THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA

THE HIMALAYAN TALK: PALASH BISWAS TALKS AGAINST CASTEIST HEGEMONY IN SOUTH ASIA INDIA AGAINST ITS OWN INDIGENOUS PEOPLES

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Monday, April 2, 2012

करिश्मे की विदाई

करिश्मे की विदाई


Monday, 02 April 2012 10:29

हेमंत शर्मा 
जनसत्ता 2 अप्रैल, 2012: चुनाव में हार-जीत लगी रहती है, लेकिन हाल के चुनावी नतीजों ने पहली दफा कांग्रेस के प्रथम परिवार की साख पर बट्टा लगा दिया है। हिंदुस्तान में राजनीति दांव-पेच से ज्यादा साख पर चलती है इसलिए कांग्रेस के सामने यह हार से भी ज्यादा बड़ा संकट है। राहुल अगर कांग्रेस की उम्मीदों के आखिरी चिराग थे तो प्रियंका तुरुप का पत्ता थीं। उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों ने दोनों के करिश्मे की पोल खोल दी। सोनिया गांधी, प्रियंका और उनके दो बच्चों ने मिल कर रायबरेली और अमेठी में वोट मांगे थे। परिवार की तीन पीढ़ी एक साथ उतरी थी। बंद मुट्ठी खुल गई और इस कुनबे को अपने ही कूचे से बेआबरू होकर लौटना पड़ा। रही-सही कसर उत्तराखंड में हरीश रावत ने पूरी कर दी, पार्टी में सोनिया गांधी की कमान को चुनौती देकर। ऐसा इस प्रभावशाली कुनबे के साथ पहली दफा हुआ है। सवा सौ साल पुरानी पार्टी की विरासत क्या सचमुच बिखर गई है!
डूबती कांग्रेस के लिए राहुल गांधी एक संभावना हो सकते थे। पर दिग्विजय सिंह सरीखे गुरुओं ने उन्हें गटक लिया। राहुल गांधी कांग्रेस के भविष्य हैं। उनके सिवाय कोई और कांग्रेस का भविष्य नहीं हो सकता। मनमोहन सिंह समेत कांग्रेस के सभी नेता इस अंतिम सत्य को समझते रहे हैं। फिर अब तो सोनिया गांधी बीमार हैं। इसलिए लोकसभा चुनावों को देखते हुए नुकसान का आकलन ज्यादा है।
वैसे भी कांग्रेस संक्रमण के दौर से गुजर रही है। सोनिया गांधी से नेतृत्व राहुल के पास आते ही उस पूरी पीढ़ी के हाथ से सत्ता फिसलेगी जो अभी सोनिया गांधी की टीम में हैं, या उनके सलाहकार हैं। राहुल गांधी की नई टीम के पास सत्ता और ताकत होगी। पुरानी पीढ़ी इसे आसानी से पचा नहीं पाएगी। इस टकराव का भी नुकसान पार्टी को ही होना है। इस स्थिति से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जूझ रही है। वहां परंपरागत कांग्रेसी हाशिए पर हैं। कांग्रेस संगठन की जगह राहुल की नई टीम बूथवार प्रबंधन में लग चुकी है। जो नेता कांग्रेस के स्टार प्रचारक थे, ऐसे बेनी प्रसाद वर्मा, रशीद मसूद जैसे लोग भी बाहर से ही आए थे। उसका वहां नुकसान भी हुआ।
'परिवार' के आभामंडल के क्षरण का नमूना देखिए। दो सौ ग्यारह विधानसभा क्षेत्रों में राहुल गांधी ने रैलियां कीं। पचास से ज्यादा रोड शो हुए। दर्जन भर से ज्यादा गरीबों के घर रात बिताई और खाना खाया। पर नतीजा? जिन गांवों में गरीबों के घर चारपाई पर रात बिताई वहां की सीटों पर भी हार गए। वजह, पार्टी उन गरीबों के सम्मान से खेली। उन गरीबों को नुमाइशी तौर पर पेश किया गया। राहुल की फौज पूरे तामझाम के साथ उनके घर गई। फिर देश भर में उनकी नुमाइश हुई। इस देश का गरीब उदार है। वह आपको खाना खिलाएगा। पर अपनी सियासी किस्मत का फैसला करने का अधिकार आपको नहीं देगा। क्योंकि उसकी गरीबी को आपने चुनावी औजार की तरह इस्तेमाल किया।
