THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

PalahBiswas On Unique Identity No1.mpg

Friday, March 11, 2016

जाति न पूछो साधो की,जाति से स्थाई है मनुस्मृति राज! इस तिलिस्म को तोडने का मौका फिर हम गवाँने लगे क्योंकि हम आखिरकार रंगबिरंगे बजरंगी हैं! क्योंकि इस वानर जनम में आर्यसभ्यता अब किसी को बोलने या लिखने,सीखने या चीखने की भी आजादी नहीं देगी।हम उसी मनुस्मृति को ही सारी ताकत झोंककर निरंकुश बना रहे हैं। सत्तावर्ग ने लगातार कन्हैया के खिलाफ हमला जारी रखकर पूरी बहस कन्हैया के नायकीकरण और खलनायकीकरण पर या पिर रोहित वेमुला के महिमामंडन या उसकी निंदा की अंध गली में भटका दी है और मनुस्मृति तो बाबासाहेब ने भी जला दिया था,तो वह अब भी जैसे राजकाज का विमर्श और राष्ट्रीयता का आधार है,मुकम्मल अर्थव्यवस्था है नरसंहारी और रंगभेदी,वह सिलसिला टूटते हुए नहीं दीख रहा है। सत्ता वर्चस्व का रसायन यही है।हम हमशक्ल भाइयों के राजकाज में तबाह होते हुए,मारे जाते हुए फिर वही असुर दैत्य,दानव,राक्षस और वानर प्रजाति के लोग हैं। इसी वजह से संघ सत्ता की पैदल फौज में शामिल बहुजनों को बजरंगी होने में बिना पूंछ वानर बनकर रामराज्य के मनुस्मृति शासन से कोई परहेज नहीं है और जाति विमर्श ही हमारा ज्ञान विज्ञान है। मुझे यह कहते हु


जाति न पूछो साधो की,जाति से स्थाई है मनुस्मृति राज!

इस तिलिस्म को तोडने का मौका फिर हम गवाँने लगे क्योंकि हम आखिरकार रंगबिरंगे बजरंगी हैं!


क्योंकि इस वानर जनम में आर्यसभ्यता अब किसी को बोलने या लिखने,सीखने या चीखने की भी आजादी नहीं देगी।हम उसी मनुस्मृति को ही सारी ताकत झोंककर निरंकुश बना रहे हैं।


सत्तावर्ग ने लगातार कन्हैया के खिलाफ हमला जारी रखकर पूरी बहस कन्हैया के नायकीकरण और खलनायकीकरण पर या पिर रोहित वेमुला के महिमामंडन या उसकी निंदा की अंध गली में भटका दी है और मनुस्मृति तो बाबासाहेब ने भी जला दिया था,तो वह अब भी जैसे राजकाज का विमर्श और राष्ट्रीयता का आधार है,मुकम्मल अर्थव्यवस्था है नरसंहारी और रंगभेदी,वह सिलसिला टूटते हुए नहीं दीख रहा है।


सत्ता वर्चस्व का रसायन यही है।हम हमशक्ल भाइयों के राजकाज में तबाह होते हुए,मारे जाते हुए फिर वही असुर दैत्य,दानव,राक्षस और वानर प्रजाति के लोग हैं।


इसी वजह से संघ सत्ता की पैदल फौज में शामिल बहुजनों को बजरंगी होने में बिना पूंछ वानर बनकर रामराज्य के मनुस्मृति शासन से कोई परहेज नहीं है और जाति विमर्श ही हमारा ज्ञान विज्ञान है।


मुझे यह कहते हुए अफसोस है कि इस अंधकूप में इच्छा अनंत छलांग के बावजूद समता और न्याय के सपने से हम बहुत दूर है।



पलाश विश्वास


हम कन्हैयाया,अरविंद केजरीवाल या किसी शख्सियत के बारे में फिक्रमंद नहीं हैं।हम किसी शख्सियत के बारे में न सोच रहे हैं और न हम किसी को महानायक या खलनायक बनाने में यकीन रखते हैं।हमारा ख्वाब है कि कयामत का यह मंजर बदलना चाहिए और आग कहीं भी हो,उस आग को अंधियारा का तिलिस्म जलाकर नये भोर का स्वागत करना चाहिए।


