THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Monday, October 12, 2015

इस सन्नाइस सन्नाटे का जलवा भी बहार है। पंजाब फासिज्म के प्रतिरोध में आगे,आठ ने लौटाये पुरस्कार।बंगाल से फिलहाल कोई पुरस्कार लौटाने के मूड में नहीं हैं।बंगाल के पुरस्कृत लेखक सूबे की राजनीति में मशगूल हैं। पलाश विश्वास बांग्ला दैनिक एई समय ने सर्वे कराया कि फासिज्म के किलाफ,अभूतपूर्व हिंसा के खिलाफ कितने किव साहित्यकार पुरस्कार लौटाने को तैयार हैं।फिलहाल कोई पुरस्कार लौटाने को तैयार नहीं हैं।ये तमाम लोग पार्टीबद्ध लाइन पर बंगाल के किसी भी मुद्दे पर बेहद मुखर हैं लेकिन देश दुनिया की किसी को परवाह नहीं हैं।आज हमने इस सर्वे के विश्लेषण के साथ साथ ऐतिहासिक भूलों की चर्चा भी की है और सामाजिक यथार्थ का मुकाबला न करने वाले साहित्यकारों के बांग्ला साहित्य का भी पोस्टमार्टम अपने रोजाना प्रवचन में कर दिया है। http://www.epaper.eisamay.com/Details.aspx?id=18599&boxid=17152693 वीडियो जारी करने के बाद हमें खबर अभिषेकवा के हवाले सेपढ़कर राहत मिली कि कमसकम मंगलेशदा,राजेश जोशी,सोबती जी और मृदुला जी ने हिंदी का सम्मान बनाये रखा भले ही विश्वनाथ बाबू के मुताबिक वे न लेखकीय गरिमा और अकादमी की स्वायत्तता

इस सन्नाटे का जलवा भी बहार है।

पंजाब फासिज्म के प्रतिरोध में आगे,आठ ने लौटाये पुरस्कार।बंगाल से फिलहाल कोई पुरस्कार लौटाने के मूड में नहीं हैं।बंगाल के पुरस्कृत लेखक सूबे की राजनीति में मशगूल हैं।

पलाश विश्वास

बांग्ला दैनिक एई समय ने सर्वे कराया कि फासिज्म के किलाफ,अभूतपूर्व हिंसा के खिलाफ कितने किव साहित्यकार पुरस्कार लौटाने को तैयार हैं।फिलहाल कोई पुरस्कार लौटाने को तैयार नहीं हैं।ये तमाम लोग पार्टीबद्ध लाइन पर बंगाल के किसी भी मुद्दे पर बेहद मुखर हैं लेकिन देश दुनिया की किसी को परवाह नहीं हैं।आज हमने इस सर्वे के विश्लेषण के साथ साथ ऐतिहासिक भूलों की चर्चा भी की है और सामाजिक यथार्थ का मुकाबला न करने वाले साहित्यकारों के बांग्ला साहित्य का भी पोस्टमार्टम अपने रोजाना प्रवचन में कर दिया है।

वीडियो जारी करने के बाद हमें खबर अभिषेकवा के हवाले सेपढ़कर राहत मिली कि कमसकम मंगलेशदा,राजेश जोशी,सोबती जी और मृदुला जी ने हिंदी का सम्मान बनाये रखा भले ही विश्वनाथ बाबू के मुताबिक वे न लेखकीय गरिमा और अकादमी की स्वायत्तता की रक्षा कर पाये हों जो केसरिया साम्राज्य केमुक्त बाजार के हितों से जुड़ी हैं,ऐसा हमारा मानना है।

अकादमी का हाल यह है कि सेक्स कथा लिखने वाले लेखक या सामाजिक यथार्थ की जगह आध्यात्म पेलने वाले,मिथक गढ़ने वाले या भूत प्रेत का कारोबार करने वाले या हिंदुत्व का महिमामंडन करने वाले लोग पुरस्कृत हो जाते हैं तो सामाजिक यथार्थ को रचना विषय बनाने वाले तमाम लोग कभी पुरस्कार के दावेदार नहीं माने जाते और विश्वनाथ बाबू और नामवर बाबू जैसे मछाधीस आलोचक प्रायोजित प्रवचन और आलोचना से उनका कायाकल्प करते हैं।

