THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Tuesday, June 30, 2015

अंग्रेजों के खिलाफ पहली क्रांति करने वाले सिदू-कान्हू को हूल जोहार।

   
Rajan Kumar
June 29 at 5:50pm
 
हूल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं। अंग्रेजों के खिलाफ पहली क्रांति करने वाले सिदू-कान्हू को हूल जोहार। 
जय जयस जय आदिवासी

हूल क्रान्ति दिवस
सिद्धू तथा कान्हू की प्रतिमाएँ
विवरणझारखण्ड राज्य के आदिवासियों द्वाराअंग्रेज़ों के विरुद्ध किये गए विद्रोह को 'हूल क्रान्ति दिवस' के रूप में जाना जाता है। अंग्रेज़ों से लड़ते हुए लगभग 20 हज़ार आदिवासियों ने अपनी जान दी।
राज्यझारखण्ड
स्थानभगनाडीह ग्राम, साहेबगंज ज़िला
क्रांति की शुरुआत30 जून
नायकसिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव
संबंधित लेखसंथालआन्दोलन विप्लव सैनिक विद्रोहऔपनिवेशिक कालभारतीय स्वतंत्रता संग्राम
अन्य जानकारीइतिहासकार हंटर की पुस्तक में लिखा है कि अंग्रेज़ों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो आदिवासियों के बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इसमें करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी।

हूल क्रान्ति दिवस प्रत्येक वर्ष 30 जून को मनाया जाता है। भारतीय इतिहास मेंस्वाधीनता संग्राम की पहली लड़ाई वैसे तो सन 1857 में मानी जाती है, किन्तु इसके पहले ही वर्तमान झारखंड राज्य के संथाल परगना में 'संथाल हूल' और 'संथाल विद्रोह' के द्वारा अंग्रेज़ों को भारी क्षति उठानी पड़ी थी। सिद्धू तथा कान्हू दो भाइयों के नेतृत्व में 30 जून, 1855 ई. को वर्तमान साहेबगंज ज़िले के भगनाडीह गांव से प्रारंभ हुए इस विद्रोह के मौके पर सिद्धू ने घोषणा की थी- करो या मरो,अंग्रेज़ों हमारी माटी छोड़ो।

ऐतिहासिक तथ्य[सम्पादन]

इतिहासकारों के अनुसार संथाल परगना के लोग प्रारंभ से ही वनवासी स्वभाव सेधर्म और प्रकृति के प्रेमी और सरल होते हैं। इसका ज़मींदारों और बाद में अंग्रेज़ों ने खूब लाभ उठाया। इतिहासकारों का कहना है कि इस क्षेत्र में अंग्रेज़ों ने राजस्व के लिए संथाल, पहाड़ियों तथा अन्य निवासियों पर मालगुज़ारी लगा दी थी। इसके बाद न केवल यहाँ के लोगों का शोषण होने लगा, बल्कि उन्हें मालगुज़ारी भी देनी पड़ रही थी। इस कारण यहाँ के लोगों में विद्रोह पनप रहा था।[1]

इतिहासकार कथन[सम्पादन]

नागपुरी साहित्य और इतिहासकार वी. पी. केशरी के अनुसार- "यह विद्रोह भले ही 'संथाल हूल' हो, परंतु संथाल परगना के समस्त गरीबों और शोषितों द्वारा शोषकों, अंग्रेज़ों एवं उसके कर्मचारियों के विरुद्ध स्वतंत्रता आंदोलन था। इस जन आंदोलन के नायक भगनाडीह निवासी भूमिहीन किंतु ग्राम प्रधान चुन्नी मांडी के चार पुत्र सिद्धू, कान्हू, चांद और भैरव थे।"

केशरी जी आगे कहते हैं कि इन चारों भाइयों ने लगातार लोगों के असंतोष को एक आंदोलन का रूप दिया। उस समय संथालों को बताया गया कि सिद्धू को स्वप्न में बोंगा, जिनके हाथों में बीस अंगुलियां थीं, ने बताया है कि "जुमीदार, महाजन, पुलिस राजदेन आमला को गुजुकमाड़", अर्थात "जमींदार, महाजन, पुलिस और सरकारी अमलों का नाश हो।" 'बोंगा' की ही संथाल लोग पूजा-अर्चना किया करते थे। इस संदेश को डुगडुगी पिटवाकर स्थानीय मोहल्लों तथा ग्रामों तक पहुंचाया गया। इस दौरान लोगों ने साल वृक्ष की टहनी को लेकर गाँव-गाँव की यात्राएँ की।[1]

आंदोलन की शुरुआत[सम्पादन]

आंदोलन को कार्यरूप देने के लिए परंपरागत शास्त्रों से लैस होकर 30 जून, सन 1855 ई. को 400 गाँवों के लगभग 50,000 आदिवासी लोग भगनाडीह पहुंचे और आंदोलन का सूत्रपात हुआ। इसी सभा में यह घोषणा कर दी गई कि वे अब मालगुज़ारी नहीं देंगे। इसके बाद अंग्रेज़ों ने, सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव- इन चारों भाइयों को गिरफ़्तार करने का आदेश दिया; परंतु जिस पुलिस दरोगा को वहाँ भेजा गया था, संथालियों ने उसकी गर्दन काट कर हत्या कर दी। इस दौरान सरकारी अधिकारियों में भी इस आंदोलन को लेकर भय प्राप्त हो गया था।

गिरफ़्तारियाँ[सम्पादन]

भागलपुर की सुरक्षा कड़ी कर दी गई थी। इस क्रांति के संदेश के कारण संथाल में अंग्रेज़ों का शासन लगभग समाप्त हो गया था। अंग्रेज़ों द्वारा इस आंदोलन को दबाने के लिए इस क्षेत्र में सेना भेज दी गई और जमकर आदिवासियों की गिरफ़्तारियाँ की गईं और विद्रोहियों पर गोलियां बरसने लगीं। आंदोलनकारियों को नियंत्रित करने के लिए मार्शल लॉ लगा दिया गया। आंदोलनकारियों की गिरफ़्तारी के लिए अंग्रेज़ सरकार द्वारा पुरस्कारों की भी घोषणा की गई। बहराइच में अंग्रेज़ों और आंदोलनकारियों की लड़ाई में चांद और भैरव शहीद हो गए। प्रसिद्ध अंग्रेज़ इतिहासकार हंटर ने अपनी पुस्तक 'एनल्स ऑफ़ रूलर बंगाल' में लिखा है कि "संथालों को आत्मसमर्पण की जानकारी नहीं थी, जिस कारण डुगडुगी बजती रही और लोग लड़ते रहे।"

आदिवासियों का बलिदान[सम्पादन]

जब तक एक भी आंदोलनकारी जिंदा रहा, वह लड़ता रहा। इतिहासकार हंटर की पुस्तक में लिखा गया है कि अंग्रेज़ों का कोई भी सिपाही ऐसा नहीं था, जो इस बलिदान को लेकर शर्मिदा न हुआ हो। इस युद्ध में करीब 20 हज़ार वनवासियों ने अपनी जान दी थी। विश्वस्त साथियों को पैसे का लालच देकर सिद्धू और कान्हू को भी गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर 26 जुलाई को दोनों भाइयों को भगनाडीहग्राम में खुलेआम एक पेड़ पर टांगकर फ़ाँसी की सज़ा दे दी गई। इस प्रकार सिद्धू, कान्हू, चांद तथा भैरव, ये चारों भाई सदा के लिएभारतीय इतिहास में अपना अमिट स्थान बना गए।[1]

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