Monday, 02 April 2012 10:29 |
हेमंत शर्मा प्रदेश में राहुल का तीसरा तुरुप का पत्ता रशीद मसूद थे। सब थके-हारे और चुके हुए लोग उनके स्टार प्रचारक थे। इनके बूते कांग्रेस कैसे खड़ी होती? यही वजह थी कि निष्ठावान परंपरागत कांग्रेसी इस अभियान से दूर रहा। मूल कांग्रेसियों के टिकट कट गए। जबकि अवसरवादी, दलबदलू, दगाबाज दादा किस्म के लोग टिकट पा गए। इनमें दो सौ ऐसे थे जो दूसरे दलों से आए थे। बुंदेलखंड में इतनी मेहनत की। सात हजार करोड़ का पैकेज दिया। बनारस में बुनकरों को तीन हजार करोड़ के पैकेज का एलान हुआ। दोनों जगह मिला कर दस हजार करोड़ का पैकेज, लेकिन यहां कांग्रेस दस सीटें भी नहीं जीत सकी। कांग्रेस जिस बुरी तरह बिहार में हारी, वैसे ही उत्तर प्रदेश में भी। तब भी राहुल गांधी के साथ दिग्विजय सिंह थे। तब भी गलत टिकट बंटे थे। तब भी जात-पांत की राजनीति हुई थी। तब भी बाहर से आई आनंद मोहन और पप्पू यादव की बीवियां कांग्रेस की स्टार प्रचारक थीं। राहुल गांधी के चुनाव प्रचार का बांह-चढ़ाऊ अंदाज भी एक-सा था। इसलिए नतीजे भी एक-से रहे। राहुल तभी सबक ले सकते हैं जब वे अपनी टीम बदलें। सोच बदलें। कांग्रेस को उसके स्वाभाविक आधार पर केंद्रित करें। उत्तर प्रदेश में हार के लिए बेनी प्रसाद, दिग्विजय सिंह ही नहीं, कनिष्क और जितेंद्र सिंह जैसे लोग भी जिम्मेदार हैं। कांग्रेस जाति-धर्म से ऊपर की पार्टी मानी जाती थी। पर इस चुनाव में उसने जात-पांत को बढ़ावा दिया। कुर्मी-मुसलमान गठजोड़ बनाने की कोशिश की। यही गलती थी। जाति के इस नए औजार से सपा-बसपा की जातिवादी राजनीति का मुकाबला कांग्रेस नहीं कर सकती। यह अखाड़ा उसके लिए नया है। वह न इधर की रही न उधर की। धर्म की राजनीति कर पार्टी ने अपना सहज आधार खोया। मुसलिम आरक्षण के एलान ने अगड़ी जातियों के साथ-साथ पिछड़ों को भी नाराज किया। यह जोखिम मोल लेने के बावजूद कांग्रेस मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से नहीं तोड़ सकी। पहले की तरह मुसलिमों की स्वाभाविक पसंद सपा निकली। करिश्मे की राजनीति का दौर अब गया। किसी भी दल को जनता के बीच जाकर समस्याओं से टकराना होगा। दस जनपथ की चहारदीवारी के भीतर से राजनीति शायद अब न चले। जनता समझती है। उत्तर प्रदेश के सामने रोज एक नई समस्या है। उसका मुकाबला 'परिवार' नहीं करता। परिवार सत्ता की मलाई तो खाता है, मगर सरकार पर आने वाली आंच का सामना करने को कोई तैयार नहीं है। अब परिवार के आधिपत्य को साबित करने के लिए पार्टी को सरकार के सामने आए संकट का मुकाबला करना पड़ेगा। दूसरी बड़ी वजह है, कांग्रेस में क्षत्रपों का कमी। किसी जमाने में हर सूबे में कांग्रेस के मजबूत क्षत्रप हुआ करते थे। उनका नेतृत्व राज्यों में आकर्षण रहता था। अब क्षत्रप नहीं हैं। कांग्रेस क्षेत्रीय नेतृत्व को पनपने का मौका नहीं देती। 'परिवार' को इसमें असुरक्षा का खतरा बराबर बना रहता है। यही वजह है कि चुनाव में जब पार्टी हारती है तो परिवार की साख पर बट््टा लगता है। हिंदीभाषी इलाकों में कांग्रेस को जीवंत करने के लिए पार्टी नेतृत्व को जनाधार वाले क्षत्रप पैदा करने होंगे। उत्तर प्रदेश और बिहार में जनता और पार्टी के बीच बड़ी खाई है जिसे पाटना होगा। सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल, बेनी प्रसाद, दिग्विजय सिंह जैसे राजनीतिकों से काम नहीं चलना है। इनका बड़बोलापन मतदाताओं की सामूहिक बुद्धिमत्ता को चुनौती देता है। कभी अण्णा-रामदेव के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल, कभी प्रधानमंत्री को बूढ़ा कहना, कभी चुनाव के दौरान राष्ट्रपति शासन लगाने की बात कहना। इन नेताओं के ऐसे बयानों ने मतदाताओं को चिढ़ाया। इस हार से सबक लेना होगा। अपनी कमियों पर विचार करना होगा। क्योंकि कांग्रेस में अगर गांधी परिवार की साख गई तो बचेगा क्या? बिखराव शुरू होगा। कांग्रेस का यह प्रथम परिवार ही पार्टी की एकजुटता की गारंटी है। लोकसभा चुनाव की चुनौती दस्तक देने लगी है। सोनिया गांधी बीमार हैं। राहुल गांधी की बंद मुट्ठी खुल चुकी है। आजादी के बाद पहली बार पार्टी के सामने ऐसा संकट है। क्योंकि कांग्रेस में राजनीति जनसेवा नहीं है, राजनीतिक जागीरदारी है, जिस पर पुश्तैनी वारिसों का दावा पहला होता है। |
Monday, April 2, 2012
करिश्मे की विदाई
करिश्मे की विदाई
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