शख्सियत पर फोकस करने से आंदोलन  के मुद्दे बिखर जाते हैं।


सारा फोकस मुद्दो पर होना चाहिए और भूलना नहीं चाहिए कि मुक्त बाजार का सारा कारोबार ब्रांडिंग है और हम मुद्दों के बजाय ब्रांडिंग में उलझेंगे तो शख्सियत के साथ साथ उसकी पहचान,उसकी जाति और उसके मजहब पर बहस घूम जायेगी और जो बहस अभी राष्ट्र और लोकतंत्र,मेहनतकशों और आम जनता के हकहकूक,संविधान और कानून के राज पर शुरु होनी चाहिए,वह कभी नहीं शुरु हो पायेगी।


सत्तावर्ग ने लगातार कन्हैया के खिलाफ हमला जारी रखकर पूरी बहस कन्हैया के नायकीकरण और खलनायकीकरण पर या पिर रोहित वेमुला के महिमामंडन या उसकी निंदा की अंध गली में भटका दी है और मनुस्मृति तो बाबासाहेब ने भी जला दिया था,तो वह अब भी जैसे राजकाज का विमर्श और राष्ट्रीयता का आधार है,मुकम्मल अर्थव्यवस्था है नरसंहारी और रंगभेदी,वह सिलसिला टूटते हुए नहीं दीख रहा है।


समझने वाली बात यह है कि बजरंगी सिर्फ केसरिया नहीं होते।

समझने वाली बात है कि आर्यसभ्यता अनार्यों,असुरों और द्रविड़ो को राक्षस ,दैत्य,दानव, वानर मानती रही है और उनकी पहचान को अमानवीय बनाकर उनके कत्लेआम को मिथकीय धर्म युद्ध में तब्दील करती रही है।


बजरंगी अगर नील हैं तो लाल बजरंगी भी इफरात हैं।


विडंबना है कि अत्याधुनिक तकनीक से समृद्ध भारत के तमाम रंग बिरंगे लोग जैसे डिदजिटल बने,रोबोटिक और बायोमैट्रिक बी बने मुक्त बाजार में अपना वजूद और हैसियत बेहतर बनाकर मनुष्यता विसर्जित करके उपभोक्ता समाज का निरमण करते हुए,वहां न उत्पादन का कोई सिलसिला है और न उत्पादकों और मेहनतकशों कोई वजूद है और ऐसे ही लोग नागरिक होते हुए,मताधिकार होते हुए फालतू कबाड़ है और मुक्तबाजार में उनका वध ही मनुस्मृति धर्म है जो हिंदुत्व का एजंडा है।


रंगभेदी जातिव्यवस्था इस तिलिस्म की नींव है और जाति हमारी न सिर्फ पहचान है ,सर्वोच्च प्राथमिकता है और सच को समझने या पक्ष विपक्ष में खड़े होने का व्याकरण और प्रतिमान,सौंदर्यशास्त्र है।


राष्ट्र और राष्ट्रवाद की नींव भी वही सीढ़ीदार खेती है।जो हमें हरियाली की खूबसूरत चादर लग रही है और उसकी बर्फीली परतों में सिलसिलेवार जहरीली मौत की गहराइयों से हम बेखबर हैं आजभी।


सत्ता वर्चस्व का रसायन यही है।हम हमशक्ल भाइयों के राजकाज में तबाह होते हुए,मारे जाते हुए फिर वही असुर दैत्य,दानव,राक्षस और वानर प्रजाति के लोग है।


इसी वजह से संघ सत्ता की पैदल फौज में शामिल बहुजनों को बजरंगी होने में बिना पूंच वानर बनाकर रामराज्य के मनुस्मृति शासन से कोई परहेज नहीं है और जाति विमर्श ही हमारा ज्ञान विज्ञान है।


मुझे यह कहते हुए अफसोस है कि इस अंधकूप में इच्छा अनंत छलांग के बावजूद समता और न्याय के सपने से हम बहुत दूर हैं।


हमें माफ करें।आदत पुरानी है,जब तक जीते रहेंगे,बकते लिखते रहेंगे।यकीन करें,वह सिलसिला भी बंद होने वाला है।


क्योंकि इस वानर जनम में आर्यसभ्यता अब किसी को बोलने या सिखने या चीखने की भी आजादी नहीं देगी।

हम उसे ही सारी ताकत झोंककर निरंकुश बना रहे हैं।


हमारे बामसेफी मित्रों के अंध जाति विमर्स से मुझे कोफ्त हो रही है बहुत ज्यादा।वे कन्हैया को देख रहे हैं और कन्हैया के साथ उनका भूमिहार परिचय नत्थी करके भारत के वाम विश्वासघात को नजर में रखते हुए वक्त की चुनौती का मुकाबला करने को कतई तैयार नहीं है।