पर कांग्रेस उत्तर प्रदेश की इस हार से सबक लेने को तैयार नहीं है। अब कांग्रेस के रणनीतिकार यह तर्क दे रहे हैं कि राज्य और केंद्र के चुनावों की स्थितियां और मुद््दे अलग-अलग होते हैं। इसलिए राज्य के चुनावों में भले हमारी दुर्दशा हुई हो, पर केंद्र के लिए लोग हमें ही वोट देंगे। भले कांग्रेस नेतृत्व के संकट से गुजर रही हो, पर केंद्र के लिए मुगालता पाले हुए है। उनकी दलील है कि अभी हमारी तैयारी नहीं थी। जबकि पांच साल से राज्य में तैयारियां चल रही थीं। हर इलाके में राहुल गांधी के चिंतन शिविर लगे। बुंदेलखंड पैकेज बना। पूर्वी उत्तर प्रदेश का बुनकर पैकेज बना। युवक कांग्रेस की बूथ कमेटियां राहुल गांधी की देखरेख में बनीं।
उत्तर प्रदेश में राहुल ने युवक कांग्रेस का सांगठनिक ढांचा बदल दिया। चुनाव कराके युवा कांग्रेसियों को आपस में लड़ा दिया। इसका असर चुनाव में साफ दिखा। भट््टा पारसौल, टप्पल, संजारपुर तक की सामूहिक तीर्थयात्राएं कांग्रेसियों ने कीं। कुर्मी-मुसलमान गठजोड़ पर पार्टी के सवा सौ टिकट बंट गए। मुसलिम आरक्षण के जरिए पार्टी पहली दफा धर्म की राजनीति के अखाडेÞ में उतरी। फिर भी उत्तर प्रदेश की जबर्दस्त हार पर सोनिया और राहुल की सफाई थी कि वहां संगठन नहीं था। इसलिए भीड़ वोट में नहीं बदली जा सकी। इस दलील में कितना दम है? 
इसी 'कमजोर' संगठन ने लोकसभा की बाईस सीटें कांग्रेस को दी थीं। अमेठी और रायबरेली में क्यों हारे? यहां का संगठन तो सीधे दस जनपथ से बनता और चलता है। बूथ स्तर पर एक-एक कार्यकर्ता का नाम राहुल के लैपटाप में दर्ज है। उन्होंने कांग्रेस को कार्यकर्ताओं के बीच ले जाने के लिए जो मुहिम छेड़ रखी है इसमें दो साल से प्रखंड और बूथ स्तर से चुना हुआ संगठन ही तो बना था। यह दूसरी बात थी कि यह समांतर संगठन था और इससे नाराज मुख्य संगठन चुनावों में निष्क्रिय था।
राहुल गांधी की दूसरी दलील यह है कि टिकट गलत बंटे। पिछले तीन साल से वे विधानसभा-क्षेत्रवार लोगों को बुला कर टिकट का फैसला खुद ले रहे थे। टिकट लेने वालों की भीड़ अकबर रोड के कांग्रेस मुख्यालय में नहीं, राहुल गांधी के तुगलक लेन के दफ्तर में थी। हां, यह जरूर है कि उत्तर प्रदेश की कांग्रेस या प्रदेश के पार्टी के बडेÞ नेताओं से राय न लेकर सिर्फ दिग्विजय सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा की बात टिकटों के मामले में राहुल ने मानी। वे यह भूल गए कि जिन दिग्विजयी कंधों के हवाले उन्होंने उत्तर प्रदेश को छोड़ा   है उन्हीं ने मध्यप्रदेश में पार्टी का सूपड़ा दो बार साफ कराया। मध्यप्रदेश में पार्टी की हार की जिम्मेदारी भी दिग्विजय सिंह ने ली थी। बिहार में तो कांग्रेस सरकार बनाने निकली थी, पर सिर्फ चार सीटें मिलीं। अब उत्तर प्रदेश में भी पार्टी की हार की जिम्मेदारी दिग्विजय सिंह ने ली है। लगता है कि पार्टी को हरवाने की जिम्मेदारी इन्हीं की है।

