहित हो गये और सांप्रदायिक तनाव के धुएँ में असली मुद्दों को छुपाने का प्रयास हो रहा है। पूँजीवादी फासीवाद हमारे देश में दस्तक दे रहा है। हमें इतिहास से सबक लेकर यह नहीं भूलना चाहिए कि फासीवाद लोकतांत्रिक चुनावों के कंधों पर चढ़ कर ही आता रहा है। हिटलर व मुसोलनी इस के उदाहरण हैं। लोकतंत्रीकरण व लोकतंात्रिक मुकाबला कर सकती है। एक व्यक्ति ही सब कुछ कर देगा, यह सोच ही  फासीवाद व तानाशाही की ओर उठा पहला कदम है जिसके लिए हमें सचेत रहना है।    
     
-प्रो0 नदीम हसनैन 

        मोबाइल: 09721533337
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