उन्हें छात्र युवाओं की अभूतपूर्व गोलबंदी और बाबासाहेब के मिशन को लेकर चलने की राह दीख नहीं रही है और उन्हें यह भी नहीं दीख रहा है कि भारतीय छात्र युवा आंदोलन का मुख्य मुद्दा जाति उन्मूलन है।


वे यह भी नहीं देख रहे हैं कि जाति और मजहब के नाम पर हैसियत से लेकर सत्ता में भागेदारी करने वाले लोगों ने पिछले सात दशकों में बाबासाहेब के मिशन के नाम पर क्या जोड़ा है और तोड़ा है और वे उन्हीं लोगों के पिछलग्गू हैं।


पुराना इतिहास रटते हुए नया इतिहास वे बनते नहीं देख रहे हैं।दुकानदार बिरादरी से मुझे कुछ लेना देना नहीं है,लेकिन देस भर में जिन ईमानदार समर्पित अंबेडकरी कार्यकर्ताओं से पिछले करीब दस साल से लगातार मेरे संवाद रहा है,वे उस जाति के दायरे से बाहर निकल ही नहीं पा रहे हैं,जो बहुजनों की नर्क जिंदगी की सबसे बड़ी वजह है।अब भी आजादी के नाम पर चंदा जारी है लेकिन आजादी का जो मौका है,उसे देख कर देख भी नहीं रहे हैं।


मेरे पिता के बहुत करीबी मित्र थे स्वतंत्रता सेनानी वसंत कुमार बनर्जी जो बनारस के शहीद मणींद्र नाथ बनर्जी के छोटेन भाई थे।

पिताजी के दूसरे स्वतंत्रता सेनानी मित्र ते बलिया के रामजी राय।दोनों को बंगाली और सिख शरणार्थियों के साथ तराई में पुनर्वास मिला था।बर्मा से आये लोग भी थे।


नैनीताल का तराई वह सपनों का भारत है, जहां हर धर्म जाति भाषा क्षेत्र के लोग बिना भेदभाव साझा परिवार की तरह हर लडाई में साथ साथ रहे  हैं और मेरे पिता उनके नेता रहे हैं।


वही मेरा असल विश्वविद्यालय है जहां भैस की पीठ पर मैंने सवाल हल किये और कीचड़ में धंसकर इतिहास भूगोल अर्थशास्त्र के पाठ सीखे।अंग्रेजी सीखी बैलों,भैंसो और बकरियों से।


वही मेरा भारततीर्थ है।वही से हमें हिमालय की पगडंडियां शुरु होती दिखी और उसी अरण्य का विस्तार हिमालय से लेकर भारत के समद्रतट के मैनग्रोव तक हैं।उसी जंगल की आदिम गंध हमारी सभ्यता है।


मेरे घर बसंतीपुर में स्वतंत्रता सेनानियों की लगातार आवाजाही रही हैं और शहीदे आजम भगतसिंह की मां भी उस घर,गांव में आ चुकी हैं और उनका आशीर्वाद हमें मिला है।


मुंबई नौसेना विद्रोह के तमाम सिाहियों से लेकर नेताजी के साथियों से भी हम लगातार मिलते रहे हैं।


आजादी के उन दीवानों ने कभी इंसानियत को मजहब और जाति के दायरे में बांधकर देखा नहीं है।


तराई में बसे तमाम शरणार्थी ब्राह्मण परिवारों का आज भी मैं बेटा हूं।राजमंगल पांडेय के गांव प्रमेनगर का भी मैं उतना ही बेटा हूं जितना वसंतीपुर का।


पिंटु ठाकुर पिताजी के अभिन्न मित्र थे और उनके परिवार के दो बेटे शंकर और देवप्रकाश चक्रवर्ती के परिवार में मैं आज भी शामिल हूं।


स्कूली दिनों में स्कूल से पहले और बाद में और नैनीताल में पढ़ते हुए चुट्टियों के दिनों में दिनेशपुर में डा.निखिल चंद्र राय के साथ सारा वक्त मैं बीताता था।वे तराई में रंगकर्म के भीष्म पितामह थे जो पेशे से चिकित्सक थे और बंगाल में उत्तम कुमार की तरह ही मशहूर कलाकार विकास राय के भाई भी थे।


निखिल राय का परिवार पचास के दशक से लेकर अबतक रंगकर्म में निष्णात रहा है और उनका पोता सुबीर गोस्वामी फिल्मकार होने के बावजूद तराई और पहाड़ में रंगकर्म का अलख जला रहा है।


मैं पांचवीं पास करने के बाद घंटों उनके क्लीनिक में बिताता था।बंगाल से आनेवाले सहित्य और पत्रिकाओं का खजाना वहां मेरे लिए खुला रहता था और निखिल राय हमें बड़ो के समान मानते रहे हमेशा और हर मुद्दे पर वे गंभीरता से हमारे साथ हमारे बचपन में भी बहस किया करते थे।