बहरहाल उस अकादमी के खिलाफ पुरस्कृत रचनाकारों के इस विद्रोह को हम सत्ता के खिलाफ अभूतपूर्व मानते हैं और रचनाकर्म में चाहे ये लोग जैसे भी हों,सामाजिक यथार्थ और फासीवादी सत्ता से टकराने के उनके इस जिगरे को हम सलाम करते हैं।हम इंतजार कर रहे हैं उनका भी जो भीड़ बढ़ते जाने के मुताबिक कारवां में अंततः अपनी साख बचाने के लिए कभी न कभी शामिल होेंगे।

गौरतलब है कि दिवंगत कवि नवारुण भट्टाचार्य ने नंदीग्राम नरसंहार के खिलाफ बंगाल सरकार के सारे पुरस्कार लौटा दिये थे और इस वक्त प्रगतिशील बंगाल के सारे साहित्यकार संस्कृतिकर्मी राज्य सरकार के सम्मान,पुरस्कार और ओहदे से सम्मानित हैं।वे कभी कोई पुरस्कार नहीं छोड़ते लेकिन अपनी जनप्रतिबद्धता मीडिया में दर्ज कराने का कोई मौका नहीं छोड़ते।

शंख घोष और आदरणीय महाश्वेता देवी ने अभीतक न प्रतिक्रिया दी है और न किसी से कोई बात की है।तो नंग राजा की कथा बताने वाले कवि नीरेंद्र नाथ चक्रवर्ती अभी यह तय नहीं कर पाये हैं कि राजा नंगा हैं,तो बताना चाहिए कि नहीं बताना चाहिए।वे हैमलेट के टू बी अर नाट टू बी के मोड में हैं।जबकि नक्सल आंदोलन पर तीन उपन्यास लिखकर बांग्ला साहित्य में अमरता और अकादमी पुरस्कार जीतने वाले समरेश मजुमदार फासिज्म के खिलाफ मुखर तो हैं लेकिन वे हर्गिज पुरस्कान न लौटाने।हमने प्रवचन में पूरा किस्सा बांचा हैं,मौका लगे तो देख भी ले और सुन भी लें।

इस प्रवचन में रवींद्र को उनके पूर्वजों के गोमांस की गंध सूंघ लेने की वजह से अस्पृश्यबानाये जाने के बाद कुनबे के एक हिस्से के मुसलमान बन जाने.दूसरे हिस्से के दलित बन जाने और तीसरे हिस्से के बंगाल में आकर ब्रह्म समाजऔर नवजागरण में शामिल हो जाने के बावजूद नोबेलिया बनने से पहले अस्पृश्य बने रहने,उनकी चंडालिका,नैवद्यऔर रूस की चिट्ठी में अस्पृश्यता के खिलाफ मुखर रचनाधर्म और मेहनतकशों के हक में बुलंद आवाज का भी ब्योरा दिया है।देख जरुर लें।कई मिथक टूटेंगे और भ्रांतिया टैगोर के कृतित्व के बारे में टूटेंगी।

# Beef Gate!Let Me Speak Human!What is your Politics,Partner?Dare you to Stand for Humanity?
বাংলা দৈনিক এই সময়ঃকলবার্গি থেকে ইকলাখঃ ডানপন্থী চোখরাঙানির বিরুদ্ধে সোচ্চার কাশ্মীর থেকে কন্যাকুমারী!
অসহিষ্্নুতার শেষ চাইছে দেশ,বাংলা নিরুত্তাপ!

Indian Intelligentsia resist the governance of Fascism and the Hindutva Agenda.Welcome!Very Welcome!

Three eminent writers from Punjab return

Sahitya Akademi awards!Thanks Uday

Prakash for his initiative!

Bengal,Maharashtra and Karnataka chose silence as the conscience of Gujarat is quite aloud!


इसीतरह हम लोग जिन काशीनाथ सिंह के दीवाने रहे हैं छात्रजीवन में और उनके अपने मोर्चे पर लगातार लोमबंद होते रहने की कोशिश करते हैं,बनारस में केसरिया उपनिवेश के मध्य वे भी चुप्पी साधे हुए हैं।बनारस के कवि ज्ञानेंद्रपति और हर पौधे को बंदूक की ऊंचाई देने वाले धन्वा जी भी सन्नाटा बुन रहे हैं।अरुण कमल कहां हैं पता उसी तरह नहीं चला रहा है जैसे विनोद शुक्ल या नामवर सिंह की आवाज कहीं दर्ज नहीं हो रही है।
इस सन्नाटे का जलवा भी बहार है।