राहुल गांधी की दूसरी गलती बेनी प्रसाद वर्मा को पिछड़ा तोप मानने की थी, जिनके जरिए वे सपा-बसपा के ओबीसी-किले को ध्वस्त करने का भरोसा पाले थे। पर बेनी प्रसाद चली हुई कारतूस निकले। राहुल गांधी ने बाराबंकी और बहराइच की सभा में यहां तक कहा कि बेनी प्रसाद हमारे गुरु हैं। हमने इनसे बहुत कुछ सीखा है। उन्हें नहीं पता था कि इन्हीं बेनी प्रसाद ने 2007 का पिछला विधानसभा चुनाव अयोध्या से लड़ा और सिर्फ तीन हजार वोट पाए थे।  
प्रदेश में राहुल का तीसरा तुरुप का पत्ता रशीद मसूद थे। सब थके-हारे और चुके हुए लोग उनके स्टार प्रचारक थे। इनके बूते कांग्रेस कैसे खड़ी होती? यही वजह थी कि निष्ठावान परंपरागत कांग्रेसी इस अभियान से दूर रहा। मूल कांग्रेसियों के टिकट कट गए। जबकि अवसरवादी, दलबदलू, दगाबाज दादा किस्म के लोग टिकट पा गए। इनमें दो सौ ऐसे थे जो दूसरे दलों से आए थे। बुंदेलखंड में इतनी मेहनत की। सात हजार करोड़ का पैकेज दिया। बनारस में बुनकरों को तीन हजार करोड़ के पैकेज का एलान हुआ। दोनों जगह मिला कर दस हजार करोड़ का पैकेज, लेकिन यहां कांग्रेस दस सीटें भी नहीं जीत सकी। 
कांग्रेस जिस बुरी तरह बिहार में हारी, वैसे ही उत्तर प्रदेश में भी। तब भी राहुल गांधी के साथ दिग्विजय सिंह थे। तब भी गलत टिकट बंटे थे। तब भी जात-पांत की राजनीति हुई थी। तब भी बाहर से आई आनंद मोहन और पप्पू यादव की बीवियां कांग्रेस की स्टार प्रचारक थीं। राहुल गांधी के चुनाव प्रचार का बांह-चढ़ाऊ अंदाज भी एक-सा था। इसलिए नतीजे भी एक-से रहे। राहुल तभी सबक ले सकते हैं जब वे अपनी टीम बदलें। सोच बदलें। कांग्रेस को उसके स्वाभाविक आधार पर केंद्रित करें। उत्तर प्रदेश में हार के लिए बेनी प्रसाद, दिग्विजय सिंह ही नहीं, कनिष्क और जितेंद्र सिंह जैसे लोग भी जिम्मेदार हैं। कांग्रेस जाति-धर्म से ऊपर की पार्टी मानी जाती थी। पर इस चुनाव में उसने जात-पांत को बढ़ावा दिया। कुर्मी-मुसलमान गठजोड़ बनाने की कोशिश की। यही गलती थी। 
जाति के इस नए औजार से सपा-बसपा की जातिवादी राजनीति का मुकाबला कांग्रेस नहीं कर सकती। यह अखाड़ा उसके लिए नया है। वह न इधर की रही न उधर की। धर्म की राजनीति कर पार्टी ने अपना सहज आधार खोया। मुसलिम आरक्षण के एलान ने अगड़ी जातियों के साथ-साथ पिछड़ों को भी नाराज किया। यह जोखिम मोल लेने के बावजूद कांग्रेस मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से नहीं तोड़ सकी। पहले की तरह मुसलिमों की स्वाभाविक पसंद सपा निकली। 
करिश्मे की राजनीति का दौर अब गया। किसी भी दल को जनता के बीच जाकर समस्याओं से टकराना होगा। दस जनपथ की चहारदीवारी के भीतर से राजनीति शायद अब न चले। जनता समझती है। उत्तर प्रदेश के सामने रोज एक नई समस्या है। उसका मुकाबला 'परिवार' नहीं करता। परिवार सत्ता की मलाई तो खाता है, मगर सरकार पर आने वाली आंच का सामना करने को कोई तैयार नहीं है। अब परिवार के आधिपत्य को साबित करने के लिए पार्टी को सरकार के सामने आए संकट का मुकाबला करना पड़ेगा।
दूसरी बड़ी वजह है, कांग्रेस में क्षत्रपों का कमी। किसी जमाने में हर सूबे में कांग्रेस के मजबूत क्षत्रप हुआ करते थे। उनका नेतृत्व राज्यों में आकर्षण रहता था। अब क्षत्रप नहीं हैं। कांग्रेस क्षेत्रीय नेतृत्व को पनपने का मौका नहीं देती। 'परिवार' को इसमें असुरक्षा का खतरा बराबर बना रहता है। यही वजह है कि चुनाव में जब पार्टी हारती है तो परिवार की साख पर बट््टा लगता है। हिंदीभाषी इलाकों में कांग्रेस को जीवंत करने के लिए पार्टी नेतृत्व को जनाधार वाले क्षत्रप पैदा करने होंगे।  
उत्तर प्रदेश और बिहार में जनता और पार्टी के बीच बड़ी खाई है जिसे पाटना होगा। सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल, बेनी प्रसाद, दिग्विजय सिंह जैसे राजनीतिकों से काम नहीं चलना है। इनका बड़बोलापन मतदाताओं की सामूहिक बुद्धिमत्ता को चुनौती देता है। कभी अण्णा-रामदेव के खिलाफ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल, कभी प्रधानमंत्री को बूढ़ा कहना, कभी चुनाव के दौरान राष्ट्रपति शासन लगाने की बात कहना। इन नेताओं के ऐसे बयानों ने मतदाताओं को चिढ़ाया। 
इस हार से सबक लेना होगा। अपनी कमियों पर विचार करना होगा। क्योंकि कांग्रेस में अगर गांधी परिवार की साख गई तो बचेगा क्या? बिखराव शुरू होगा। कांग्रेस का यह प्रथम परिवार ही पार्टी की एकजुटता की गारंटी है। लोकसभा चुनाव की चुनौती दस्तक देने लगी है। सोनिया गांधी बीमार हैं। राहुल गांधी की बंद मुट्ठी खुल चुकी है। आजादी के बाद पहली बार पार्टी के सामने ऐसा संकट है। क्योंकि कांग्रेस में राजनीति जनसेवा नहीं है, राजनीतिक जागीरदारी है, जिस पर पुश्तैनी वारिसों का दावा पहला होता है।

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