खास बात है कि उस परिवार ने ही सबसे पहले तराई में जाति तोड़कर विवाह किये और अब हम रिश्तेदार भी हैं।


वसंत कुमार बनर्जी वाराणसी में बनर्जी परिवार के साथ रखकर मुझे बीएचयू में पढाना चाहते थे और रामजी राय भी यही चाहते थे।

लेकिन हमने नैनीताल में पढ़ने की जिद पकड़ ली थी तो वहां ताराचंद्र त्रिपाठी मिल गये।इलाहाबाद में भी शेखर जोशी का परिवार मेरा बरिवार बन गया।


कम से कम मुझे जो ब्राह्मण मिले वे सारे के सारे समानता और न्याय के पक्ष में मेरी ही तरह लड़ने वाले लोग हैं।


गिरदा और शेकर पाठक बी ब्राह्मण हैं तो सुंद लाल बहुगुणा और राजीव नयन बहुगुमा से लेकर राजा बहुगुणा तक तमाम ब्राह्मण हैं,जिन्होंने हमें हर कदम पर सहयोग दिया है।


मनुष्य अंततः मनुष्य है।जाति धर्म वह जनमजात अपनाता है क्योंकि सामाजिक व्यवस्था उसे जनमते ही एक पहचाने के दायरे में कैद कर देती है।यही मनुस्मृति महिमा है।


जाति पहचान को निर्णायक मानकर हम उसी मनुस्मृति राज को बदलने के मौके बार बार खो रहे हैं और यह खुदकशी है।


नैनीताल समाचार में गिरदा और हमने अपने प्यारे राजीव दाज्यू,हरीश पंत हरुआ दाढ़ी,भगत दाज्यु और बेहद दिल के करीब पवना राकेश की जितनी ऐसी की तैसी की है तमाम प्रयोग आजमाने में,उसीका नतीजा यह हुआ कि 36 साल तक अखबारों की नौकरी करने के बावजूद वैसा प्रयोग करने का न मौका कभी मिला है और न स्पेस।


शेखर पाठक हमेशा हम लोगेों के साथ खड़े होकर बाकी लोगों को हमारी मन की करने की छूट दिलाने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे।


नैनीताल छोड़ने के बाद एक भूमिहार संपादक स्वतंत्रता सेनानी और दैनिक आवाज के संपादक ब्रह्मदेव सिंह शर्मा ने लगातार चार साल तक वे तमाम प्रयोग दोहराते रहने की हमें आजादी दे दी।


ताराचंद्र त्रिपाठी शुरु से लेकर अब तक हमारे दिग्दर्शक रहे हैं तो भूमिहार मदन कश्यप की वजह से जेएनयू के बागी उर्मिलेश की पहल पर हम जो झारखंड पहुंचे तो पत्रकारिता में हमारे गुरुजी ब्रह्मदेव सिंह शर्मा ने सबसे पहले मुझे संपादकीय लिखने के गुर बताये और जैसा मैं चाहता था,वैसे ही अखबार निकालने की आजादी हमें दी।


इसके लिए वे अपने पुराने मित्र और पार्टनर बिहार के बड़े पत्रकार सतीश चंद्र और जनरस मैनेजर रावल जी से लड़ने में  पीछे नहीं हटे,वहीं बंकिम बाबू ने हर कदम पर हमारी मदद की।


जो अखबार झारखंड आंदोलन के खिलाफ था,उसे मदन कश्यप, वीरभारत तलवार और हमने लगातार तमाम प्रयोगों के रिये झारखंड आंदोलन का पक्षधर बनाते चले गये।पेज के पेज रंग देने की आजादी हमें थी।


अगर ब्रह्मदेव सिंह शर्मा और मदन कश्यप नहीं होते तो मैं धनबाद से सीधे यूनिवर्सिटी में निकल जाता ,जो मेरा इरादा था लेकिन एकबार यूनिवर्सिटी छोड़ने के बाद मुझे उस जनन्त में दोबारा दाखिला नहीं मिला।


फिर बड़े अखबारों में आने के बाद नौकरी ही करते रहे,वैसी पत्रकारिता फिर नहीं कर सके।


साल भर वीरेन दा के साथ मिलकर सुनील साह और संपादकीय के दूसरे साथियों के सात मिलकर यूपी के दंगा समय में,खाड़ीयुद्ध समय में भी हमने कुछ पत्रकारिता की होगी।


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