थोक के भाव में लेखकों ने सरकार से लिए पुरस्‍कार वापस कर दिए। उदय प्रकाश से शुरू हुआ यह काम मंगलेश डबराल, राजेश जोशी, कृष्‍णा सोबती, अशोक वाजपेयी, सच्चिदानंदन, पंजाब, कश्‍मीर व कन्‍नड़ के लेखकों तक जा पहुंचा है। इससे भी सुखद यह है कि कल मंडी हाउस से निकली रैली में नीलाभजी, पंकज सिंह, सविता सिंह, रंजीत वर्मा, इरफान,अनिल चमडि़या, अनिल दुबे, राजेश वर्मा समेत तमाम लेखक-पत्रकार शामिल रहे। पत्रकार अमन सेठी ने भी साहित्‍य अकादमी का युवा पुरस्‍कार वापस कर दिया है। हिंदी के नौजवान कहां छुपे हैं? उमाशंकर चौधरी, कुमार अनुपम, कुणाल सिंह, खोह से बाहर निकलो। सेटिंग-गेटिंग से उबरो। अकादमी का युवा पुरस्‍कार तत्‍काल लौटाओ।-अभषेक श्रीवास्तव


 मीडिया के मुताबिक देश के नौ मशहूर लेखकों ने रविवार को साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिए। इन लेखकों का विरोध दादरी हिंसा और कन्नड़ लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हत्या को लेकर है। कुल मिलाकर अब तक 15 लेखक साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा चुके हैं। पुरस्कार लौटाने वालों की लिस्ट में पहला नाम लेखक उदय प्रकाश का था। कन्नड़ लेखक अरविंद मालागट्टी ने साहित्य अकादमी की जनरल काउन्सिल से इस्तीफा दे दिया है।

रविवार को किन लेखकों ने लौटाए पुरस्कार
रविवार को कन्नड़ लेखक अरविंद मालागट्टी ने साहित्य अकादमी की जनरल काउन्सिल से इस्तीफा दे दिया। इसके अलावा, कुछ और लेखकों ने पुरस्कार लौटा दिए। इनके नाम हैं-
* मंगलेश डबराल (हिंदी कवि)
* राजेश जोशी (हिंदी कवि)
* गणेश देवी
* एन. शिवदास (कोंकणी लेखक)
* वीरभद्रप्पा (कन्नड़ लेखक)
* गुरबचन सिंह भुल्लर
* अजमेर सिंह औलख
* आत्मजीत सिंह
* वरयाम सिंह संधू
क्या कहा जोशी और डबराल ने
पुरस्कार लौटाने वाले जोशी और डबराल ने कहा, "हम साफ तौर पर लोकतंत्र, सेक्युलरिज्म और आजादी पर खतरा मंडराता देख रहे हैं। हालांकि, पहले भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरे रहे हैं, पर इस सरकार के आने के बाद यह खतरा तेजी से बढ़ता दिखाई पड़ रहा है।"
देवी भी नाराज
गणेश देवी ने कहा, "मैं अपने उन साथियों के साथ एकजुटता दिखाना चाहता हूं, जिन्होंने अलग विचार रखने की वजह से पुरस्कार लौटाए हैं।" कलबुर्गी की हत्या पर अकादमी की चुप्पी से देवी खासे नाराज हैं। उन्होंने कहा, "कलबुर्गी की हत्या के एक हफ्ते बाद ही साहित्य अकादमी के एक सेमिनार में शामिल हुआ। मुझे इस बात पर हैरानी है कि सेमिनार की शुरुआत में कलबुर्गी की नृशंस हत्या पर एक शब्द भी नहीं कहा गया।" देवी ने राष्ट्रपति के हालिया भाषण का भी जिक्र किया।
पीएम की चुप्पी पर औलख के सवाल
आत्मजीत सिंह ने भी देश के हालात को दुखी करने वाला बताया है। एक और लेखक अजमेर सिंह औलख ने कहा, "अलग सोच और विचार रखने की हमारी आजादी खतरे में है। प्रधानमंत्री और अकादमी के चेयरपर्सन अब तक चुप हैं।" वहीं, भुल्लर का कहना है कि साहित्य और संस्कृति पर सोचे-समझे तरीके से हमले हो रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि पिछले वर्षों में किसी भी सरकार ने इन मामलों पर ध्यान नहीं दिया। भुल्लर ने भी हालिया घटनाओं को सोची-समझी साजिश करार दिया है।

कोंकणी लेखक शिवदास ने कहा कि वह सनातन संस्था के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं किए जाने की वजह से दुखी हैं और पुरस्कार लौटा रहे हैं। वीरभद्रप्पा ने दादरी की घटना और कलबुर्गी की हत्या को पुरस्कार लौटाने का कारण बताया।

unabi poet Patar,Poets Jaswinder and Darshan Buttar, and prose writer Baldev Singh Sadaknama have also returned their Sahitya Akademi awards, taking the total number of such writers from Punjab to eight. Earlier, fiction writers Waryam Sandhu and Gurbachan Bhullar as well as playwrights Ajmer Aulakh and Atamjit had taken the lead by returning their awards on Sunday in protest against the 'growing intolerance'.


Indian Express Reports:

Returning the award questions the Sahitya Akademi's authority

Nearly 20 writers of different languages across the country have returned the award now, protesting that the Akademi has failed to perform its duty as the custodian of creative literature in the country.



-- हिंदुस्तान टाइम्स ने ब्योरा यूं दिया हैः


In times when ink is smeared on a face during a book launch, writers are killed and a poor man is lynched for the food he has eaten, celebrated Ludhiana-based Punjabi poet Surjit Patar (70) kept the promise of protest that underlines his verses by returning on Monday the Sahitya Akademi award, which he received in 1993 for his poetry anthology 'Hanere Vich Sulagdi Kavita.'

Poets Jaswinder and Darshan Buttar, and prose writer Baldev Singh Sadaknama have also returned their Sahitya Akademi awards, taking the total number of such writers from Punjab to eight. Earlier, fiction writers Waryam Sandhu and Gurbachan Bhullar as well as playwrights Ajmer Aulakh and Atamjit had taken the lead by returning their awards on Sunday in protest against the 'growing intolerance'.

Patar, also a recipient of the Sarasvati Samman (2009) and Padma Shri (2012), says: "I am returning the award with a heavy heart because it is precious to me, but I am doing so in protest against the killing of writers and thinkers and the guilty escaping with the blessings of corrupt politicians. I am also pained by the silence of the Sahitya Akademi in condemning these acts. I hope the prestigious Sahitya Akademi will play a more meaningful, influential and pro-people role."

"Returning an award is also a form of protest. If need be, we will cross all barriers to save the country from religious fundamentalism," says Jaswinder, who won the award for his ghazal anthology, 'Agarbatti' (Incense stick), in 2014.

Sadaknama's Punjabi novel 'Dhaawaan Dilli De Kingrey' won him the Sahitya Akademi Award in 2011, while Nabha-based Buttar, known as the 'big poet of short poems', had won the national award in 2012 for his anthology of poems, 'Maha Kambani' (The ultimate trembling). The writers also appealed to other litterateurs to join the protest against the 'attack on freedom of expression'.

In solidarity, Chaman Lal, former professor at Jawaharlal Nehru University (JNU), announced in Jalandhar on Monday his decision to return the Hindi translation award of Punjabi poet Paash's collection 'Samay O Bhai Samay', given by the Sahitya Akademi in 2002. He also condemned the murder of Sahitya Akademi award-winner Kannada writer Prof MM Kalburgi.

"I also condemn the insults heaped on Nayantara Sahgal by the Sahitya Akademi president," he added.

Punjabi writer Hardev Chauhan, who writes for children, has returned the award he was given for children's literature by the National Council of Educational Research and Training (NCERT). Chauhan said he was pained by the current communal atmosphere in the country.

Meanwhile, Malayali poet and scholar K Satchidanandan, who is a National Fellow at the Indian Institute of Advanced Studies, Shimla, told HT, "This government is progressing the way Nazis did during Hitler's regime." He said in a democratic country like India, everyone had the right to freedom of speech, as enshrined in the Constitution.

"I am a Hindu and I am proud of it, but my Hinduism doesn't stop me from respecting others religion," he added. Earlier, Satchidanandan, who had a long association with the Sahitya Akademi, had severed all ties with the akademi for not speaking out against the killings of writers.

Senior Sahitya Akademi award-winning writers such as Gurdial Singh, who also won the Jnanpith Award, and Gulzar Singh Sandhu said the writers were adopting a valid method to bring attention to the issue.

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